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शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

साहित्य अकादमी के पुरस्कृत साहित्यकारों में से कुछ के अकादमी पुरस्कार लौटाने की फांय-फांय

साहित्य अकादमी केंद्र सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय के अधीन लगभग अर्ध स्वायत्त संस्था है। आज कल साहित्य अकादमी के द्वारा पुरस्कृत साहित्यकारों में से कुछ के अकादमी पुरस्कार लौटाने की चर्चा हो रही है। ये पुरस्कार इन स्वयंभू प्रगतिशील लोगों के अनुसार एम एम कलबुर्गी की हत्या, बिसाहड़ा गांव में अख़लाक़ के पीट-पीट कर प्राण लिये जाने, जिसका कारण वो देश में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के संकुचित होते दायरे और वैचारिक मतभेद के प्रति बढ़ती असहिषुणता को मानते हैं, के विरोध में लौटाये गए हैं। इनकी शुरूआत जवाहर लाल नेहरू की भांजी और अंग्रेज़ी की लेखिका नयन तारा सहगल से हुई। अगला वार अशोक वाजपेयी ने किया। इस पथ पर उदय प्रकाश, गणेश देवी, गुलाम नबी ख़याल, रहमान अब्बास, कृष्णा सोबती, सारा जोज़फ़, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, गुरुबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख जैसे कई लोग चल निकले हैं। कश्मीर के 25 साहित्यिक संगठनों की संस्था अदबी मरकज़ के अध्यक्ष शुजाअत बुख़ारी भी इसमें कूद पड़े और उन्होंने भी कालबेलिया नृत्य किया । अतः अब आवश्यक है कि साहित्य अकादमी के कार्यों, इन प्रगतिशीलों लेखकों, कश्मीरी लेखकों की प्रगतिशीलता, इनके लिखे हुए साहित्य की पठनीयता और देश में बढ़ रही तथाकथित असहिषुणता की निष्पक्ष छानफटक की जाये। 


साहित्य अकादमी केंद्र सरकार की साहित्य के उत्थान के लिये बनी संस्था है। ये वार्षिक पुरस्कार देती है और अपने पुरस्कृत व्यक्ति की कृति का देश की चौबीस भाषा में अनुवाद कर, देश भर में फैले अपने केन्द्रों से बिक्री कराती है। पुरस्कार के लिये इन कृतियों को अकादमी के विद्वान चुनते हैं। अकादमी के विद्वानों को साहित्य अकादमी के सदस्य चुनते हैं। अकादमी के सदस्य चुने जाने का नियम है कि प्रदेशों से नाम भेजे जाते हैं और अकादमी के वर्तमान सदस्य { कृपया ध्यान रखियेगा } उनको अनुमोदित करते हैं तो ही वह सदस्य बन पाते हैं। अर्थात अकादमी में बैठे सदस्य ही नए सदस्य बना सकते हैं।

 
जवाहर लाल नेहरू तथा उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के काल में इस तरह की सारी संस्थाओं में तथाकथित प्रगतिशील यानी कम्युनिस्ट भर दिए गये थे। अतः इन सदस्यों के चले आ रहे कॉकस को तोड़ना असंभव ही था चूँकि ये वामपंथियों को ही लाते थे। ये एक जेब से पैसा निकाल कर दूसरी जेब में रख लेने जैसा काम था और दशकों चलता रहा। काल ने अंततः सहायता की और आयु अधिक हो जाने के कारण इसके सदस्य रिटायर होने शुरू हुए। तब तक नेहरूवादी प्रगतिशीलता का मुलम्मा भी उतरने लगा था। इंदिरा गांधी भी कम्युनिस्टों के वानरी-उत्पातों से तंग आ गयी थीं इसलिये धीरे-धीरे कम्युनिस्टों का वर्चस्व कम होने लगा। रही-सही क़सर साम्यवाद के गढ़ रूस के ध्वस्त हो जाने से पूरी हो गयी मगर पुराने क़ब्ज़े अब भी कुछ हद तक थे ही। सरकार में बैठे आत्मीय लोगों की कृपा से फ़ैलोशिप, अपनी या अपनी बेटी-बेटों की संस्थाओं की आर्थिक सहायता, सेमिनारों के नाम पर अपने लोगों को महिमामंडन और उनकी पांच-तारा व्यवस्था का भुगतान सरकार के मत्थे मारना चलता रहा। 

त्यागपत्र देने वाले ये लेखक तथाकथित प्रगतिशील यानी कम्युनिस्ट हैं। कम्युनिस्ट वो लोग हैं जिन्होंने भारत के विभाजन के लिए पाकिस्तान के पक्ष में अधिकारिक थीसिस लिखी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भारत को आक्रमणकारी और चीन को सही ठहराया। भारत की व्यवस्था ठप्प हो जाये इसके लिये मज़दूर यूनियनों के माध्यम से हड़ताल करवाने की कोशिश की। अंतर्मन से घोर देशद्रोही, कभी रूस के लेनिन-स्टालिन तो कभी चीन के माओ की ढपली बजने वाले लोग अपने को प्रगतिशील कैसे कह सकते हैं ? लेनिन, स्टालिन, माओ जैसे अपने ही देश के करोड़ों लोगों को मार डालने वाले हत्यारों का महिमामण्डन एक हत्यारी सोच का विषैला मानस ही कर सकता है। ये कुछ-कुछ किसी दुश्चरित्र महिला का अपने को समाज की विशिष्ट सेवा करने वाला समाजसेवी बताने जैसा है। 

आइये कुछ पैने प्रश्न पूछे जाएँ। अंग्रेज़ी की बिलकुल अज्ञात लेखिका नयनतारा सहगल को अंग्रेज़ी नॉवल के लिये साहित्य अकादमी का पुरस्कार 1986 में मिला। एम एम कलबुर्गी की हत्या पर पुरस्कार वापस करने की घोषणा करने वाली अंग्रेज़ी लेखिका इसी हत्या पर क्यों बोलीं ?  इन्हें अपकी ममेरी बहन के लगाये आपात्काल का विरोध करना क्यों नहीं सूझा ? 1975 से 1977 तक आपात्काल में दमन की जो भयानक चक्की भारत भर में चली तब ये मौन क्यों थीं ? क्यों इन्हें 1984 में भारत के विभिन्न नगरों में हुए सिख विरोधी दंगों ने आहत नहीं किया ? जिसके बारे में इनके भांजे राजीव गांधी ने कहा था "जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है"।  इन्हें स्वर्ण मंदिर के बाहर डी आई जी अटवाल सहित हज़ारों निर्दोषों के मार दिए जाने के बारे में कुछ कहना क्यों नहीं सूझा ? इन्हें 1992 में कश्मीर घाटी से मार कर भगा दिए गए हिन्दुओं का करुण क्रंदन क्यों सुनाई नहीं दिया ? क्यों इन्हें मुंबई की लोकल में ट्रेनों में हुए धमाके सुनाई नहीं दिये ? कश्मीर के साहित्यिक संगठनों की संस्था अदबी मरकज़ के अध्यक्ष शुजाअत की शुजाअत तब कहाँ थी जब नंदी-मर्ग में, चट्टीसिंहपुरा में निहत्थे हिंदू मार दिए गए। इन्हें 26-11 का मुंबई पर हमला नहीं दिखाई दिया ? इनमें से कोई भी ऐसी हज़ारों आतंकी घटनाओं पर क्यों नहीं बोला ? क्या सबके मुंह में दही जम रहा था ? मुंह खोलते ही जिसके बिगड़ जाने का ख़तरा था ? उदय प्रकाश, गणेश देवी, गुलाम नबी ख़याल, रहमान अब्बास, कृष्णा सोबती, सारा जोज़फ़, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, गुरुबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख जैसे लोगों की वाणी की तब स्वतंत्रता कहाँ चली गयी थी ?

अशोक वाजपेयी की कथा तो और अधिक अद्भुत है। ये मध्य प्रदेश काडर के आई ए एस अधिकारी थे। मध्य प्रदेश में कार्यरत रहते हुए इन्होंने सरकारी संसाधनों से स्वयं को साहित्यकार के रूप में स्थापित किया। भारत भवन को लगभग अशोक वाजपेयी भवन में बदला। इनके मध्य प्रदेश कार्यकाल का साहित्यिक दृष्टि से जो सबसे बड़ा पाप है वो स्वर्गीय शरद जोशी जी को भोपाल छोड़ने पर विवश करना है। क्षुद्र शत्रुतावश इन्होंने इस पातक के लिये सरकारी पद का दुरुपयोग किया। उस महान व्यंग्यकार की रचनायें कहीं न छप सकें, उन्हें कहीं से पारिश्रमिक न मिल सके, उन्हें किसी आयोजन में बुलाया न जा सके, की व्यवस्था की। लेखनी से जीविका कमाने वाले शरद जोशी जी के भूखा मरने की नौबत आ गयी थी। अशोक वाजपेयी के शत्रुता निभाने के कारण अंततः शरद जोशी जी को भोपाल छोड़ कर मुंबई जाना पड़ा। एक निहत्थे निर्धन लेखक पर अपने गिद्ध जैसे पैने पंजे गड़ाने वाले ये सूरमा भोपाल गैस कांड पर बिलकुल मौन साधे रहे। जब राजीव गांधी के संकेत पर मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह बीस हज़ार निरपराध लोगों की मृत्यु के दोषी एंडरसन को  देश से भगाने का षड्यंत्र रच रहे थे, तब ये अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक उनका महामस्तकाभिषेक कर रहे थे। जानकारी के लिए दर्ज करता चलूँ कि अशोक वाजपेयी सांस्कृतिक मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे हैं और साहित्य अकादमी सांस्कृतिक मंत्रालय के ही अधीन है। आपको जान कर अपार आनंद मिलेगा कि महामहिम को अपनी किताब पर अकादमी पुरस्कार सांस्कृतिक मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए ही मिला है। इस पद पर रहते हुए इन्होंने अपनी क़तई अपठनीय बल्कि अझेल नई कविता की किताब पर पुरस्कार का जुगाड़ लगाया। इनकी ख़ुराफ़ातों के कारण ही सांस्कृतिक मंत्रालय के तत्कालीन सचिव सीताकांत महापात्र ने इनकी चरित्र पंजिका में विपरीत टिप्पणी की। जिसके कारण ये संयुक्त सचिव नहीं बन पाये और इन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। ये बरसों जनसत्ता में साप्ताहिक कॉलम लिखते रहे हैं। इनके कॉलम का गद्य भी इनकी नई कविता की तरह उबाऊ, नीरस और अझेल होता था। किसी माई के लाल में साहस नहीं हुआ कि इनका कोई लेख पूरा पढ़ ले। इन्हें भी भारत में घटित किसी भी भयानक घटना की जानकारी कभी नहीं मिली। इन्हें इस्लामी आतंकवादियों के सैकड़ों हमले कभी नहीं दिखाई दिए। इन्हें आतंकवादियों के हाथों मारे गये नागरिकों, सैन्य बल के जवानों की विधवाओं का करूण क्रंदन नहीं सुनाई दिया। इन्हें केवल तथाकथित तार्किक कालबुर्गी की अतार्किक हत्या दिखाई दी। 

सारा जोज़फ़ अपनी हैं और आप पार्टी के टिकिट पर इन्होने 2014 के लोकसभा का त्रिशूर से चुनाव लड़ा था। वाणी स्वतंत्रता की इस मुँहबोली नेत्री की आवाज़ समाज ने इतनी उपयुक्त पाई कि इन्हें कुल पड़े वोटों का 4.48 % ही उपलब्ध हुआ। ये किसी को मुंह दिखने के लायक भी नहीं रहीं और ज़मानत ज़ब्त करवाने वालों में भी 6 नंबर पर आयीं। 

इन लेखकों के रोष के दूसरे कारण अख़लाक़ के गौहत्या  कारण हुई पीट-पीट कर मार डाले जाने तथा गौहत्या की गंभीरता पर भी चर्चा करनी आवश्यक है। गौ-हत्या हमारे लिये इतनी बड़ी घटना है कि भारत भर में हमारे पूर्वज इसको रोकने के लिये सैकड़ों वर्षों से अपनी जान पर और हत्यारों की जान से खेलते आये हैं। बहुसंख्य बादशाहों, सुल्तानों ने हिन्दुओं को अपमानित, प्रताड़ित करने के लिये गौ-हत्या करने के आदेश दिये थे। इतिहास में सैकड़ों जगह दर्ज है कि हिन्दूओं को मुसलमान बनाने के लिये मुस्लिम आतताइयों ने हमारे मुंह में गौ मांस ठूसा था। कूका पंथ के हज़ारों लोग गौरक्षा के लिये तोप के गोलों से भून दिये गये हैं। कुछ मुस्लिम बादशाहों ने हिन्दुओं को अपने पक्ष में करने के लिये गौ-हत्या रोकने के आदेश दिए थे।1857 का दावानल गाय की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से खोलने के आदेश के कारण ही भड़का था। जिसकी भयानक ज्वाला में हज़ारों अँगरेज़, लाखों भारतीय, अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र का नाम मात्र का शासन, ईस्ट इण्डिया कंपनी के निज़ाम सहित भस्म हो गया। वेद का आदेश है कि गौ-हत्या करने वाले पातकी के प्राण ले लो। हिन्दू समाज के लिये ये बहुत बड़ी बात है। हम में से बहुत से लोगों के लिये तो ये जीवन-मरण का प्रश्न है।

आपको इख़लाक़ द्वारा गौहत्या नहीं दिखाई दी। ये आपके लिये खानपान का ही मामला है तो बहुत से हिन्दुओं के लिये ये मार-मिटाने का मामला है। आपको ये तक न सूझा कि अखलाक़ के वध की किसी भी रिपोर्टिंग में अख़लाक़ की गांव के लोगों से जानी-दुश्मनी का ज़िक्र नहीं है। गांव में सांप्रदायिक तनाव की भी कहीं चर्चा नहीं है। अख़लाक़ सामाजिक दृष्टि से भी इतना बड़ा, महत्वपूर्ण नहीं था कि साम्प्रदायिकता से भरे हुए हिन्दुओं की भीड़ मुसलमानों को सबक़ सीखने के लिये अकारण उसका वध कर दे। अख़लाक़ के वध को झक मार कर अकारण हत्या ही माना जाना सकता था मगर ''क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का सिद्धांत'' तो न्यूटन 1687 में ही प्रतिपादित कर गए थे। बरसों से शांत चले आ रहे गांव में सहसा प्राण लेने जैसी घटना अकारण नहीं हो सकती।

आप ये तक नहीं देख पाये कि ऐसी सोच के समाज में रहने वाला अख़लाक़ इतने भयानक परिणाम देने वाले पाप के लिये उत्सुक कैसे हो गया ? ये बहुत गंभीर बात है और इसकी छानफटक होनी चाहिए ? किसने धर्मान्तरित भारतीयों को अपने ही मूल से नफ़रत करना, अपने सदियों के संस्कारों को नकारना, अपने स्रोत-अपने उत्स पर थूकना सिखाया है ? आखिर अख़लाक़ सहित सभी भारतीय मुसलमान कुछ पीढ़ी पहले हिंदू ही थे। इसके पूर्वज भी उसी तरह गौ-रक्षक थे जैसे गौ-हत्यारों का वध करने वाले असंख्य वीर हैं। इन धर्मान्तरित लोगों में अपने मूल संस्कारों से इतनी घृणा कैसे आ गयी कि वो गौ-रक्षक से गौ-हत्यारे बन गये ? मुस्लिम नेतृत्व के चर्चित नाम दारुल उलूम नदवा के अली मियां और ऐसे अनेकों मुस्लिम नेता गाय की क़ुरबानी इस लिये उपयुक्त और आवश्यक बताते हैं कि ये उनके हिसाब से कुफ़्र मिटने के लिये अनिवार्य है। आप कभी भी इन दुष्टों की निंदा का प्रस्ताव तक नहीं तैयार कर पाये। अपने कभी एक बयान तक अभारतीयता उपजाने के विरोध में नहीं दिया। 

निश्चित रूप से भारत में न्याय-प्रणाली है और किसी को क़ानून अपने हाथ में लेने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए मगर इसे क्या कहिये कि देश के अस्सी प्रतिशत लोगों के बीच में रहने वाले लोगों के नेतृत्व और उनके निर्देश पर चलने वालों को बहुसंख्यक समाज की मनोदशा की चिंता नहीं है। तो ऐसी प्रतिक्रिया को कैसे रोका जा सकता है ? ध्यान रहे कि गौहत्या करने वाले पातकी के प्राण लेने वाले को तो समाज पूजता है। टोहना-हरियाणा के पूज्य हरफूल जाट के बारे में आज भी लोकगीत गाये जाते हैं। इन्हें अंग्रेज़ों ने कसाईखाने नष्ट करने के आरोप में फांसी दी थी। वो गौहत्या रोकने के लिये बलिदान हो गए मगर इतिहास में अमर हो गए।

वैचारिक परिवर्तन एक पल में नहीं होते। शताब्दियों से धर्मान्तरित मुसलमानों को कट्टर बनाने के लिये तब्लीग़ी जमातें इस घृणा को फ़ैलाने में लगी हैं। मदरसे, भारतीय का मुस्लिम नेतृत्व भारत के मुसलमानों को अपनी हर परम्परा से नफ़रत करना सिखाता है। इन्हीं करतूतों के फलस्वरूप इख़लाक़ गाय की क़ुरबानी कर बैठा। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में गौ-हत्या पर प्रतिबन्ध है। क़ानून तोड़ने वाले को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने 45 लाख रुपये का पुरस्कार दे दिया है। मायावती भी अख़लाक़ के परिवार का 11 लाख का तिलक करवा चुकी हैं। त्यागपत्र देने वाले महान लेखकों आप अगर अपने लिखे के अलावा भी कुछ पढ़ते होंगे तो  ये सब बातें आपने समाचारपत्रों में पढ़ी ही होंगी ? साहब जी, आप इतने मौन क्यों रह गए जैसे गोद में सांप रक्खा है और हिलना मना है। आप क्यों भारत तोड़ने पर उतारू समाज, संस्थाओं, लोगों के एजेंट बन गए हैं ? आख़िर आपको क्या हो गया है जो अपने ही थप्पड़ मार कर गाल लाल कर रहे हैं ? आपका पुरस्कार राशि लेने, राष्ट्रीय समाचारपत्रों में चर्चित होने, अपनी पुस्तकों का 24 भाषाओं करा कर अपने आप को स्थापित कराने के बाद पुरस्कार लौटने की घोषणा करना कैसे समझा जाये ? ये किसी धूर्त के दावत पेट भर कर खाने के बाद अगली सुबह ये घोषणा करने के बराबर है कि मैं तुम्हारी दावत नहीं रखूँगा और शौचालय में खाया-पिया निकाले दे रहा हूँ 

तुफ़ैल चतुर्वेदी                              

                

8 टिप्‍पणियां:

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  2. ही बात पर ध्यान देने योग्य भी है कुछ बातें ----हिंदी को क्या लाभ जो लोग आज अपने बल पर
    पत्रिका निकाल रहे है और स्वयं पत्रिका को लेकर लोगों तक पहुच रहे है तो क्या उन का भी स्वार्थ होगा, पहले हिंदी को व्यापक तो बनाए ऐसा ना हो हिंदी अस्तित्व के लिए लडती रहे और कहने सुनने वालों को फर्क ही ना पड़े
    अखंड- भारत एक छोटी सी कोशिश कर रही है, स्वार्थ केवल इतना है , स्वयं तिरोहित हो कर ही सही पर लिखने वाला भूखा ना मरे आज मेरे देश में, हिंदी साहित्यिक पुस्तकें केवल लेखक वर्ग द्वारा ही

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  3. अति सुंदर एवं सराहनीय लेख।

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  4. अति सुंदर एवं सराहनीय लेख।

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  5. चोरों की दाढ़ी में तिनके दिखने लगे है , देशद्रोही अपनी मौत खुद मरने लगे हैं.........

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  6. इतनी बढ़िया जानकारी के लिए धन्यवाद

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  7. " देश के हालात बहुत खराब हो गए हैं .. नेहरू (सेक्युलर्स) को अपना मुल्क चाहिए और जिन्नाह (साहित्यकार) अपना मुल्क मांग रहे हैं .. लगता है #लिटरेचरिस्तान अस्तित्व में आने वाला है "

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  8. मुनव्वर ने खुद को दलदल में उतार ही लिया ठीक वैसे ही जैसे कि श्री श्री रविशंकर कुछ समय के लिए राजनीति में उतर आये थे और मैल लगवाकर वापस चले गए !! मुनव्वर अपने “मां” के लिए कहे गए शेरों के कारण इतने पापुलर हैं कि जाति और धर्म की सीमाओं से बहुत बहुत ऊपर दिखाई पड़ते थे !!! माँ लफ्ज़ पर कहा गया हर शेर हिन्दू मुसलमान जैसे छोटे दायरों से बहुत ऊपर का होगा ही !! जो इन्होने आज किया है वो इनकी खुद की अजमत को घटाने जैसा है !!
    अब मामले का राजनैतीकरण हो चुका है और मीडिया में इसे कवरेज मिल रही है ऐसे में –सम्मान वापस करने वालो की लाइन लगी हुई है सभी चाहते हैं कि मीडिया इंटरव्यू वगैरह के नाम पर ही इस वक्त कुछ नाम और दाम मिल जाए –कुछ चर्चा हो जाय –वगरना प्रश्रय देने वाली सरकार तो ४-५ वर्ष के लिए विदा हो चुकी है !!
    मुनव्वर ने बहुत कोशिश की !!! खुद को सुलहे -कुल और कौमी यक्ज़हती की सीमा रेखा पर बहुत दिन खड़े रक्खा !! लेकिन अंततोगत्वा वो अपने भीतर के फिरकापरस्त और अपने इर्द गिर्द रहने वाले फिरकापरस्तो के दवाब के आगे झुक गए !! कुछ रोज़ पहले वो सम्मान वापस करने वालो की आलोचना कर रहे थे और इनको थके हुए लोगों में शुमार कर रहे थे !!
    आज से ११५ बरस पहले हमारे देश में एक अदीब हुए थे –अल्लामा इकबाल जिनका गीत “” सारे जहां से अच्छा ... आज भी सभी की जुबां पर है !! यही इकबाल हिन्दुस्तान के हीरो थे लेकिन उन्होंने भारत के बजाय मुस्लिम कौम का रहबर बनना जियादा पसंद किया – उनके शेर –कौम की जुबां पर चढ़ गए --
    जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोजी
    उस खेत के हर गोशा ए गंदुम को जला दो –इकबाल
    सवाल ये है कि जो देश का रहबर हो सकता था उसको कौम का रहबर बनना उचित लगा या मुफीद दिखा –पाकिस्तान में निर्माण में लियाकत अली खान या मुहम्मद अली जिन्ना से जियादा अल्लामा इकबाल का योगदान है क्योंकि प्रथाकतावाद का मानस उन्होंने ही तैयार करवाया !!! आज अगर भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश ये तीन टुकडे इस देश के न हुए होते तो आज मुसलमानों के हाथ में इस देश की बागडोर यकीनन होती !!
    सच ये है कि कम से कम इनको तो इन छद्म ढोंगियों के समूह से खुद को दूर रखना था !!! लेकिन मुनव्वर को इमोशनल ब्लैकमेलर कहते हुए न थकने वाले आज उनका स्वागत ऐसे कर रहे हैं जैसे कि आज उनकी घर वापसी हुई हो !!!
    आ ही जाता है तसव्वुर से ज़मी पर शायर
    आलमे ख़्वाब किताबों में पडा रहता है –मयंक

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