{ संभव है मेरी पोस्ट चली-चलायी आ रही मान्यताओं से टकराये। मेरा निवेदन है कृपया चिंतन कर कोई राय बनाइएगा }
पिछले कोई एक पक्ष से टीपू सुल्तान को ले कर मीडिया में ख़ासा हंगामा चल रहा है। गिरीश कर्नाड जैसे लोग ''टीपू को अगर वो हिन्दू होता तो शिवा जी के समतुल्य कहलाता'' ठहरा रहे हैं। गिरीश कर्नाड कम्युनिस्टों के टुकड़ख़ोर हैं या मुसलमानी कबाब-परांठे के चक्कर में ऐसा कर रहे हैं, को एक तरफ़ रख कर इसकी पड़ताल करते हैं। उसे राष्ट्रद्रोही मानने वालों के पास तथ्य और तर्क हैं कि टीपू ने हिंदुओं को बहुत सताया था। उन्हें बड़े पैमाने पर मुसलमान बनाने के लिए उन पर अत्याचार किये थे। टीपू को महान देशभक्त बताने वालों का तर्क है कि वो अंग्रेज़ों से लड़ा था, इसलिये वो देशभक्त कहलाने योग्य है।
आपको या मुझे ऐतराज़ हो तो हो मगर देशभक्ति की जो परिभाषा 1947 में विभाजन के बाद बचे देश में तय हुई है वो तो यही कहती है। आख़िर नाना फड़नवीस, बहादुर शाह ज़फ़र, रानी लक्ष्मी बाई और ऐसे ही न जाने कितने लोग देशभक्त इसी आधार पर तो कहलाते हैं कि वो अंग्रेज़ों से लड़े या अंग्रेज़ उनसे लड़े। चाहे उनकी दृष्टि में देश उनके क़िले तक सीमित व्यवस्था हो, चाहे उन्होंने अपनी प्रजा के हितरंजन के नाम पर धेला काम न किया हो। मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि मुग़ल सत्ता को ढेर कर देने वाले मराठों के वंशज आख़िर में मुग़लों से कैसे हाथ मिला बैठे ? छत्रपति शिवजी की हिंदू पदपादशाही के नामलेवा परम्परा बहादुरशाह का चँवर डुलाना कैसे हो गयी ?
मेरी इस परिभाषा से घोर असहमति है और मैं इस बेतुकी सोच पर मुखर आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूँ और एक प्रश्न रखता हूँ। क्या स्वास्थ्य बीमारी के अभाव का नाम है ? मेरी दृष्टि में स्वास्थ्य एक विधायक तत्व है और बीमारी का अभाव स्वास्थ्य का होना नहीं है। मैं रो नहीं रहा हूँ तो इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं गाना गा रहा हूँ। पतझड़ न होने का मतलब बहार नहीं होता। क्या अँगरेज़ का विरोध या उसका साथ देशभक्ति की कसौटी है ? यही वो चूक है जो सदियों से भरतवंशियों से हो रही है और जिसमें बदलाव किये बिना देश, राष्ट्र की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।
आइये 1857 के संघर्ष से ही विचार शुरू करते हैं। भारत के विभिन्न भागों में इस संघर्ष के अनेक कारण थे। अभी केवल दिल्ली पर बात करते हैं। दिल्ली ये युद्ध में अंग्रेज़ों के साथ नाभा, पटियाला, मालेरकोटला जैसे पचासों हिंदू-मुस्लिम राज्यों की सेनाएं थीं। दिल्ली की शुरूआती लूट मिली ही पटियाला को थी और उन्होंने मुग़लों की ज़बरदस्त कांट-छांट की। पंजाब के सिख उस समय अंग्रेज़ों के साथ दिल्ली पर इस लिये टूट पड़े थे कि 'गुरुओं के हत्यारों, साहिबज़ादों के हत्यारों से बदला लेने के अवसर मिला। साहिब जी मेरी नज़र में तो उन्होंने मुग़ल सत्ता की तेरहवीं करके बिल्कुल भी देशद्रोह नहीं किया। आख़िर मुग़लों की सत्ता को वापस स्थापित करने में वहाबी जी-जान से लगे थे। कांग्रेस और वामपंथियों के पार्टी-प्रचार के लिये लिखे जाने वाले इतिहास के बावजूद सच तो सामने ही है। ये हमारे पूर्वजों से जज़िया लेने वाले राक्षसों के वंशज थे। इसी शासन ने तो हमारे राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, काशीविश्वनाथ जैसे हज़ारों मंदिर तोड़े थे। इसी समूह ने हमारे पूर्वजों पर अकथनीय अत्याचार किये थे। सारा मध्यकालीन मुस्लिम इतिहास स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखित किताबों में भयानक बलात्कारों, लूटपाट, आगज़नी से भरा पड़ा है। हमारे पूर्वजों की चीख़ें, कराहें, आहें आज भी बिलखती-सिसकती हिसाब मांगती हैं। उस सत्ता को वापस लाना कैसे देशभक्ति का कार्य है ? कृपया कोई बताये कि 1947 में मुग़ल सत्ता को वापस लाने का प्रयास करने वाले और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले कैसे देशभक्त हैं ?
आइये इसी कसौटी को दूसरी तरह से देखा जाये। गांधी पल्टन के अथक प्रयासों के बावजूद भरतवंशियों के हृदयों पर राज करने वाला चर्चित राष्ट्रगीत ''वन्दे मातरम'' बंकिम चंद चटर्जी की किताब वन्दे मातरम का हिस्सा है। उपन्यास का कथानक और ऐतिहासिक विवरण यह है कि ढाका का नवाब हिन्दुओं को बहुत सताता था। उसके ख़िलाफ़ सन्यासियों के एक समूह जिसे उपन्यास में संतान दल कह कर पुकारा गया है, ने स्थानीय समाज के साथ मिल कर विद्रोह किया। अंग्रेज़ों ने भी हवा दी और नवाबी ढेर कर दी गयी। संतान दल के पास व्यवस्था करने का कोई तरीक़ा नहीं था अतः नवाब की जगह अँग्रेज़ों ने व्यवस्था अपने हाथ में ली। देशभक्ति की इस विचित्र कसौटी के अनुसार वन्दे मातरम अंग्रेज़ सत्ता के मित्रों अर्थात देशद्रोहियों का गीत ठहरता है।
इस देश में देशभक्ति और देशद्रोह की कसौटी जब तक इसके मूल राष्ट यानी हिन्दुओं का हित-अहित नहीं होगा तब तक ऐसे ही विचित्र निष्कर्ष निकाले जाते रहेंगे। भारत देश केवल और केवल भरतवंशियों का है। उनका हित ही देश का हित है। उनका अहित ही देशद्रोह कहलाता है और यही कसौटी का आधार है। इसी कसौटी के आधार पर हिन्दुओं का संहार करने वाला टीपू सुल्तान राष्ट्रद्रोही राक्षस है। जब तक ये कसौटी आपके-मेरे चिंतन, शिक्षा, व्यवस्था का आधार नहीं बनती भारत का हित-अहित स्पष्ट नहीं हो सकता परिणामतः इतिहास के ऊटपटांग निष्कर्ष निकले जाते रहेंगे और इस कसौटी के आधार बनते ही अँधकार छंट जायेगा और राष्ट्र का सूरज जगमगा उठेगा।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
पिछले कोई एक पक्ष से टीपू सुल्तान को ले कर मीडिया में ख़ासा हंगामा चल रहा है। गिरीश कर्नाड जैसे लोग ''टीपू को अगर वो हिन्दू होता तो शिवा जी के समतुल्य कहलाता'' ठहरा रहे हैं। गिरीश कर्नाड कम्युनिस्टों के टुकड़ख़ोर हैं या मुसलमानी कबाब-परांठे के चक्कर में ऐसा कर रहे हैं, को एक तरफ़ रख कर इसकी पड़ताल करते हैं। उसे राष्ट्रद्रोही मानने वालों के पास तथ्य और तर्क हैं कि टीपू ने हिंदुओं को बहुत सताया था। उन्हें बड़े पैमाने पर मुसलमान बनाने के लिए उन पर अत्याचार किये थे। टीपू को महान देशभक्त बताने वालों का तर्क है कि वो अंग्रेज़ों से लड़ा था, इसलिये वो देशभक्त कहलाने योग्य है।
आपको या मुझे ऐतराज़ हो तो हो मगर देशभक्ति की जो परिभाषा 1947 में विभाजन के बाद बचे देश में तय हुई है वो तो यही कहती है। आख़िर नाना फड़नवीस, बहादुर शाह ज़फ़र, रानी लक्ष्मी बाई और ऐसे ही न जाने कितने लोग देशभक्त इसी आधार पर तो कहलाते हैं कि वो अंग्रेज़ों से लड़े या अंग्रेज़ उनसे लड़े। चाहे उनकी दृष्टि में देश उनके क़िले तक सीमित व्यवस्था हो, चाहे उन्होंने अपनी प्रजा के हितरंजन के नाम पर धेला काम न किया हो। मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि मुग़ल सत्ता को ढेर कर देने वाले मराठों के वंशज आख़िर में मुग़लों से कैसे हाथ मिला बैठे ? छत्रपति शिवजी की हिंदू पदपादशाही के नामलेवा परम्परा बहादुरशाह का चँवर डुलाना कैसे हो गयी ?
मेरी इस परिभाषा से घोर असहमति है और मैं इस बेतुकी सोच पर मुखर आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूँ और एक प्रश्न रखता हूँ। क्या स्वास्थ्य बीमारी के अभाव का नाम है ? मेरी दृष्टि में स्वास्थ्य एक विधायक तत्व है और बीमारी का अभाव स्वास्थ्य का होना नहीं है। मैं रो नहीं रहा हूँ तो इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं गाना गा रहा हूँ। पतझड़ न होने का मतलब बहार नहीं होता। क्या अँगरेज़ का विरोध या उसका साथ देशभक्ति की कसौटी है ? यही वो चूक है जो सदियों से भरतवंशियों से हो रही है और जिसमें बदलाव किये बिना देश, राष्ट्र की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।
आइये 1857 के संघर्ष से ही विचार शुरू करते हैं। भारत के विभिन्न भागों में इस संघर्ष के अनेक कारण थे। अभी केवल दिल्ली पर बात करते हैं। दिल्ली ये युद्ध में अंग्रेज़ों के साथ नाभा, पटियाला, मालेरकोटला जैसे पचासों हिंदू-मुस्लिम राज्यों की सेनाएं थीं। दिल्ली की शुरूआती लूट मिली ही पटियाला को थी और उन्होंने मुग़लों की ज़बरदस्त कांट-छांट की। पंजाब के सिख उस समय अंग्रेज़ों के साथ दिल्ली पर इस लिये टूट पड़े थे कि 'गुरुओं के हत्यारों, साहिबज़ादों के हत्यारों से बदला लेने के अवसर मिला। साहिब जी मेरी नज़र में तो उन्होंने मुग़ल सत्ता की तेरहवीं करके बिल्कुल भी देशद्रोह नहीं किया। आख़िर मुग़लों की सत्ता को वापस स्थापित करने में वहाबी जी-जान से लगे थे। कांग्रेस और वामपंथियों के पार्टी-प्रचार के लिये लिखे जाने वाले इतिहास के बावजूद सच तो सामने ही है। ये हमारे पूर्वजों से जज़िया लेने वाले राक्षसों के वंशज थे। इसी शासन ने तो हमारे राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, काशीविश्वनाथ जैसे हज़ारों मंदिर तोड़े थे। इसी समूह ने हमारे पूर्वजों पर अकथनीय अत्याचार किये थे। सारा मध्यकालीन मुस्लिम इतिहास स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखित किताबों में भयानक बलात्कारों, लूटपाट, आगज़नी से भरा पड़ा है। हमारे पूर्वजों की चीख़ें, कराहें, आहें आज भी बिलखती-सिसकती हिसाब मांगती हैं। उस सत्ता को वापस लाना कैसे देशभक्ति का कार्य है ? कृपया कोई बताये कि 1947 में मुग़ल सत्ता को वापस लाने का प्रयास करने वाले और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले कैसे देशभक्त हैं ?
आइये इसी कसौटी को दूसरी तरह से देखा जाये। गांधी पल्टन के अथक प्रयासों के बावजूद भरतवंशियों के हृदयों पर राज करने वाला चर्चित राष्ट्रगीत ''वन्दे मातरम'' बंकिम चंद चटर्जी की किताब वन्दे मातरम का हिस्सा है। उपन्यास का कथानक और ऐतिहासिक विवरण यह है कि ढाका का नवाब हिन्दुओं को बहुत सताता था। उसके ख़िलाफ़ सन्यासियों के एक समूह जिसे उपन्यास में संतान दल कह कर पुकारा गया है, ने स्थानीय समाज के साथ मिल कर विद्रोह किया। अंग्रेज़ों ने भी हवा दी और नवाबी ढेर कर दी गयी। संतान दल के पास व्यवस्था करने का कोई तरीक़ा नहीं था अतः नवाब की जगह अँग्रेज़ों ने व्यवस्था अपने हाथ में ली। देशभक्ति की इस विचित्र कसौटी के अनुसार वन्दे मातरम अंग्रेज़ सत्ता के मित्रों अर्थात देशद्रोहियों का गीत ठहरता है।
इस देश में देशभक्ति और देशद्रोह की कसौटी जब तक इसके मूल राष्ट यानी हिन्दुओं का हित-अहित नहीं होगा तब तक ऐसे ही विचित्र निष्कर्ष निकाले जाते रहेंगे। भारत देश केवल और केवल भरतवंशियों का है। उनका हित ही देश का हित है। उनका अहित ही देशद्रोह कहलाता है और यही कसौटी का आधार है। इसी कसौटी के आधार पर हिन्दुओं का संहार करने वाला टीपू सुल्तान राष्ट्रद्रोही राक्षस है। जब तक ये कसौटी आपके-मेरे चिंतन, शिक्षा, व्यवस्था का आधार नहीं बनती भारत का हित-अहित स्पष्ट नहीं हो सकता परिणामतः इतिहास के ऊटपटांग निष्कर्ष निकले जाते रहेंगे और इस कसौटी के आधार बनते ही अँधकार छंट जायेगा और राष्ट्र का सूरज जगमगा उठेगा।
तुफ़ैल चतुर्वेदी