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मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ.

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ. संभव है मैं जिन मुसलमान बंधुओं से बात करना चाहता हूँ उन तक मेरा ये पत्र सीधे न पहुंचे अतः आप सभी से निवेदन करता हूँ कि कृपया मेरे पत्र या इसके आशय को मुस्लिम मित्रों तक पहुंचाइये। संसार आज एक भयानक मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया है। भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश, इंडोनेशिया, कंपूचिया, थाई लैंड, मलेशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सीरिया, लीबिया, नाइजीरिया, अल्जीरिया, मिस्र, तुर्की, स्पेन, रूस, इटली, फ़्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, डेनमार्क, हॉलैंड, यहाँ तक कि इस्लामी देशों से भौगोलिक रूप से कटे संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी आतंकवादी घटनाएँ हो रही हैं. विश्व इन अकारण आक्रमणों से बेचैन है। कहीं स्कूली छात्र-छात्राओं पर हमले, तो कहीं बाजार में आत्मघाती हमलावरों के बमविस्फोट, तो कहीं घात लगा कर लोगों की हत्याएं...संसार भर में ये भेड़िया-धसान मचा हुआ है। सभ्य संसार हतप्रभ है। हतप्रभ शब्द जान-बूझ कर प्रयोग कर रहा हूँ चूँकि पीड़ित समाज को इन आक्रमणों का पहली दृष्टि में कोई कारण नहीं दिखाई दे रहा मगर एक बात तय है कि सभ्य समाज इन हमलों के कारण क्रोध से खौलता जा रहा है. उसकी भृकुटियां तनती जा रही हैं।

मेरे देखे वो इसका कारण इस्लाम को मानने पर विवश हो रहा है। इन लोगों में हिन्दू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, शिन्तो मतानुयाई, कन्फ्यूशियस मतानुयाई, अनीश्वरवादी सभी तरह के लोग हैं। संसार भर में मुसलमानों के विरोध में एक अंतर्धारा बहने लगी है , आप यू ट्यूब, फ़ेसबुक, इंटरनेट के किसी भी माध्यम पर देखिये, पत्र-पत्रिकाओं में लेख पढ़िए, अमुस्लिम समाज में इस्लाम को ले कर एक बेचैनी हर जगह अनुभव की जा रही है। हो सकता है आप इसे न देख पा रहे हों या इसकी अवहेलना कर रहे हों मगर ये आज नहीं तो कल आपकी आँखों में आँखें डाल कर कड़े शब्दों में बात या जो भी उसके जी में आयेगा करेगी। यहाँ ये बात भी ध्यान देने की है कि इन सभी माध्यमों पर इक्का-दुक्का मुस्लिम समाज के लोग इस बेचैनी को सम्बोधित करने का प्रयास कर रहे हैं मगर लोग उनके तर्कों, बातों से सहमत होते नहीं दिखाई दे रहे।

मैं भारत और प्रकारांतर में विश्व का एक सभ्य नागरिक होने के कारण चाहता हूँ कि संसार में उत्पात न हो, वैमनस्य-घृणा समाप्त हो. इसके लिए मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं. इस सार्वजनिक और खुले मंच का प्रयोग करते हुए मैं आपसे इन प्रश्नों का उत्तर और समाधान चाहता हूँ. विश्व शांति के लिए इस कोलाहल का शांत होना आवश्यक है और मुझे लगता है कि आप भी मेरी इस बात से सहमत होंगे।

जिन संगठनों ने विभिन्न देशों में आतंकवादी कार्यवाहियां की हैं उनमें से कुछ सबसे नृशंस हत्यारे समूहों के नाम प्रस्तुत हैं. मुस्लिम ब्रदरहुड, सलफ़ी, ज़िम्मा इस्लामिया, बोको हराम, जमात-उद-दावा, तालिबान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामी मूवमेंट, इख़वानुल मुस्लिमीन, लश्करे-तैय्यबा, जागृत मुस्लिम जनमत-बांग्ला देश, इस्लामी स्टेट, जमातुल-मुजाहिदीन, अल मुहाजिरो, दौला इस्लामिया...इत्यादि. इन हत्यारी जमातों में एक बात सामान्य है कि इनके नाम अरबी हैं या इनके नामों की शब्दावली की जड़ें इस्लामी हैं. ये संगठन ऐसे बहुत से देशों में काम करते हैं जहाँ अरबी नहीं बोली जाती तो फिर क्या कारण है कि इनके नाम अरबी के हैं ? ये प्रश्न बहुत गंभीर प्रश्न है कृपया इस पर विचार कीजिये. न केवल इस्लामी बंधु बल्कि सेक्युलर होने का दावा करने वाले सभी मनुष्यों को इस पर विचार करना चाहिए। इन सारे संगठनों के प्रमुख लोगों ने जो छद्म नाम रखे हैं वो सब इस्लामी इतिहास के हिंसक लड़ाके रहे हैं. उन सबके नाम हत्याकांडों के लिए कुख्यात रहे हैं. उन सब ने अपने विश्वास के अनुसार अमुस्लिम लोगों को मौत के घाट उतरा है, उनसे जज़िया वसूला है. कृपया मुझे बताएं कि ऐसा क्यों है ? क्या इस्लाम अन्य अमुस्लिम समाज के लिए शत्रुतापूर्ण है, यदि ऐसा नहीं है तो इन संगठनों के नामों का इस्लामी होना मात्र संयोग है ? कोई भी तर्कपूर्ण बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं कर पायेगी। कृपया इस पर प्रकाश डालें।

मैं एक ऐसे राष्ट्र का घटक हूँ स्वयं जिस पर ऐसे लाखों कुख्यात हत्यारों ने आक्रमण किये हैं। ये कोई एक दिन, एक माह, एक साल, एक दशक, एक सदी की बात नहीं है। मेरे घर में सात सौ बारह ईसवी में किये गए मुहम्मद बिन क़ासिम की मज़हबी गुंडागर्दी से ले कर आज तक लगातार उत्पात होते रहे हैं। मेरे समाज के करोड़ों लोगों का धर्मान्तरण होता रहा है। ये मेरे सामान्य जीवन-विश्वास के लिए कोई बड़ी घटना नहीं थी। मेरे ग्रंथों की अंतर्धारा "एकम सत्यम विप्रः बहुधा वदन्ति", "मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना" है. मैं मानता ही नहीं इस दर्शन को जीता भी हूँ। मेरे लिए ये कोई बात ही नहीं थी कि मेरी शरण में आने वाला यहूदी, पारसी, मुसलमान समाज अपने निजी विश्वासों को कैसे बरतता है। वो अपने रीति-रिवाजों का पालन कैसे करता है। उसने अपने चर्च, सिने गॉग, मस्जिदें कैसी और क्यों बनाई हैं. मेरे ही समाज के बंधु मार कर, सता कर, लालच दे कर अर्थात जैसे बना उस प्रकार से मुझसे अलग कर दिए गए। यदि आप इसे मेरी अतिशयोक्ति मानें तो कृपया इस तथ्य को देखें कि ऐसे हत्याकांडों के कारण ही हिन्दू समाज की लड़ाकू भुजा सिख पंथ बनाया गया। गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान, गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों साहबजादों की हत्याओं को किस दृष्टि से देखा जा सकता है ?

मगर एक अजीब बल्कि किसी भी राष्ट्र के लिए असह्य बात, ये देखने में आई कि राष्ट्र पर हमला करने वाले इन आक्रमणकारियों के प्रति मेरे ही इन मतांतरित हिस्सों ने कभी रोष नहीं दिखाया। इनकी कभी निंदा नहीं की, बल्कि इन्हीं मतांतरित बंधुओं ने इन हमलावरों के प्रति प्यार और आदर दिखाया। इन आक्रमणकारियों ने जिनके पूर्वजों की हत्याएं की थी, उनकी पूर्वज स्त्रियों के साथ भयानक अनाचार किये थे, उन्हें हर कथनीय-अकथनीय ढंग से सताया था, उनके लिए मेरे ही राष्ट्र बंधुओं में आस्था कैसे प्रकट हो गयी ? इन हमलावरों के नाम पर देश के मार्गों, भवनों के नाम का आग्रह इन मतांतरित बंधुओं ने क्यों किया ? मेरे ही हिस्से मज़हब का बदलाव करते ही अपने मूल राष्ट्र के शत्रु कैसे और क्यों बन गए ? क्या इसका कारण इस्लामी ग्रंथों में है ? क्या इस्लाम राष्ट्र-वाद का विरोधी है ?

मैं सारे देश भर में घूमता रहता हूं. मुझे सड़कों के किनारे तहमद-कुरता या कुरता-पजामा पहने , गठरियाँ सर पर उठाये लोगों के चलते हुए समूह ने कई बार आकर्षित किया है. ये लोग अपने पहनावे के कारण स्थानीय लोगों में अलग से पहचाने जाते हैं. मेरी जिज्ञासा ने मुझे ये पूछने पर बाध्य किया कि ये लोग कौन हैं ? कहाँ से आते हैं ? इनके दैनिक ख़र्चे कैसे पूरे होते हैं ? उत्तर ने मुझे हिला कर रख दिया. मालूम पड़ा कि ये लोग अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नदवा तुल उलूम-लखनऊ, देवबंद के मदरसे जैसे संस्थानों के अध्यापक और छात्र होते हैं. मेरी दृष्टि में अध्यापकों और छात्रों का काम पढ़ाना और पढ़ना होता है. पहले मैं ये समझ ही नहीं पाया कि ये लोग अपने विद्यालय छोड़ कर दर-दर टक्करें मारते क्यों फिर रहे हैं ? अधिक कुरेदने पर पता चला कि ये कार्य तो सदियों से होता आ रहा है और यही लोग मतांतरित व्यक्ति को अधिक कट्टर मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं। यानी मेरे राष्ट्र के मतांतरित लोगों में जो अराष्ट्रीय परिवर्तन आया है उसके लिए ये लोग भी जिम्मेदार हैं. इन्हीं लोगों के कुकृत्यों पर नज़र न रखने का परिणाम देश में इस्लामी जनसँख्या का बढ़ते जाना और फिर उसका परिणाम देश का विभाजन हुआ. इन तथ्यों से भी पता चलता है कि इस्लाम राष्ट्रवाद का विरोधी है।

ये कुछ अलग सी बात नहीं साम्यवाद भी राष्ट्रवाद का विरोधी है मगर कभी भी एक देश के साम्यवादी उस देश के शासन और राष्ट्र के ख़िलाफ़ किसी दूसरे देश के कम्युनिस्ट शासन के बड़े पैमाने पर पक्षधर नहीं हुए हैं. मैं इस बात को सहज रूप से स्वीकार कर लेता मगर मेरी समझ में एक बात नहीं आती कि अरब की भूमि और उससे लगते हुए अफ्रीका में कई घोषित इस्लामी राष्ट्र हैं. इनमें अरबी या उससे निसृत कोई बोली बोली जाती है तो ये देश एक देश क्यों नहीं हो जाते ? इस्लामी बंधुता अथवा उम्मा की भावना क्या केवल अरब मूल के बाहर के लोगों के लिए ही है ? सऊदी अरब, क़तर, संयुक्त अरब अमीरात इत्यादि देश आर्थिक रूप से बहुत संपन्न देश हैं. ये देश भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश में मस्जिदें, मदरसे बनाने के लिए अकूत धन भेजते रहे हैं मगर क्या कारण है कि सूडान के भूख-प्यास से मरते हुए मुसलमानों के लिए ये कुछ नहीं करते ? क्या इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है ? यहाँ एक चलता हुआ प्रश्न पूछने से स्वयं को नहीं रोक पा रहा हूं. मैंने मुरादाबाद के एक इस्लामी एकत्रीकरण जिसे आप इज्तमा कहते हैं, में ये शेर सुना था

मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मारे गर्मी के आवें पसीने मुझे 

मेरी जानकारी में मदीना रेगिस्तान में स्थित है और वहां बर्फ़ नहीं पड़ती. भारत से कहीं अधिक गर्म स्थान में जाने की इच्छा मेरी बात '' इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है '' की पुष्टि करती है. लाखों हिन्दू भारत से बाहर रहते हैं. उनमें गंगा स्नान, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुरी इत्यादि तीर्थों के दर्शन की इच्छा होती है मगर मैंने कभी नहीं सुना कि वो टेम्स, कलामथ, कोलोराडो या उन देशों की नदियों पर लानतें भेजते हुए गंगा में डुबकी लगाने के लिए भागे चले आने की बातें कहते हों.
मैं एक शायर हूँ और लगभग चौंतीस-पैंतीस साल से मुशायरों में जाता हूँ ईराक युद्ध के समय मैं बहुत से मुशायरों में शायर के नाते जाता था. वहां मुझे सद्दाम हुसैन के पक्ष में शेर सुनने को मिलते थे और श्रोता समूह उनके पक्ष में खड़ा हो कर तालियां पीटता था. एक शेर जो मूर्खता की चरम सीमा तक हास्यास्पद होने के कारण मुझे अभी तक याद है आपको भी सुनाता हूं

ये करिश्मा भी अजब मजहबे-इस्लाम का है
इस बरस जो भी हुआ पैदा वो सद्दाम का है

इस शेर पर हज़ारों लोगों की भीड़ को मैंने तालियां पीटते, जोश में आ कर नारा-ए-तकबीर बोलते सुना है. मैं ये कभी समझ नहीं पाया कि अपनी संतान का पिता सद्दाम हुसैन को मानना यानी अपनी पत्नी को व्यभिचारी मानना किसी को कैसे अच्छा लग सकता है ? मगर ये स्थिति कई मुशायरों में एक से बढ़ कर एक पाई तो समझ में आया कि वाकई ये करिश्मा इस्लाम का ही है। एक अरबी मूल के व्यक्ति के पक्ष में, जिसको कभी देखा नहीं, जिसकी भाषा नहीं आती, जिसके बारे में ये तक नहीं पता कि वो बाथ पार्टी का यानी कम्युनिस्ट था, केवल इस कारण कि वो एक अमुस्लिम देश अमरीका के नेतृत्व की सेना से लड़ रहा है, समर्थन की हिलोर पैदा हो जाने का और कोई कारण समझ नहीं आता। यहाँ ये बात देखने की है कि इस संघर्ष का प्रारम्भ सद्दाम हुसैन द्वारा एक मुस्लिम देश क़ुवैत पर हमला करने और उस पर क़ब्ज़ा करने से हुआ था. ईराक़ और क़ुवैत के लिए ये लड़ाई इस्लामी नहीं थी मगर भारत, पाकिस्तान, बंगला देश के मुसलमानों के लिए थी. इसे अरब मूल के पक्ष में अन्य मुस्लिम समाज की मानसिक दासता न मानें तो क्या मानें ? इसका कारण इस्लाम को न माने तो किसे मानें ?

इन तथ्यों की निष्पत्ति ये है कि इस्लाम अपने धर्मान्तरित लोगों से उनकी सबसे बड़ी थाती सोचने की स्वतंत्रता छीन लेता है। धर्मान्तरित मुसलमान अपने पूर्वजों, अपनी धरती के प्रति आस्था, अपने लोगों के प्रति प्यार, अपने इतिहास के प्रति लगाव से इस हद तक दूर चला जाता है कि वो अपने अतीत, अपने मूल समाज से घृणा करने लगता है ? उसमें ये परिवर्तन इस हद तक आ जाता है कि वो अरब के लोगों से भी स्वयं को अधिक कट्टर मुसलमान दिखने की प्रतिस्पर्धा में लग जाता है। सर सलमान रुशदी की किताब के विरोध में किसी अरब देश में हंगामा नहीं हुआ। फ़तवा ईरान के ख़ुमैनी ने बाद में दिया था मगर हंगामा भारत, बंगला देश, पाकिस्तान में पहले हुआ। ऐसा क्यों है कि एक किताब का, बिना उसे पढ़े इतना उद्दंड विरोध करने में अरब मूल से इतर के लोग आगे बढे रहे ? क्या इसकी जड़ें अपने उन पड़ौसियों, साथियों, को जो मुसलमान नहीं हैं, का इस्लाम के आतंक और उद्दंडता से परिचित करने में हैं ? अगर आप उसे ठीक नहीं मानते थे तो क्या इसका शांतिपूर्ण विरोध नहीं किया जाना चाहिए था ? सभ्य समाज में पुस्तक का विरोध दूसरी पुस्तक लिख कर सत्य से अवगत करना होता है मगर ऐसा क्यों है कि सभ्य समाज के तरीक़ों का प्रयोग मुस्लिम समाज नहीं करता ? जन-प्रचलित भाषा में पूछूं तो इसे ऐसा कहना उचित होगा कि मुसलमानों का एक्सिलिरेटर हमेशा बढ़ा क्यों रहता है ?

क्या इस्लाम तर्क, तथ्य, ज्ञान की सभ्य समाज में प्रचलित भाषा-शैली का प्रयोग नहीं करता या नहीं कर सकता ? ऐसा क्यों है कि इस्लामी विश्व, शालीन समाज के तौर-तरीक़ों से विलग है ? किसी भी इस्लामी राष्ट्र में संगीत, काव्य, कला, फिल्म इत्यादि ललित कलाओं के किसी भी भद्र स्वरूप का अभाव है. इस्लामी राष्ट्रों में संयोग से अगर ऐसा कुछ है भी तो उसके ख़िलाफ़ इस्लामी फ़तवे, उद्दंडता का प्रदर्शन होता रहता है ? विभिन्न दबावों के कारण अगर ये साधन नहीं होंगे तो समाज उल्लास-प्रिय होने की जगह उद्दंड हत्यारों का समूह नहीं बन जायेगा ? यहाँ ये पूछना उपयुक्त होगा कि बलात्कार जैसे घृणित अपराधों में सारे विश्व में मुसलमान सामान्य रूप से अधिक क्यों पाये जाते हैं ? उनके नेतृत्व करने वाले सामान्य ज्ञान से भी कोरे क्यों होते हैं ? क्या ये परिस्थितयां ऐसे हिंसक समूह उपजाने के लिए खाद-पानी का काम नहीं करतीं ?

ऐसा क्यों है कि इस्लाम सारे संसार को अपना शत्रु बनाने पर तुला है ? यहूदियों के ऐतिहासिक शत्रु ईसाइयों को ग़ाज़ा में इज़रायल के बढ़ते टैंक अपनी विजय क्यों प्रतीत होते हैं ? क्या इसका कारण आचार्य चाणक्य का सूत्र " शत्रु का शत्रु स्वाभाविक मित्र होता है " तो नहीं है ? ईसाइयों ने यहूदियों से शत्रुता हज़ारों साल निभायी, निकाली मगर इस्लाम के विरोध में वो एक साथ क्यों हैं ?

सामान्य भारतीय मुसलमान इस्लाम के बताये ढंग से नहीं जीता। मुहम्मद जी के किये को सुन्नत ज़रूर मानता है मगर उसे अपने जीवन में नहीं उतारता. इस्लाम ऐसे अनेकों काम पिक्चर देखना, दाढ़ी काटना, संगीत सुनना, शायरी करना इत्यादि के विरोध में है मगर आप इन विषयों में उसकी एक नहीं मानते तो इन राष्ट्र विरोधी कामों के विरोध में क्यों नहीं खड़े होते ? जितने हंगामों की चर्चा मैंने पहले की है उनमें सारा भारतीय मुसलमान सम्मिलित नहीं था मगर वो इन बेहूदगियों का विरोध करने की जगह चुप रहा है।

देश में फैले लाखों मदरसों और लाखों मुल्लाओं के प्रचार के बावजूद ईराक़ जाने वाले 20 लोग नहीं मिले जबकि संसार के अन्य देशों से ढेरों लोग सीरिया और ईराक़ गए हैं. अभी तक मुल्ला वर्ग अपने पूरे प्रयासों के बाद भी अपनी दृष्टि में आपको पूरी तरह से असली मुसलमान यानी तालिबानी नहीं बना पाया है. आपने उनकी बातों की लम्बे समय से अवहेलना की है मगर अब पानी गले तक आ गया है। आपको उनके कहे-किये-सोचे के कारण उन बातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, आप जिनके पक्ष में नहीं हैं। आपको आपकी इच्छा के विपरीत ये समूह अराष्ट्रीय बनाने पर तुला है. आपको अब्दुल हमीद की जगह मुहम्मद अली जिनाह बनाना चाहता है। मैं समझता हूं कि आपको संभवतः मुल्ला पार्टी का दबाव महसूस होता होगा। देश बंधुओ इनका विरोध कीजिये. आपके साथ पूरा राष्ट्र खड़ा है और होगा। भारत में प्रजातान्त्रिक क़ानून चलते हैं. यहाँ फ़तवों की स्थिति कूड़ेदान में पड़े काग़ज़ बल्कि टॉयलेट पेपर जितनी ही है और होनी चाहिए। भारत एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों का राष्ट्र है. यहाँ का इस्लाम भी अरबी इस्लाम से उसी तरह भिन्न है जैसे ईरान का इस्लाम अरबी इस्लाम से अलग है। यही भारतीय राष्ट्र की शक्ति है। आप महान भारतीय पूर्वजों की वैसे ही संतान हैं जैसे मैं हूं। ये राष्ट्र उतना ही आपका है जितना मेरा है। आप भी वैसे ही ऋषियों के वंशज हैं जैसे मैं हूं। आपको राष्ट्र-विरोधी बनाने पर तुले इन मुल्लाओं को दफ़ा कीजिये, इन से दूर रहिये और इन पर लानत भेजिए. आइये अपनी जड़ों को पुष्ट करें

तुफ़ैल चतुर्वेदी

कांधला के निकट एक ट्रेन में तब्लीगी जमात के कुछ लोगों के साथ मार-पीट

ये ओसामा बिन लादेन के तिक्का-बोटी दिवस की बरसी थी। टी वी के इक्का-दुक्का चैनलों पर घूँघट काढ़े एक समाचार फ़्लैश हुआ कि कांधला के निकट एक ट्रेन में तब्लीगी जमात के कुछ लोगों के साथ मार-पीट हुई और अगले दिन बीकानेर से हरिद्वार जाने वाली ट्रेन रोक कर उस पर पत्थर बरसाए गए। एक-आध बार के बाद घूँघट वाला शरमाया-शरमाया समाचार भी गायब हो गया मगर सोशल मीडिया विशेष रूप से फेस बुक पर 'एक और असफल गोधरा' के शीर्षक से ये समाचार बड़े विस्तार से चर्चा का केंद्र बना। घटना की मोटी-मोटी जानकारी ये है कि तब्लीगी जमात के एक समूह ने ट्रेन में यात्रा कर रहे लोगों { काफिरों } को कुफ्र-ईमान, दारुल-हरब और दारुल-इस्लाम समझने का प्रयास किया। इस पर कुछ बहस हुई। बहस धींगा-मुश्ती में बदल गयी और जमातियों के गाल गुलाबी हो गए। 

 इसका एक वर्ज़न और भी है जो एक कुटे हुए जमाती ने बताया है। उसके अनुसार वो और उसके कुछ साथी दिल्ली में एक इज्तमा { इस्लामी एकत्रीकरण } में भाग लेने महाराष्ट्र से आये थे। इज्तमा के बाद उनकी इच्छा अपने मूल केंद्र सहारनपुर स्थित मदरसे मजाहिरे-उलूम जाने की हुई। वो ट्रेन में सवार हुए। रास्ते में वो पेशाब जाने के लिए सामूहिक रूप से उठे। टायलेट के दरवाजे पर भीड़ थी। उन्होंने वहां खड़े लोगों से रास्ता छोड़ने के लिए कहा और वहां खड़े लोगों ने उनकी पिटाई शुरू कर दी। किसी भी तरह ये मानना कठिन है कि पेशाब करने जाने के निवेदन पर लोगों ने 6 मासूम लोगों को अकारण पीटना शुरू कर दिया होगा। मारपीट का प्रारम्भ सदैव बातचीत के बहस, बहस के कठहुज्जती, कठहुज्जती के व्यक्तिगत कटाक्षों / आक्षेपों में बदल जाने के कारण होता है। बहरहाल पिटे-छिते जमातियों ने अगले स्टेशन पर ट्रेन से उत्तर कर स्थानीय इमाम से सम्पर्क किया। इमाम ने सैकड़ों लोगों के साथ थाना घेर लिया। प्रशासन ने मामला दर्ज कर जाँच के आदेश दे दिये। 

कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार दिल्ली से सहारनपुर जा रही ट्रेन में महाराष्ट्र के पांच जमातियों के साथ मारपीट का कारण ये था कि ट्रेन में तबलीगी मुजाहिद कुछ महिलाओं को छेड़ रहे थे। महिलाओं के प्रतिवाद करने पर यात्रिओ ने उन्हें जुतियाया। समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक नाहीद हसन को इस जाँच के आदेश से चैन नहीं पड़ा और उन्होंने अगले दिन अपने हजारों समर्थकों के साथ ट्रेन की पटरी पर धरना दिया। भीड़ उग्र हो उठी और उसने बीकानेर से हरिद्वार जा रही ट्रेन नंबर 04735 को रोक कर उस पर पथराव किया। उसमें आग लगाने की कोशिश की। स्थानीय डी एम के नेतृत्व में पुलिस ने भीड़ को लाठी चार्ज कर के तितर-बितर कर दिया और ट्रेनों को आगे रवाना किया। इस घटना में 16 पुलिस वाले भी घायल हुए। 

इससे पहले कि ये विषय समाज के ध्यान से उतर जाये, आवश्यक है कि इस बात, बहस, झगडे, उपद्रव की जड़ तक जाया जाये, अर्थात समझा जाये कि जमात किस बला का नाम है ? जमात का शाब्दिक अर्थ समूह है मगर इसके व्यवहारिक अर्थ हैं ' उन लोगों का समूह जो नवधर्मांतरित मुस्लिमों को कट्टर मुसलमान यानी अपनी दृष्टि में सही मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं'। जमात इस्लामी चिंतन का पहले दिन से हिस्सा हैं। इस्लाम ने अपने जन्म के साथ ही अपनी दृष्टि से संसार के दो भाग किये। पहला अहले-इस्लाम यानी मुसलमान और उनके प्रभुत्व-स्वामित्व वाली धरती यानी दारुल-इस्लाम।  दूसरा मुस्लमों से इतर लोगों यानी काफिरों, मुशरिकों, मुलहिदों, मुन्किरों, मुरतदों का समाज और उनकी धरती यानी दारुल-हरब अर्थात युद्ध क्षेत्र।  दारुल-हरब के लोगों को मुसलमान बनाना और दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में बदलना हर मुसलमान का कर्तव्य है। यही इस्लाम के पहले दिन यानी 1400 वर्षों से पल-पल, क्षण-क्षण विचार, क्रिया के स्तर पर घटित होने वाला उपद्रव है। यही जिहाद है। 

ये बहला-फुसला कर, मार-पीट कर, लड़कियां भगा कर यानी जैसे बने करने वाला अनवरत द्वंद्व है। इस प्रक्रिया को इस तरह समझें। मान लीजिये कि कोई मतिमन्द , मतकटा हिन्दू, ईसाई, पारसी, यहूदी किसी तरह मुसलमान बनाने के लिए तैयार हो जाये तो एक दाढ़ीदार मुल्ला उसे कलमा पढ़ायेगा और उसका नाम बदल कर अरबी मूल का रख देगा। मगर धर्मान्तरित व्यक्ति और मुल्ला समूह ऐसे ही नहीं मान लेगा कि वो मुसलमान हो गया चूँकि इस्लाम की मांगें तो सम्राज्यवादी हैं। अब अनिवार्य रूप से उस व्यक्ति को अपने पूर्वजों से आत्मिक-मानसिक सम्बन्ध तोड़ने होंगे। अपने आस्था केन्द्रों, अपनी धरती, अपनी प्रथाओं, अपने इतिहास पुरुषों से घृणा करनी पड़ेगी। स्वयं को कृतिम रूप से अरबी बनाने के काम में लगना पड़ेगा। ये कुछ-कुछ अफ़्रीकी मूल के अमरीकी गायक माइकिल जैक्सन के अपने शरीर की काली चमड़ी को गोरा करवाने की तरह है। इस प्रक्रिया में माइकिल जैक्सन को बरसों रात-दिन भयानक पीड़ा होती रही और अंत में पीड़ा-निवारक दवाओं के भारी सेवन के कारण ही उसके प्राण निकले। 

ये कार्य अत्यंत दुष्कर है अतः पीढ़ियों चलता है। हर पीढ़ी को मार-मार कर मुसलमान रखना पड़ता है। जमात इसी काम को समझा-बुझा कर करने वाला उपकरण है। जमात में सम्मिलित व्यक्ति मानसिक रूप से काफिरों से नापाक धरती की अल्लाह की धरती बनाने में लगा रहता है। ये मदरसों, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अध्यापक और छात्रों का समूह होते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़ कर देश के अन्य भागों का मुसलमान अभी तक पूरी तरह तालिबानी नहीं बना है। ये समूह छुट्टियों में भारत के मुस्लिम क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं और उसे दिन में पांच बार नमाज़ पढने, अल्लाह एक है और उसमें कोई शरीक नहीं है-बताने, मुहम्मद उसका आखिरी पैगम्बर है समझाने में लग जाते हैं। कुरआन में मुकम्मल दीन है , मुहम्मद का किया-धरा जो हदीसों में वर्णित है को अपने जीवन में उतारने को सुन्नत बताने,  सुन्नत को जीवन में उतारना अनिवार्य है समझाने,  यानी 1400  वर्ष पूर्व के अरबी चिंतन को आज के लोगों के दिमाग में ठूंसने में अनवरत कोशिश करते हैं। नवधर्मांतरित मुसलमानों को  को सही मुसलमान बनाना यानी तालिबानी बनाना बड़ा पवित्र काम है। 

ऐसा करना जन्नत का दरवाजा खोलता है। जहाँ 72 कुंवारी हूरें हैं जिनके साथ अनंत काल तक बिना थके, बिना रुके, बिना स्खलित हुए भोग किया जा सकता है। ये हूरें भोग के बाद फिर से कुंवारी हो जाने की अजीब सी, अनोखी क्षमता रखती हैं। जन्नत में गिलमां भी { कमनीय काया वाले लड़के } तत्पर मिलते हैं। तिरमिजी के खंड 2 पृष्ठ 138 में कहा गया है ' जो आदमी जन्नत जाता है उसे 100 पुरुषों के पुरुषत्व के बराबर पौरुष दिया जायेगा' 'उनके पास ऐसे लड़के आ जा रहे हैं जिनकी अवस्था एक ही रहेगी तुम उन्हें देखो तो समझोगे कि मोती बिखरे हैं'। अब उन लोगों की कल्पना कीजिये जो हर पल इस अहसास से भरे हैं कि वो काफिरों, शैतानों को दुनिया में हैं। उनका काम इसे बदलना है और पुरुस्कार रूप में जन्नत जाना है। इन लोगों के लिए पृथ्वी घर नहीं है। पृथ्वी तो ट्रांजिट कैम्प है जहाँ इस्लाम की खिदमत करते हुए अपनी सूखी-सड़ी बीबियों के साथ कुछ समय बिताना है। असली घर तो जन्नत है जहाँ हूरें और गिलमां आतुरता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लार टपकाता, कमर लपलपाता हुआ ये मानस हर समय इसी उधेड़-बुन में लगा रहता है और जगह-बेजगह विवाद खड़े करता है।

नमाज में एक क्रिया होती है। नमाज पढ़ने वाला अपने दायें हाथ की तर्जनी उठा कर कहता है खुदा एक है और मैं इसकी गवाही देता हूँ। यही बात संभवतः यही विवाद की जड़ थी। ट्रेन में ऐसे लोग भी थे जिन्होंने दायें हाथ की चारों उँगलियाँ, अंगूठा और हथेली की गद्दी उठा कर प्रमाणित किया कि वो इसके विपरीत गवाही दे रहे हैं। इस मासूम सी क्रिया के कारण गाल गुलाबी करने और फांय-फांय करने की क्या ज़रूरत है ?
…………………………"इस तरह के कामों में इस तरह तो होता है "

खैर जमात पर लौटते हैं। जमातों का कार्य कितनी प्रबलता से और अनवरत किया जाता है, को इस रौशनी में देखें। अफगानिस्तान के हिन्दू-बौद्ध अतीत को नोच-नोच कर, खुरच-खुरच कर अफगानी समाज से निकलने का काम इन्हीं जमतियों ने किया है। कश्मीर में भारत विरोधी भावनायें भड़काने का काम, कश्मीरी समाज को भारत द्रोही-हिंदुद्रोही बनाने का काम वहां सदियों से आ रही तब्लीगी जमातों और इनके अड्डे मदरसों ने किया है। पारसी, बहाई, इस्माइली तीनों मज़हबों का जन्म ईरान में हुआ मगर आज इनका नामलेवा-पानीदेवा ईरान में कोई नहीं बचा। इनके मानने वाले प्रमुख रूप से भारत में पाये जाते हैं। कहने के लिए कुछ मुल्ला कहते हैं कि मजहब में कोई जबरदस्ती नहीं तो ये तीनों ईरान से कैसे गायब हो गए ? इसकी जड़ में यही तब्लीगी जमातों का अनवरत परिश्रम है। अतीत में भारतीय अपने स्वाभाविक संस्कारों के कारण इस धर्मांतरण को गुरु बदलने की तरह देखते थे। ऐसी भोली-भाली मगर बौड़म सोच का परिणाम बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण और उसकी अनिवार्य परिणिति देश के उन हिस्सों के भारत से टूट जाने में हुई। 

आज उत्तर प्रदेश को उत्तर भारत कहा जाता है। सर कनिंघम 1871 में छपी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Ancient Geography Of India में उत्तर प्रदेश से हजारों मील दूर गजनी को उत्तर भारत दिखाते हैं। अफगानिस्तान का गजनी 1871 में उत्तर भारत था तो भारत की सीमा कहाँ थी ? भरत-वंशियो ! आपके महान तेजस्वी पूर्वज 1000 वर्ष पहले रोम ही तक विजय कर के आये हैं। आज भी जिसकी घोषणा करता शिलालेख उज्जैन में लगा हुआ है। शक, हूण, कुषाण, यवन, पल्हव, बाल्हीक, किरात, पारद, दरद आपके ही रक्त-मांस के सहोदर भरतवंशी क्षत्रिय हैं। महाकाल और भगवती दुर्गा के अनन्य उपासक महान योद्धा शकों, हूणों और इन उल्लेखित योद्धा जातियों के इन्हीं नामों से रामायण और महाभारत में वर्णन उपलब्ध हैं। आपके महान पूर्वजों के साम्राज्य इन क्षेत्रों में सदियों रहे हैं। बंधुओं सारा यूरेशिया हमारा था। ये क्षेत्र हमारी सैनिक पराजयों के कारण अलग नहीं हुए। कनिंघम के गजनी में दिखाए उत्तर भारत को इन जमातों के कारण केवल 144 वर्ष में हजारों मील खिसक कर मुजफ्फरनगर-कांधला आना पड़ गया। देश को तोड़ने का काम करने वाली जमातों का विरोध मध्य भारत से जबरदस्ती खिसका कर उत्तर भारतीय बना दिए गए भरतवंशी कर रहे हैं तो ये तो पुण्य कार्य है, राष्ट्र-रक्षा का कार्य है। आखिर हिन्दुस्तान की चिंता हिन्दू नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? तब्लीगी जमात के मुल्ला मीठी बोली में नहीं सुनते तो मेरठ-मुजफ्फरनगर की खड़ी बोली में समझाने के अलावा और क्या उपाय है ? 

तुफैल चतुर्वेदी         

सोमवार, 16 नवंबर 2015

नथूराम गोडसे पर मेरी पोस्ट जिसे फ़ेस बुक ने किन्हीं सज्जनों की शिकायत पर हटा दिया, उसे आप चाहें तो मेरे ब्लॉग पर विराट रूप में पढ़ सकते हैं।

सैनिक और हत्यारे में क्या अंतर है ? हत्यारा व्यक्तिगत कारण से किसी के प्राण लेता है किन्तु सैनिक सदैव राष्ट्र के हित के लिये शत्रु के प्राण लेता है। उसके कारण हम सुरक्षित होते हैं। हत्यारे को व्यवस्था प्राणदंड देती है किन्तु सैनिक को वीर-चक्र, महावीर-चक्र, परमवीर-चक्र देती है। उसकी समाधि पर प्रधानमंत्री सैल्यूट करते हैं। समाज फूल चढ़ाता है। केवल लक्ष्य के अंतर से एक उपेक्षा और दूसरा प्रशंसा पाता है।

राष्ट्र के इतिहास में अगर किसी एक व्यक्ति का नाम ढूंढा जाये, जिसके कारण देश का एक तिहाई भाग ग़ुलाम बन गया। लाखों लोग हिन्दू मारे गए, करोड़ों हिंदुओं को अपनी संपत्ति, भूमि, व्यापार छोड़ कर अनजाने क्षितिज की और आना पड़ा, जिसके कारण पवित्र मातृभूमि का बंटवारा हुआ, हिन्दू समाज पर इतिहास की सबसे बड़ी विपत्ति आयी। जिसके कारण सर्वाधिक हिन्दू नष्ट हुए। जिसके कारण वेदों के प्रकट होने का स्थान ग़ुलाम हो गया, जिसके कारण भारत का ध्वज स्वर्ण गैरिक भगवा के स्थान पर तिरंगा हुआ, जिसके कारण वंदेमातरम् की जगह चाटुकारिता का गीत जन-मन-गण हम पर लाद दिया गया, जिसने 1948 में देश पर पाकिस्तानी आक्रमण के समय पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने के लिये आमरण-अनशन किया तो केवल एक मात्र गांधी जी का नाम आयेगा। जितने भयानक हत्याकांड 300 वर्ष का मुस्लिम शासन भी नहीं कर पाया था, उससे अधिक के निमित्त गांधी जी बने ।

उनको दंड देने का कार्य राज्य का था मगर राज्य ने यह कार्य नहीं किया अतः जिस व्यक्ति ने ये आवश्यक कार्य किया वो समाज की उपेक्षा का शिकार है। नथु राम गोडसे की कोई निजी शत्रुता गांधी जी से नहीं थी। वो सुशिक्षित वकील थे। समाचारपत्र के सम्पादक थे। वो जानते थे " गांधी जी को प्राणदंड देते ही मैं नष्ट कर दिया जाऊंगा। मेरा परिवार नष्ट कर दिया जायेगा मगर किसी को भी मातृभूमि के विभाजन का घोर पाप करने का अधिकार नहीं है। ऐसे पापी को दण्डित करने का और कोई उपाय नहीं था अतः मैंने गांधी जी का वध करने का निश्चय किया। मैं गांधी जी पर गोली चलाने के बाद भागा नहीं और तबसे अनासक्त की भांति जीवन जी रहा हूँ। यदि देशभक्ति पाप है तो मैं स्वयं को पापी मानता हूँ और पुण्य तो मैं स्वयं को उस प्रशंसा का अधिकारी मानता हूँ"! हमारे हित के लिये अपने परिवार सहित स्वयं को बलिदान कर देने वाले महापुरुष की छवि उज्जवल हो इतना तो हमें करना ही चाहिये। उस परमवीर महापुरुष नथु राम गोडसे को शत-शत प्रणाम
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देश-वासियो !
कोई भी काम अपने लक्ष्य के कारण छोटा/बड़ा/महान होता है। हम सब अपनी संपत्ति, परिवार, जीवन की रक्षा करते हैं मगर सम्मान सैनिक को मिलता है चूँकि वो निजी काम की जगह समष्टि की रक्षा करता है। यहाँ ध्यान रहे, सैनिक का काम उसे जीवन-यापन भी कराता है, अर्थात देश की रक्षा में लगे सैनिक और उसके परिवार का जीवन सैनिक के वेतन पर निर्भर होता है। उसे कठिन जीवन जीना होता है मगर बलिदान हो जाना कोई आवश्यक नहीं होता। तो उस सामान्य मनुष्य को क्या कहेंगे जिसने अपना जीवन राष्ट्र के लिए बलिदान कर दिया। एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपना सम्मान प्राणों से भी प्यारा था, जिसे पता था कि उसके गोली चलाते ही उसका, उसके परिवार का जीवन पूर्णतः नष्ट कर दिया जाये, लोग उस पर थू थू करेंगे मगर देश और राष्ट्र के हित में उसने अपना बलिदान कर दिया ? महान राष्ट्र भक्त नथु राम गोडसे के अतिरिक्त ऐसा पूज्य योद्धा कौन है ?

राष्ट्र के इतिहास में अगर किसी एक व्यक्ति का नाम ढूंढा जाये, जिसके कारण लाखों लोग हिन्दू मारे गए, करोड़ों हिंदुओं को अपनी संपत्ति, भूमि, व्यापार छोड़ कर अनजाने क्षितिज की और आना पड़ा, जिसके कारण पवित्र मातृभूमि का बंटवारा हुआ, किसके कारण वेदों के प्रकट होने का स्थान ग़ुलाम हो गया, जिसके कारण भारत का ध्वज स्वर्ण गैरिक भगवा के स्थान पर तिरंगा हुआ, जिसके कारण वंदेमातरम् की जगह चाटुकारिता का गीत जन-मन-गण हम पर लाद दिया गया तो केवल एक मात्र गांधी जी का नाम आयेगा। जितने भयानक हत्याकांड 300 वर्ष का मुस्लिम शासन भी नहीं कर पाया था, उससे अधिक के निमित्त गांधी जी बने । ऐसे व्यक्ति का प्राणांत करने वाला योद्धा क्या महापुरुष कहलाने का अधिकारी नहीं है ? ये उस महापुरुष की विडम्बना है कि उसने हिन्दू समाज के लिये बलिदान दिया। कहीं वो मुसलमान होते तो मुस्लिम समाज कृतज्ञता से उनके पैर धो धो कर पीता

सोमवार, 9 नवंबर 2015

आठ नवंबर की सुबह से सोशल मिडिया, ट्विटर इत्यादि पर मौन छाया हुआ है।

आठ नवंबर की सुबह से सोशल मिडिया, ट्विटर इत्यादि पर मौन छाया हुआ है। इसका कारण है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा हार गयी और नितीश कुमार, लालू यादव का गठबंधन जीत गया। यह एक राजनैतिक घटना है और ज़ाहिर है इसके निहितार्थ भी होंगे। भिन्न-भिन्न लोग अपने-अपने हिसाब से इसका राजनैतिक विश्लेषण भी करेंगे ? यह न हुआ होता और यह हो गया होता जैसी ढेर सारी बातें निकली जायेंगी मगर इस हार के कारण मित्रो आपमें ग्लानि का भाव कैसे दिख रहा है ?
आक्षेप के स्वर में पूछ रहा हूँ क्या आप यहाँ बिहार में सुशील मोदी या भाजपा के किसी अन्य नेता की सरकार बनवाने के लिये प्राणप्रण से सक्रिय थे ? क्या आपका लक्ष्य भारत माता को जगज्जननी के सिंहासन पर बैठे देखने की जगह बिहार में भाजपा की सरकार बनवाना था ? क्या आपका लक्ष्य राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति नहीं है ? क्या आप राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर विराजमान देखने के अतिरिक्त भी कुछ चाहते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप सब अपनी आजीविका, विकास के लिये किसी पर निर्भर नहीं हैं ? कोई संगठन आपको सोशल मिडिया पर नहीं लाया है। राष्ट्र की चिंता, उसके प्रति जागरूकता, उस के प्रति पीड़ा आपको बाध्य करती है कि आप अपना समय केवल स्वयं को देने के स्थान पर समाज के हित में लगाते हैं।
ज़ाहिर है आप जिस लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं उसके लिये बिहार में नितीश कुमार, लालू यादव, इटैलियन देवी के गठबंधन के स्थान पर भाजपा का होना सहयोगी होता मगर निश्चित ही आपका कार्य केंद्र और प्रदेशों में भाजपा की सरकारें बनवाना नहीं है। आपका लक्ष्य उससे बहुत बड़ा है। आपकी लड़ाई तो बहुत लंबी है। सदियों से आहत, क्लांत, खिन्न राष्ट्र को उबारना, उभारना आपका कार्य है। तो एक छोटी पराजय से सम्पूर्ण सेना हत-बल, हत-तेज कैसे दिखाई दे रही है ? राष्ट्र के शरीर पर लगे 1200 वर्ष के घाव एक प्रान्त की हारजीत से भरने से रहे। भारत माता के कटे हुए दोनों हाथ बिहार की जीत से वापस तो हो नहीं सकते थे।
आप का मनोबल टूटना पदातिकों का मनोबल टूटना नहीं है बल्कि सेनापतियों का मनोबल टूटना है ? हुंकार भरिये । बहुत से लोग रोकेंगे मगर जीतना तो है। कई बाधायें आएँगी, कई हार होंगी मगर अंतिम विजय राष्ट्रवादियों की यानी आपकी ही होगी। ये महाभारत आपको जीतना ही है। संभव है ये कार्य 10-15 की जगह 20-30 वर्ष ले ले मगर कटिबद्ध तो होना ही है।
विश्व इस दानव से जूझने के लिये तैयार होता दिख रहा है। रूस ने इस्लामी ख़िलाफ़त के दावेदार और वर्तमान स्वरूप आई.एस.आई.एस. की लगातार ठुकाई के बाद डेढ़ लाख सैनिक सीरिया में उतार दिए हैं। सीरिया पर होने वाले किसी भी हमले को रूस स्वयं पर हमले की तरह लेगा। अमरीका के नेतृत्व में सीरिया पर होने वाले आक्रमण के जवाब में रूस तुरंत सऊदी अरब पर प्रहार करेगा। तृतीय विश्व युद्ध के बादल विश्व-क्षितिज पर घिरते दिख रहे हैं। हम भारत-वासी भरतवंशी, हमारा सैन्य विश्व-शांति के इस महायज्ञ में पूर्णाहुति डालने के लिये बाध्य हैं। प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध हम भरतवंशियों ने ही लड़ा था और तीसरा और अंतिम विश्वयुद्ध भी हम ही लड़ेंगे। किसी राष्ट्र के पास इतना सैन्य नहीं है। फिर यह तो 1200 वर्षों से रिसते आ रहे घावों को सिलने का समय है। राष्ट्र को तैयार कीजिये। पौरुष का उसी तरह आह्वान कीजिये जैसा कल तक आप करते आ रहे थे। महाकाल हमें यशस्वी करेंगे और हमारा भारत पुनः अखंड होगा।
तुफ़ैल चतुर्वेदी