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गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

टीपू सुल्तान पर उठे विवाद पर एक सम्यक टिप्पणी

{ संभव है मेरी पोस्ट चली-चलायी आ रही मान्यताओं से टकराये। मेरा निवेदन है  कृपया चिंतन कर कोई राय बनाइएगा }

पिछले कोई एक पक्ष से टीपू सुल्तान को ले कर मीडिया में ख़ासा हंगामा चल रहा है। गिरीश कर्नाड जैसे लोग ''टीपू को अगर वो हिन्दू होता तो शिवा जी के समतुल्य कहलाता'' ठहरा रहे हैं। गिरीश कर्नाड कम्युनिस्टों के टुकड़ख़ोर हैं या मुसलमानी कबाब-परांठे के चक्कर में ऐसा कर रहे हैं, को एक तरफ़ रख कर इसकी पड़ताल करते हैं। उसे राष्ट्रद्रोही मानने वालों के पास तथ्य और तर्क हैं कि टीपू ने हिंदुओं को बहुत सताया था। उन्हें बड़े पैमाने पर मुसलमान बनाने के लिए उन पर अत्याचार किये थे। टीपू को महान देशभक्त बताने वालों का तर्क है कि वो अंग्रेज़ों से लड़ा था, इसलिये वो देशभक्त कहलाने योग्य है।

आपको या मुझे ऐतराज़ हो तो हो मगर देशभक्ति की जो परिभाषा 1947 में विभाजन के बाद बचे देश में तय हुई है वो तो यही कहती है। आख़िर नाना फड़नवीस, बहादुर शाह ज़फ़र, रानी लक्ष्मी बाई और ऐसे ही न जाने कितने लोग देशभक्त इसी आधार पर तो कहलाते हैं कि वो अंग्रेज़ों से लड़े या अंग्रेज़ उनसे लड़े। चाहे उनकी दृष्टि में देश उनके क़िले तक सीमित व्यवस्था हो, चाहे उन्होंने अपनी प्रजा के हितरंजन के नाम पर धेला काम न किया हो। मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि मुग़ल सत्ता को ढेर कर देने वाले मराठों के वंशज आख़िर में मुग़लों से कैसे हाथ मिला बैठे ? छत्रपति शिवजी की हिंदू पदपादशाही के नामलेवा परम्परा बहादुरशाह का चँवर डुलाना कैसे हो गयी ?

मेरी इस परिभाषा से घोर असहमति है और मैं इस बेतुकी सोच पर मुखर आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूँ और एक प्रश्न रखता हूँ। क्या स्वास्थ्य बीमारी के अभाव का नाम है ? मेरी दृष्टि में स्वास्थ्य एक विधायक तत्व है और बीमारी का अभाव स्वास्थ्य का होना नहीं है। मैं रो नहीं रहा हूँ तो इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं गाना गा रहा हूँ। पतझड़ न होने का मतलब बहार नहीं होता। क्या अँगरेज़ का विरोध या उसका साथ देशभक्ति की कसौटी है ? यही वो चूक है जो सदियों से भरतवंशियों से हो रही है और जिसमें बदलाव किये बिना देश, राष्ट्र की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।

आइये 1857 के संघर्ष से ही विचार शुरू करते हैं। भारत के विभिन्न भागों में इस संघर्ष के अनेक कारण थे। अभी केवल दिल्ली पर बात करते हैं। दिल्ली ये युद्ध में अंग्रेज़ों के साथ नाभा, पटियाला, मालेरकोटला जैसे पचासों हिंदू-मुस्लिम राज्यों की सेनाएं थीं। दिल्ली की शुरूआती लूट मिली ही पटियाला को थी और उन्होंने मुग़लों की ज़बरदस्त कांट-छांट की। पंजाब के सिख उस समय अंग्रेज़ों के साथ दिल्ली पर इस लिये टूट पड़े थे कि 'गुरुओं के हत्यारों, साहिबज़ादों के हत्यारों से बदला लेने के अवसर मिला। साहिब जी मेरी नज़र में तो उन्होंने मुग़ल सत्ता की तेरहवीं करके बिल्कुल भी देशद्रोह नहीं किया। आख़िर मुग़लों की सत्ता को वापस स्थापित करने में वहाबी जी-जान से लगे थे। कांग्रेस और वामपंथियों के पार्टी-प्रचार के लिये लिखे जाने वाले इतिहास के बावजूद सच तो सामने ही है। ये हमारे पूर्वजों से जज़िया लेने वाले राक्षसों के वंशज थे। इसी शासन ने तो हमारे राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, काशीविश्वनाथ जैसे हज़ारों मंदिर तोड़े थे। इसी समूह ने हमारे पूर्वजों पर अकथनीय अत्याचार किये थे। सारा मध्यकालीन मुस्लिम इतिहास स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखित किताबों में भयानक बलात्कारों, लूटपाट, आगज़नी से भरा पड़ा है। हमारे पूर्वजों की चीख़ें, कराहें, आहें आज भी बिलखती-सिसकती हिसाब मांगती हैं। उस सत्ता को वापस लाना कैसे देशभक्ति का कार्य है ? कृपया कोई बताये कि 1947 में मुग़ल सत्ता को वापस लाने का प्रयास करने वाले और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले कैसे देशभक्त हैं ?

आइये इसी कसौटी को दूसरी तरह से देखा जाये। गांधी पल्टन के अथक प्रयासों के बावजूद भरतवंशियों के हृदयों पर राज करने वाला चर्चित राष्ट्रगीत ''वन्दे मातरम'' बंकिम चंद चटर्जी की किताब वन्दे मातरम का हिस्सा है। उपन्यास का कथानक और ऐतिहासिक विवरण यह है कि ढाका का नवाब हिन्दुओं को बहुत सताता था। उसके ख़िलाफ़ सन्यासियों के एक समूह जिसे उपन्यास में संतान दल कह कर पुकारा गया है, ने स्थानीय समाज के साथ मिल कर विद्रोह किया। अंग्रेज़ों ने भी हवा दी और नवाबी ढेर कर दी गयी। संतान दल के पास व्यवस्था करने का कोई तरीक़ा नहीं था अतः नवाब की जगह अँग्रेज़ों ने व्यवस्था अपने हाथ में ली। देशभक्ति की इस विचित्र कसौटी के अनुसार वन्दे मातरम अंग्रेज़ सत्ता के मित्रों अर्थात देशद्रोहियों का गीत ठहरता है।

इस देश में देशभक्ति और देशद्रोह की कसौटी जब तक इसके मूल राष्ट यानी हिन्दुओं का हित-अहित नहीं होगा तब तक ऐसे ही विचित्र निष्कर्ष निकाले जाते रहेंगे। भारत देश केवल और केवल भरतवंशियों का है। उनका हित ही देश का हित है। उनका अहित ही देशद्रोह कहलाता है और यही कसौटी का आधार है। इसी कसौटी के आधार पर हिन्दुओं का संहार करने वाला टीपू सुल्तान राष्ट्रद्रोही राक्षस है। जब तक ये कसौटी आपके-मेरे चिंतन, शिक्षा, व्यवस्था का आधार नहीं बनती भारत का हित-अहित स्पष्ट नहीं हो सकता परिणामतः इतिहास के ऊटपटांग निष्कर्ष निकले जाते रहेंगे और इस कसौटी के आधार बनते ही अँधकार छंट जायेगा और राष्ट्र का सूरज जगमगा उठेगा।

तुफ़ैल चतुर्वेदी


संघ के प्रथम सरसंघचालक पूज्य डाक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार जी पर कुछ श्रद्धा सुमन

किसी भी काल में समाज में प्रधानता उन मनुष्यों की होती है जिनमें निजी और अपने परिवार का समृद्ध करने के लिए जीने की प्रवृत्ति होती है।  इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद जिस प्रकार से संभव हो आगे बढ़ना जीवन का लक्ष्य होता है। इस प्रकार की सोच रखने वाले लोग अपने सुख-भोग के लिये विचार करते हैं, कार्य करते हैं। ऐसा करते-करते कई बार अपने निजी-परिवार के लिए कुछ अन्य सहायकों की आवश्यकता पड़ती है तो योजना और कार्य में विस्तार हो जाता है। अनेकों लोगों का सहयोग ले कर बड़ा कार्य खड़ा करने के बावजूद ये जीवन शैली व्यष्टि-वाचक जीवन शैली ही कहलाती है।  कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इस जीवन-शैली से ऊपर उठ जाते हैं और निजी जीवन, निजी परिवार से अधिक की चिंता करते हैं।  इन्हीं लोगों को समाज समष्टि की चिंता-विचार करने के कारण महापुरुषों की श्रेणी में रखता है।

आंध्र प्रदेश के निजामाबाद जिले के कंदकुर्ती गांव में वेदों और शास्त्रों का पीढ़ी दर पीढ़ी अध्ययन करने वाला ब्राह्मण परिवार रहता था।  निजाम के हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार जब सहनसीमा को पार कर गए तो उस परिवार के नरहर शास्त्री कंदकुर्ती त्याग कर नागपुर आ गए। नागपुर में शास्त्री जी को भोंसला सरकार का आश्रय मिला। शास्त्री जी की तीसरी पीढ़ी आते-आते अंग्रेजों ने भोंसला शासन का अंत कर दिया और राज्याश्रित परिवार विपन्न स्थिति में आ कर पौरोहित्य से जीवन-यापन करने लगा। इसी परिवार की चौथी पीढ़ी में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार जन्मे। आप अपने पिता बलिराम पंत की पांचवीं संतान थे। आपसे दो भाई और दो बहिनें बड़ी थीं और एक बहिन छोटी थी। बलिराम पंत जी ने बड़े भाइयों को तो वेदाध्ययन के लिए संस्कृत पाठशाला भेजा मगर केशव की मानसिक संरचना को परम्परागत न देख कर नील सिटी स्कूल में भर्ती कराया। कर्मकांडी परिवार के केशव प्रारम्भ से ही खुले और दृढ विचारों वाले थे। उनके मानस की झलक बचपन से ही मिलने लगी थी।

केशव जब सात वर्ष के ही थे तो उनके विद्यालय में ब्रिटिश महारानी के गद्दी पर बैठने की साठवीं वर्षगांठ का समारोह मनाया जा रहा था। केशव के स्कूल में भी अंग्रेजी प्रशासन ने 22 जून 1897 को मिठाई बंटवाई मगर केशव ने ये कह कर मिठाई फेंक दी कि विक्टोरिया हमारी महारानी नहीं हैं। इसके चार साल बाद 1901 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड के गद्दी पर बैठने का उत्सव मनाने के लिए आतिशबाजी की जा रही थी। किशोर केशव न केवल उसे देखने ही नहीं गए बल्कि अपने साथियों को भी समझा कर जाने से रोकने में सफल रहे।

उन्नीसवीं सदी का ये काल भारत में वैचारिक उथल-पुथल का काल है। 19 जुलाई 1905 को भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल का विभाजन कर दिया गया। जो 16 अक्टूबर 1905 से प्रभावी हुआ। इस नए प्रान्त की रचना बंगाल के बड़े मुस्लिम ज़मींदारों, मुस्लिम नवाबों और अंग्रेज़ों के सामूहिक षड्यंत्र ने की थी। मूलतः ये बंगाल के पूर्वी क्षेत्र को मुस्लिम बहुत प्रदेश बनाने की चाल थी। जिसका प्रभाव असम के हिन्दू बहुल चरित्र पर भी डाला जाना था।  इस नए बने प्रान्त का नाम पूर्वी बंगाल और असम था। इसकी राजधानी ढाका और असम का अधीनस्थ मुख्यालय चटटोग्राम था। नए प्रान्त की जनसंख्या तीन करोड़ दस लाख थी, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख मुस्लिम और एक करोड़ बीस लाख हिन्दू रखे गए थे। बंगाल के ही नहीं भारत भर के हिन्दू इस विभाजन से हतप्रभ रह गए। उपयुक्त जनांदोलन हुआ और 1911 में विभाजन रद कर दिया गया। ऐसे ही धत्कर्मों के लिए 1906 में ढाका के नवाब सलीमुल्लाह ख़ान के प्रत्यक्ष नेतृत्व में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ। परोक्ष में अंग्रेज़ों का धन, प्रबंधन, नीतिकारों का समर्थन, प्रशासन की सक्रियता थी।

बाल केशव इन परिस्थितों में बड़े हो रहे थे। वो नियमित व्यायाम के लिए जाते थे। उनकी प्रतिबद्ध देशभक्ति, सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति देख कर डॉ मुंजे बहुत प्रभावित हुए। डॉ मुंजे मध्य प्रान्त के सामजिक जीवन के प्रमुख स्तम्भ थे, क्रन्तिकारी विचारधारा से प्रभावित थे और गुप्त क्रन्तिकारी गतिविधियों में भाग भी लेते थे। केशव भी इन गतिविधियों में भाग लेने लगे। उनकी लगन और क्षमता देख कर मध्य प्रान्त के क्रन्तिकारी नेतृत्व ने डॉ मुंजे के माध्यम से कलकत्ता भेजा। कलकत्ता तब क्रांतिकारियों का तीर्थ था। केशव ने वहां नेशनल मेडिकल कॉलेज में डाक्टरी की पढ़ाई का निश्चय किया। वहां पढ़ते समय केशव का सम्पर्क श्याम सुन्दर चक्रवर्ती, नलिन किशोर गुहू, जोगेश चन्द्र चटर्जी जैसे उस काल के प्रमुख के प्रमुख क्रांतिकारियों से हो गया। कलकत्ता के सामजिक जीवन के प्रमुख व्यक्तियों जैसे मोती लाल घोष, विपिन चन्द्र पाल, रास बिहारी बॉस, डॉ आशुतोष मुखर्जी इत्यादि से भी उनका परिचय हुआ। डाक्टरी की पढ़ाई के साथ-साथ क्रन्तिकारी कार्यों में यथा संभव भाग लेते हुए केशव 1914 में 70.80 प्रतिशत अंक ला कर डाक्टर बन गए।  

ब्रिटिश भारत में आज के मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, महाराष्ट्र को मिला कर मध्य प्रान्त हुआ करता था और इसकी राजधानी नागपुर थी।  सन 1911 की जनगणना में मध्य प्रान्त की जनसँख्या 1,60,33,310 आंकी गयी थी। पूरे मध्य प्रान्त में केवल 75 चिकित्सक थे। इनमें से एक डाक्टर के लिए ये बिलकुल सहज ही होता कि वो चिकित्सा का कार्य करे। मध्य प्रान्त की इतनी बड़ी जनसँख्या के लिए 75 चिकित्सकों की संख्या कुछ भी नहीं थी। किसी भी डाक्टर की प्रेक्टिस जमना केवल दुकान खोलने भर से हो जाने वाला क्रय था। सुनिश्चित था कि इस परिस्थिति में कोई भी चिकित्सक सफल ही होगा। स्वाभाविक भी था कि कोई डाक्टर अपने परिवार के लिए अर्थोपार्जन करे। समाज में अपना, परिवार का गौरव बढ़ाये। अत्यंत निर्धन पृष्ठभूमि से उठ कर श्रीमंतों की श्रेणी में आये किन्तु डाक्टरी पढ़े व्यक्ति ने निजी हित, परिवार के हित ताक पर रख कर न भूतो न भविष्यति जैसी पद्धति से समाज के संगठन का कार्य अपने सर पर लिया। ये अत्यंत आश्चर्य का का कारण है।

प्रथम विश्व युद्ध के बदल योरोप के क्षितिज पर छ रहे थे। ऐसी अनेकों बड़ी घटनाओं के कारण भारत में भी वैचारिक उथल-पुथल हो रही थी। अँगरेज़ सम्प्रभुओं की चिरौरी करती रहने वाली कांग्रेस की दिशा-दशा बदल रही थी। मुस्लिम लीग द्वारा हिन्दुओं का अहित होता देख कर राष्ट्रवादी नेतृत्व ने महामना मदन मोहन मालवीय जी के नेतृत्व में 1911 में अमृतसर में हिन्दू महा सभा का गठन किया। 28 जुलाई 1914 को योरोप में प्रथम विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस्लामी खिलाफत का केंद्र तुर्की धुरी राष्ट्रों के साथ लड़ रहा था। अंग्रेजों ने तुर्की को दबाव में लेना शुरू किया। परिणामतः भारत के मुसलमानों में अंग्रेजों के खिलाफ क्षोभ उभरने लगा। अंग्रेजों को दबाव में देख कर क्रान्तिकारी नेतृत्व सशस्त्र संघर्ष में प्रवृत्त हो गया। 1915 में गांधी भारत लौट आये। गांधी जी और उनके नेतृत्व में कांग्रेस के लोग इस आशा में कि युद्ध के बाद अंग्रेज भारत को डोमिनियन स्टेटस दे देंगे, अंग्रेजों का हर प्रकार से युद्ध में साथ दे रहे थे। यहाँ तक कि सेना में भारतियों की भर्ती करने में कांग्रेस के लोग भाग-दौड़ कर रहे थे। डॉ जी इसके विरोध में थे। उनका मानना था कि शत्रु का संकट काल हमारे लिए स्वर्णिम अवसर है। उन्होंने कांग्रेस के नेताओं द्वारा युद्ध के लिए भारतीय सैनिकों की भर्ती करने के प्राणप्रण से विरोध किया।

व्यक्ति की क्षमताओं से संगठन की क्षमताएं सदैव बड़ी होती हैं। क्रांतिकारी कार्यों की अत्यंत सीमित क्षमताओं, बीच-बीच में नरेंद्र मंडल जैसे अनेकों संगठनों में कार्य करने, तत्कालीन समाज की मनस्थिति देखते हुए डॉ जी ने कांग्रेस में प्रवेश करने का निर्णय लिया। कांग्रेस का कार्य बढाने के लिए उन्होंने मध्य प्रान्त का दौरा किया। कांग्रेस के गर्म दल और नर्म दल में बंटे लोगों में मतभेद बढ़ रहे थे और उन्होंने लगभग मनभेद का स्वरुप ले लिया था।1916 में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस ने अंग्रेजों के प्रति मुसलमानों के रोष को भुनाना चाहा। इसके लिये कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ में एक साथ अधिवेशन किये। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने मुस्लिम समाज में उपेक्षित-तिरस्कृत मुस्लिम लीग के साथ घोर हिन्दू विरोधी समझौता करके उसमें जान फूंक दी।

11 नवम्बर 1918 को द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने सदियों से उत्पात मचाते आये तुर्की के इस्लामी खलीफा का पद समाप्त कर दिया। सदियों बाद अरब क्षेत्र स्वतंत्र हो गया। जॉर्डन, सीरिया, फिलिस्तीन, लेबनान, इराक़ खिलाफत छोड़ गए। तुर्की के इस्लामी साम्राज्य के खंड-खंड कर हो गए। जिसके विरोध में 1919 को भारत में खिलाफत वापस लाने का आंदोलन शुरू हो गया। भारत का मुस्लिम नेतृत्व इसे काफिरों के सामने इस्लाम की हार की तरह देख रहा था। गांधी जी ने इसे अवसर की तरह देखा और कांग्रेस को खिलाफत आंदोलन में झोंक दिया। कांग्रेस के मुहम्मद अली जिनाह जैसे बहुत से वरिष्ठ नेता उनके इस निर्णय के विरोध में थे। उन्होंने गांधी जी को PAN ISLAMIZM के खतरों से चेताया मगर गांधी जी अड़े रहे। तिलक जी का 1920 में देहावसान हो जाने के कारण गांधी जी के नेतृत्व को आम सहमति प्राप्त हो गयी थी। उनकी ज़िद के कारण किसी की एक नहीं चली। अनेकों लोगों ने कांग्रेस छोड़ दी।

इसी उथल-पुथल में 1920 में कांग्रेस का नागपुर में बीसवां अधिवेशन तय हुआ। नागपुर अधिवेशन कांग्रेस का तब तक का सबसे बड़ा अधिवेश होने जा रहा था। इसकी सुचारु व्यवस्था के लिए डॉ जी ने 1200 वालंटियरों की भर्ती और प्रशिक्षण का कार्य किया।  अधिवेशन में 20,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। खुले सत्रों में उपस्थिति 30,000 तक पहुंची। सभी कार्य व्यवस्थित और सुचारु रूप से हुए। इसके पीछे डॉ जी का रात दिन अथक परिश्रम, सटीक पूर्व योजना और उनका त्रुटिहीन कार्यान्वन और प्रबंधन था। वो एक अत्यंत कुशल संगठनकर्ता के रूप में उभरे, प्रशंसित और प्रतिष्ठित हुए।

अधिवेशन के बाद डॉ जी पूरे मनोयोग से कांग्रेस के अनुशासित सिपाही की तरह असहयोग आंदोलन में जुट गए। सैकड़ों लोगों की नागपुर असहयोग समिति में भर्ती करायी। सारे मध्य प्रान्त के दौरे किये।  दर्जनों सभाओं के माध्यम से हजारों लोगों को सम्बोधित किया। ब्रिटिश सरकार से असहयोग का वातावरण बनाया। 1921 में ब्रिटिश सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और एक साल के सश्रम कारावास की सजा दी। 11 जुलाई 1922 को अपनी सजा पूरी करके डॉ जी जेल से छूटे।  हजारों लोगों की भीड़ ने उनका स्वागत किया। तब तक गांधी जी की अहमन्यता ने चौरी-चौरा की घटना के कारण बिना किसी अन्य नेता से विचार-विमर्श किये आंदोलन को वापस ले लिया था। कांग्रेस के कार्यकर्ता  हताश और निराश थे। डॉ हेडगेवार ने प्राणप्रण से मध्य प्रान्त के कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने का कार्य किया। उनका परिश्रम कांग्रेस के नेताओं की दृष्टि में आया और उन्हें भूरि-भूरि प्रशंसा के साथ मध्य प्रान्त का सहमंत्री बनाया गया। इस जिम्मेदारी के साथ डॉ हेडगेवार के प्रान्त के दौरों में वृद्धि हो गयी। उन्होंने ने दर्जनों सभाओं के माध्यम से हताश समाज में आशा का संचार किया। इसी क्रम में उन्होंने नागपुर से मराठी दैनिक स्वातंत्र्य शुरू किया। तेजस्वी संपादक के नेतृत्व में स्वातंत्र्य ने पहले अंक से ही पाठकों में जगह बना ली। स्वातंत्र्य की नीति राष्ट्र के पक्ष में खरा-खरा बोलने की थी। समाचार इस हद तक निर्भीक था कि उसने सम्पादकीय में कई अवसरों पर अपने हितचिंतक डॉ मुंजे की भी आलोचना की।

एक ओर मध्य प्रान्त में डॉ हेडगेवार राष्ट्र जागरण के कार्य में जुटे थे दूसरी ओर केरल खौल रहा था।  खिलाफत आंदोलन हर प्रकार से असफल हो कर समाप्त हो चुका था। खिलाफत आंदोलन के केरल के प्रणयेता मुल्लाओं ने स्थानीय मुसलमान मोपलाओं में ये प्रचार कर दिया कि खिलाफत सफल हो गयी है। अब समय आ गया है कि खिलाफत को काफिरों से पाक कर दिया जाये। हिन्दुओं के खिलाफ भयंकर दंगे हुए। हजारों हिन्दुओं को भयानक नृशंसतापूर्वक मार डाला गया। हजारों हिन्दू नारियों के साथ भयानक बर्बर बलात्कार हुए। असंख्य हिंदू स्त्रियों ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आत्महत्या का मार्ग चुना। सैकड़ों मंदिर तोड़ डाले गए। लाखों हिंदू मुसलमान बना लिए गए। इस महामूर्ख आंदोलन में कांग्रेस को मनमाने ढंग से धकेल देने वाले गांधी जी मौन हो कर ये सब देखते रहे।

अब तक डॉ हेडगेवार हर प्रकार के सामाजिक कार्य का प्रयोग कर चुके थे। सारे माध्यमों को जाँच-परख चुके थे और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बिना राष्ट्र जागरण के किसी भी आंदोलन का कुछ मतलब नहीं है। आंदोलन क्षणिक उत्तेजना देते हैं। कुछ कोलाहल होता है और समाज वापस सो जाता है। मुसलमानों की, अंग्रेजों की अधीनता तो केवल बीमारी का बाहरी उभार मात्र है।  जब तक देश का असली राष्ट्र अर्थात हिन्दू सन्नद्ध नहीं होगा कोई उपाय उपयोगी नहीं होगा। आज अँगरेज़ चले भी गए तो कल कोई और नहीं आएगा इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। अंग्रेजों की गुलामी तो केवल बाहरी फुंसी की तरह है। मूल समस्या राष्ट्र की धमनियों में रक्त का दूषण है। यही वो प्रस्थान बिंदु था जहाँ उन्होंने सब प्रकार के राजनैतृक-सामाजिक कार्य छोड़ कर विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना की और मध्य प्रान्त की डेढ़ करोड़ से भी अधिक संख्या के केवल 75 डाक्टरों में एक, क्रांतिकारी कार्यों को जानने वाले, क्रांतिकारी कार्यों में सक्रिय रहे तेज-पुंज,  प्रान्त की कांग्रेस के परिश्रमी प्रदेश सहमंत्री इन सारे कार्यों से वुमुख हो कर मोहिते के बाड़े में कुछ बच्चों के साथ कबड्डी और खो-खो खेलने लगे।

विचार कीजिये कि वही बीज आज विश्व के सबसे बड़े, अनंतभुजा वाले कृष्ण के विराट रूप जैसा जानने में आता है। इसके पीछे की संकल्पना, योजना, संरचना कैसे मानस ने की होगी ? राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर पहुँचाने का नागपुर से उठा विचार सारे भारत में फैला तो इसके पीछे जिन मौन साधकों का अथक परिश्रम है, उनका निर्माण कैसे हुआ होगा ? राष्ट्र के उत्थान के लिए दैनिक एकत्रीकरण का कोई ढंग आवश्यक है और उसके लिए शाखा पद्धति का निर्माण किस मानस ने किया होगा ? अपनी जान दे देना बड़ी बात है मगर बहुत बड़ी बात नहीं है, कोई भी सैनिक ऐसा कर सकता है मगर दूसरे को जीवन  दे देने के लिए प्रवृत्त करना सरल काम नहीं है। इसके लिए सेनापति चाहिए होते हैं। नागपुर से देश की हर दिशा में निकले दादा राव परमार्थ, शिव राम पंत जोगळेकर, माधव राव मुले, राजा भाऊ पातुरकर, मुलकर जी, यादव राव जोशी, भाऊ राव देवरस, परम पूज्य सरसंघचालक माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर, परम पूज्य सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस, जैसे जीवन त्यागी, आजीवन व्रती, निस्पृह महापुरुषों की श्रंखला का निर्माण कर सकने में सक्षम व्यक्तित्व कैसा रहा होगा ? एक क्षण में सरकारी आजीविका छोड़ कर सारा जीवन राष्ट्र के चिंतन में लगा-गला देने वाले बाबा साहब आप्टे जैसा तपस्वी किसको देख कर उस रूप में ढला ?  पतत्वेषु कायो का मूर्त रूप ?  ध्येय आया देह ले कर जैसी सोच का मूर्तिमंत स्वरुप ? ऐसे ही लोग महापुरुष तो नहीं कहलाते ? ? ?

तुफ़ैल चतुर्वेदी      

ध्वस्त विरोधी शिविर, खंडित छत्र, धरती पर लोटते हुए महारथी, भग्न रथ, दम दबा कर भाग चुकी शत्रु सेना, लहराती विजय पताकाएँ, दमादम गूंजते हुए नगाड़े, बजती हुई विजय दुंदुभी, पाञ्चजन्य का गौरव-घोष...

ध्वस्त विरोधी शिविर, खंडित छत्र, धरती पर लोटते हुए महारथी, भग्न रथ, दम दबा कर भाग चुकी शत्रु सेना, लहराती विजय पताकाएँ, दमादम गूंजते हुए नगाड़े, बजती हुई विजय दुंदुभी, पाञ्चजन्य का गौरव-घोष, कराहते हुए दिग्पराजय, कैड़ा सिंह, मणि कंकर, निशीत, कालू जैसे लोग. इन घटनाओं के निकट प्रत्यक्षदर्शी मीडिया को ये सब देखते और उच्छ्वासें छोड़ते अभी कुछ ही समय बीता है. इन सबको बोलने-कोसने और हाहाकार मचाने के लिए कोई विषय नहीं मिल रहा था. अचानक आगरा ने हू-हू  की सियार-ध्वनि के लिए अवसर दे दिया।

आगरा में 350 लोग मुसलमान से हिन्दू बन गए और सब पर आसमान टूट पड़ा. आइये धर्मांतरण पर विचार करें। सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपॉल विश्व के महानतम लेखकों में से एक हैं. उन्हें लेखन के बुकर इत्यादि अन्य सारे बड़े पुरस्कारों के साथ नोबेल पुरस्कार भी मिला है. वो 1954 से लिख रहे हैं. एक पाकिस्तानी मुस्लिम महिला नादिरा जी से विवाहित हैं. वो भारत के नहीं हैं और उन्हें किसी भी तरह सांप्रदायिक हिन्दू नहीं कहा जा सकता. उनकी भारत पर तीन पुस्तकों में से एक "India : A Wounded Civilization-भारत एक आहत सभ्यता", एक चर्चित किताब है. वो उस किताब में लिखते हैं. " कहा जाता है कि सत्रह बरस के एक बालक के नेतृत्व में अरबों ने भारतीय राज्य को रौंदा था. सिंध आज भारत का हिस्सा नहीं है, उस अरब आक्रमण के बाद से भारत सिमट गया है. { अन्य } कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो; कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूट-पाट का शिकार नहीं हुआ, { शायद ही } ऐसा कोई देश और होगा जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम सीखा होगा"। वो इसी किताब में इंडोनेशिया के बारे में कहते हैं " मुझे ऐसे लोग मिले जो इस्लाम और प्रोद्योगिकी के समागम के द्वारा अपना इतिहास खो चुके थे". पाकिस्तान के बारे में सर नायपॉल बताते हैं " पाकिस्तान से अधिक किसी भी देश में इतिहास को एक सांस्कृतिक रेगिस्तान में नहीं बदला गया. ये सारे शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं. "भारत का सिमट जाना, इस्लाम द्वारा इतिहास खो जाना, सांस्कृतिक रेगिस्तान" ये शब्दावलि कैंसर के फोड़े का फट जाना बल्कि विस्फोट हो जाना है.

कोई भी देश अपने राष्ट्र द्वारा ही रक्षित होता है. चीन की रक्षा चीनी लोग ही करते हैं. जापान की रक्षा जापानी लोग ही करते हैं. रूस की रक्षा रुसी लोग ही करते हैं. इसी तरह भारत की रक्षा भारतीयों का कर्तव्य है. तो इस आगरा पर हू-हू  की सियार-ध्वनि को क्या समझा जाये ? भारत से अधिक इस्लाम के जघन्य हत्याकांडों का और कौन शिकार बना है ? भारत से अधिक किस देश के लाखों लोग गुलाम बना कर बाजारों में बेचे गए ? सदियों तक महिलाओं की लूट और उन पर नृशंस बलात्कारों की आंधी भारत से अधिक किस देश में चली ? भारत के अतिरिक्त किस देश के पूजा-स्थल सदियों तक तोड़े गए ? और भारत से अतिरिक्त और कौन सा देश है जहाँ के निवासी इन सब अत्याचारों को सदियों देखने के बाद भी " ईश्वर अल्ला तेरो नाम" हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई- आपस में भाई-भाई" का गाना मय-हारमोनियम-तबले के पूरी तन्मयता से गाते हों ?

सर नायपॉल ने बिलकुल सही कहा है " { भारत के अतिरिक्त अन्य } कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो; कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूट-पाट का शिकार नहीं हुआ, { शायद ही } ऐसा कोई देश और होगा जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम सीखा होगा"। नागालैंड, मिजोरम में समस्या क्यों है और साथ के प्रदेश त्रिपुरा में वही समस्या क्यों नहीं है ? हैदराबाद, मुरादाबाद, अलीगढ, रामपुर, बरेली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ में आये दिन सांप्रदायिक तनाव क्यों होता है ? क्यों वो तनाव नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, टिहरी, पौड़ी जिलों में नहीं होता ? क्या हिंदू इतने भोले हैं कि उस क्षेत्र के मुस्लिम बहुल होने  के कारण होने वाले खतरों को नहीं समझते ? क्यों दंगा अथवा साम्प्रदायिक तनाव उन स्थलों पर नहीं होता जहाँ मुसलमान बहुत कम संख्या में हैं ?

अभी ईराक  से लौटे अरीब के सम्बन्ध में जो जानकारियां अख़बारों से मिल रही हैं उनमें ये भी है कि, बंगलौर में किसी आई टी कंपनी में काम करने वाला मेहंदी मसरूर बिस्वास ट्विटर के माध्यम से सारी दुनिया में आई.एस.आई.एस. के लिए अभियान चलाता है और हर महीने बीस लाख लोग उसका ट्विटर पढ़ते हैं. उसके जहरीले ट्विटर संदेशों के समर्थन में भी हजारों सन्देश आते हैं. वंदेमातरम के रचयिता बंकिम चंद्र, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, काजी नजरुल इस्लाम के बंगाल का ही मेहंदी मसरूर बिस्वास और उसके समर्थन में हजारों सन्देश भेजने वाले ये लोग कौन हैं ? कैसे ऋषियों की परंपरा के लोग, आर्यों की संतानें अपने ही समाज, अपने ही देश, अपने ही राष्ट्र की विरोधी हो गयीं ?

मित्रो ये कोई नई बात नहीं है. भारत पर आक्रमण करने वाले सबसे दुष्ट हमलावरों में से प्रमुख नाम अहमद शाह अब्दाली का है. मित्रो ! वो भारत पर आक्रमण करने स्वयं ही नहीं आया था. उसे दिल्ली के शाह वलीउल्लाह {1703–1762} ने ये कह कर बुलाया था कि आओ और काफिरों की शक्ति को ख़त्म करो, हिन्दुस्तान के मुसलमान तुम्हारा साथ देंगे। विचारणीय है कि वलीउल्लाह ने भारत के मुसलमानों की तरफ से देश का विरोध करने के लिए कैसे अहमद शाह अब्दाली को आश्वस्त किया ? उसे कैसे हर मुसलमान की या बहुसंख्य मुसलमानों की मानसिक स्थिति का ज्ञान था ? क्या इस्लाम में कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है ? बल्कान, तुर्की, अफगानिस्तान, चीन के प्रान्त सिंक्यांग, ईराक, सीरिया, कश्मीर की लड़ाई में विश्व के अनेकों देशों के मुसलमानों की भागीदारी से स्पष्ट हो ही जाता है कि इस्लाम में वाकई कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है.

यहाँ कुछ सामायिक प्रश्न मेरे मन में उठ रहे हैं. मैं उन्हें आप तक पहुँचाना चाहता हूँ. लौकिक संस्कृत का शब्दशः परफैक्ट व्याकरण लिखने वाले पाणिनि का गांधार तालिबान का अफगानिस्तान किस कारण बना ? पाकिस्तान का रावलपिंडी { ये नाम स्वयं कहानी कह रहा है } जनपद, जहाँ का तक्षशिला विश्वविद्यालय संसार का पहला विश्वविद्यालय था. जहाँ आचार्य कौटिल्य, आचार्य जीवक जैसे लोग बेबीलोन, ग्रीस, सीरिया,चीन इत्यादि देशों से आये 10. 500 छात्रों को वेद, भाषा, व्याकरण, दर्शन शास्त्र, औषध विज्ञान, शल्य चिकित्सा, धनुर्विद्या, राजनीति, युद्ध शास्त्र, खगोल विद्या, अंक गणित, संगीत, नृत्य इत्यादि विषयों की शिक्षा देते थे, रूप बदल कर जमातुद्दावा, हरकतुल अंसार का पाकिस्तान कैसे बन गया ? बंगाल { बांग्ला देश } के नाम से विहित और सबको अपनी शीतल छांव देने वाली ढाकेश्वरी माँ का धाम ढाका उसके उपासकों के शत्रुओं का घर कैसे बन गया ? ईराक और सीरिया में फैले गरुण की उपासना करने वाले, यज्ञ करने वाले मूर्ति-पूजक यजदी नमाज़ भी पढ़ने वाले यजीदी बनने पर क्यों विवश हो गए ? क्यों आई.एस.आई.एस. के लोग उनका समूल-संहार कर रहे हैं ? बल्कि सदियों से क्यों उनका संहार किया जाता रहा है ?

सऊदी अरब, ईरान, ईराक, कज्जाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, आइजरबैजान जैसे अनेकों देशों में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं किसकी हैं और उन्हें किसने बनाया था ? वो भग्न कैसे हो गयीं ? उन्हें बनाने वाले, वहां उपासना करने वाले लोग कहाँ गए ? कश्मीर जो तंत्र के आचार्यों का क्षेत्र था, जहाँ तंत्र-कुल के लोग आज भी अपने नाम के आगे कौल लगाते हैं तंत्र-विहीन, कुल-विहीन कैसे हो गया ? क्यों इन सारे क्षेत्र के लोगों में अपनी परंपरा, अपने कुल के प्रति द्वेष पैदा हो गया ? अपने पूर्वजों, परम्पराओं, इतिहास के प्रति घृणा अर्थात आत्मघाती प्रवृत्ति कोई सामान्य बात नहीं है तो एक दो लोगों में नहीं बल्कि पूरे समाज में जन्मी कैसे ? कैसे इन क्षेत्रों के लोगों में एक ऐसे उत्स जिसकी भाषा भी वो नहीं जानते के के प्रति लगाव कैसे जाग गया ? इन भिन्न-भिन्न देशों, भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोगों ने एक ऐसी विदेशी आस्था, जिसने उनके पूर्वजों को भयानक पीड़ा दी, को स्वीकार क्यों किया ? इन देशों, समाजों के लोग अपने पूर्वजों की जगह अरब मूल से स्वयं को क्यों जोड़ने लगे ?

इन सारे प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर है कि वहां के हिंदू धर्मान्तरित हो कर मुसलमान हो गए. इन ऐतिहासिक घटनाओं की तार्किक निष्पत्ति है कि "हिन्दुओं का धर्मान्तरण राष्ट्रांतरण है". हिन्दुओं से किसी अन्य मत में स्थानांतरण राष्ट्रांतरण होता है और अन्य मतों से प्रति-धर्मान्तरण राष्ट्र और देश को मजबूत करता है. हिन्दुओं का सबल होना भारत का सबल होना है. हिंदुओं की स्थिति का दुर्बल होना भारत को दुर्बल करता है. तो साहब देशभक्त इसे कैसे स्वीकार करें ? देश के शरीर पर निकलते जा रहे फोड़ों का इलाज क्यों नहीं करें ?  इनका इलाज आगरा में किया जा रहा प्रति-धर्मान्तरण नहीं है तो क्या है ? ऐसे किसी भी कार्य का विरोध तो होगा ही होगा। 350 की संख्या उल्लेखनीय है मगर हमें तो करोड़ों की संख्या का मानस बदलना है. अनेकों देशों में भूले-बिसरे, छूट गए बंधुओं की सुधि लेनी है अतः ये हू-हू  की सियार-ध्वनि तो तब तक होती ही रहेगी जब तक इस समस्या की सर्वतोभावेन चिकित्सा नहीं हो जाती। आखिर जिस प्रक्रिया के कारण अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश भारत से अलग हुए थे, उसी प्रक्रिया के उलटने से वापस आएंगे। और इस बार पूरे समाज को बाहें फैला कर बिछड़े बंधुओं को गले लगाना है और भारत को तोड़ने वालों से निबटना, को निबटाना है.

तुफैल चतुर्वेदी