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शुक्रवार, 10 नवंबर 2017
जावेद अख़्तर की काइयाँ वाचाली
आजकल whatsapp पर एक वीडिओ बहुत वायरल हो रहा है। इसमें मुंबई फ़िल्म जगत के लेखक-शायर जावेद अख़्तर, कुख्यात पत्रकार राजदीप सरदेसाई और उसी थैली के चट्टे-बट्टे बात करते दिखाई दे रहे हैं। हाल में कई जालीदार टोपियाँ भी मय मुसम्मात दिखाई दे रही हैं। जावेद अख़्तर इस विडिओ में क्लेम कर रहे हैं कि वो " एथीस्ट (नास्तिक) हैं। मैं यह छुप कर नहीं हूँ। मैं यह टीवी पर भी बोलता हूँ। अपने इंटरव्यू में भी बोलता हूँ। मैंने लिखा भी है. मेरा कोई रिलिजियस बिलीव नहीं है। नॉट एट ऑल. आई डोंट बिलीव इन दि एग्ज़िस्टेंस ऑफ़ गॉड. आई डोंट बिलीव एनी वॉइस कम्स फ्रॉम एनी वेयर, बिकॉज़ देयर इज़ नो वेयर नो वन. देट इस आई बिलीव. फिर वो आगे कहते हैं। उसके बारे में यहाँ से ख़त्म कर बात शुरू करता हूँ। इससे आप बात सही प्रोस्पेक्टिव में समझ पायेंगे। यहाँ से एक बात कही। कैनेडा से आप आये हैं। मैंने नोट किया है कि इस मामले में एन.आर.आई. अधिक सेंसटिव होते हैं।"
".... हिन्दू भगवानों की मोकरी की गयी। मुझे लगता है जो लोग रिलिजन का धंधा करते हैं उनकी मोकरी की गयी। एक..... दूसरे मैंने एक इंटरव्यू में ये बात कही थी और बहुत दुःख के साथ कही थी कि शोले में एक सीन था। जिसमें धर्मेंदर जो है जा के शिव जी की मूर्ति के पीछे छुप जाता है और हेमा मालिनी आती है तो धर्मेंदर कहता है। सुनो हम तुमसे... और वो समझती है शिवजी बोल रहे हैं। और वो हाथ जोड़ती है ये करती है..... आज अगर पिक्चर बने तो शायद मैं वो सीन नहीं लिख पाऊँगा। बिकॉज़ इट विल क्रिएट प्रॉब्लम। 1975 में इसका प्रॉब्लम नहीं हुआ था।"
"उनके अनुसार यह इतनी क़ीमती चीज़ है जो उसे आप हाथ से मत जाने दीजिये। व्हाट इस सो ब्यूटीफुल अबाउट हिन्दू कम्युनिटी, हिन्दू कल्चर ? वो ये इजाज़त देता है कि कुछ भी कहो, कुछ भी सुनो और कुछ भी मानो। इस पर हॉल के कुछ लोग ताली पीटते हैं। आगे वो कहते हैं यही वैल्यू, यही ट्रेडिशन है जिसकी वज्ह से इस मुल्क में डेमोक्रेसी है इस मुल्क से निकलेंगे तो मेडिटेरियन कोस्ट तक डेमोक्रेसी नहीं मिलती। मगर मुझे हैरत होती है। आई मीट पीपल जो मुझे कहते हैं साहब पीके में तो आपने हिन्दू धर्म के बारे में तो इतनी लिबर्टी ले ली, क्या मुसलमानों के साथ लेते ? तो क्या मुसलमानों जैसे बनना चाहते हो" आप वैसे मत बनिए बरबाद हो जायेंगे। उन्हें ठीक कीजिये, ख़ुद वैसे मत बनिए। इसी तरह की कई बातों की चर्चा करते हुए यह 4 मिनिट 12 सैकिंड का यह विडिओ समाप्त होता है।
जावेद साहब की घनीभूत पीड़ा है कि शायद वो भगवान शंकर की खिल्ली उड़ाने वाले सीन को आइंदा वैसा लिखने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे। वह एक किसी पुरानी पिक्चर के बारे में कह रहे हैं कि दिलीप कुमार जिनका उनके अनुसार अस्ली नाम यूसुफ़ ख़ान है, ने एक फ़िल्म में भगवान की मूर्ति को उठा कर कहा है कि.... मैं इसे नाले में फेंक दूंगा। पूरे विडियो में उनका यह दर्द हिलोरें मार रहा है कि अब ऐसे डायलॉग नहीं लिखे जा सकते। उनका सुझाव है कि हमें तालिबान नहीं बनना चाहिए।
मैं यहाँ यह समझने में अक्षम हूँ कि वो इस वाक्य में " हमें " शब्द का प्रयोग कैसे और क्यों कर रहे हैं ? इस क्षण तक की मेरी जानकारी के अनुसार वो हिन्दू तो नहीं बने हैं। मेरी दृष्टि में वह स्वयं को एथीस्ट बताने भर से इस महान देश की संस्कृति के आधारभूत समाज हिन्दुओं से ख़ुद को जोड़ने का अधिकार तब तक नहीं है जब तक वो अपनी शुद्धि नहीं करवा लेते। घर वापस नहीं लौट आते। उनकी जानकारी के लिये निवेदन है कि एथीस्ट होना और हिन्दू होना साथ-साथ चल सकता है। यह पूरा वीडियो, हमारी संस्कृति महान है, सहिष्णु है आदि आदि से सना-पुता हुआ है।
जावेद अख़्तर की यह बातें जितनी गंभीर और पवित्र हैं उससे अधिक गंभीर चर्चा, तार्किक चिंतन की मांग करती हैं। बंधुओ, मैं पवित्र भाव से ऐसा ही करने नहा-धो कर, आसन बिछा कर, अगरबत्ती जला कर बैठा मगर क्या किया जाए कि उनके इस जूनियर शायर को उनकी हर बात झूट, बेईमानी, फ़रेब, दग़ा और काफ़िरों के लिये ख़ास सामयिक इस्लामी दाँव तक़ैया नज़र आयी।
बंधुओ, वह वीडियो में ख़ुद को एथीस्ट बता रहे हैं, गॉड से इंकार करते हैं मगर उनके पवित्र मुख से उनका अपना शब्द अल्लाह कुछ नहीं है, नहीं निकला। क्या जालीदार टोपियाँ मय मुसम्मात पर्दादारान की मौजूदगी ज़बान पकड़ कर बैठ गयी ? जावेद अख़्तर ईसाई मूल के नहीं हैं तो फिर यह क्यों कह रहे हैं ? आई डोंट बिलीव एनी वॉइस कम्स फ्रॉम एनी वेयर, बिकॉज़ देयर इज़ नो वेयर नो वन। जावेद आप अपने कुल की परम्परा के अनुसार साफ़ क्यों नहीं बोलते कि कहीं कोई अल्लाह नहीं है। उसका आख़िरी क्या कोई पैग़म्बर नहीं है। उनके मुँह से, जब अल्लाह ही नहीं तो पैग़ाम कैसा, उसका पैग़म्बर कौन क्यों नहीं निकलता ?
उन्हें वीडियो में अपनी लिखी फ़िल्म शोले का भगवान शंकर की खिल्ली उड़ाने वाली बेहूदगी वाला सीन याद आता है मगर उसी शोले की कहानी में पैबन्द की तरह ख़ामख़ा जोड़ा गया पात्र अंधा रहीम चाचा याद नहीं आता। जिसमें अज़ान सुन कर बेटे की लाश पड़ी रहने पर भी "मैं चलता हूँ नमाज़ का टाइम हो गया" वाली नमाज़ की पाबंदी यानी नमाज़ की अत्यंत महान आवश्यकता और उसकी समय पर पढ़े जाने की याद दिलाई जाती है। इससे वो अल्लाह और उसके दीन की पवित्रता कुटिल चालाकी के साथ चुपके से स्थापित कर गए।
वो बला की ऐबदारी बरतते हुए कहते हैं कि भारत के बाद प्रजातंत्र दूर मेडिटरेनियन पर मिलता है। यहाँ वो इस बात को बिल्कुल गोल कर जाते हैं कि भारत के बाद प्रजातंत्र इज़राइल में है और बीच में सब मुसलमान देश हैं। वो इस तथ्य पर चर्चा करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं करते कि क्यों किसी भी इस्लामी देश में प्रजातंत्र यानी सबके समान अधिकार वाली व्यवस्था नहीं है ? वो बराबर के देश की हालत को संकेत में ख़राब कहते हैं मगर बर्बादी के कगार पर पहुँचे पाकिस्तान ही नहीं विश्व में आतंकवाद की स्थिति का कारण इस्लाम है, बताने जगह मुँह में दही जमा लेते हैं। ज़ाहिर है ऐसा कुछ बोलते ही दही बिगड़ जाने का ख़तरा तो होगा ही ना......
बंधुओ, आपको 'शोले' और इसी तरह की फ़िल्मों के क्रम की 'ग़दर एक प्रेम कथा' ध्यान होगी। इसमें सनी दियोल एक सिख बने हैं जो 1947 के दंगों के समय एक मुस्लिम लड़की किसका चरित्र अमीषा पटेल ने निभाया है से विवाह कर लेते हैं। आगे कहानी इस विवाह को इस तरह ठंडा करती है कि उसमें सनी दियोल का पाकिस्तान जाना और वहां मुसलमान बनना दिखा दिया जाता है। संभवतः डाइरेक्टर, प्रोड्यूसर के ध्यान में था कि फ़िल्म में भी किसी सिख लड़के की मुसलमान लड़की की शादी दर्शकों के एक बड़े वर्ग को कुपित कर सकती है और फ़िल्म ठप हो सकती है।
अभी कुछ दिनों पहले आयी एक और फ़िल्म गोलमाल-4 ध्यान कीजिये। उसमें एक ऐसे पात्र को जिसे भूत दिखाई पड़ते हैं, एक प्रेत अपनी समस्या बताता है। मैं हिंदू था और मेरी बेटी ने एक मुसलमान से शादी कर ली। मैं उससे बहुत नाराज़ था। बाद में मेरी नाराज़गी दूर हुई और मैंने उसे पत्र लिखे मगर भेज नहीं पाया और मेरी मृत्यु हो गयी। वह पत्र मेरी बेटी को भिजवा दो तो मेरी आत्मा को शांति मिल जाएगी। लड़की को पत्र मिल जाते हैं। वो पत्र पढ़ लेती है और प्रेतात्मा की मुक्ति हो जाती है।
यहाँ स्वयं से एक बहुत गंभीर प्रश्न पूछिए कि हिंदु लड़कियों के मन में इस्लामियों से विवाह सामान्य बात है, कैसे बैठा ? इस्लाम के प्रति यह बिना जाने कि इस्लाम क्या है, अनायास सहज भाव कैसे बैठ गया ? सर्वधर्म समभाव हमारी कुछ लड़कियों के चिंतन का अंग कैसे बना ? यह बहुत सोच-विचार कर बनायी गयी योजना है। लगातार मस्तिष्क पर जाने-अनजाने छोड़ी गयीं काल्पनिक मगर धूर्त बातें सबकॉन्शस ब्रेन का हिस्सा बन गयीं।
अब जावेद अख़्तर और ऐसे हर व्यक्ति से थोड़ी सी खरी-खरी बातें कहने का उपयुक्त समय है। आपके पिता की पीढ़ी के मुसलमानों ने 1947 में भारत माता का विभाजन कांग्रेस के हाथों करवाया। उसके तुरंत बाद खंडित भारत में पहला चुनाव 1952 में हुआ। स्वाभाविक था कि इस चुनाव में मतों ध्रुवीकरण हिंदूवादी दलों के पक्ष में होता। आपको जानना चाहिए लुटे-पिटे, आहत-कराहते, झुलसे-सुलगे हुए हिन्दुओं ने उस आम चुनाव में केवल 2 सीटें तथाकथित हिंदूवादी पार्टी जनसंघ को जिताईं थीं। जनसंघ की पहली सीट श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी कोलकाता से जीते थे। आप उस काल की राजनीति के शीर्ष पुरुष थे। स्वयं नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री रह चुके थे। दूसरी सीट जम्मू से प्रेम नाथ डोगरा जी की थी। वह भी जम्मू-कश्मीर के निर्विवाद सबसे बड़े नेता थे। महाराज हरिसिंह जी के परम विरोधी और जनता के चहेते नेता थे। इन दोनों की जीत हिंदूवादी दल के प्रत्याशी होने के कारण नहीं हुई बल्कि यह अपने व्यक्तित्व के कारण जीते थे।
सोचिये आज ऐसा क्या हो गया कि केंद्र में तथाकथित हिंदूवादी दल भाजपा की प्रबल सरकार है ? क्यों इस्लामियों का साथ चाहने-मांगने वाली हर पार्टी चुनावी राजनीति से बाहर खदेड़ी जा रही है ? क्यों भाजपा को हिंदूवादी लोग एक जुट हो कर वोट दे रहे हैं ? क्यों एक एक कर प्रदेशों से भी मुसलमानों के वोटों के लिए जीभ लपलपाने, कमर नचाने वाली पार्टियों के हाथों सरकारें निकलती जा रही हैं ? वह कौन सा तत्व है जिसके कारण लाखों-करोड़ों लोग अपनी जेब से मोबाइल रिचार्ज करा-करा कर प्रिंट और इलेक्ट्रिक मिडिया के समानांतर सोशल मीडिया खड़ा कर रहे हैं ? उन्हें मोदी जी अथवा योगी जी की जीत से निजी रूप से कुछ नहीं मिलने वाला, न इन्हें कुछ लेना है मगर यह सब अपनी जान क्यों झोंक रहे हैं ? मेरी समझ से आपको इस बदलाव को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए।
जावेद साहब, इसके लिये इस्लाम के उद्दंड और वाचाल लोग ज़िम्मेदार हैं। आपको ध्यान होगा इस्लामी नेताओं द्वारा "पी ए सी मस्ट बी स्टोनड" { पी ए सी के लोगों को पत्थर मार मर कर कुचल दो } जैसे बयान दिए गए हैं। "भारत माता डायन है" जैसी बातें कही गयी हैं। "5 मिनिट के लिए पुलिस हटा लीजिये फिर दिखा देंगे किसमें कितना दम है" जैसी बातें सार्वजनिक मंचों से बोली गयी हैं। हर उत्पाती इस्लामी नेता का प्रत्येक बेहूदा बयान कानों में खौलते तेल की तरह जाता है और एक एक दग्ध ह्रदय को जोड़ता चला जाता है। इस्लाम की गुप्त वैश्विक योजनायें इंटरनेट और सोशल मीडिया के कारण गुप्त नहीं रहीं। इसी कारण अब आपके जैसे चतुर चालाक लोगों की सत्यता भी छिपी नहीं है। लोग इस्लामी जनसंख्या के अनुपात बढ़ने और उसके कारण उसकी बदलने वाली चालों को समझने लगे हैं। वो जानते हैं कि क्यों मुसलमान स्वयं को कम्युनिस्ट, एथीस्ट, एग्नॉस्टिक कहते-बताते हैं मगर उनके किसी हमले का निशाना इस्लाम नहीं होता। लोग यह भी जानते हैं इस्लाम वह मज़हब है जिसमें 1500 वर्ष से आज तक कोई बदलाव नहीं आया बल्कि बदलाव सोचा तक नहीं गया। तीन तलाक़, हलाला जैसे विषयों पर आपकी चुप्पी उन्हें जाना-सोचा दाँव लगती है। जो कि वस्तुतः सच भी है।
राष्ट्रबन्धुओ ! जावेद अख़्तर और ऐसा हर चालाक हमें बेवक़ूफ़ समझता है, बनाना चाहता। इस्लाम को प्रजातांत्रिक साबित करने से ले कर स्वयं को सर्वधर्म समभाव मानने वाला, नास्तिक कुछ भी इसी चाल और चिन्तन के कारण बताता है। उसका लक्ष्य केवल यह है कि इस्लाम के प्रभावी, वर्चस्वी होने तक आप ग़फ़लत की नींद सोये रहें और भारत के टुकड़े तोड़े जाते रहें। देश से अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश नोचा जा सके। जगह-जगह कश्मीर बनाये जा सकें। राष्ट्र को समाप्त किया जा सके।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
बुधवार, 1 नवंबर 2017
सभ्य सँसार के इस्लामी दुनिया को ले कर दायित्व
सभ्य सँसार और इस्लामी दुनिया के चिंतन-जीवन में इतनी दूरी है कि सभ्य सँसार इस्लामी दुनिया को समझ ही नहीं सकता। सभ्य समाज में स्त्रियों के बाज़ार जाने, रेस्टोरेंट जाने, स्टेडियम जाने को ले कर कोई सनसनी जन्मती ही नहीं। यह कोई समाचार ही नहीं है मगर इस्लामी सँसार के लिए यह बड़ा समाचार है कि सऊदी अरब अब अपने देश में होने वाली खेल प्रतियोगिताएं को देखने के लिए महिलाओं को स्टेडियम में जाने की अनुमति देगा। यह अनुमति 2018 में लागू होगी। अभी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि महिलाएं स्टेडियम में जा कर खुद भी खेल सकेंगी कि नहीं। यह फ़ैसला युवराज मुहम्मद बिन सलमान ने समाज को आधुनिक बनाने और अर्थ व्यवस्था को बढ़ाने के तहत किया है। प्रारम्भ में इसे तीन बड़े नगरों रियाद, जद्दा और दम्माम में बने स्टेडियमों में लागू किया जायेगा। अब उन्हें पुरुषों के खेल देखने की अनुमति भी होगी।
सऊदी अरब खेल प्राधिकरण के अनुसार नई व्यवस्था के लिये स्टेडियम परिसर में रैस्टोरेंट, कैफ़े, सी.सी.टी.वी. कैमरे, स्क्रीन और ज़रूरी व्यवस्थाएं की जायेंगी। 32 वर्षीय युवराज के विज़न 2030 के तहत जल्द ही देश में म्युज़िक कंसर्ट और सिनेमा देखने का सिलसिला प्रारंभ होने की उम्मीद है। इसमें अभी भी पेच है। किसी भी सामान्य मस्तिष्क में भी प्रश्न आयेगा कि आख़िर औरतों को स्टेडियम में खेल देखने की यह अनुमति 2018 में लागू क्यों होगी ? आज ही लागू करने में क्या परेशानी है ? इसमें पेच यह है कि सऊदी व्यवस्था को स्टेडियम परिसर में रैस्टोरेंट, कैफ़े, सी.सी.टी.वी. कैमरे, स्क्रीन और ज़रूरी व्यवस्थाएं बनानी हैं। इसका मतलब यह है कि औरतों के लिये यह सारी व्यवस्था स्टेडियम में अलग से बने हिस्से में होगी। जिसमें बैठी महिलायें न दायें-बायें देख सकेंगी, न उनके बॉक्स में कोई बाहर से देख सकेगा। यह एक बक्सा सा होगा जो तीन तरफ़ से बंद और केवल सामने से खुला होगा। आपने यदि ताँगे के घोड़े को देखा हो तो आप पायेंगे कि उसकी आँखों के दोनों ओर चमड़े का बनी खिड़की की झावट सी होती है। जिसके होने से वो केवल सीधा ही देख सकता है।
सभ्य समाज के अपने लिए ही नहीं बल्कि मुल्ला समाज के लिए जानना और जनवाना उपयुक्त होगा कि सऊदी अरब ही नहीं अपितु पूरे अरब जगत में औरतें भारी बंदिशें झेल रही हैं। उनके पहनावे के कड़े नियम हैं। सार्वजनिक गतिविधियों, ग़ैरमर्द से बात करने पर प्रतिबंध हैं। पुरुषों के साथ काम करने पर रोक है। घर से अकेले निकलने पर रोक है। इससे उस घोर-घुटन, संत्रास, पीड़ादायक जीवन का अनुमान लगाइये जो क़ुरआन और हदीसों के पालन के नियम ने मुसलमानों के आधे हिस्से को सौंपा है।
पुरुष अभिभावक के बिना स्त्री कहीं और जाना तो दूर डॉक्टर के पास भी नहीं जा सकती। कल्पना कीजिये कि सऊदी अरब में कोई लड़की या औरत घर पर अकेली हो और उसके चोट लग गयी हो। साहब जी, इस्लामी क़ानून के अनुसार उसकी विवशता है कि उसका कोई पुरुष अभिभावक आये और उसे डाक्टर के पास ले जाये अन्यथा वह घायल बाध्य है कि तड़प-तड़प कर, रो-रो कर मर जाये।
बंधुओ! यह सभ्य समाज की मानवीय ज़िम्मेदारी { moral duty } है कि आप और हम इस्लाम के शिकंजे से मुसलमान समाज को मुक्ति दिलायें। इसके लिये अनिवार्य शर्त इस्लाम से मुसलमानों को परिचित कराना, उसकी सत्यता का मुसलमानों को अहसास कराना है। एक बार मुसलमान स्थिति को समझ गये तो इस्लाम में बदलाव ले आयेंगे।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
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