फ़ॉलोअर

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

जम्मू से पकडे गये नावेद के बारे में कुछ बातचीत

ख़ासा स्मार्ट, परिवार या पास-पड़ौस के ही शरारती लड़के जैसा किशोर, अभी मसें भी नहीं भीगीं, मीठी मुस्कराहट बिखेरता चेहरा और उदगार " मैं यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूं, मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है " ये वर्णन जम्मू के नरसू  क्षेत्र में बीएसएफ की एक बस पर ताबड़तोड़ फायरिंग के बाद गांव वालों की साहसिक सूझ-बूझ से दबोचे गये एक आतंकवादी का है। उसके जैसा ही एक हत्यारा मारा भी गया। इस पाकिस्तानी आतंकी की कई स्वीकारोक्तियों के अनुसार उसका नाम क़ासिम ख़ान या उस्मान या नावेद...ऐसा कुछ है और उसकी आयु भी 16 वर्ष से 20 वर्ष के बीच कहीं है। ये शायद वो भारतीय न्यायव्यवस्था के समक्ष अपने को नाबालिग़ बताने के लिए कर रहा है। 

भारत आकर ऐसी स्वीकारोक्ति करने वाले इस पाकिस्तानी आतंकवादी के मानस को समझना इस लिये भी आवश्यक है कि उसने कहा है " मैं यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूं, मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है "। उसके कथन के दो भाग हैं। पहला " मैं यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूँ " यानी आप होंगे जाटव, कुर्मी, राजपूत, यादव, जाट, बाल्मीक, ब्राह्मण, बनिये इत्यादि कोई भी मगर आपको मारने आने वाले दुश्मन को आपकी वो असली पहचान पता है जिसे आप जान कर भी नहीं जानना चाहते। आप अपनी नज़र में पिछड़े, अन्त्यज, अनुसूचित, सवर्ण कोई तीसमारखां हों मगर उसके और उसकी सोच वालों के लिये आप सब एक हैं। वो यहाँ जम्मू के डोगरे, पंजाबी, गुजरती, मराठी, तमिल, तेलगू, मलयाली, कन्नड़, बिहारी, असमी, नगा, मणिपुरी, बंगाली इत्यादि प्रान्त के किसी निवासी को मारने नहीं आया। न ही वो बाल्मीक, यादव, जाटव, ब्राह्मण, गूजर, राजपूत,  जाट, वैश्य,  तेली इत्यादि किसी जाति के व्यक्ति को मारने आया है। वो हिन्दुओं को मारने आया है। यहाँ क्या ये सवाल अपने आप से पूछना उचित और आवश्यक नहीं है कि दुश्मन के लिये आप सब एक हैं तो आप सब आपस में एक क्यों नहीं हैं ? एक इस्लामी आतंकी की दृष्टि में हम सब जातियों में बंटे समाज नहीं है बल्कि हिन्दू हैं तो हम इससे निबटने के लिये केवल और केवल हिन्दू क्यों नहीं हैं ?

दूसरे उसने कहा है " मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है " अर्थात ये एक विक्षिप्त उन्मादी का ही किया एक काम भर नहीं है अपितु लगातार की जा रही घटनाओं की एक अटूट श्रंखला है। वो पाकिस्तान से आया है। भारत का विभाजन कर बनाये गये देश पाकिस्तान में करोड़ों हिन्दुओं ने वहीँ रहने को प्राथमिकता दी थी। इस नरपिशाच के "मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है" से मतलब ये है कि ये और उसके जैसे राक्षसों को पाकिस्तान में ऐसा करते रहने का अभ्यास है। आख़िर " मज़ा आता है " कथन इस बात का द्योतक है कि उसके लिये ये एक अनवरत प्रक्रिया है। बंधुओ ! पाकिस्तान में करोड़ों हिन्दू छूटे थे। विभाजन के बाद पाकिस्तानी जनसँख्या में हिन्दुओं का प्रतिशत दहाई के आंकड़ों में था।  अब पाकिस्तान अपनी जनसंख्या में हिन्दू 1 प्रतिशत से भी कम क्यों दिखता है ? हमारे वो सारे भाई कहाँ गये ? उनका क्या हाल हुआ ? इस और इस जैसे इसके साथी लोगों ने पाकिस्तान में बचे हिन्दुओं की क्या दुर्दशा की ? आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का बहुत प्रसिद्द कथन है "साहित्य समाज का दर्पण है" आइये इस दर्पण को देखते हैं। पाकिस्तान के शाइर रफ़ी रज़ा साहब का एक शेर देखिये। 

तलवार तो हटा मुझे कुछ सोचने तो दे 
ईमान तुझ पे लाऊँ कि जज़िया अदा करूँ 

कोई सामान्य घटना शेर में नहीं ढलती। ये करोड़ों लोगों के साथ हुआ व्यवहार है जिसे रफ़ी रज़ा साहब ने बयान किया है। यही वो व्यवहार है जिसके कारण विश्व भर में इस्लाम का प्रसार हुआ है। आतंक एक उपकरण है और इसका प्रयोग इस्लाम में अरुचि रखने वालों को डराने और इस्लाम की धाक जमाने के लिये किया जाता है। बंधुओ ये जम्मू में हुई एक घटना भर नहीं है बल्कि सैकड़ों वर्षों से अनवरत चली आ रही घटनाओं की अटूट श्रंखला है। अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर एक पहाड़ का नाम ही हिन्दू-कुश है। इस शब्द का अर्थ है वो स्थान जहाँ हिन्दू काटे गये। अफ़ग़ानिस्तान हिन्दू क्षेत्र था और उसका इस्लामी स्वरूप अपने आप नहीं आया है। ऐसे ही हत्यारे वहां भी कार्यरत रहे हैं और उनके लगातार प्रहार करते रहने, राज्य के इन बातों पर ध्यान न देने, इन दुष्टों पर भरपूर प्रहार करके इन्हें नष्ट न करने का परिणाम अफ़ग़ानिस्तान का वर्तमान स्वरुप है। पाकिस्तान के ख़ैबर-पख्तूनख्वा क्षेत्र के चित्राल जनपद में कलश जनजाति समूह रहता है। ये बहुदेव-पूजक दरद समूह के लोग हैं। दरद योद्धाओं का वर्णन महाभारत में मिलता है। दुर्योद्धन के लिये कर्ण ने जो विजय यात्रा की है उसमें दरद लोगों से कर लेने का उल्लेख है। इस क्षत्रिय जाति के लोग महाभारत में कौरवों के गुरु कृपाचार्य के नेतृत्व में लड़े थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी इनका उल्लेख है। अर्जुन की सेना में ये लोग साथ थे। ईरान सहित ये सारा क्षेत्र महाराज चन्द्र गुप्त मौर्य के शासन क्षेत्र के किनारे का नहीं अपितु मध्य का भाग रहा है। ये लोग भारत-ईरानी मिश्रित मूल की भाषा कलश बोलते हैं। पड़ौस के देश अफ़ग़ानिस्तान के पूर्वी प्रदेश नूरिस्तान जिसे पहले काफ़िरिस्तान कहा जाता था, के निवासी भी इसी भाषा को बोलते थे। उनकी भी संस्कृति हमारी तरह बहुदेव पूजक थी। 1895 में यहाँ के निवासियों को ऐसे ही नृशंस हत्यारों ने मुसलमान बनाया और यहाँ की भाषा, संस्कृति, मान्यताओं को बलात बदला। ज्ञान-शौर्य से चमचमाते माथों वाला यह समाज-क्षेत्र, आज मुसलमान हो चुका है और तालिबान की ख़ुराक बन कर विश्व को जिहाद, आतंक, अशांति का संदेश दे रहा है। 

 बंधुओ ! ये बदलाव एक दिन में नहीं आये। ये सब कुछ सायास सोची-समझी गयी कट्टरता का परिणाम है। आख़िर आत्मघाती दुःसाहस अनायास नहीं हो सकता, निरंतर नहीं हो सकता, सदियों नहीं हो सकता। इसकी तह में जाना, इससे जूझने, निबटने की योजना बनाना सुख-चैन से रहने के लिये आवश्यक है। ये आतंकी स्पष्ट रुप से यहां आने का कारण बता रहा है कि " मै यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूं " । कोई बुरे से बुरा हत्यारा भी अकारण हत्याएं नहीं करता। उनकी हत्या नहीं करता जिन्हें वो जानता ही नहीं है। अनदेखे व्यक्तियों पर हमला कौन सी मानसिकता का व्यक्ति कर सकता है ? ऐसे हमले भारत, भारतवासियों पर ही नहीं विश्व भर में सैकड़ों वर्षों से हो रहे हैं। इसका प्रारम्भ इस्लाम की इस मनमानी सोच से हुआ है कि ख़ुदा एक है, उसमें कोई शरीक नहीं है, मुहम्मद उसका अंतिम पैग़म्बर है। जो इसको नहीं मानता वो काफ़िर है और काफ़िर वाजिब-उल-क़त्ल हैं।

इस विचारधारा का जन्म मक्का में हुआ था और मुहम्मद जी ने अपनी ये सोच मक्का वासियों को मनवाने की कोशिश की। उन्होंने नहीं मानी और मुहम्मद जी के प्रति कड़े हो गए तो मुहम्मद जी भाग कर मदीना चले गए। वहां शक्ति जुटा कर सैन्य बल बनाया और फिर इस्लाम के प्रारंभिक लोगों से ही इन संघर्षों का बीज पड़ा। प्रारम्भिक इस्लामी विश्वासियों ने ही ये हत्याकांड मक्का-मदीना से प्रारम्भ करते हुए इसका दायरा लगातार बड़ा किया था, बढ़ाया था। मुहम्मद और उनके बाद के चार ख़लीफ़ाओं ने इसकी व्यवस्था की कि ऐसा अनवरत चलता रहे और इस्लाम का तलवार से प्रसार होता रहे। परिणामतः कुछ लाख की आबादी के तत्कालीन अरब में चालीस साल में हज़ारों अमुस्लिमों का नरसंहार हुआ और चार में से तीन खलीफा की हत्या हुई । इस्लाम का प्रारंभिक खिलाफत का दौर, तथाकथित स्वर्णिम काल मनुष्यता  का काला युग था। उन लोगों ने आतंक का उपयोग कर लोगों को धर्मान्तरित किया। उसी दौर को विश्व भर में लाने के प्रयास फिर से चल रहे हैं। 
 
इस हत्यारी सोच के बीज मूल इस्लामी ग्रंथों में हैं। क़ुरआन, हदीसों में अमुस्लिम लोगों की हत्या करने, उन्हें लूटने के अनेकों आदेश हैं। ऐसे हत्यारों को मारे जाने पर जन्नत मिलने और वहां ऐश्वर्यपूर्ण जीवन  आश्वासन भी इन्हीं ग्रंथों में हैं। कुछ उल्लेख दृष्टव्य हैं। 

काफिरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
ओ मुसलमानों तुम गैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { 9-123 }
और तुम उनको जहां पाओ कत्ल करो { 2-191 }
ऐ नबी !  काफिरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है { 9-73 और 66-9 }
अल्लाह ने काफिरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आखिरत पर; जो उसे हराम नहीं जानते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे जलील हो कर जजिया न देने लगें { 9-29 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और गलत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110  }
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये ने जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है { 5-72 }
मुझे लोगों के खिलाफ तब तक लड़ते रहने का आदेश मिला है, जब तक ये गवाही न दें कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा काबिले-इबादत नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है और जब तक वे नमाज न अपनायें और जकात न अदा करें [ सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या 33 }

अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब, याक़ूब मेमन, नावेद, बोको हराम और आई एस आई एस के आतंकी  सब एक ही श्रंखला के राक्षस हैं। ये उसी हत्यारे दर्शन   में विश्वास रखते हैं और वही कर रहे है जो इनके प्रारम्भिक लोगों ने किया था और भारत में जिसकी शुरुआत हिन्द-पाक के मुसलमानों के चहेते हीरो मुहम्मद बिन कासिम ने की थी। इस हत्यारे आक्रमणकारी ने इस्लामी इतिहासकार के ही अनुसार 60 हज़ार लोगो (महिलाओं सहित) बंदी बनाया।  मुहम्मद बिन कासिम ने इस्लामी कानून के मुताबिक़ लूट का 1/5 हिस्सा दमिश्क में खिलाफत निजाम को भेजा और बाकी मुस्लिम फौज में बांटा { reference- al-Baladhuri in his book The Origins of the Islamic State }। आज अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब, याक़ूब मेमन, नावेद जो कर रहे हैं वो उनकी ही नहीं इस्लाम की दृष्टि में भी जन्नत का मार्ग खोलने का काम है। कई मुसलमान बड़े आराम से यह कह देते है ये या बोको हराम, आई एस आई एस के लोग जो कर रहे हैं वह इस्लाम नहीं है। बंधुओ ये केवल तब तक सायास बोला जाने वाला झूट है जब तक खुल कर कहने और सारे अमुस्लिम समाज को समाप्त करने का अवसर नहीं आ जाता। 

ऐसी हत्यारी सोच ज्ञान के प्रकाश से समाप्त हो सकती थी अतः सावधान इस्लामी आचार्यों ने ज्ञान-विज्ञान को इसी लिये वर्जित घोषित कर दिया। 900 साल पहले मौलाना गजाली ने गणित को शैतानी ज्ञान बता कर वर्जित कर दिया था। अब उसी पथ पर आगे बढ़ते हुए अल-बग़दादी के ख़िलाफ़त निज़ाम ने PHILOSOPHY और CHEMISTRY पढने पर प्रतिबंध लगा दिया है। कोढ़ में खाज ये है कि पाकिस्तान की उजड़ी-बिखरी राजनैतिक स्थितियां, देश में आयी मदरसों की बाढ़, सऊदी अरब-क़तर से उँडेले जाते खरबों पेट्रो डॉलर ऐसे संगठनों के लिये अबाध भर्ती की परिस्थितियां बनाते हैं। इस या इस जैसी विचारधारा को चुनौती न देने के परिणाम व्यक्ति, देश और सम्पूर्ण मानवता हर स्तर पर भयानक होते हैं। अभी कुछ दिन पहले दुबई की एक घटना के बारे में जानना उपयुक्त होगा। एक पाकिस्तानी मूल का परिवार समुद्र में नहाने के लिये गया। 20 वर्ष की बेटी गहरे पानी में फंस गयी। रक्षा-कर्मी दल के लोग बचाव के लिये बढे तो उसके पिता ने उन्हें यह कह कर रोक दिया। ग़ैर मर्द बेटी को छुएं इससे तो बेहतर है कि वो डूब कर मर जाये। वो लड़की मर गयी। ये मृत्यु उसके पिता के कारण नहीं हुई है। ये मृत्यु इस्लाम की सोच के कारण हुई है। इसका पाप इस्लाम के सर है। 

अंत में प्रेस के वाचालों, कोंग्रेसियों, सैक्यूलरवाद की खाल ओढ़े वामपंथियों भेड़ियों का एक सामान्य दावा भी परखना चाहूंगा। इन ढपोरशँखोँ के अनुसार आतंकियों का कोई मज़हब नहीं होता ? चलिये मान लेते हैं, वाक़ई नहीं होता होगा मगर क्या कीजिये कि हम सबने अमरनाथ यात्रा पर घात लगा कर आतंकी हमले देखे-सुने हैं, मंदिरों पर हमले देखे-जाने हैं। क्या कभी किसी ने कभी हजयात्रियों पर आतंकी हमला सुना है ? क्या वाक़ई आतंकियों का कोई मज़हब नहीं होता ? वो सारे शरीर के बाल उतरवा कर अपनी समझ से ग़ुस्ल, नमाज़ अदा कर नास्तिकता के पथ पर जाने के लिये या इस्लाम छोड़ने के लिये निकलते हैं ? 

ये सारे काम हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान से संचालित हो रहे हैं।  ज़ाहिर है पाकिस्तान हमारा पड़ौसी देश है और हम पड़ौसी बदल नहीं सकते। हम पड़ौसी को गाँधीवादी मार्ग पर चलते हुए उसकी चौखट पर फूल तो रख सकते हैं और बंधुओ ऐसी स्थितियों में फूल भेंट करने की सर्वोत्तम जगह क़ब्र है। ये भयानक, लोमहर्षक बदला लेने, उसकी योजना बनाने का क्षण है। यहाँ एक सवाल नावेद को पकड़ने वाले लोगों से भी करना है। क्या आपके घर में कोई चाक़ू, पेंचकस, हथौड़ा नहीं था। एक हत्यारा आतंकी समूचा-साबुत पुलिस को कैसे मिल गया ? आपसे उसके हाथ पैरों में 10-20 छेद नहीं किये गये ? उसके दोनों हाथ के अंगूठे नहीं काटे गये ? उसे पता तो चले चोट क्या होती है ? दर्द क्या होता है ? इस रास्ते पर अगले बढ़ने वाले को भी ये ध्यान रहे भारतीय केवल बिरयानी ही नहीं खिलते, ख़ून के आंसू भी रुलाते हैं।  

 तुफ़ैल चतुर्वेदी         

1 टिप्पणी:

  1. इस शोध पूर्ण लेख के लिए, नीद में नहीं बल्कि अपनी खोखली परम्पराओं,अन्धविश्वासों एवं अहमन्यता के नशे में मदहोश हिन्दू समाज को आईना दिखाने का कार्य करने वाले जाग्रत प्रहरी हिन्दू समाज आपका सदैव ऋणी रहेगा। प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं