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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद तरुण तेजपाल की ऐबदारी

पिछले एक पक्ष से मिडिया में अजीब सा ऊधम मचा हुआ है. तरुण तेजपाल नाम के स्वनामधन्य सज्जन { सवनाम धन्य इस लिये कि लगभग खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद वो तारुण्य के पराक्रम में संलिप्त दिखे } के कृत्यों पर समाज उद्वेलित है और भर्त्सना की बात है कि साहित्यिक जगत और मीडिया के वामपंथी और राष्ट्र विरोधी logपिछले एक पक्ष से मिडिया में अजीब सा ऊधम मचा हुआ है. तरुण तेजपाल नाम के स्वनामधन्य व्यक्ति { सवनाम धन्य इस लिये कि लगभग खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद वो तारुण्य के पराक्रम में संलिप्त दिखे } के कृत्यों पर समाज उद्वेलित है और भर्त्सना की बात है कि साहित्यिक जगत और मीडिया के वामपंथी और राष्ट्रविरोधी लोग इस दुष्कर्म को कम आंकने, कम दिखाने, कम महसूस कराने में लगे हैं.

प्रिंट तथा इलेकट्रोनिक मीडिया के लोग निजी बातचीत में यहाँ तक चर्चा कर रहे हैं कि धुंआ अपने आप नहीं निकलता. वो लड़की भी कुछ न कुछ पैमाने पर दोषी है. इस काम में अंग्रेज़ी के चैनलों और अख़बारों के साथ हिंदी के कुछ महारथी भी शरीक हैं. जिनमें सर्वप्रमुख जनसत्ता का संपादक मंडल और उसके लेखक हैं. यहाँ विशेष रूप से महात्मा गांधी हिंदी संस्थान की पत्रिका हिंदी समय के भूतपूर्व संपादक राज किशोर जी अग्रणी हैं. उनके दो लेख इस विषय पर जनसत्ता में पिछले दिनों छपे हैं. पहले लेख में उन्होंने तरुण तेजपाल के 6 माह के संपादन को छोड़ने और क्षमा मांगने को महत्व देते हुए इस विषय को अब शांत कर देने की मार्मिक अपील ब्रॉडकास्ट की और नये लेख में उन्होंने तरुण तेजपाल को कलाकार मानते हुए इन शब्दों में उसका स्वस्ति-गान किया है. ' पत्रकारिता एक कला है और तरुण तेजपाल हमारे समय के उल्लेखनीय कलाकार हैं. उनके काटे हुए कई लोग आज भी बिलबिला रहे हैं.' उनके वाक्य का अंतिम टुकड़ा बता रहा है कि राजकिशोर जी किस लिये तरुण तेजपाल का अपराध कम करने के लिये कोशिश कर रहे हैं. क्या विशेष विचारधारा { इसे राष्ट्रवाद का विरोध पढ़ा जाये } के लिये काम करना किसी का अपराध कम कर देता हैं. तरुण स्टिंग ऑपरेशन के महारथी रहे हैं. उनकी शैली रही है कि पहले वातावरण तैयार करो. शेर के सामने बकरी बांधो, शेर को बकरी खाने के लिये फुसलाओ और फिर हाहाकार मचाओ कि शेर ने बकरी खा ली. बंगारू लक्ष्मण जैसे सरल लोग उनके इन षड्यंत्रों का शिकार हुए हैं. 

इस विषय को थोडा विस्तार में देखने की ज़ुरूरत है. कवि, लेखक, संगीतकार, चित्रकार, मूर्तिकार, राजनीतिज्ञ, मीडिया के लोग यानी समाज में अपनी प्रभावी उपस्थिति दिखा पाने, दर्शा पाने वाले लोग सदा-सर्वदा से इन दुष्कर्मों में संलिप्त रहे हैं. शेक्सपियर की मृत्यु सिफ़लिस से हुई थी. आस्कर वाइल्ड के कृत्यों को सारा साहित्यिक जगत जानता है. छायावाद की प्रमुख नेत्री, फ़िराक़ गोरखपुरी अपने प्रसंगों के लिये चर्चित रहे हैं. केनेडी, जवाहर लाल नेहरू, अय्यूब ख़ान के बारे में दुनिया जानती है. इन लोगों में यश, पद, प्रभाव का प्राचुर्य था और लोग इनकी ओर आकर्षित होते थे. इसका ही परिणाम ये कानाफूंसियां थीं. 

मगर यहाँ एक पेंच है और ये पेंच बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है.  इन लोगों ने कभी इस हाथ दे और उस हाथ ले जैसा कुछ नहीं किया. ये कभी ' आज मेरी गाड़ी में बैठ जा ' या  ' आती क्या खंडाला ' जैसा प्रस्ताव देते धरे नहीं गये. गोवा के 5 सितारा होटल में किया गया काण्ड स्टिंग ऑपरेशन नहीं था. वहाँ किसी शेर के सामने बकरी बाँध कर उसे फुसला कर बदनाम करने का षड्यंत्र नहीं किया गया था बल्कि ये  एक धूर्त व्यक्ति का अपने पद के दुरुपयोग का उदाहरण है.  तरुण का कृत्य अपने पद के दबाव में स्त्री अस्मिता को रौंद देने का है. किसी सामान्य व्यक्ति के द्वारा भी ये काम किया जाता तो निश्चित रूप से प्रताड़नीय और दंडनीय होता ही होता मगर यहाँ तो मामला एक लड़की को अपने पद के दवाब में कुचल डालने का है. उस पर तुर्रा ये कि तुम्हारे पास अपनी नौकरी बचाने का ये ही एक मात्र रास्ता है. 

इसी रौशनी में मैं एक प्रश्न इस घटना को कम करके आंकने वाले, कम दिखाने  वाले महानुभावों से करना चाहूंगा. अगर इस लड़की कि जगह उनकी बेटी या बहन होती तो क्या तब भी वो बलात्कारी को कलाकार मानते और क्षमा करने की बात करते. अगर हाँ तो मैं 6  माह के लिये लफ्ज़ का संपादन छोड़ने और सहर्ष क्षमा मांगने के लिये तैयार हूँ. बताइये कब और कहाँ भेंट की जाये.

तुफ़ैल चतुर्वेदी 

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