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गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

टीपू सुल्तान पर उठे विवाद पर एक सम्यक टिप्पणी

{ संभव है मेरी पोस्ट चली-चलायी आ रही मान्यताओं से टकराये। मेरा निवेदन है  कृपया चिंतन कर कोई राय बनाइएगा }

पिछले कोई एक पक्ष से टीपू सुल्तान को ले कर मीडिया में ख़ासा हंगामा चल रहा है। गिरीश कर्नाड जैसे लोग ''टीपू को अगर वो हिन्दू होता तो शिवा जी के समतुल्य कहलाता'' ठहरा रहे हैं। गिरीश कर्नाड कम्युनिस्टों के टुकड़ख़ोर हैं या मुसलमानी कबाब-परांठे के चक्कर में ऐसा कर रहे हैं, को एक तरफ़ रख कर इसकी पड़ताल करते हैं। उसे राष्ट्रद्रोही मानने वालों के पास तथ्य और तर्क हैं कि टीपू ने हिंदुओं को बहुत सताया था। उन्हें बड़े पैमाने पर मुसलमान बनाने के लिए उन पर अत्याचार किये थे। टीपू को महान देशभक्त बताने वालों का तर्क है कि वो अंग्रेज़ों से लड़ा था, इसलिये वो देशभक्त कहलाने योग्य है।

आपको या मुझे ऐतराज़ हो तो हो मगर देशभक्ति की जो परिभाषा 1947 में विभाजन के बाद बचे देश में तय हुई है वो तो यही कहती है। आख़िर नाना फड़नवीस, बहादुर शाह ज़फ़र, रानी लक्ष्मी बाई और ऐसे ही न जाने कितने लोग देशभक्त इसी आधार पर तो कहलाते हैं कि वो अंग्रेज़ों से लड़े या अंग्रेज़ उनसे लड़े। चाहे उनकी दृष्टि में देश उनके क़िले तक सीमित व्यवस्था हो, चाहे उन्होंने अपनी प्रजा के हितरंजन के नाम पर धेला काम न किया हो। मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि मुग़ल सत्ता को ढेर कर देने वाले मराठों के वंशज आख़िर में मुग़लों से कैसे हाथ मिला बैठे ? छत्रपति शिवजी की हिंदू पदपादशाही के नामलेवा परम्परा बहादुरशाह का चँवर डुलाना कैसे हो गयी ?

मेरी इस परिभाषा से घोर असहमति है और मैं इस बेतुकी सोच पर मुखर आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूँ और एक प्रश्न रखता हूँ। क्या स्वास्थ्य बीमारी के अभाव का नाम है ? मेरी दृष्टि में स्वास्थ्य एक विधायक तत्व है और बीमारी का अभाव स्वास्थ्य का होना नहीं है। मैं रो नहीं रहा हूँ तो इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं गाना गा रहा हूँ। पतझड़ न होने का मतलब बहार नहीं होता। क्या अँगरेज़ का विरोध या उसका साथ देशभक्ति की कसौटी है ? यही वो चूक है जो सदियों से भरतवंशियों से हो रही है और जिसमें बदलाव किये बिना देश, राष्ट्र की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।

आइये 1857 के संघर्ष से ही विचार शुरू करते हैं। भारत के विभिन्न भागों में इस संघर्ष के अनेक कारण थे। अभी केवल दिल्ली पर बात करते हैं। दिल्ली ये युद्ध में अंग्रेज़ों के साथ नाभा, पटियाला, मालेरकोटला जैसे पचासों हिंदू-मुस्लिम राज्यों की सेनाएं थीं। दिल्ली की शुरूआती लूट मिली ही पटियाला को थी और उन्होंने मुग़लों की ज़बरदस्त कांट-छांट की। पंजाब के सिख उस समय अंग्रेज़ों के साथ दिल्ली पर इस लिये टूट पड़े थे कि 'गुरुओं के हत्यारों, साहिबज़ादों के हत्यारों से बदला लेने के अवसर मिला। साहिब जी मेरी नज़र में तो उन्होंने मुग़ल सत्ता की तेरहवीं करके बिल्कुल भी देशद्रोह नहीं किया। आख़िर मुग़लों की सत्ता को वापस स्थापित करने में वहाबी जी-जान से लगे थे। कांग्रेस और वामपंथियों के पार्टी-प्रचार के लिये लिखे जाने वाले इतिहास के बावजूद सच तो सामने ही है। ये हमारे पूर्वजों से जज़िया लेने वाले राक्षसों के वंशज थे। इसी शासन ने तो हमारे राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, काशीविश्वनाथ जैसे हज़ारों मंदिर तोड़े थे। इसी समूह ने हमारे पूर्वजों पर अकथनीय अत्याचार किये थे। सारा मध्यकालीन मुस्लिम इतिहास स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखित किताबों में भयानक बलात्कारों, लूटपाट, आगज़नी से भरा पड़ा है। हमारे पूर्वजों की चीख़ें, कराहें, आहें आज भी बिलखती-सिसकती हिसाब मांगती हैं। उस सत्ता को वापस लाना कैसे देशभक्ति का कार्य है ? कृपया कोई बताये कि 1947 में मुग़ल सत्ता को वापस लाने का प्रयास करने वाले और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले कैसे देशभक्त हैं ?

आइये इसी कसौटी को दूसरी तरह से देखा जाये। गांधी पल्टन के अथक प्रयासों के बावजूद भरतवंशियों के हृदयों पर राज करने वाला चर्चित राष्ट्रगीत ''वन्दे मातरम'' बंकिम चंद चटर्जी की किताब वन्दे मातरम का हिस्सा है। उपन्यास का कथानक और ऐतिहासिक विवरण यह है कि ढाका का नवाब हिन्दुओं को बहुत सताता था। उसके ख़िलाफ़ सन्यासियों के एक समूह जिसे उपन्यास में संतान दल कह कर पुकारा गया है, ने स्थानीय समाज के साथ मिल कर विद्रोह किया। अंग्रेज़ों ने भी हवा दी और नवाबी ढेर कर दी गयी। संतान दल के पास व्यवस्था करने का कोई तरीक़ा नहीं था अतः नवाब की जगह अँग्रेज़ों ने व्यवस्था अपने हाथ में ली। देशभक्ति की इस विचित्र कसौटी के अनुसार वन्दे मातरम अंग्रेज़ सत्ता के मित्रों अर्थात देशद्रोहियों का गीत ठहरता है।

इस देश में देशभक्ति और देशद्रोह की कसौटी जब तक इसके मूल राष्ट यानी हिन्दुओं का हित-अहित नहीं होगा तब तक ऐसे ही विचित्र निष्कर्ष निकाले जाते रहेंगे। भारत देश केवल और केवल भरतवंशियों का है। उनका हित ही देश का हित है। उनका अहित ही देशद्रोह कहलाता है और यही कसौटी का आधार है। इसी कसौटी के आधार पर हिन्दुओं का संहार करने वाला टीपू सुल्तान राष्ट्रद्रोही राक्षस है। जब तक ये कसौटी आपके-मेरे चिंतन, शिक्षा, व्यवस्था का आधार नहीं बनती भारत का हित-अहित स्पष्ट नहीं हो सकता परिणामतः इतिहास के ऊटपटांग निष्कर्ष निकले जाते रहेंगे और इस कसौटी के आधार बनते ही अँधकार छंट जायेगा और राष्ट्र का सूरज जगमगा उठेगा।

तुफ़ैल चतुर्वेदी


संघ के प्रथम सरसंघचालक पूज्य डाक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार जी पर कुछ श्रद्धा सुमन

किसी भी काल में समाज में प्रधानता उन मनुष्यों की होती है जिनमें निजी और अपने परिवार का समृद्ध करने के लिए जीने की प्रवृत्ति होती है।  इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद जिस प्रकार से संभव हो आगे बढ़ना जीवन का लक्ष्य होता है। इस प्रकार की सोच रखने वाले लोग अपने सुख-भोग के लिये विचार करते हैं, कार्य करते हैं। ऐसा करते-करते कई बार अपने निजी-परिवार के लिए कुछ अन्य सहायकों की आवश्यकता पड़ती है तो योजना और कार्य में विस्तार हो जाता है। अनेकों लोगों का सहयोग ले कर बड़ा कार्य खड़ा करने के बावजूद ये जीवन शैली व्यष्टि-वाचक जीवन शैली ही कहलाती है।  कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इस जीवन-शैली से ऊपर उठ जाते हैं और निजी जीवन, निजी परिवार से अधिक की चिंता करते हैं।  इन्हीं लोगों को समाज समष्टि की चिंता-विचार करने के कारण महापुरुषों की श्रेणी में रखता है।

आंध्र प्रदेश के निजामाबाद जिले के कंदकुर्ती गांव में वेदों और शास्त्रों का पीढ़ी दर पीढ़ी अध्ययन करने वाला ब्राह्मण परिवार रहता था।  निजाम के हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार जब सहनसीमा को पार कर गए तो उस परिवार के नरहर शास्त्री कंदकुर्ती त्याग कर नागपुर आ गए। नागपुर में शास्त्री जी को भोंसला सरकार का आश्रय मिला। शास्त्री जी की तीसरी पीढ़ी आते-आते अंग्रेजों ने भोंसला शासन का अंत कर दिया और राज्याश्रित परिवार विपन्न स्थिति में आ कर पौरोहित्य से जीवन-यापन करने लगा। इसी परिवार की चौथी पीढ़ी में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार जन्मे। आप अपने पिता बलिराम पंत की पांचवीं संतान थे। आपसे दो भाई और दो बहिनें बड़ी थीं और एक बहिन छोटी थी। बलिराम पंत जी ने बड़े भाइयों को तो वेदाध्ययन के लिए संस्कृत पाठशाला भेजा मगर केशव की मानसिक संरचना को परम्परागत न देख कर नील सिटी स्कूल में भर्ती कराया। कर्मकांडी परिवार के केशव प्रारम्भ से ही खुले और दृढ विचारों वाले थे। उनके मानस की झलक बचपन से ही मिलने लगी थी।

केशव जब सात वर्ष के ही थे तो उनके विद्यालय में ब्रिटिश महारानी के गद्दी पर बैठने की साठवीं वर्षगांठ का समारोह मनाया जा रहा था। केशव के स्कूल में भी अंग्रेजी प्रशासन ने 22 जून 1897 को मिठाई बंटवाई मगर केशव ने ये कह कर मिठाई फेंक दी कि विक्टोरिया हमारी महारानी नहीं हैं। इसके चार साल बाद 1901 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड के गद्दी पर बैठने का उत्सव मनाने के लिए आतिशबाजी की जा रही थी। किशोर केशव न केवल उसे देखने ही नहीं गए बल्कि अपने साथियों को भी समझा कर जाने से रोकने में सफल रहे।

उन्नीसवीं सदी का ये काल भारत में वैचारिक उथल-पुथल का काल है। 19 जुलाई 1905 को भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल का विभाजन कर दिया गया। जो 16 अक्टूबर 1905 से प्रभावी हुआ। इस नए प्रान्त की रचना बंगाल के बड़े मुस्लिम ज़मींदारों, मुस्लिम नवाबों और अंग्रेज़ों के सामूहिक षड्यंत्र ने की थी। मूलतः ये बंगाल के पूर्वी क्षेत्र को मुस्लिम बहुत प्रदेश बनाने की चाल थी। जिसका प्रभाव असम के हिन्दू बहुल चरित्र पर भी डाला जाना था।  इस नए बने प्रान्त का नाम पूर्वी बंगाल और असम था। इसकी राजधानी ढाका और असम का अधीनस्थ मुख्यालय चटटोग्राम था। नए प्रान्त की जनसंख्या तीन करोड़ दस लाख थी, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख मुस्लिम और एक करोड़ बीस लाख हिन्दू रखे गए थे। बंगाल के ही नहीं भारत भर के हिन्दू इस विभाजन से हतप्रभ रह गए। उपयुक्त जनांदोलन हुआ और 1911 में विभाजन रद कर दिया गया। ऐसे ही धत्कर्मों के लिए 1906 में ढाका के नवाब सलीमुल्लाह ख़ान के प्रत्यक्ष नेतृत्व में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ। परोक्ष में अंग्रेज़ों का धन, प्रबंधन, नीतिकारों का समर्थन, प्रशासन की सक्रियता थी।

बाल केशव इन परिस्थितों में बड़े हो रहे थे। वो नियमित व्यायाम के लिए जाते थे। उनकी प्रतिबद्ध देशभक्ति, सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति देख कर डॉ मुंजे बहुत प्रभावित हुए। डॉ मुंजे मध्य प्रान्त के सामजिक जीवन के प्रमुख स्तम्भ थे, क्रन्तिकारी विचारधारा से प्रभावित थे और गुप्त क्रन्तिकारी गतिविधियों में भाग भी लेते थे। केशव भी इन गतिविधियों में भाग लेने लगे। उनकी लगन और क्षमता देख कर मध्य प्रान्त के क्रन्तिकारी नेतृत्व ने डॉ मुंजे के माध्यम से कलकत्ता भेजा। कलकत्ता तब क्रांतिकारियों का तीर्थ था। केशव ने वहां नेशनल मेडिकल कॉलेज में डाक्टरी की पढ़ाई का निश्चय किया। वहां पढ़ते समय केशव का सम्पर्क श्याम सुन्दर चक्रवर्ती, नलिन किशोर गुहू, जोगेश चन्द्र चटर्जी जैसे उस काल के प्रमुख के प्रमुख क्रांतिकारियों से हो गया। कलकत्ता के सामजिक जीवन के प्रमुख व्यक्तियों जैसे मोती लाल घोष, विपिन चन्द्र पाल, रास बिहारी बॉस, डॉ आशुतोष मुखर्जी इत्यादि से भी उनका परिचय हुआ। डाक्टरी की पढ़ाई के साथ-साथ क्रन्तिकारी कार्यों में यथा संभव भाग लेते हुए केशव 1914 में 70.80 प्रतिशत अंक ला कर डाक्टर बन गए।  

ब्रिटिश भारत में आज के मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, महाराष्ट्र को मिला कर मध्य प्रान्त हुआ करता था और इसकी राजधानी नागपुर थी।  सन 1911 की जनगणना में मध्य प्रान्त की जनसँख्या 1,60,33,310 आंकी गयी थी। पूरे मध्य प्रान्त में केवल 75 चिकित्सक थे। इनमें से एक डाक्टर के लिए ये बिलकुल सहज ही होता कि वो चिकित्सा का कार्य करे। मध्य प्रान्त की इतनी बड़ी जनसँख्या के लिए 75 चिकित्सकों की संख्या कुछ भी नहीं थी। किसी भी डाक्टर की प्रेक्टिस जमना केवल दुकान खोलने भर से हो जाने वाला क्रय था। सुनिश्चित था कि इस परिस्थिति में कोई भी चिकित्सक सफल ही होगा। स्वाभाविक भी था कि कोई डाक्टर अपने परिवार के लिए अर्थोपार्जन करे। समाज में अपना, परिवार का गौरव बढ़ाये। अत्यंत निर्धन पृष्ठभूमि से उठ कर श्रीमंतों की श्रेणी में आये किन्तु डाक्टरी पढ़े व्यक्ति ने निजी हित, परिवार के हित ताक पर रख कर न भूतो न भविष्यति जैसी पद्धति से समाज के संगठन का कार्य अपने सर पर लिया। ये अत्यंत आश्चर्य का का कारण है।

प्रथम विश्व युद्ध के बदल योरोप के क्षितिज पर छ रहे थे। ऐसी अनेकों बड़ी घटनाओं के कारण भारत में भी वैचारिक उथल-पुथल हो रही थी। अँगरेज़ सम्प्रभुओं की चिरौरी करती रहने वाली कांग्रेस की दिशा-दशा बदल रही थी। मुस्लिम लीग द्वारा हिन्दुओं का अहित होता देख कर राष्ट्रवादी नेतृत्व ने महामना मदन मोहन मालवीय जी के नेतृत्व में 1911 में अमृतसर में हिन्दू महा सभा का गठन किया। 28 जुलाई 1914 को योरोप में प्रथम विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस्लामी खिलाफत का केंद्र तुर्की धुरी राष्ट्रों के साथ लड़ रहा था। अंग्रेजों ने तुर्की को दबाव में लेना शुरू किया। परिणामतः भारत के मुसलमानों में अंग्रेजों के खिलाफ क्षोभ उभरने लगा। अंग्रेजों को दबाव में देख कर क्रान्तिकारी नेतृत्व सशस्त्र संघर्ष में प्रवृत्त हो गया। 1915 में गांधी भारत लौट आये। गांधी जी और उनके नेतृत्व में कांग्रेस के लोग इस आशा में कि युद्ध के बाद अंग्रेज भारत को डोमिनियन स्टेटस दे देंगे, अंग्रेजों का हर प्रकार से युद्ध में साथ दे रहे थे। यहाँ तक कि सेना में भारतियों की भर्ती करने में कांग्रेस के लोग भाग-दौड़ कर रहे थे। डॉ जी इसके विरोध में थे। उनका मानना था कि शत्रु का संकट काल हमारे लिए स्वर्णिम अवसर है। उन्होंने कांग्रेस के नेताओं द्वारा युद्ध के लिए भारतीय सैनिकों की भर्ती करने के प्राणप्रण से विरोध किया।

व्यक्ति की क्षमताओं से संगठन की क्षमताएं सदैव बड़ी होती हैं। क्रांतिकारी कार्यों की अत्यंत सीमित क्षमताओं, बीच-बीच में नरेंद्र मंडल जैसे अनेकों संगठनों में कार्य करने, तत्कालीन समाज की मनस्थिति देखते हुए डॉ जी ने कांग्रेस में प्रवेश करने का निर्णय लिया। कांग्रेस का कार्य बढाने के लिए उन्होंने मध्य प्रान्त का दौरा किया। कांग्रेस के गर्म दल और नर्म दल में बंटे लोगों में मतभेद बढ़ रहे थे और उन्होंने लगभग मनभेद का स्वरुप ले लिया था।1916 में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस ने अंग्रेजों के प्रति मुसलमानों के रोष को भुनाना चाहा। इसके लिये कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ में एक साथ अधिवेशन किये। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने मुस्लिम समाज में उपेक्षित-तिरस्कृत मुस्लिम लीग के साथ घोर हिन्दू विरोधी समझौता करके उसमें जान फूंक दी।

11 नवम्बर 1918 को द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने सदियों से उत्पात मचाते आये तुर्की के इस्लामी खलीफा का पद समाप्त कर दिया। सदियों बाद अरब क्षेत्र स्वतंत्र हो गया। जॉर्डन, सीरिया, फिलिस्तीन, लेबनान, इराक़ खिलाफत छोड़ गए। तुर्की के इस्लामी साम्राज्य के खंड-खंड कर हो गए। जिसके विरोध में 1919 को भारत में खिलाफत वापस लाने का आंदोलन शुरू हो गया। भारत का मुस्लिम नेतृत्व इसे काफिरों के सामने इस्लाम की हार की तरह देख रहा था। गांधी जी ने इसे अवसर की तरह देखा और कांग्रेस को खिलाफत आंदोलन में झोंक दिया। कांग्रेस के मुहम्मद अली जिनाह जैसे बहुत से वरिष्ठ नेता उनके इस निर्णय के विरोध में थे। उन्होंने गांधी जी को PAN ISLAMIZM के खतरों से चेताया मगर गांधी जी अड़े रहे। तिलक जी का 1920 में देहावसान हो जाने के कारण गांधी जी के नेतृत्व को आम सहमति प्राप्त हो गयी थी। उनकी ज़िद के कारण किसी की एक नहीं चली। अनेकों लोगों ने कांग्रेस छोड़ दी।

इसी उथल-पुथल में 1920 में कांग्रेस का नागपुर में बीसवां अधिवेशन तय हुआ। नागपुर अधिवेशन कांग्रेस का तब तक का सबसे बड़ा अधिवेश होने जा रहा था। इसकी सुचारु व्यवस्था के लिए डॉ जी ने 1200 वालंटियरों की भर्ती और प्रशिक्षण का कार्य किया।  अधिवेशन में 20,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। खुले सत्रों में उपस्थिति 30,000 तक पहुंची। सभी कार्य व्यवस्थित और सुचारु रूप से हुए। इसके पीछे डॉ जी का रात दिन अथक परिश्रम, सटीक पूर्व योजना और उनका त्रुटिहीन कार्यान्वन और प्रबंधन था। वो एक अत्यंत कुशल संगठनकर्ता के रूप में उभरे, प्रशंसित और प्रतिष्ठित हुए।

अधिवेशन के बाद डॉ जी पूरे मनोयोग से कांग्रेस के अनुशासित सिपाही की तरह असहयोग आंदोलन में जुट गए। सैकड़ों लोगों की नागपुर असहयोग समिति में भर्ती करायी। सारे मध्य प्रान्त के दौरे किये।  दर्जनों सभाओं के माध्यम से हजारों लोगों को सम्बोधित किया। ब्रिटिश सरकार से असहयोग का वातावरण बनाया। 1921 में ब्रिटिश सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और एक साल के सश्रम कारावास की सजा दी। 11 जुलाई 1922 को अपनी सजा पूरी करके डॉ जी जेल से छूटे।  हजारों लोगों की भीड़ ने उनका स्वागत किया। तब तक गांधी जी की अहमन्यता ने चौरी-चौरा की घटना के कारण बिना किसी अन्य नेता से विचार-विमर्श किये आंदोलन को वापस ले लिया था। कांग्रेस के कार्यकर्ता  हताश और निराश थे। डॉ हेडगेवार ने प्राणप्रण से मध्य प्रान्त के कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने का कार्य किया। उनका परिश्रम कांग्रेस के नेताओं की दृष्टि में आया और उन्हें भूरि-भूरि प्रशंसा के साथ मध्य प्रान्त का सहमंत्री बनाया गया। इस जिम्मेदारी के साथ डॉ हेडगेवार के प्रान्त के दौरों में वृद्धि हो गयी। उन्होंने ने दर्जनों सभाओं के माध्यम से हताश समाज में आशा का संचार किया। इसी क्रम में उन्होंने नागपुर से मराठी दैनिक स्वातंत्र्य शुरू किया। तेजस्वी संपादक के नेतृत्व में स्वातंत्र्य ने पहले अंक से ही पाठकों में जगह बना ली। स्वातंत्र्य की नीति राष्ट्र के पक्ष में खरा-खरा बोलने की थी। समाचार इस हद तक निर्भीक था कि उसने सम्पादकीय में कई अवसरों पर अपने हितचिंतक डॉ मुंजे की भी आलोचना की।

एक ओर मध्य प्रान्त में डॉ हेडगेवार राष्ट्र जागरण के कार्य में जुटे थे दूसरी ओर केरल खौल रहा था।  खिलाफत आंदोलन हर प्रकार से असफल हो कर समाप्त हो चुका था। खिलाफत आंदोलन के केरल के प्रणयेता मुल्लाओं ने स्थानीय मुसलमान मोपलाओं में ये प्रचार कर दिया कि खिलाफत सफल हो गयी है। अब समय आ गया है कि खिलाफत को काफिरों से पाक कर दिया जाये। हिन्दुओं के खिलाफ भयंकर दंगे हुए। हजारों हिन्दुओं को भयानक नृशंसतापूर्वक मार डाला गया। हजारों हिन्दू नारियों के साथ भयानक बर्बर बलात्कार हुए। असंख्य हिंदू स्त्रियों ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आत्महत्या का मार्ग चुना। सैकड़ों मंदिर तोड़ डाले गए। लाखों हिंदू मुसलमान बना लिए गए। इस महामूर्ख आंदोलन में कांग्रेस को मनमाने ढंग से धकेल देने वाले गांधी जी मौन हो कर ये सब देखते रहे।

अब तक डॉ हेडगेवार हर प्रकार के सामाजिक कार्य का प्रयोग कर चुके थे। सारे माध्यमों को जाँच-परख चुके थे और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बिना राष्ट्र जागरण के किसी भी आंदोलन का कुछ मतलब नहीं है। आंदोलन क्षणिक उत्तेजना देते हैं। कुछ कोलाहल होता है और समाज वापस सो जाता है। मुसलमानों की, अंग्रेजों की अधीनता तो केवल बीमारी का बाहरी उभार मात्र है।  जब तक देश का असली राष्ट्र अर्थात हिन्दू सन्नद्ध नहीं होगा कोई उपाय उपयोगी नहीं होगा। आज अँगरेज़ चले भी गए तो कल कोई और नहीं आएगा इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। अंग्रेजों की गुलामी तो केवल बाहरी फुंसी की तरह है। मूल समस्या राष्ट्र की धमनियों में रक्त का दूषण है। यही वो प्रस्थान बिंदु था जहाँ उन्होंने सब प्रकार के राजनैतृक-सामाजिक कार्य छोड़ कर विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना की और मध्य प्रान्त की डेढ़ करोड़ से भी अधिक संख्या के केवल 75 डाक्टरों में एक, क्रांतिकारी कार्यों को जानने वाले, क्रांतिकारी कार्यों में सक्रिय रहे तेज-पुंज,  प्रान्त की कांग्रेस के परिश्रमी प्रदेश सहमंत्री इन सारे कार्यों से वुमुख हो कर मोहिते के बाड़े में कुछ बच्चों के साथ कबड्डी और खो-खो खेलने लगे।

विचार कीजिये कि वही बीज आज विश्व के सबसे बड़े, अनंतभुजा वाले कृष्ण के विराट रूप जैसा जानने में आता है। इसके पीछे की संकल्पना, योजना, संरचना कैसे मानस ने की होगी ? राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर पहुँचाने का नागपुर से उठा विचार सारे भारत में फैला तो इसके पीछे जिन मौन साधकों का अथक परिश्रम है, उनका निर्माण कैसे हुआ होगा ? राष्ट्र के उत्थान के लिए दैनिक एकत्रीकरण का कोई ढंग आवश्यक है और उसके लिए शाखा पद्धति का निर्माण किस मानस ने किया होगा ? अपनी जान दे देना बड़ी बात है मगर बहुत बड़ी बात नहीं है, कोई भी सैनिक ऐसा कर सकता है मगर दूसरे को जीवन  दे देने के लिए प्रवृत्त करना सरल काम नहीं है। इसके लिए सेनापति चाहिए होते हैं। नागपुर से देश की हर दिशा में निकले दादा राव परमार्थ, शिव राम पंत जोगळेकर, माधव राव मुले, राजा भाऊ पातुरकर, मुलकर जी, यादव राव जोशी, भाऊ राव देवरस, परम पूज्य सरसंघचालक माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर, परम पूज्य सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस, जैसे जीवन त्यागी, आजीवन व्रती, निस्पृह महापुरुषों की श्रंखला का निर्माण कर सकने में सक्षम व्यक्तित्व कैसा रहा होगा ? एक क्षण में सरकारी आजीविका छोड़ कर सारा जीवन राष्ट्र के चिंतन में लगा-गला देने वाले बाबा साहब आप्टे जैसा तपस्वी किसको देख कर उस रूप में ढला ?  पतत्वेषु कायो का मूर्त रूप ?  ध्येय आया देह ले कर जैसी सोच का मूर्तिमंत स्वरुप ? ऐसे ही लोग महापुरुष तो नहीं कहलाते ? ? ?

तुफ़ैल चतुर्वेदी      

ध्वस्त विरोधी शिविर, खंडित छत्र, धरती पर लोटते हुए महारथी, भग्न रथ, दम दबा कर भाग चुकी शत्रु सेना, लहराती विजय पताकाएँ, दमादम गूंजते हुए नगाड़े, बजती हुई विजय दुंदुभी, पाञ्चजन्य का गौरव-घोष...

ध्वस्त विरोधी शिविर, खंडित छत्र, धरती पर लोटते हुए महारथी, भग्न रथ, दम दबा कर भाग चुकी शत्रु सेना, लहराती विजय पताकाएँ, दमादम गूंजते हुए नगाड़े, बजती हुई विजय दुंदुभी, पाञ्चजन्य का गौरव-घोष, कराहते हुए दिग्पराजय, कैड़ा सिंह, मणि कंकर, निशीत, कालू जैसे लोग. इन घटनाओं के निकट प्रत्यक्षदर्शी मीडिया को ये सब देखते और उच्छ्वासें छोड़ते अभी कुछ ही समय बीता है. इन सबको बोलने-कोसने और हाहाकार मचाने के लिए कोई विषय नहीं मिल रहा था. अचानक आगरा ने हू-हू  की सियार-ध्वनि के लिए अवसर दे दिया।

आगरा में 350 लोग मुसलमान से हिन्दू बन गए और सब पर आसमान टूट पड़ा. आइये धर्मांतरण पर विचार करें। सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपॉल विश्व के महानतम लेखकों में से एक हैं. उन्हें लेखन के बुकर इत्यादि अन्य सारे बड़े पुरस्कारों के साथ नोबेल पुरस्कार भी मिला है. वो 1954 से लिख रहे हैं. एक पाकिस्तानी मुस्लिम महिला नादिरा जी से विवाहित हैं. वो भारत के नहीं हैं और उन्हें किसी भी तरह सांप्रदायिक हिन्दू नहीं कहा जा सकता. उनकी भारत पर तीन पुस्तकों में से एक "India : A Wounded Civilization-भारत एक आहत सभ्यता", एक चर्चित किताब है. वो उस किताब में लिखते हैं. " कहा जाता है कि सत्रह बरस के एक बालक के नेतृत्व में अरबों ने भारतीय राज्य को रौंदा था. सिंध आज भारत का हिस्सा नहीं है, उस अरब आक्रमण के बाद से भारत सिमट गया है. { अन्य } कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो; कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूट-पाट का शिकार नहीं हुआ, { शायद ही } ऐसा कोई देश और होगा जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम सीखा होगा"। वो इसी किताब में इंडोनेशिया के बारे में कहते हैं " मुझे ऐसे लोग मिले जो इस्लाम और प्रोद्योगिकी के समागम के द्वारा अपना इतिहास खो चुके थे". पाकिस्तान के बारे में सर नायपॉल बताते हैं " पाकिस्तान से अधिक किसी भी देश में इतिहास को एक सांस्कृतिक रेगिस्तान में नहीं बदला गया. ये सारे शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं. "भारत का सिमट जाना, इस्लाम द्वारा इतिहास खो जाना, सांस्कृतिक रेगिस्तान" ये शब्दावलि कैंसर के फोड़े का फट जाना बल्कि विस्फोट हो जाना है.

कोई भी देश अपने राष्ट्र द्वारा ही रक्षित होता है. चीन की रक्षा चीनी लोग ही करते हैं. जापान की रक्षा जापानी लोग ही करते हैं. रूस की रक्षा रुसी लोग ही करते हैं. इसी तरह भारत की रक्षा भारतीयों का कर्तव्य है. तो इस आगरा पर हू-हू  की सियार-ध्वनि को क्या समझा जाये ? भारत से अधिक इस्लाम के जघन्य हत्याकांडों का और कौन शिकार बना है ? भारत से अधिक किस देश के लाखों लोग गुलाम बना कर बाजारों में बेचे गए ? सदियों तक महिलाओं की लूट और उन पर नृशंस बलात्कारों की आंधी भारत से अधिक किस देश में चली ? भारत के अतिरिक्त किस देश के पूजा-स्थल सदियों तक तोड़े गए ? और भारत से अतिरिक्त और कौन सा देश है जहाँ के निवासी इन सब अत्याचारों को सदियों देखने के बाद भी " ईश्वर अल्ला तेरो नाम" हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई- आपस में भाई-भाई" का गाना मय-हारमोनियम-तबले के पूरी तन्मयता से गाते हों ?

सर नायपॉल ने बिलकुल सही कहा है " { भारत के अतिरिक्त अन्य } कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो; कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूट-पाट का शिकार नहीं हुआ, { शायद ही } ऐसा कोई देश और होगा जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम सीखा होगा"। नागालैंड, मिजोरम में समस्या क्यों है और साथ के प्रदेश त्रिपुरा में वही समस्या क्यों नहीं है ? हैदराबाद, मुरादाबाद, अलीगढ, रामपुर, बरेली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ में आये दिन सांप्रदायिक तनाव क्यों होता है ? क्यों वो तनाव नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, टिहरी, पौड़ी जिलों में नहीं होता ? क्या हिंदू इतने भोले हैं कि उस क्षेत्र के मुस्लिम बहुल होने  के कारण होने वाले खतरों को नहीं समझते ? क्यों दंगा अथवा साम्प्रदायिक तनाव उन स्थलों पर नहीं होता जहाँ मुसलमान बहुत कम संख्या में हैं ?

अभी ईराक  से लौटे अरीब के सम्बन्ध में जो जानकारियां अख़बारों से मिल रही हैं उनमें ये भी है कि, बंगलौर में किसी आई टी कंपनी में काम करने वाला मेहंदी मसरूर बिस्वास ट्विटर के माध्यम से सारी दुनिया में आई.एस.आई.एस. के लिए अभियान चलाता है और हर महीने बीस लाख लोग उसका ट्विटर पढ़ते हैं. उसके जहरीले ट्विटर संदेशों के समर्थन में भी हजारों सन्देश आते हैं. वंदेमातरम के रचयिता बंकिम चंद्र, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, काजी नजरुल इस्लाम के बंगाल का ही मेहंदी मसरूर बिस्वास और उसके समर्थन में हजारों सन्देश भेजने वाले ये लोग कौन हैं ? कैसे ऋषियों की परंपरा के लोग, आर्यों की संतानें अपने ही समाज, अपने ही देश, अपने ही राष्ट्र की विरोधी हो गयीं ?

मित्रो ये कोई नई बात नहीं है. भारत पर आक्रमण करने वाले सबसे दुष्ट हमलावरों में से प्रमुख नाम अहमद शाह अब्दाली का है. मित्रो ! वो भारत पर आक्रमण करने स्वयं ही नहीं आया था. उसे दिल्ली के शाह वलीउल्लाह {1703–1762} ने ये कह कर बुलाया था कि आओ और काफिरों की शक्ति को ख़त्म करो, हिन्दुस्तान के मुसलमान तुम्हारा साथ देंगे। विचारणीय है कि वलीउल्लाह ने भारत के मुसलमानों की तरफ से देश का विरोध करने के लिए कैसे अहमद शाह अब्दाली को आश्वस्त किया ? उसे कैसे हर मुसलमान की या बहुसंख्य मुसलमानों की मानसिक स्थिति का ज्ञान था ? क्या इस्लाम में कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है ? बल्कान, तुर्की, अफगानिस्तान, चीन के प्रान्त सिंक्यांग, ईराक, सीरिया, कश्मीर की लड़ाई में विश्व के अनेकों देशों के मुसलमानों की भागीदारी से स्पष्ट हो ही जाता है कि इस्लाम में वाकई कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है.

यहाँ कुछ सामायिक प्रश्न मेरे मन में उठ रहे हैं. मैं उन्हें आप तक पहुँचाना चाहता हूँ. लौकिक संस्कृत का शब्दशः परफैक्ट व्याकरण लिखने वाले पाणिनि का गांधार तालिबान का अफगानिस्तान किस कारण बना ? पाकिस्तान का रावलपिंडी { ये नाम स्वयं कहानी कह रहा है } जनपद, जहाँ का तक्षशिला विश्वविद्यालय संसार का पहला विश्वविद्यालय था. जहाँ आचार्य कौटिल्य, आचार्य जीवक जैसे लोग बेबीलोन, ग्रीस, सीरिया,चीन इत्यादि देशों से आये 10. 500 छात्रों को वेद, भाषा, व्याकरण, दर्शन शास्त्र, औषध विज्ञान, शल्य चिकित्सा, धनुर्विद्या, राजनीति, युद्ध शास्त्र, खगोल विद्या, अंक गणित, संगीत, नृत्य इत्यादि विषयों की शिक्षा देते थे, रूप बदल कर जमातुद्दावा, हरकतुल अंसार का पाकिस्तान कैसे बन गया ? बंगाल { बांग्ला देश } के नाम से विहित और सबको अपनी शीतल छांव देने वाली ढाकेश्वरी माँ का धाम ढाका उसके उपासकों के शत्रुओं का घर कैसे बन गया ? ईराक और सीरिया में फैले गरुण की उपासना करने वाले, यज्ञ करने वाले मूर्ति-पूजक यजदी नमाज़ भी पढ़ने वाले यजीदी बनने पर क्यों विवश हो गए ? क्यों आई.एस.आई.एस. के लोग उनका समूल-संहार कर रहे हैं ? बल्कि सदियों से क्यों उनका संहार किया जाता रहा है ?

सऊदी अरब, ईरान, ईराक, कज्जाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, आइजरबैजान जैसे अनेकों देशों में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं किसकी हैं और उन्हें किसने बनाया था ? वो भग्न कैसे हो गयीं ? उन्हें बनाने वाले, वहां उपासना करने वाले लोग कहाँ गए ? कश्मीर जो तंत्र के आचार्यों का क्षेत्र था, जहाँ तंत्र-कुल के लोग आज भी अपने नाम के आगे कौल लगाते हैं तंत्र-विहीन, कुल-विहीन कैसे हो गया ? क्यों इन सारे क्षेत्र के लोगों में अपनी परंपरा, अपने कुल के प्रति द्वेष पैदा हो गया ? अपने पूर्वजों, परम्पराओं, इतिहास के प्रति घृणा अर्थात आत्मघाती प्रवृत्ति कोई सामान्य बात नहीं है तो एक दो लोगों में नहीं बल्कि पूरे समाज में जन्मी कैसे ? कैसे इन क्षेत्रों के लोगों में एक ऐसे उत्स जिसकी भाषा भी वो नहीं जानते के के प्रति लगाव कैसे जाग गया ? इन भिन्न-भिन्न देशों, भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोगों ने एक ऐसी विदेशी आस्था, जिसने उनके पूर्वजों को भयानक पीड़ा दी, को स्वीकार क्यों किया ? इन देशों, समाजों के लोग अपने पूर्वजों की जगह अरब मूल से स्वयं को क्यों जोड़ने लगे ?

इन सारे प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर है कि वहां के हिंदू धर्मान्तरित हो कर मुसलमान हो गए. इन ऐतिहासिक घटनाओं की तार्किक निष्पत्ति है कि "हिन्दुओं का धर्मान्तरण राष्ट्रांतरण है". हिन्दुओं से किसी अन्य मत में स्थानांतरण राष्ट्रांतरण होता है और अन्य मतों से प्रति-धर्मान्तरण राष्ट्र और देश को मजबूत करता है. हिन्दुओं का सबल होना भारत का सबल होना है. हिंदुओं की स्थिति का दुर्बल होना भारत को दुर्बल करता है. तो साहब देशभक्त इसे कैसे स्वीकार करें ? देश के शरीर पर निकलते जा रहे फोड़ों का इलाज क्यों नहीं करें ?  इनका इलाज आगरा में किया जा रहा प्रति-धर्मान्तरण नहीं है तो क्या है ? ऐसे किसी भी कार्य का विरोध तो होगा ही होगा। 350 की संख्या उल्लेखनीय है मगर हमें तो करोड़ों की संख्या का मानस बदलना है. अनेकों देशों में भूले-बिसरे, छूट गए बंधुओं की सुधि लेनी है अतः ये हू-हू  की सियार-ध्वनि तो तब तक होती ही रहेगी जब तक इस समस्या की सर्वतोभावेन चिकित्सा नहीं हो जाती। आखिर जिस प्रक्रिया के कारण अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश भारत से अलग हुए थे, उसी प्रक्रिया के उलटने से वापस आएंगे। और इस बार पूरे समाज को बाहें फैला कर बिछड़े बंधुओं को गले लगाना है और भारत को तोड़ने वालों से निबटना, को निबटाना है.

तुफैल चतुर्वेदी       

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ.

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ. संभव है मैं जिन मुसलमान बंधुओं से बात करना चाहता हूँ उन तक मेरा ये पत्र सीधे न पहुंचे अतः आप सभी से निवेदन करता हूँ कि कृपया मेरे पत्र या इसके आशय को मुस्लिम मित्रों तक पहुंचाइये। संसार आज एक भयानक मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया है। भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश, इंडोनेशिया, कंपूचिया, थाई लैंड, मलेशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सीरिया, लीबिया, नाइजीरिया, अल्जीरिया, मिस्र, तुर्की, स्पेन, रूस, इटली, फ़्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, डेनमार्क, हॉलैंड, यहाँ तक कि इस्लामी देशों से भौगोलिक रूप से कटे संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी आतंकवादी घटनाएँ हो रही हैं. विश्व इन अकारण आक्रमणों से बेचैन है। कहीं स्कूली छात्र-छात्राओं पर हमले, तो कहीं बाजार में आत्मघाती हमलावरों के बमविस्फोट, तो कहीं घात लगा कर लोगों की हत्याएं...संसार भर में ये भेड़िया-धसान मचा हुआ है। सभ्य संसार हतप्रभ है। हतप्रभ शब्द जान-बूझ कर प्रयोग कर रहा हूँ चूँकि पीड़ित समाज को इन आक्रमणों का पहली दृष्टि में कोई कारण नहीं दिखाई दे रहा मगर एक बात तय है कि सभ्य समाज इन हमलों के कारण क्रोध से खौलता जा रहा है. उसकी भृकुटियां तनती जा रही हैं।

मेरे देखे वो इसका कारण इस्लाम को मानने पर विवश हो रहा है। इन लोगों में हिन्दू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, शिन्तो मतानुयाई, कन्फ्यूशियस मतानुयाई, अनीश्वरवादी सभी तरह के लोग हैं। संसार भर में मुसलमानों के विरोध में एक अंतर्धारा बहने लगी है , आप यू ट्यूब, फ़ेसबुक, इंटरनेट के किसी भी माध्यम पर देखिये, पत्र-पत्रिकाओं में लेख पढ़िए, अमुस्लिम समाज में इस्लाम को ले कर एक बेचैनी हर जगह अनुभव की जा रही है। हो सकता है आप इसे न देख पा रहे हों या इसकी अवहेलना कर रहे हों मगर ये आज नहीं तो कल आपकी आँखों में आँखें डाल कर कड़े शब्दों में बात या जो भी उसके जी में आयेगा करेगी। यहाँ ये बात भी ध्यान देने की है कि इन सभी माध्यमों पर इक्का-दुक्का मुस्लिम समाज के लोग इस बेचैनी को सम्बोधित करने का प्रयास कर रहे हैं मगर लोग उनके तर्कों, बातों से सहमत होते नहीं दिखाई दे रहे।

मैं भारत और प्रकारांतर में विश्व का एक सभ्य नागरिक होने के कारण चाहता हूँ कि संसार में उत्पात न हो, वैमनस्य-घृणा समाप्त हो. इसके लिए मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं. इस सार्वजनिक और खुले मंच का प्रयोग करते हुए मैं आपसे इन प्रश्नों का उत्तर और समाधान चाहता हूँ. विश्व शांति के लिए इस कोलाहल का शांत होना आवश्यक है और मुझे लगता है कि आप भी मेरी इस बात से सहमत होंगे।

जिन संगठनों ने विभिन्न देशों में आतंकवादी कार्यवाहियां की हैं उनमें से कुछ सबसे नृशंस हत्यारे समूहों के नाम प्रस्तुत हैं. मुस्लिम ब्रदरहुड, सलफ़ी, ज़िम्मा इस्लामिया, बोको हराम, जमात-उद-दावा, तालिबान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामी मूवमेंट, इख़वानुल मुस्लिमीन, लश्करे-तैय्यबा, जागृत मुस्लिम जनमत-बांग्ला देश, इस्लामी स्टेट, जमातुल-मुजाहिदीन, अल मुहाजिरो, दौला इस्लामिया...इत्यादि. इन हत्यारी जमातों में एक बात सामान्य है कि इनके नाम अरबी हैं या इनके नामों की शब्दावली की जड़ें इस्लामी हैं. ये संगठन ऐसे बहुत से देशों में काम करते हैं जहाँ अरबी नहीं बोली जाती तो फिर क्या कारण है कि इनके नाम अरबी के हैं ? ये प्रश्न बहुत गंभीर प्रश्न है कृपया इस पर विचार कीजिये. न केवल इस्लामी बंधु बल्कि सेक्युलर होने का दावा करने वाले सभी मनुष्यों को इस पर विचार करना चाहिए। इन सारे संगठनों के प्रमुख लोगों ने जो छद्म नाम रखे हैं वो सब इस्लामी इतिहास के हिंसक लड़ाके रहे हैं. उन सबके नाम हत्याकांडों के लिए कुख्यात रहे हैं. उन सब ने अपने विश्वास के अनुसार अमुस्लिम लोगों को मौत के घाट उतरा है, उनसे जज़िया वसूला है. कृपया मुझे बताएं कि ऐसा क्यों है ? क्या इस्लाम अन्य अमुस्लिम समाज के लिए शत्रुतापूर्ण है, यदि ऐसा नहीं है तो इन संगठनों के नामों का इस्लामी होना मात्र संयोग है ? कोई भी तर्कपूर्ण बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं कर पायेगी। कृपया इस पर प्रकाश डालें।

मैं एक ऐसे राष्ट्र का घटक हूँ स्वयं जिस पर ऐसे लाखों कुख्यात हत्यारों ने आक्रमण किये हैं। ये कोई एक दिन, एक माह, एक साल, एक दशक, एक सदी की बात नहीं है। मेरे घर में सात सौ बारह ईसवी में किये गए मुहम्मद बिन क़ासिम की मज़हबी गुंडागर्दी से ले कर आज तक लगातार उत्पात होते रहे हैं। मेरे समाज के करोड़ों लोगों का धर्मान्तरण होता रहा है। ये मेरे सामान्य जीवन-विश्वास के लिए कोई बड़ी घटना नहीं थी। मेरे ग्रंथों की अंतर्धारा "एकम सत्यम विप्रः बहुधा वदन्ति", "मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना" है. मैं मानता ही नहीं इस दर्शन को जीता भी हूँ। मेरे लिए ये कोई बात ही नहीं थी कि मेरी शरण में आने वाला यहूदी, पारसी, मुसलमान समाज अपने निजी विश्वासों को कैसे बरतता है। वो अपने रीति-रिवाजों का पालन कैसे करता है। उसने अपने चर्च, सिने गॉग, मस्जिदें कैसी और क्यों बनाई हैं. मेरे ही समाज के बंधु मार कर, सता कर, लालच दे कर अर्थात जैसे बना उस प्रकार से मुझसे अलग कर दिए गए। यदि आप इसे मेरी अतिशयोक्ति मानें तो कृपया इस तथ्य को देखें कि ऐसे हत्याकांडों के कारण ही हिन्दू समाज की लड़ाकू भुजा सिख पंथ बनाया गया। गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान, गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों साहबजादों की हत्याओं को किस दृष्टि से देखा जा सकता है ?

मगर एक अजीब बल्कि किसी भी राष्ट्र के लिए असह्य बात, ये देखने में आई कि राष्ट्र पर हमला करने वाले इन आक्रमणकारियों के प्रति मेरे ही इन मतांतरित हिस्सों ने कभी रोष नहीं दिखाया। इनकी कभी निंदा नहीं की, बल्कि इन्हीं मतांतरित बंधुओं ने इन हमलावरों के प्रति प्यार और आदर दिखाया। इन आक्रमणकारियों ने जिनके पूर्वजों की हत्याएं की थी, उनकी पूर्वज स्त्रियों के साथ भयानक अनाचार किये थे, उन्हें हर कथनीय-अकथनीय ढंग से सताया था, उनके लिए मेरे ही राष्ट्र बंधुओं में आस्था कैसे प्रकट हो गयी ? इन हमलावरों के नाम पर देश के मार्गों, भवनों के नाम का आग्रह इन मतांतरित बंधुओं ने क्यों किया ? मेरे ही हिस्से मज़हब का बदलाव करते ही अपने मूल राष्ट्र के शत्रु कैसे और क्यों बन गए ? क्या इसका कारण इस्लामी ग्रंथों में है ? क्या इस्लाम राष्ट्र-वाद का विरोधी है ?

मैं सारे देश भर में घूमता रहता हूं. मुझे सड़कों के किनारे तहमद-कुरता या कुरता-पजामा पहने , गठरियाँ सर पर उठाये लोगों के चलते हुए समूह ने कई बार आकर्षित किया है. ये लोग अपने पहनावे के कारण स्थानीय लोगों में अलग से पहचाने जाते हैं. मेरी जिज्ञासा ने मुझे ये पूछने पर बाध्य किया कि ये लोग कौन हैं ? कहाँ से आते हैं ? इनके दैनिक ख़र्चे कैसे पूरे होते हैं ? उत्तर ने मुझे हिला कर रख दिया. मालूम पड़ा कि ये लोग अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नदवा तुल उलूम-लखनऊ, देवबंद के मदरसे जैसे संस्थानों के अध्यापक और छात्र होते हैं. मेरी दृष्टि में अध्यापकों और छात्रों का काम पढ़ाना और पढ़ना होता है. पहले मैं ये समझ ही नहीं पाया कि ये लोग अपने विद्यालय छोड़ कर दर-दर टक्करें मारते क्यों फिर रहे हैं ? अधिक कुरेदने पर पता चला कि ये कार्य तो सदियों से होता आ रहा है और यही लोग मतांतरित व्यक्ति को अधिक कट्टर मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं। यानी मेरे राष्ट्र के मतांतरित लोगों में जो अराष्ट्रीय परिवर्तन आया है उसके लिए ये लोग भी जिम्मेदार हैं. इन्हीं लोगों के कुकृत्यों पर नज़र न रखने का परिणाम देश में इस्लामी जनसँख्या का बढ़ते जाना और फिर उसका परिणाम देश का विभाजन हुआ. इन तथ्यों से भी पता चलता है कि इस्लाम राष्ट्रवाद का विरोधी है।

ये कुछ अलग सी बात नहीं साम्यवाद भी राष्ट्रवाद का विरोधी है मगर कभी भी एक देश के साम्यवादी उस देश के शासन और राष्ट्र के ख़िलाफ़ किसी दूसरे देश के कम्युनिस्ट शासन के बड़े पैमाने पर पक्षधर नहीं हुए हैं. मैं इस बात को सहज रूप से स्वीकार कर लेता मगर मेरी समझ में एक बात नहीं आती कि अरब की भूमि और उससे लगते हुए अफ्रीका में कई घोषित इस्लामी राष्ट्र हैं. इनमें अरबी या उससे निसृत कोई बोली बोली जाती है तो ये देश एक देश क्यों नहीं हो जाते ? इस्लामी बंधुता अथवा उम्मा की भावना क्या केवल अरब मूल के बाहर के लोगों के लिए ही है ? सऊदी अरब, क़तर, संयुक्त अरब अमीरात इत्यादि देश आर्थिक रूप से बहुत संपन्न देश हैं. ये देश भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश में मस्जिदें, मदरसे बनाने के लिए अकूत धन भेजते रहे हैं मगर क्या कारण है कि सूडान के भूख-प्यास से मरते हुए मुसलमानों के लिए ये कुछ नहीं करते ? क्या इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है ? यहाँ एक चलता हुआ प्रश्न पूछने से स्वयं को नहीं रोक पा रहा हूं. मैंने मुरादाबाद के एक इस्लामी एकत्रीकरण जिसे आप इज्तमा कहते हैं, में ये शेर सुना था

मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मारे गर्मी के आवें पसीने मुझे 

मेरी जानकारी में मदीना रेगिस्तान में स्थित है और वहां बर्फ़ नहीं पड़ती. भारत से कहीं अधिक गर्म स्थान में जाने की इच्छा मेरी बात '' इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है '' की पुष्टि करती है. लाखों हिन्दू भारत से बाहर रहते हैं. उनमें गंगा स्नान, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुरी इत्यादि तीर्थों के दर्शन की इच्छा होती है मगर मैंने कभी नहीं सुना कि वो टेम्स, कलामथ, कोलोराडो या उन देशों की नदियों पर लानतें भेजते हुए गंगा में डुबकी लगाने के लिए भागे चले आने की बातें कहते हों.
मैं एक शायर हूँ और लगभग चौंतीस-पैंतीस साल से मुशायरों में जाता हूँ ईराक युद्ध के समय मैं बहुत से मुशायरों में शायर के नाते जाता था. वहां मुझे सद्दाम हुसैन के पक्ष में शेर सुनने को मिलते थे और श्रोता समूह उनके पक्ष में खड़ा हो कर तालियां पीटता था. एक शेर जो मूर्खता की चरम सीमा तक हास्यास्पद होने के कारण मुझे अभी तक याद है आपको भी सुनाता हूं

ये करिश्मा भी अजब मजहबे-इस्लाम का है
इस बरस जो भी हुआ पैदा वो सद्दाम का है

इस शेर पर हज़ारों लोगों की भीड़ को मैंने तालियां पीटते, जोश में आ कर नारा-ए-तकबीर बोलते सुना है. मैं ये कभी समझ नहीं पाया कि अपनी संतान का पिता सद्दाम हुसैन को मानना यानी अपनी पत्नी को व्यभिचारी मानना किसी को कैसे अच्छा लग सकता है ? मगर ये स्थिति कई मुशायरों में एक से बढ़ कर एक पाई तो समझ में आया कि वाकई ये करिश्मा इस्लाम का ही है। एक अरबी मूल के व्यक्ति के पक्ष में, जिसको कभी देखा नहीं, जिसकी भाषा नहीं आती, जिसके बारे में ये तक नहीं पता कि वो बाथ पार्टी का यानी कम्युनिस्ट था, केवल इस कारण कि वो एक अमुस्लिम देश अमरीका के नेतृत्व की सेना से लड़ रहा है, समर्थन की हिलोर पैदा हो जाने का और कोई कारण समझ नहीं आता। यहाँ ये बात देखने की है कि इस संघर्ष का प्रारम्भ सद्दाम हुसैन द्वारा एक मुस्लिम देश क़ुवैत पर हमला करने और उस पर क़ब्ज़ा करने से हुआ था. ईराक़ और क़ुवैत के लिए ये लड़ाई इस्लामी नहीं थी मगर भारत, पाकिस्तान, बंगला देश के मुसलमानों के लिए थी. इसे अरब मूल के पक्ष में अन्य मुस्लिम समाज की मानसिक दासता न मानें तो क्या मानें ? इसका कारण इस्लाम को न माने तो किसे मानें ?

इन तथ्यों की निष्पत्ति ये है कि इस्लाम अपने धर्मान्तरित लोगों से उनकी सबसे बड़ी थाती सोचने की स्वतंत्रता छीन लेता है। धर्मान्तरित मुसलमान अपने पूर्वजों, अपनी धरती के प्रति आस्था, अपने लोगों के प्रति प्यार, अपने इतिहास के प्रति लगाव से इस हद तक दूर चला जाता है कि वो अपने अतीत, अपने मूल समाज से घृणा करने लगता है ? उसमें ये परिवर्तन इस हद तक आ जाता है कि वो अरब के लोगों से भी स्वयं को अधिक कट्टर मुसलमान दिखने की प्रतिस्पर्धा में लग जाता है। सर सलमान रुशदी की किताब के विरोध में किसी अरब देश में हंगामा नहीं हुआ। फ़तवा ईरान के ख़ुमैनी ने बाद में दिया था मगर हंगामा भारत, बंगला देश, पाकिस्तान में पहले हुआ। ऐसा क्यों है कि एक किताब का, बिना उसे पढ़े इतना उद्दंड विरोध करने में अरब मूल से इतर के लोग आगे बढे रहे ? क्या इसकी जड़ें अपने उन पड़ौसियों, साथियों, को जो मुसलमान नहीं हैं, का इस्लाम के आतंक और उद्दंडता से परिचित करने में हैं ? अगर आप उसे ठीक नहीं मानते थे तो क्या इसका शांतिपूर्ण विरोध नहीं किया जाना चाहिए था ? सभ्य समाज में पुस्तक का विरोध दूसरी पुस्तक लिख कर सत्य से अवगत करना होता है मगर ऐसा क्यों है कि सभ्य समाज के तरीक़ों का प्रयोग मुस्लिम समाज नहीं करता ? जन-प्रचलित भाषा में पूछूं तो इसे ऐसा कहना उचित होगा कि मुसलमानों का एक्सिलिरेटर हमेशा बढ़ा क्यों रहता है ?

क्या इस्लाम तर्क, तथ्य, ज्ञान की सभ्य समाज में प्रचलित भाषा-शैली का प्रयोग नहीं करता या नहीं कर सकता ? ऐसा क्यों है कि इस्लामी विश्व, शालीन समाज के तौर-तरीक़ों से विलग है ? किसी भी इस्लामी राष्ट्र में संगीत, काव्य, कला, फिल्म इत्यादि ललित कलाओं के किसी भी भद्र स्वरूप का अभाव है. इस्लामी राष्ट्रों में संयोग से अगर ऐसा कुछ है भी तो उसके ख़िलाफ़ इस्लामी फ़तवे, उद्दंडता का प्रदर्शन होता रहता है ? विभिन्न दबावों के कारण अगर ये साधन नहीं होंगे तो समाज उल्लास-प्रिय होने की जगह उद्दंड हत्यारों का समूह नहीं बन जायेगा ? यहाँ ये पूछना उपयुक्त होगा कि बलात्कार जैसे घृणित अपराधों में सारे विश्व में मुसलमान सामान्य रूप से अधिक क्यों पाये जाते हैं ? उनके नेतृत्व करने वाले सामान्य ज्ञान से भी कोरे क्यों होते हैं ? क्या ये परिस्थितयां ऐसे हिंसक समूह उपजाने के लिए खाद-पानी का काम नहीं करतीं ?

ऐसा क्यों है कि इस्लाम सारे संसार को अपना शत्रु बनाने पर तुला है ? यहूदियों के ऐतिहासिक शत्रु ईसाइयों को ग़ाज़ा में इज़रायल के बढ़ते टैंक अपनी विजय क्यों प्रतीत होते हैं ? क्या इसका कारण आचार्य चाणक्य का सूत्र " शत्रु का शत्रु स्वाभाविक मित्र होता है " तो नहीं है ? ईसाइयों ने यहूदियों से शत्रुता हज़ारों साल निभायी, निकाली मगर इस्लाम के विरोध में वो एक साथ क्यों हैं ?

सामान्य भारतीय मुसलमान इस्लाम के बताये ढंग से नहीं जीता। मुहम्मद जी के किये को सुन्नत ज़रूर मानता है मगर उसे अपने जीवन में नहीं उतारता. इस्लाम ऐसे अनेकों काम पिक्चर देखना, दाढ़ी काटना, संगीत सुनना, शायरी करना इत्यादि के विरोध में है मगर आप इन विषयों में उसकी एक नहीं मानते तो इन राष्ट्र विरोधी कामों के विरोध में क्यों नहीं खड़े होते ? जितने हंगामों की चर्चा मैंने पहले की है उनमें सारा भारतीय मुसलमान सम्मिलित नहीं था मगर वो इन बेहूदगियों का विरोध करने की जगह चुप रहा है।

देश में फैले लाखों मदरसों और लाखों मुल्लाओं के प्रचार के बावजूद ईराक़ जाने वाले 20 लोग नहीं मिले जबकि संसार के अन्य देशों से ढेरों लोग सीरिया और ईराक़ गए हैं. अभी तक मुल्ला वर्ग अपने पूरे प्रयासों के बाद भी अपनी दृष्टि में आपको पूरी तरह से असली मुसलमान यानी तालिबानी नहीं बना पाया है. आपने उनकी बातों की लम्बे समय से अवहेलना की है मगर अब पानी गले तक आ गया है। आपको उनके कहे-किये-सोचे के कारण उन बातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, आप जिनके पक्ष में नहीं हैं। आपको आपकी इच्छा के विपरीत ये समूह अराष्ट्रीय बनाने पर तुला है. आपको अब्दुल हमीद की जगह मुहम्मद अली जिनाह बनाना चाहता है। मैं समझता हूं कि आपको संभवतः मुल्ला पार्टी का दबाव महसूस होता होगा। देश बंधुओ इनका विरोध कीजिये. आपके साथ पूरा राष्ट्र खड़ा है और होगा। भारत में प्रजातान्त्रिक क़ानून चलते हैं. यहाँ फ़तवों की स्थिति कूड़ेदान में पड़े काग़ज़ बल्कि टॉयलेट पेपर जितनी ही है और होनी चाहिए। भारत एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों का राष्ट्र है. यहाँ का इस्लाम भी अरबी इस्लाम से उसी तरह भिन्न है जैसे ईरान का इस्लाम अरबी इस्लाम से अलग है। यही भारतीय राष्ट्र की शक्ति है। आप महान भारतीय पूर्वजों की वैसे ही संतान हैं जैसे मैं हूं। ये राष्ट्र उतना ही आपका है जितना मेरा है। आप भी वैसे ही ऋषियों के वंशज हैं जैसे मैं हूं। आपको राष्ट्र-विरोधी बनाने पर तुले इन मुल्लाओं को दफ़ा कीजिये, इन से दूर रहिये और इन पर लानत भेजिए. आइये अपनी जड़ों को पुष्ट करें

तुफ़ैल चतुर्वेदी

कांधला के निकट एक ट्रेन में तब्लीगी जमात के कुछ लोगों के साथ मार-पीट

ये ओसामा बिन लादेन के तिक्का-बोटी दिवस की बरसी थी। टी वी के इक्का-दुक्का चैनलों पर घूँघट काढ़े एक समाचार फ़्लैश हुआ कि कांधला के निकट एक ट्रेन में तब्लीगी जमात के कुछ लोगों के साथ मार-पीट हुई और अगले दिन बीकानेर से हरिद्वार जाने वाली ट्रेन रोक कर उस पर पत्थर बरसाए गए। एक-आध बार के बाद घूँघट वाला शरमाया-शरमाया समाचार भी गायब हो गया मगर सोशल मीडिया विशेष रूप से फेस बुक पर 'एक और असफल गोधरा' के शीर्षक से ये समाचार बड़े विस्तार से चर्चा का केंद्र बना। घटना की मोटी-मोटी जानकारी ये है कि तब्लीगी जमात के एक समूह ने ट्रेन में यात्रा कर रहे लोगों { काफिरों } को कुफ्र-ईमान, दारुल-हरब और दारुल-इस्लाम समझने का प्रयास किया। इस पर कुछ बहस हुई। बहस धींगा-मुश्ती में बदल गयी और जमातियों के गाल गुलाबी हो गए। 

 इसका एक वर्ज़न और भी है जो एक कुटे हुए जमाती ने बताया है। उसके अनुसार वो और उसके कुछ साथी दिल्ली में एक इज्तमा { इस्लामी एकत्रीकरण } में भाग लेने महाराष्ट्र से आये थे। इज्तमा के बाद उनकी इच्छा अपने मूल केंद्र सहारनपुर स्थित मदरसे मजाहिरे-उलूम जाने की हुई। वो ट्रेन में सवार हुए। रास्ते में वो पेशाब जाने के लिए सामूहिक रूप से उठे। टायलेट के दरवाजे पर भीड़ थी। उन्होंने वहां खड़े लोगों से रास्ता छोड़ने के लिए कहा और वहां खड़े लोगों ने उनकी पिटाई शुरू कर दी। किसी भी तरह ये मानना कठिन है कि पेशाब करने जाने के निवेदन पर लोगों ने 6 मासूम लोगों को अकारण पीटना शुरू कर दिया होगा। मारपीट का प्रारम्भ सदैव बातचीत के बहस, बहस के कठहुज्जती, कठहुज्जती के व्यक्तिगत कटाक्षों / आक्षेपों में बदल जाने के कारण होता है। बहरहाल पिटे-छिते जमातियों ने अगले स्टेशन पर ट्रेन से उत्तर कर स्थानीय इमाम से सम्पर्क किया। इमाम ने सैकड़ों लोगों के साथ थाना घेर लिया। प्रशासन ने मामला दर्ज कर जाँच के आदेश दे दिये। 

कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार दिल्ली से सहारनपुर जा रही ट्रेन में महाराष्ट्र के पांच जमातियों के साथ मारपीट का कारण ये था कि ट्रेन में तबलीगी मुजाहिद कुछ महिलाओं को छेड़ रहे थे। महिलाओं के प्रतिवाद करने पर यात्रिओ ने उन्हें जुतियाया। समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक नाहीद हसन को इस जाँच के आदेश से चैन नहीं पड़ा और उन्होंने अगले दिन अपने हजारों समर्थकों के साथ ट्रेन की पटरी पर धरना दिया। भीड़ उग्र हो उठी और उसने बीकानेर से हरिद्वार जा रही ट्रेन नंबर 04735 को रोक कर उस पर पथराव किया। उसमें आग लगाने की कोशिश की। स्थानीय डी एम के नेतृत्व में पुलिस ने भीड़ को लाठी चार्ज कर के तितर-बितर कर दिया और ट्रेनों को आगे रवाना किया। इस घटना में 16 पुलिस वाले भी घायल हुए। 

इससे पहले कि ये विषय समाज के ध्यान से उतर जाये, आवश्यक है कि इस बात, बहस, झगडे, उपद्रव की जड़ तक जाया जाये, अर्थात समझा जाये कि जमात किस बला का नाम है ? जमात का शाब्दिक अर्थ समूह है मगर इसके व्यवहारिक अर्थ हैं ' उन लोगों का समूह जो नवधर्मांतरित मुस्लिमों को कट्टर मुसलमान यानी अपनी दृष्टि में सही मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं'। जमात इस्लामी चिंतन का पहले दिन से हिस्सा हैं। इस्लाम ने अपने जन्म के साथ ही अपनी दृष्टि से संसार के दो भाग किये। पहला अहले-इस्लाम यानी मुसलमान और उनके प्रभुत्व-स्वामित्व वाली धरती यानी दारुल-इस्लाम।  दूसरा मुस्लमों से इतर लोगों यानी काफिरों, मुशरिकों, मुलहिदों, मुन्किरों, मुरतदों का समाज और उनकी धरती यानी दारुल-हरब अर्थात युद्ध क्षेत्र।  दारुल-हरब के लोगों को मुसलमान बनाना और दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में बदलना हर मुसलमान का कर्तव्य है। यही इस्लाम के पहले दिन यानी 1400 वर्षों से पल-पल, क्षण-क्षण विचार, क्रिया के स्तर पर घटित होने वाला उपद्रव है। यही जिहाद है। 

ये बहला-फुसला कर, मार-पीट कर, लड़कियां भगा कर यानी जैसे बने करने वाला अनवरत द्वंद्व है। इस प्रक्रिया को इस तरह समझें। मान लीजिये कि कोई मतिमन्द , मतकटा हिन्दू, ईसाई, पारसी, यहूदी किसी तरह मुसलमान बनाने के लिए तैयार हो जाये तो एक दाढ़ीदार मुल्ला उसे कलमा पढ़ायेगा और उसका नाम बदल कर अरबी मूल का रख देगा। मगर धर्मान्तरित व्यक्ति और मुल्ला समूह ऐसे ही नहीं मान लेगा कि वो मुसलमान हो गया चूँकि इस्लाम की मांगें तो सम्राज्यवादी हैं। अब अनिवार्य रूप से उस व्यक्ति को अपने पूर्वजों से आत्मिक-मानसिक सम्बन्ध तोड़ने होंगे। अपने आस्था केन्द्रों, अपनी धरती, अपनी प्रथाओं, अपने इतिहास पुरुषों से घृणा करनी पड़ेगी। स्वयं को कृतिम रूप से अरबी बनाने के काम में लगना पड़ेगा। ये कुछ-कुछ अफ़्रीकी मूल के अमरीकी गायक माइकिल जैक्सन के अपने शरीर की काली चमड़ी को गोरा करवाने की तरह है। इस प्रक्रिया में माइकिल जैक्सन को बरसों रात-दिन भयानक पीड़ा होती रही और अंत में पीड़ा-निवारक दवाओं के भारी सेवन के कारण ही उसके प्राण निकले। 

ये कार्य अत्यंत दुष्कर है अतः पीढ़ियों चलता है। हर पीढ़ी को मार-मार कर मुसलमान रखना पड़ता है। जमात इसी काम को समझा-बुझा कर करने वाला उपकरण है। जमात में सम्मिलित व्यक्ति मानसिक रूप से काफिरों से नापाक धरती की अल्लाह की धरती बनाने में लगा रहता है। ये मदरसों, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अध्यापक और छात्रों का समूह होते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़ कर देश के अन्य भागों का मुसलमान अभी तक पूरी तरह तालिबानी नहीं बना है। ये समूह छुट्टियों में भारत के मुस्लिम क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं और उसे दिन में पांच बार नमाज़ पढने, अल्लाह एक है और उसमें कोई शरीक नहीं है-बताने, मुहम्मद उसका आखिरी पैगम्बर है समझाने में लग जाते हैं। कुरआन में मुकम्मल दीन है , मुहम्मद का किया-धरा जो हदीसों में वर्णित है को अपने जीवन में उतारने को सुन्नत बताने,  सुन्नत को जीवन में उतारना अनिवार्य है समझाने,  यानी 1400  वर्ष पूर्व के अरबी चिंतन को आज के लोगों के दिमाग में ठूंसने में अनवरत कोशिश करते हैं। नवधर्मांतरित मुसलमानों को  को सही मुसलमान बनाना यानी तालिबानी बनाना बड़ा पवित्र काम है। 

ऐसा करना जन्नत का दरवाजा खोलता है। जहाँ 72 कुंवारी हूरें हैं जिनके साथ अनंत काल तक बिना थके, बिना रुके, बिना स्खलित हुए भोग किया जा सकता है। ये हूरें भोग के बाद फिर से कुंवारी हो जाने की अजीब सी, अनोखी क्षमता रखती हैं। जन्नत में गिलमां भी { कमनीय काया वाले लड़के } तत्पर मिलते हैं। तिरमिजी के खंड 2 पृष्ठ 138 में कहा गया है ' जो आदमी जन्नत जाता है उसे 100 पुरुषों के पुरुषत्व के बराबर पौरुष दिया जायेगा' 'उनके पास ऐसे लड़के आ जा रहे हैं जिनकी अवस्था एक ही रहेगी तुम उन्हें देखो तो समझोगे कि मोती बिखरे हैं'। अब उन लोगों की कल्पना कीजिये जो हर पल इस अहसास से भरे हैं कि वो काफिरों, शैतानों को दुनिया में हैं। उनका काम इसे बदलना है और पुरुस्कार रूप में जन्नत जाना है। इन लोगों के लिए पृथ्वी घर नहीं है। पृथ्वी तो ट्रांजिट कैम्प है जहाँ इस्लाम की खिदमत करते हुए अपनी सूखी-सड़ी बीबियों के साथ कुछ समय बिताना है। असली घर तो जन्नत है जहाँ हूरें और गिलमां आतुरता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लार टपकाता, कमर लपलपाता हुआ ये मानस हर समय इसी उधेड़-बुन में लगा रहता है और जगह-बेजगह विवाद खड़े करता है।

नमाज में एक क्रिया होती है। नमाज पढ़ने वाला अपने दायें हाथ की तर्जनी उठा कर कहता है खुदा एक है और मैं इसकी गवाही देता हूँ। यही बात संभवतः यही विवाद की जड़ थी। ट्रेन में ऐसे लोग भी थे जिन्होंने दायें हाथ की चारों उँगलियाँ, अंगूठा और हथेली की गद्दी उठा कर प्रमाणित किया कि वो इसके विपरीत गवाही दे रहे हैं। इस मासूम सी क्रिया के कारण गाल गुलाबी करने और फांय-फांय करने की क्या ज़रूरत है ?
…………………………"इस तरह के कामों में इस तरह तो होता है "

खैर जमात पर लौटते हैं। जमातों का कार्य कितनी प्रबलता से और अनवरत किया जाता है, को इस रौशनी में देखें। अफगानिस्तान के हिन्दू-बौद्ध अतीत को नोच-नोच कर, खुरच-खुरच कर अफगानी समाज से निकलने का काम इन्हीं जमतियों ने किया है। कश्मीर में भारत विरोधी भावनायें भड़काने का काम, कश्मीरी समाज को भारत द्रोही-हिंदुद्रोही बनाने का काम वहां सदियों से आ रही तब्लीगी जमातों और इनके अड्डे मदरसों ने किया है। पारसी, बहाई, इस्माइली तीनों मज़हबों का जन्म ईरान में हुआ मगर आज इनका नामलेवा-पानीदेवा ईरान में कोई नहीं बचा। इनके मानने वाले प्रमुख रूप से भारत में पाये जाते हैं। कहने के लिए कुछ मुल्ला कहते हैं कि मजहब में कोई जबरदस्ती नहीं तो ये तीनों ईरान से कैसे गायब हो गए ? इसकी जड़ में यही तब्लीगी जमातों का अनवरत परिश्रम है। अतीत में भारतीय अपने स्वाभाविक संस्कारों के कारण इस धर्मांतरण को गुरु बदलने की तरह देखते थे। ऐसी भोली-भाली मगर बौड़म सोच का परिणाम बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण और उसकी अनिवार्य परिणिति देश के उन हिस्सों के भारत से टूट जाने में हुई। 

आज उत्तर प्रदेश को उत्तर भारत कहा जाता है। सर कनिंघम 1871 में छपी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Ancient Geography Of India में उत्तर प्रदेश से हजारों मील दूर गजनी को उत्तर भारत दिखाते हैं। अफगानिस्तान का गजनी 1871 में उत्तर भारत था तो भारत की सीमा कहाँ थी ? भरत-वंशियो ! आपके महान तेजस्वी पूर्वज 1000 वर्ष पहले रोम ही तक विजय कर के आये हैं। आज भी जिसकी घोषणा करता शिलालेख उज्जैन में लगा हुआ है। शक, हूण, कुषाण, यवन, पल्हव, बाल्हीक, किरात, पारद, दरद आपके ही रक्त-मांस के सहोदर भरतवंशी क्षत्रिय हैं। महाकाल और भगवती दुर्गा के अनन्य उपासक महान योद्धा शकों, हूणों और इन उल्लेखित योद्धा जातियों के इन्हीं नामों से रामायण और महाभारत में वर्णन उपलब्ध हैं। आपके महान पूर्वजों के साम्राज्य इन क्षेत्रों में सदियों रहे हैं। बंधुओं सारा यूरेशिया हमारा था। ये क्षेत्र हमारी सैनिक पराजयों के कारण अलग नहीं हुए। कनिंघम के गजनी में दिखाए उत्तर भारत को इन जमातों के कारण केवल 144 वर्ष में हजारों मील खिसक कर मुजफ्फरनगर-कांधला आना पड़ गया। देश को तोड़ने का काम करने वाली जमातों का विरोध मध्य भारत से जबरदस्ती खिसका कर उत्तर भारतीय बना दिए गए भरतवंशी कर रहे हैं तो ये तो पुण्य कार्य है, राष्ट्र-रक्षा का कार्य है। आखिर हिन्दुस्तान की चिंता हिन्दू नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? तब्लीगी जमात के मुल्ला मीठी बोली में नहीं सुनते तो मेरठ-मुजफ्फरनगर की खड़ी बोली में समझाने के अलावा और क्या उपाय है ? 

तुफैल चतुर्वेदी         

सोमवार, 16 नवंबर 2015

नथूराम गोडसे पर मेरी पोस्ट जिसे फ़ेस बुक ने किन्हीं सज्जनों की शिकायत पर हटा दिया, उसे आप चाहें तो मेरे ब्लॉग पर विराट रूप में पढ़ सकते हैं।

सैनिक और हत्यारे में क्या अंतर है ? हत्यारा व्यक्तिगत कारण से किसी के प्राण लेता है किन्तु सैनिक सदैव राष्ट्र के हित के लिये शत्रु के प्राण लेता है। उसके कारण हम सुरक्षित होते हैं। हत्यारे को व्यवस्था प्राणदंड देती है किन्तु सैनिक को वीर-चक्र, महावीर-चक्र, परमवीर-चक्र देती है। उसकी समाधि पर प्रधानमंत्री सैल्यूट करते हैं। समाज फूल चढ़ाता है। केवल लक्ष्य के अंतर से एक उपेक्षा और दूसरा प्रशंसा पाता है।

राष्ट्र के इतिहास में अगर किसी एक व्यक्ति का नाम ढूंढा जाये, जिसके कारण देश का एक तिहाई भाग ग़ुलाम बन गया। लाखों लोग हिन्दू मारे गए, करोड़ों हिंदुओं को अपनी संपत्ति, भूमि, व्यापार छोड़ कर अनजाने क्षितिज की और आना पड़ा, जिसके कारण पवित्र मातृभूमि का बंटवारा हुआ, हिन्दू समाज पर इतिहास की सबसे बड़ी विपत्ति आयी। जिसके कारण सर्वाधिक हिन्दू नष्ट हुए। जिसके कारण वेदों के प्रकट होने का स्थान ग़ुलाम हो गया, जिसके कारण भारत का ध्वज स्वर्ण गैरिक भगवा के स्थान पर तिरंगा हुआ, जिसके कारण वंदेमातरम् की जगह चाटुकारिता का गीत जन-मन-गण हम पर लाद दिया गया, जिसने 1948 में देश पर पाकिस्तानी आक्रमण के समय पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने के लिये आमरण-अनशन किया तो केवल एक मात्र गांधी जी का नाम आयेगा। जितने भयानक हत्याकांड 300 वर्ष का मुस्लिम शासन भी नहीं कर पाया था, उससे अधिक के निमित्त गांधी जी बने ।

उनको दंड देने का कार्य राज्य का था मगर राज्य ने यह कार्य नहीं किया अतः जिस व्यक्ति ने ये आवश्यक कार्य किया वो समाज की उपेक्षा का शिकार है। नथु राम गोडसे की कोई निजी शत्रुता गांधी जी से नहीं थी। वो सुशिक्षित वकील थे। समाचारपत्र के सम्पादक थे। वो जानते थे " गांधी जी को प्राणदंड देते ही मैं नष्ट कर दिया जाऊंगा। मेरा परिवार नष्ट कर दिया जायेगा मगर किसी को भी मातृभूमि के विभाजन का घोर पाप करने का अधिकार नहीं है। ऐसे पापी को दण्डित करने का और कोई उपाय नहीं था अतः मैंने गांधी जी का वध करने का निश्चय किया। मैं गांधी जी पर गोली चलाने के बाद भागा नहीं और तबसे अनासक्त की भांति जीवन जी रहा हूँ। यदि देशभक्ति पाप है तो मैं स्वयं को पापी मानता हूँ और पुण्य तो मैं स्वयं को उस प्रशंसा का अधिकारी मानता हूँ"! हमारे हित के लिये अपने परिवार सहित स्वयं को बलिदान कर देने वाले महापुरुष की छवि उज्जवल हो इतना तो हमें करना ही चाहिये। उस परमवीर महापुरुष नथु राम गोडसे को शत-शत प्रणाम
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देश-वासियो !
कोई भी काम अपने लक्ष्य के कारण छोटा/बड़ा/महान होता है। हम सब अपनी संपत्ति, परिवार, जीवन की रक्षा करते हैं मगर सम्मान सैनिक को मिलता है चूँकि वो निजी काम की जगह समष्टि की रक्षा करता है। यहाँ ध्यान रहे, सैनिक का काम उसे जीवन-यापन भी कराता है, अर्थात देश की रक्षा में लगे सैनिक और उसके परिवार का जीवन सैनिक के वेतन पर निर्भर होता है। उसे कठिन जीवन जीना होता है मगर बलिदान हो जाना कोई आवश्यक नहीं होता। तो उस सामान्य मनुष्य को क्या कहेंगे जिसने अपना जीवन राष्ट्र के लिए बलिदान कर दिया। एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपना सम्मान प्राणों से भी प्यारा था, जिसे पता था कि उसके गोली चलाते ही उसका, उसके परिवार का जीवन पूर्णतः नष्ट कर दिया जाये, लोग उस पर थू थू करेंगे मगर देश और राष्ट्र के हित में उसने अपना बलिदान कर दिया ? महान राष्ट्र भक्त नथु राम गोडसे के अतिरिक्त ऐसा पूज्य योद्धा कौन है ?

राष्ट्र के इतिहास में अगर किसी एक व्यक्ति का नाम ढूंढा जाये, जिसके कारण लाखों लोग हिन्दू मारे गए, करोड़ों हिंदुओं को अपनी संपत्ति, भूमि, व्यापार छोड़ कर अनजाने क्षितिज की और आना पड़ा, जिसके कारण पवित्र मातृभूमि का बंटवारा हुआ, किसके कारण वेदों के प्रकट होने का स्थान ग़ुलाम हो गया, जिसके कारण भारत का ध्वज स्वर्ण गैरिक भगवा के स्थान पर तिरंगा हुआ, जिसके कारण वंदेमातरम् की जगह चाटुकारिता का गीत जन-मन-गण हम पर लाद दिया गया तो केवल एक मात्र गांधी जी का नाम आयेगा। जितने भयानक हत्याकांड 300 वर्ष का मुस्लिम शासन भी नहीं कर पाया था, उससे अधिक के निमित्त गांधी जी बने । ऐसे व्यक्ति का प्राणांत करने वाला योद्धा क्या महापुरुष कहलाने का अधिकारी नहीं है ? ये उस महापुरुष की विडम्बना है कि उसने हिन्दू समाज के लिये बलिदान दिया। कहीं वो मुसलमान होते तो मुस्लिम समाज कृतज्ञता से उनके पैर धो धो कर पीता

सोमवार, 9 नवंबर 2015

आठ नवंबर की सुबह से सोशल मिडिया, ट्विटर इत्यादि पर मौन छाया हुआ है।

आठ नवंबर की सुबह से सोशल मिडिया, ट्विटर इत्यादि पर मौन छाया हुआ है। इसका कारण है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा हार गयी और नितीश कुमार, लालू यादव का गठबंधन जीत गया। यह एक राजनैतिक घटना है और ज़ाहिर है इसके निहितार्थ भी होंगे। भिन्न-भिन्न लोग अपने-अपने हिसाब से इसका राजनैतिक विश्लेषण भी करेंगे ? यह न हुआ होता और यह हो गया होता जैसी ढेर सारी बातें निकली जायेंगी मगर इस हार के कारण मित्रो आपमें ग्लानि का भाव कैसे दिख रहा है ?
आक्षेप के स्वर में पूछ रहा हूँ क्या आप यहाँ बिहार में सुशील मोदी या भाजपा के किसी अन्य नेता की सरकार बनवाने के लिये प्राणप्रण से सक्रिय थे ? क्या आपका लक्ष्य भारत माता को जगज्जननी के सिंहासन पर बैठे देखने की जगह बिहार में भाजपा की सरकार बनवाना था ? क्या आपका लक्ष्य राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति नहीं है ? क्या आप राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर विराजमान देखने के अतिरिक्त भी कुछ चाहते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप सब अपनी आजीविका, विकास के लिये किसी पर निर्भर नहीं हैं ? कोई संगठन आपको सोशल मिडिया पर नहीं लाया है। राष्ट्र की चिंता, उसके प्रति जागरूकता, उस के प्रति पीड़ा आपको बाध्य करती है कि आप अपना समय केवल स्वयं को देने के स्थान पर समाज के हित में लगाते हैं।
ज़ाहिर है आप जिस लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं उसके लिये बिहार में नितीश कुमार, लालू यादव, इटैलियन देवी के गठबंधन के स्थान पर भाजपा का होना सहयोगी होता मगर निश्चित ही आपका कार्य केंद्र और प्रदेशों में भाजपा की सरकारें बनवाना नहीं है। आपका लक्ष्य उससे बहुत बड़ा है। आपकी लड़ाई तो बहुत लंबी है। सदियों से आहत, क्लांत, खिन्न राष्ट्र को उबारना, उभारना आपका कार्य है। तो एक छोटी पराजय से सम्पूर्ण सेना हत-बल, हत-तेज कैसे दिखाई दे रही है ? राष्ट्र के शरीर पर लगे 1200 वर्ष के घाव एक प्रान्त की हारजीत से भरने से रहे। भारत माता के कटे हुए दोनों हाथ बिहार की जीत से वापस तो हो नहीं सकते थे।
आप का मनोबल टूटना पदातिकों का मनोबल टूटना नहीं है बल्कि सेनापतियों का मनोबल टूटना है ? हुंकार भरिये । बहुत से लोग रोकेंगे मगर जीतना तो है। कई बाधायें आएँगी, कई हार होंगी मगर अंतिम विजय राष्ट्रवादियों की यानी आपकी ही होगी। ये महाभारत आपको जीतना ही है। संभव है ये कार्य 10-15 की जगह 20-30 वर्ष ले ले मगर कटिबद्ध तो होना ही है।
विश्व इस दानव से जूझने के लिये तैयार होता दिख रहा है। रूस ने इस्लामी ख़िलाफ़त के दावेदार और वर्तमान स्वरूप आई.एस.आई.एस. की लगातार ठुकाई के बाद डेढ़ लाख सैनिक सीरिया में उतार दिए हैं। सीरिया पर होने वाले किसी भी हमले को रूस स्वयं पर हमले की तरह लेगा। अमरीका के नेतृत्व में सीरिया पर होने वाले आक्रमण के जवाब में रूस तुरंत सऊदी अरब पर प्रहार करेगा। तृतीय विश्व युद्ध के बादल विश्व-क्षितिज पर घिरते दिख रहे हैं। हम भारत-वासी भरतवंशी, हमारा सैन्य विश्व-शांति के इस महायज्ञ में पूर्णाहुति डालने के लिये बाध्य हैं। प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध हम भरतवंशियों ने ही लड़ा था और तीसरा और अंतिम विश्वयुद्ध भी हम ही लड़ेंगे। किसी राष्ट्र के पास इतना सैन्य नहीं है। फिर यह तो 1200 वर्षों से रिसते आ रहे घावों को सिलने का समय है। राष्ट्र को तैयार कीजिये। पौरुष का उसी तरह आह्वान कीजिये जैसा कल तक आप करते आ रहे थे। महाकाल हमें यशस्वी करेंगे और हमारा भारत पुनः अखंड होगा।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

बुर्क़ा, हिजाब, नक़ाब .....1400 वर्ष पुरानी इस्लामी परंपरा

बुर्क़ा, हिजाब, नक़ाब ....... ये सारे अरबी मूल के शब्द हैं. ये 1400 वर्ष पुरानी इस्लामी परंपरा है। इन्हीं का समानार्थक एक और शब्द पर्दा है। ये फ़ारसी मूल का शब्द है और शब्दकोष में इनके अर्थ आड़, ओट, लज्जा, लाज, शर्म, संकोच, झिझक, हिचकिचाहट आदि हैं। सुनने में इन शब्दों से सामान्य लाज का भाव उभरता है
मगर इन शब्दों के सही अर्थ समझने हों तो स्वयं को पूरे क़द की एक बोरी में बंद कर लीजिये। इस बोरी के सर पर इस तरह गांठ लगी हुई होनी चाहिये कि गर्दन मोड़ना भी संभव न हो। कहीं दायें-बाएं देखना हो तो गर्दन मोड़ने की जगह पूरा घूमना पड़े। केवल आँखों का हिस्सा खुला होना चाहिये बल्कि आँखों के आगे भी जाली लगी हो तो सबसे अच्छा रहेगा। बाहर की हवा आने-जाने का कोई रास्ता नहीं होना चाहिए बल्कि अपनी अंदर की हवा के भी बाहर आने-जाने का रास्ता नहीं होना चाहिए।
बिलकुल ऋतिक रौशन की फिल्म 'कोई मिल गया' के अंतरिक्ष से उतरे, बोरी में बंद प्राणी 'जादू' की तरह। फिर भर्रायी हुई आवाज़ में 'जादू' की तरह धूप-धूप पुकारिये। जब ऐसा कर चुकें तो धूप-धूप बोलना भी बंद कर दीजिये और केवल तरसी हुई निगाहों से जाली के पार की दुनिया को देखिये। हो गए न रोंगटे खड़े ? सोचने भर से आप को सन्नाटा आ गया। अब उन औरतों की कल्पना कीजिये जिन्हें 10-12 बरस की आयु से इस घनघोर घुटन में फेंक दिया जाता है।
इसका तर्क ये दिया जाता है कि किसी लड़की या औरत को देख कर पुरुष में कुत्सित भाव जागृत हो सकता है। काम भाव केवल स्त्री को देख कर पुरुष के मन में ही जागृत होता है ? अगर ऐसा है तो अभियुक्त पुरुष पर कार्यवाही की जानी चाहिये। ये तो अभियुक्त को सजा देने की जगह पीड़ित की दुर्गति करना है। फिर काम का भाव सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है। ये पुरुष को देख कर स्त्री के मन में भी जागृत हो सकता है। तो क्या पुरुष भी बुर्क़ा, हिजाब, नक़ाब, पर्दा करें ?
वैसे तो किसी सामान्य मदरसे में जा कर वातावरण देखिये तो आप पाएंगे कि वहां तो पुरुष को देख कर पुरुष के मन में काम जागृत होने का विचार भी चलता है। पाकिस्तान के कराची के मदरसे में एक बार आग लग गयी थी जिसमें किशोर आयु के बच्चे जल कर मर गए। कारण ये था कि उनको वरिष्ठ छात्रों से बचाव के लिए ताला-बंद करके रखा जाता था।
चिड़ियाघर में भी जानवर पिंजरों में रखे जाते हैं मगर ऐसी मनहूस घोर-घुटन उनके नसीब में भी नहीं होती। फिर ये भी है कि उन जानवरों को उनके साथी जानवरों ने इस घुटन पर मजबूर नहीं किया। उस मानसिक दबाव की कल्पना कीजिये जहाँ औरतें अपने ही परिवार, समाज के पुरुषों के दबाव में इस वीभत्सता की स्थिति को स्वीकार कर लेती हैं और चलती-फिरती जेलों की सी हालत में जीती हैं।

मेरठ दंगे का चर्चित हिस्सा बने हाशिमपुरा पर न्यायलय का फ़ैसला और उस पर सिक्युलर कांव कांव

अभी मेरठ दंगे का चर्चित हिस्सा बने हाशिमपुरा पर न्यायलय का फैसला आया है।  न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है। अंग्रेजी मीडिया, विदेशों से चंदा खाने वाले हिन्दू विरोधी एन.जी.ओ., मुस्लिम वोटों के लिए जीभ लपलपाने वाले राजनेता एक से बढ़ कर एक मरकट-नृत्य में संलग्न हो गए हैं। मेरे विचार से इस विषय की चर्चा करने के साथ इसी तरह के दंगे और उस पर बरसों चले हाहाकार की समवेत चर्चा उपयुक्त है। गोधरा में ट्रेन जलाने के बर्बर, पैशाचिक हत्याकांड के कारण उपजे आक्रोश से गुजरात के दंगे हुए। इस दंगे में प्रशासन, पुलिस प्रशासन पर मुसलमानों के प्रति दुर्भावना रखने और हिन्दुओं के पक्ष में होने के आरोप लगाये हैं। आइये तत्कालीन घटना कर्म को एक बार दैनंदिन रूप से याद कर लिया जाये। 
 
साबरमती एक्सप्रेस की बोगी नंबर S-6 में विश्व हिन्दू परिषद् के कार-सेवक यात्रा कर रहे थे।  27 फरवरी 2002 की सुबह 7:30 बजे के लगभग इस बोगी को निशाना बना कर गोधरा के मुसलमानों द्वारा हिन्दू विरोधी नारों के बीच आग लगा दी गई। आग लगाने वालों की संख्या 1500 के क़रीब थी। इस अग्निकांड में 72 से अधिक लोग जला कर मार दिए गए। जिसमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। कोई हिंदू यात्री बोगी से बाहर ना निकल पाए इसीलिए योजना के अनुसार उन पर पत्थर भी बरसाए जाने लगे। गुजरात पुलिस ने भी अपनी जांच में ट्रेन जलाने की इस वारदात को आई.एस.आई. की साजिश ही करार दिया, जिसका उद्देश्य हिन्दू कारसेवकों की हत्या कर राज्य में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करना था। 

मुख्‍यमंमंत्री नरेंद्र मोदी शाम 4.30 बजे गोधरा पहुंचे और वहां जली हुई बोगियों का निरीक्षण किया। उसके बाद संवाददाता सम्‍मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा कि गोधरा की घटना बेहद दुखदायी है, लेकिन लोगों को कानून व्‍यवस्‍था अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। सरकार उन्‍हें आश्‍वस्‍त करती है कि दोषियों के खिलाफ महत्‍वपूर्ण कार्रवाई की जाएगी। उसी दिन गोधरा व उसके आसपास कर्फ्यू लागू कर दिया गया। राज्‍य सरकार ने केंद्र सरकार से गुजरात में पैरा मिलिट्री फोर्स की 10 कंपनियां और साथ ही रेपिड एक्‍शन फोर्स की चार अतिरिक्‍त कंपनी बहाल करने का अनुरोध किया। दंगा भड़कने से रोकने के लिए सुरक्षा के लिहाज से बड़े पैमाने पर संदिग्‍ध लोगों को गिरफ्तार किया गया। जिन 217 लोगों को गिरफ्तार किया गया उनमें 137 हिंदू और 80 मुसलमान थे। गोधरा के बाद पहले ही दिन गुजरात के संवेदनशील व अतिसंवेदनशल क्षेत्र में 6000 पुलिस के जवानों की तैनाती की गई। स्‍टेट रिजर्व पुलिस फोर्स की 62 बटालियन थी, इसमें 58 स्‍टेट रिजर्व पुलिस फोर्स और चार सेंट्रल मिलिट्री फोर्स की बटालियन शामिल थी। गुजरात की मोदी सरकार ने सभी 62 बटालियन को संवेदनशील क्षेत्र में तैनाती के आदेश दे दिए। गोधरा से लौटने के बाद मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी ने देर रात 11 बजे अपने घर पर वरिष्‍ठ अधिकारियों की बैठक बुलाई और कानून व सुरक्षा की स्थिति का जायजा लिया। मोदी ने अधिकारियों से कहा कि सेना के जवानों की मदद भी लेनी पड़े तो लें लेकिन कानून व्‍यवस्‍था को चरमराने न दें। स्‍थानीय आर्मी हेडक्‍वार्टर ने जवाब दिया कि उनके पास सेना की अतिरिक्‍त बटालियन नहीं है। युद्ध जैसे हालात को देखते हुए सभी बटालियन को पाकिस्‍तान से सटे गुजरात बॉर्डर पर लगाया गया है। सेना की बटालियन उपलब्‍ध न होने के कारण गुजरात सरकार ने अपने पड़ोसी राज्‍य महाराष्‍ट्र, मध्‍यप्रदेश और राजस्‍थान से अतिरिक्‍त पुलिस बल की मांग की, लेकिन कांग्रेसी सरकारों ने गुजरात की कोई मदद नहीं की। 

दिग्विजय सिंह उस वक्‍त मध्य प्रदेश, अशोक गहलोत राजस्‍थान और विलासराव देखमुख महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री थे।  दिग्विजय सिंह व अशोक गहलोत सरकार ने यह कह कर गुजरात सरकार को पुलिस फोर्स देने से मना कर दिया कि उनके पास अतिरिक्‍त जवान नहीं हैं। विलासराव देशमुख ने थोड़े से पुलिस के जवान भेजे, जिन्‍हें कहा गया था कि स्थिति के नियंत्रित होते ही लौट आयें। नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्‍ण आडवाणी से सेना के जवानों की तैनाती का अनुरोध किया। इसके बाद रक्षा मंत्रालय अन्‍य राज्‍यों में तैनात जवानों को हवाई मार्ग द्वारा गुजरात लाया। 

इस बीच नरेंद्र मोदी ने निर्देश दिया कि 6000 हाजी हज कर गुजरात लौट रहे हैं। उन्हें हर हाल में सुरक्षा प्रदान किया जाए। ये सभी हाजी गुजरात के 400 गांव व कस्‍बों से हज करने गए थे।  सरकार ने सभी 6000 हाजियों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचा दिया। हालात के नियंत्रित होने और इन्‍हें सुरक्षित घर तक पहुंचाने में सरकार को 20 मार्च 2002 तक का वक्‍त लग गया लेकिन इनमें से एक को भी हिंसा का सामना नहीं करना पड़ा। सेना के जवानों को लेकर आने वाली पहली उड़ान 28 फरवरी की मध्‍य रात्रि को अहमदाबाद में उतरी। राज्‍य की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए 13 सैन्‍य टुकडि़यों को बहाल किया गया। 1 मार्च 2002: दंगाईयों को गोली मारने का आदेश दिया गया। दंगा 28 को भड़का था और उसके 24 घंटे के अंदर पहली मार्च को गुजरात सरकार के मुख्‍य सचिव ने दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी कर दिया था।

2 मार्च 2002 को पुलिस की गोली से 12 हिंदू और चार मुसलमान मरे। दो मार्च को 573 दंगाइयों को हिरासत में लिया गया था, जिसमें से 477 हिंदू और 96 मुसलमान थे। 3 मार्च 2002 को पुलिस ने 363 दंगाइयों को पकड़ा जिनमें 280 हिन्दू और 83 मुसलमान थे।  इसी दिन फायरिंग में 10 हिंदू मारे गए। 4 मार्च को 285 लोगों को हिरासत में लिया गया। जिसमें 241 हिंदू और 44 मुसलमान थे। पुलिस फायरिंग में 4 हिंदुओं की मौत हुई। पूरे दंगे के दौरान 66,268 हिंदू और 10,861 मुसलमानों को हिरासत में लिया गया था। दंगे के शुरुआती तीन दिनों मे ही मोदी सरकार ने यह कार्रवाई की थी। 

कांग्रेस और अन्य लोगों की मिलीभगत से बनी सरकार ने 11 मई 2005 में संसद के अंदर अपने लिखित जवाब में बताया था कि 2002 के दंगे में 1044 लोगों की मौत हुई थी, जिसमें से 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। गुजरात दंगा पूरे आजाद भारत के इतिहास का एक मात्र दंगा है जिस पर अदालती फैसला इतनी शीघ्रता से आया है और इतने बड़े पैमाने पर लोगों को सजा भी हुई है. अगस्‍त 2012 में आए अदालती फैसले में 19 मुकदमे में 249 लोगों को सजा हुई है। जिसमें से 184 हिंदू और 65 मुसलमान हैं। इन 65 मुसलमान में से 31 को गोधरा में रेलगाड़ी जलाने और 34 को उसके बाद भड़के दंगे में संलिप्‍तता के आधार पर सजा मिली है।  

तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रशासन और पुलिस ने प्राण-प्रण से दंगा रोकने का प्रयास किया और इसी कारण दंगा गुजरात के बहुत छोटे से हिस्से से आगे नहीं बढ़ पाया। इसका एक दूसरा खुला प्रमाण ये भी है कि पुलिस की गोलियों से मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दू अधिक मारे गए। यदि पुलिस दंगा रोकने का प्रयास नहीं कर रही थी तो हिन्दू पुलिस की गोलियों से मारे ही कैसे गए ? फिर भी ट्रेन में लोगों को जला कर मार देने जैसे भयानक काम का पक्ष लेने में अंग्रेजी मीडिया, विदेशों से चंदा खाने वाले हिन्दू विरोधी एन.जी.ओ., मुस्लिम वोटों के लिए जीभ लपलपाने वाले राजनेता एक से बढ़ कर एक मरकट-नृत्य करते रहे । बरसों गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों पर मुकदमे चले। नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह सहित न जाने कितने भाजपा के अधिकारियों, विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं, संघ के लोगों पर मुकदमे चलाये गए। अब सवाल उठता है कि विदेशी फंड पर पलने वाली मीडिया, वामपंथियों, कांग्रेस, तीस्‍ता जावेद सीतलवाड़, संजीव भट्ट जैसों की बात यदि सच है तो फिर 254 हिंदुओं की हत्‍या किसने की थी ? लेकिन संच को आंच नहीं लगती देर से ही सही नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह जैसे लोग न्यायिक आयोगों द्वारा मुक़दमों से बरी कर दिए गए 

अब उसी तरह के मुस्लिम दंगे पर 28 साल बाद ऐसा ही एक और फैसला आया है। उस घटना को भी जानना ठीक रहेगा। फैजाबाद न्यायालय द्वारा फरवरी 1986 में राम जन्म भूमि का असंवैधानिक रूप से लगाया गया ताला खुलवाने का आदेश देने के बाद देश के विभिन्न भागों में दंगे शुरू हो गए। मेरठ में भी मुस्लिम दंगा शुरू हो गया। जिन मित्रों को मुस्लिम दंगे शब्द से विरोध है वो कृपया अभी हाल ही में हुए मुजफ्फरनगर के दंगे की जानकारी कर लें। मैं आश्वस्त हूँ कि उसकी जानकारी करने के बाद वह मेरे इन शब्दों की सत्यता से परिचित हो जायेंगे। मेरठ में अप्रैल 1987 में दंगा फैलाया गया। प्रशासन ने दंगा दबा दिया। दंगा शांत होने के बाद सुरक्षा बलों की टुकड़ियों को हटा लिया गया। 18 मई को दंगा फिर शुरू कर दिया गया। 21 मई को मेरठ के तब तक शांत इलाके हाशिमपुरा में अपने मुस्लिम मरीज को देखने गए डाक्टर अजय को उनकी कार में ही जिन्दा जल दिया गया और हाशिमपुरा, मलियाना में भी दंगा भड़क उठा। नारा ए तकबीर के नारों के बीच 23 मई 1987 को आरोप लगाया गया कि पी ए सी के 41 वीं वाहिनी के बल ने हाशिमपुरा से एक मस्जिद के बाहर चल रही सभा में से 42 लोगों को पकड़ लिया और उन्हें गोली मार दी। यहाँ यह प्रश्न उठाया जाना ही चाहिए कि कर्फ्यू लगे क्षेत्र में मस्जिद के बाहर सभा कैसे संभव थी ? 

पी ए सी के 19 लोगों को आरोपी बनाया गया। मुक़दमे को वादियों की मांग पर उत्तर प्रदेश से बाहर दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया। ये लोग 28 बरस तक पेशियां भुगतते रहे। राष्ट्र की सेवा की शपथ लिए सामान्य आर्थिक स्थिति के ये जवान  बसों, रेलों में टक्करें मारते पेशियों पर साल दर साल जाते रहे।   कलंक के इस दाग को अपने माथे पर लिए, दर-दर भटकते रहे।  अपने-पराये की संदेह भरी नजरें झेलते रहे। 28 बरस बाद इस घोर कष्टपूर्ण तपस्या का फल आया है और माननीय न्यायालय ने16 लोगों को बरी कर दिया गया है। 3 लोग ये बोझ अपने सीने पर रखे संसार छोड़ कर जा चुके हैं। इन 16 लोगों में समीउल्लाह नाम के मुस्लिम जवान भी हैं। उस तिरस्कार, अपमान, पीड़ा की कल्पना करें जो इन 28 वर्षों तक मुस्लिम समुदाय के समीउल्लाह को अपने समाज में झेलना पड़ा होगा। 
भारत में न्याय का शासन है। वादियों की मांग पर मुक़दमे स्थानांतरित करने के बावजूद आज जब फैसला आ गया है तो प्रेस के महारथी, अंग्रेजी मीडिया, विदेशों से चंदा खाने वाले हिन्दू विरोधी एन.जी.ओ., मुस्लिम वोटों के लिए जीभ लपलपाने वाले राजनेता माननीय न्यायालय पर भी उँगलियाँ उठा रहे हैं, भौं चढ़ा रहे हैं, आँखें दिखा रहे हैं। 
क्यों इस अघोरी दल को अभी भी चैन नहीं है ? क्या ये वर्ग तभी किसी बात को मानेगा जब उसकी इच्छा पर न्यायालय फैसला देगा ? ये भी एक गंभीर विचारणीय बिंदु है। पाकिस्तानी मूल के कैनेडियन लेखक, प्रतिष्ठित पत्रकार तारिक फातेह के शब्दों में इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दू गिल्ट है। हिन्दू अपने होने से लज्जित हैं। वो अपने से, अपने सत्व से, अपनी चिति से शर्मिंदा हैं यानी लार्ड मेकॉले की शिक्षा पद्यति भरपूर सफल हुई है। अन्यथा क्या कारण है कि हिंदी के समाचार पत्र 22 मार्च के संस्करणों में पूरे पेज पर न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर सवालिया निशान लगाते हैं ? राष्ट्र विरोधी मुस्लिम प्रचार तंत्र को अनर्गल आरोप लगाने के लिए मसाला सप्लाई करते हैं ? अशिष्ट रूप से न्यायालय को कठघरे में खड़ा करते हैं ? न्यायायिक फैसले पर लगभग कोसने, थू-थू करने की शैली में की गयी ये रिपोर्टिंग मैं सर-माथे रख लेता मगर जब विश्व हिन्दू परिषद रामजन्मभूमि को आस्था का विषय कह कर उस पर दृढ़ता दिखती है तो वो सांप्रदायिक हो जाती है। तो आपको न्याय व्यवस्था की अवमानना करने वाला उद्दंड संवाददाता, संपादक, मालिक क्यों न माना और कहा जाये ? आप राष्ट्र के संस्थानों को अपनी मनमर्ज़ी से क्यों हांक रहे हैं ? समाज को आपका बहिष्कार क्यों नहीं करना चाहिए ? 

रविवार, 25 अक्टूबर 2015

खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद तरुण तेजपाल की ऐबदारी

पिछले एक पक्ष से मिडिया में अजीब सा ऊधम मचा हुआ है. तरुण तेजपाल नाम के स्वनामधन्य सज्जन { सवनाम धन्य इस लिये कि लगभग खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद वो तारुण्य के पराक्रम में संलिप्त दिखे } के कृत्यों पर समाज उद्वेलित है और भर्त्सना की बात है कि साहित्यिक जगत और मीडिया के वामपंथी और राष्ट्र विरोधी logपिछले एक पक्ष से मिडिया में अजीब सा ऊधम मचा हुआ है. तरुण तेजपाल नाम के स्वनामधन्य व्यक्ति { सवनाम धन्य इस लिये कि लगभग खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद वो तारुण्य के पराक्रम में संलिप्त दिखे } के कृत्यों पर समाज उद्वेलित है और भर्त्सना की बात है कि साहित्यिक जगत और मीडिया के वामपंथी और राष्ट्रविरोधी लोग इस दुष्कर्म को कम आंकने, कम दिखाने, कम महसूस कराने में लगे हैं.

प्रिंट तथा इलेकट्रोनिक मीडिया के लोग निजी बातचीत में यहाँ तक चर्चा कर रहे हैं कि धुंआ अपने आप नहीं निकलता. वो लड़की भी कुछ न कुछ पैमाने पर दोषी है. इस काम में अंग्रेज़ी के चैनलों और अख़बारों के साथ हिंदी के कुछ महारथी भी शरीक हैं. जिनमें सर्वप्रमुख जनसत्ता का संपादक मंडल और उसके लेखक हैं. यहाँ विशेष रूप से महात्मा गांधी हिंदी संस्थान की पत्रिका हिंदी समय के भूतपूर्व संपादक राज किशोर जी अग्रणी हैं. उनके दो लेख इस विषय पर जनसत्ता में पिछले दिनों छपे हैं. पहले लेख में उन्होंने तरुण तेजपाल के 6 माह के संपादन को छोड़ने और क्षमा मांगने को महत्व देते हुए इस विषय को अब शांत कर देने की मार्मिक अपील ब्रॉडकास्ट की और नये लेख में उन्होंने तरुण तेजपाल को कलाकार मानते हुए इन शब्दों में उसका स्वस्ति-गान किया है. ' पत्रकारिता एक कला है और तरुण तेजपाल हमारे समय के उल्लेखनीय कलाकार हैं. उनके काटे हुए कई लोग आज भी बिलबिला रहे हैं.' उनके वाक्य का अंतिम टुकड़ा बता रहा है कि राजकिशोर जी किस लिये तरुण तेजपाल का अपराध कम करने के लिये कोशिश कर रहे हैं. क्या विशेष विचारधारा { इसे राष्ट्रवाद का विरोध पढ़ा जाये } के लिये काम करना किसी का अपराध कम कर देता हैं. तरुण स्टिंग ऑपरेशन के महारथी रहे हैं. उनकी शैली रही है कि पहले वातावरण तैयार करो. शेर के सामने बकरी बांधो, शेर को बकरी खाने के लिये फुसलाओ और फिर हाहाकार मचाओ कि शेर ने बकरी खा ली. बंगारू लक्ष्मण जैसे सरल लोग उनके इन षड्यंत्रों का शिकार हुए हैं. 

इस विषय को थोडा विस्तार में देखने की ज़ुरूरत है. कवि, लेखक, संगीतकार, चित्रकार, मूर्तिकार, राजनीतिज्ञ, मीडिया के लोग यानी समाज में अपनी प्रभावी उपस्थिति दिखा पाने, दर्शा पाने वाले लोग सदा-सर्वदा से इन दुष्कर्मों में संलिप्त रहे हैं. शेक्सपियर की मृत्यु सिफ़लिस से हुई थी. आस्कर वाइल्ड के कृत्यों को सारा साहित्यिक जगत जानता है. छायावाद की प्रमुख नेत्री, फ़िराक़ गोरखपुरी अपने प्रसंगों के लिये चर्चित रहे हैं. केनेडी, जवाहर लाल नेहरू, अय्यूब ख़ान के बारे में दुनिया जानती है. इन लोगों में यश, पद, प्रभाव का प्राचुर्य था और लोग इनकी ओर आकर्षित होते थे. इसका ही परिणाम ये कानाफूंसियां थीं. 

मगर यहाँ एक पेंच है और ये पेंच बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है.  इन लोगों ने कभी इस हाथ दे और उस हाथ ले जैसा कुछ नहीं किया. ये कभी ' आज मेरी गाड़ी में बैठ जा ' या  ' आती क्या खंडाला ' जैसा प्रस्ताव देते धरे नहीं गये. गोवा के 5 सितारा होटल में किया गया काण्ड स्टिंग ऑपरेशन नहीं था. वहाँ किसी शेर के सामने बकरी बाँध कर उसे फुसला कर बदनाम करने का षड्यंत्र नहीं किया गया था बल्कि ये  एक धूर्त व्यक्ति का अपने पद के दुरुपयोग का उदाहरण है.  तरुण का कृत्य अपने पद के दबाव में स्त्री अस्मिता को रौंद देने का है. किसी सामान्य व्यक्ति के द्वारा भी ये काम किया जाता तो निश्चित रूप से प्रताड़नीय और दंडनीय होता ही होता मगर यहाँ तो मामला एक लड़की को अपने पद के दवाब में कुचल डालने का है. उस पर तुर्रा ये कि तुम्हारे पास अपनी नौकरी बचाने का ये ही एक मात्र रास्ता है. 

इसी रौशनी में मैं एक प्रश्न इस घटना को कम करके आंकने वाले, कम दिखाने  वाले महानुभावों से करना चाहूंगा. अगर इस लड़की कि जगह उनकी बेटी या बहन होती तो क्या तब भी वो बलात्कारी को कलाकार मानते और क्षमा करने की बात करते. अगर हाँ तो मैं 6  माह के लिये लफ्ज़ का संपादन छोड़ने और सहर्ष क्षमा मांगने के लिये तैयार हूँ. बताइये कब और कहाँ भेंट की जाये.

तुफ़ैल चतुर्वेदी 

----------------------हुड़दंगी जत्थे और साहित्य

----------------------हुड़दंगी जत्थे और साहित्य 

साहित्य समाज से कटता जा रहा है। पाठक और श्रोता कम हो रहे हैं। ये एक तथ्य है और इस के कारण साहित्यकारों में ये विचार आम है कि हम सही काम नहीं कर पा रहे। कुछ अधूरापन, लक्ष्य से भटकाव आ गया है। हमारा काम समाज के हित-अहित को उदघाटित, परिभाषित करना है। हम जिस समाज का अंग हैं उसके संरक्षण,संवर्धन का लक्ष्य ही साहित्य का लक्ष्य होना चाहिये। ऊपरलिखित वाक्यों में ही हिंदी-उर्दू साहित्य की दुर्दशा, समाज से कट जाने, मूलविहीन हो जाने की गाथा छिपी हुई है। 

1947 में लगभग दो तिहाई भारत स्वतंत्र हुआ। ये वो समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व भर में मंदी थी। समाज अभावों से घिरा था। करोड़ों लोग मारे गये थे। विस्थापित, बरबाद हुए थे। ये समय आँखों से सपने छिन जाने, जीवन के ताने-बाने के उधड़ जाने,बिखर जाने का था। सृष्टि में निर्वात कहीं नहीं रहता। ज़ाहिर है इस शून्य को भी भरा ही जाना था। मज़ेदार बात ये है कि आँखों में वापस सपने सजाने की घोषणा उन लोगों ने की जिन्होंने अभी-अभी सपने उजाड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी राष्ट्र जर्मनी, इटली का अनन्य सहयोगी रूस था और इस कारण सारी दुनिया के कम्युनिस्ट उसकी ढपली बजा रहे थे। अच्छे-ख़ासे समय तक ये युद्ध के आक्रामक पक्ष में बने रहे। हिटलर की मदद करते रहे। बाद में हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया तो रातों-रात धुरी राष्ट्रों के विरोधी हो गये। जिस समय रूस की सीमाओं पर जर्मनी की फ़ौजें करोड़ों रूसियों को मार रही थीं, उसी काल में स्टालिन के नेतृत्व में रुसी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने ही करोड़ों नागरिकों की हत्या कर रही थी।
वो राजनैतिक विचारधारा जिसने अपने ही करोड़ों लोगों को मार डाला मज़दूरों,किसानों, कमज़ोर वर्गों की हितैषी होने का ड्रामा करती थी। नेहरू वामपंथ के प्रति भावुक थे और उनके हिमायतियों के प्रति उदार थे। इस उदारता के कारण पद, प्रतिष्ठा, धन पाने के लिये रोमांटिक मुखौटा लगाये हथौड़ाधारी हत्यारी विचारधारा का पोषण साहित्यकारों का का उद्देश्य बन गया। साहित्य की श्रेष्टता इस बात से तय होने लगी ' पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ' जो इस ख़ेमे में नहीं वो साहित्यकार नहीं। साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी विचारधारा ही हो सकती है। साहित्य से समाज से कटते जाने के लिये ये सोच और इसका क्रियान्वन ज़िम्मेदार है। यहाँ प्रश्न ये है की ये कसौटी ठीक भी है ? 

जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त जैसे लोग मुक्तिबोध द्वारा रचित इस कसौटी के कारण कवि नहीं रहते और निराला 'सुन बे गुलाब' लिखने के कारण कवि हो जाते हैं। इसी से जुडी है साहित्य को हाशिये पर धकेले जाने की दुखद गाथा। साहित्य मूलतः अपने को व्यक्त करने की प्रक्रिया है। इसी का विस्तार अपने से सम्बंधित अन्यों को उद्घाटित करने में भी होता है। यहाँ उल्टा हुआ प्रक्रिया की जगह लक्ष्य तय कर दिये गये। राष्ट्रवादी विचारधारा किसी भी वैश्विक विचारधारा चाहे वो मार्क्सवाद हो, चाहे इस्लाम हो, के अन्त-पन्त विरोध में जाती है। अतः राष्ट्रवाद की जड़ में मट्ठा डालना रणनीतिक ज़ुरूरत बनी। राष्ट्र की, राष्ट्रवाद की रगड़ाई करनी है ....उग्रवाद, आतंकवाद चूंकि राष्ट्रवाद को नुक़सान पहुंचता है, इसलिये उस पर मौन रहना रणनीतिक हथियार बने। साहित्य स्व के विस्तार की प्रक्रिया की जगह कुछ तयशुदा फ्रेमों में विचार ठूंसने का नाम हो गया।

जैसे एक चालक वकील सच और झूट के चक्कर में नहीं पड़ता। अपने मुक़द्दमे को जीतने के लिये दोनों तरह के दाँव-पेच इकट्ठे करता है, आज़माता है।  उसी तरह लक्ष्य तय हुआ साम्यवादी विद्रोह ... उपलक्ष्य तय हुआ राष्ट्र की शक्तियों का कमज़ोर किया जाना। राष्ट्र का विरोध करने वाली सभी शक्तियों से हाथ मिलाना। 
ये अकस्मात नहीं है कि देश के विभाजन का कारण बनी मुस्लिम लीग को विभाजन का दर्शन और तर्क के तीर-तमंचे कम्युनिस्ट पार्टी के सज्जाद ज़हीर 'बन्ने भाई' सप्लाई किये। सज्जाद ज़हीर जिनके साम्प्रदायिकता के विरोधी होने की बातें करते कम्युनिस्ट लोग नहीं थकते, अंततोगत्वा पाकिस्तान चले गये।

अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी जैसे लोग कभी मुस्लिम लीग, जमाते-इस्लामी पर कभी कुछ नहीं बोले, हाँ राष्ट्रवादियों के नाम पर इनके मिर्चें लगती रहीं। ये दो नाम तो समुद्र में तैरते हिम खंड की तरह केवल नोक हैं। ऐसे असंख्य लोग हैं जिनके सतत राष्ट्रवाद के विरोध को देख कर ऐसा लगता है जैसे महमूद गज़नवी ने मूर्ति-भंजन करने के लिये हरे की जगह लाल कपडे पहन लिये हों। ये वही लोग हैं जो उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार किशन चंदर के सलमा सिद्दीक़ी से विवाह करने के लिये मुसलमान बनने का दबाव डालते हैं और उसके बाद निकाह कराते हैं। उर्दू की प्रसिद्ध कहानीकार इस्मत चुगताई की अंतिम इच्छा 'मैं मिट्टी में दब कर अपना जिस्म कीड़ों को नहीं खिलाना चाहती। मुझे इस ख़याल से ही घिन आती है। मुझे मरने के बाद जलाया जाये' पर इतने बौखला जाते हैं कि मुंबई में उनके जनाज़े में केवल एक मुसलमान उनके पति ही शरीक होते हैं। कैफ़ी आज़मी, शबाना आज़मी, जावेद अख्तर जैसों का साम्यवाद हवा हो जाता है, मुल्लाइयत चढ़ बैठती है। 
इस्लाम की अपनी समझ है और वो काफ़िरों, मुशरिकों, मुल्हिदों, मुर्तदों के प्रति भयानक रूप से क्रूर है। इस हद तक कि इस्लामी न्यायशास्त्र के 4 इमामों में से केवल एक काफ़िरों को जज़िया देने और ज़िम्मी बन कर रहने पर ही जीवित छोड़ने का अधिकार देते हैं, बाक़ी को वो भी जिंदा नहीं छोड़ने की व्यवस्था देते हैं। शेष तीन इमाम किसी भी स्थिति में इन सब को जिंदा नहीं रहने देना चाहते। कम्युनिस्ट मुल्हिदों में आते हैं। होना ये चाहिये था कि एक आतताई के दो पीड़ित एक हो जाते मगर हुआ उल्टा कि कम्युनिस्टों और इस्लाम ने राष्ट्रवाद के विरोध में हाथ मिला लिये। देश से सम्बंधित हर बात के विरोध में खड़े हो गये, शत्रुता निभाने लगे। एफ़ एम हुसैन की दुष्ट पेंटिंगों के पक्ष में खड़े होना, सहमत की धूर्तताओं का बचाव करना, रोमिला थापर द्वारा महमूद गज़नवी में गुणों को ढूँढने और उसके बचाव में किताब लिख मरने को आख़िर किस तरह समझा जा सकता है 

मार्क्स के मनमाने सिद्धांत 'समाज का विकास द्वंद से होता है' के आधार पर साहित्य में भी सदैव द्वंद खड़े किये गए,रोपे गये। कविता की छंद से मुक्ति, फिर विचार से मुक्ति, फिर एब्सर्ड लेखन जैसे बेसिरपैर के वाद चलाये ही इस लिये गये।  कविता का आधार छंद मार्क्सवाद की नारेबाज़ी पालकी ढो ही नहीं सकता था। उसे परोसने के लिये कविता के मानकों में तोड़फोड़ करनी ज़ुरूरी थी। नयी कविता के नाम पर मुक्तिबोध से प्रारंभ कर राजेश जोशी , अनुज लुगुन तक जो परोसते हैं वो कल्पित ब्योरों, अपठनीयता से भरा हुआ है। वो सब रौशनाई से दूर केवल सियाही का अंकन है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यकों पर प्रलाप जानबूझ कर किये जा रहे ऐसे ही विलाप हैं जिनके कारण पाठक भाग खड़ा हुआ है। आख़िर राग दरबारी के पचीसों संस्करण क्यों निकलते हैं और विष्णु खरे की किताब खोटी क्यों साबित होती है ? उबाऊ होने की सीमा का अतिक्रमण करती, आत्महत्या या हत्या पर उकसाने वाली रचनायें या किताबें किसी को कोई पढ़वा तो नहीं सकता। अकादमी के पुरस्कार पाठक तो नहीं दिला सकते।

इस देश की मिट्टी से जुड़े, अपने समाज के पक्ष में खड़े लोगों पर आरोप चस्पां करने के लिये उन्हें फ़ासीवादी, संस्कृतिवादी, राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, प्रतिक्रियावादी, शुद्धतावादी, आदर्शवादी और न जाने कैसे-कैसे शब्द गढ़ डालने वाले इन साम्यवादियों की छन-फटक की जाये तो ये स्वयं इसी परिभाषा में आते हैं। आइये इनके सबसे प्रिय आरोप फ़ासीवाद को ही लेते हैं। फ़ासीवाद मोटे तौर पर उस विचारधारा को कहते हैं जो अपने से असहमत हर विचार को ग़लत मानती है, नष्ट का देने योग्य समझती है। जिस विचारधारा के हाथ में शासन सूत्र आने पर प्रत्येक दूसरी विचारधारा को नष्ट किया जाता है। जिसके समय में कोई स्वतंत्र प्रेस नहीं होता। स्वतंत्र न्याय-पालिका नहीं होती ... लगभग तानाशाही होती है। इस परिभाषा पर सारे साम्यवादी देश और इस्लामिक शासन-प्रणाली ही खरे उतरते हैं। यही विचारधारायें अपने अलावा किसी को भी वर्ग-शत्रु या काफ़िर घोषित करके उसको समूल नष्ट करने के तर्क गढ़ती हैं / वाजिबुल-क़त्ल ठहरती हैं। कोई वकील, कोई दलील, कोई अपील कुछ नहीं।

भारत का वैशिष्ट्य ही यही है कि हम एक दूसरे की धुर विरोधी विचारधाराओं का सहजीवन संभव बनाते हैं। हम इस माफियागर्दी को भी अपनी बात कहने का अवसर देते हैं। इसी कारण हम लोकतंत्र हैं। 

हँस पत्रिका के वार्षिक कार्यक्रम में 'अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध' विषय पर आयोजित गोष्ठी में स्वीकृति देने के बाद भी वरवरा कवि और अरुंधती रॉय का न दिल्ली आ कर भी अंतिम क्षण में न आना इसी बात की पुष्टि करता है। वरवरा कवि का स्पष्टीकरण आया है कि उन्होंने ऐसा इस लिये किया कि उन्हें इस मंच पर अशोक बाजपेयी और गोविन्दाचार्य के साथ बैठना था। ये दोनों नाम देश के प्रतिष्ठित नाम हैं। कोई भी श्री अशोक बाजपेयी और श्री गोविन्दाचार्य से असहमत हो सकता है मगर उन्हें अस्पृश्य समझना ? अपनी मनमानी सोच को इस हद तक सही समझना कि अपने से इतर किसी की बात को सुने बिना रद कर देना, फ़ासीवाद है। साम्यवादी हमेशा यही करते आ रहे हैं और आरोप दूसरों पर लगाते हैं। 

जब तक साहित्य इन अंगुलिमालों से मुक्त नहीं होता, पठनीय साहित्य नहीं उभर सकता। पाठक, श्रोता इन बेहूदगियों के कारण ही साथ छोड़ गया। भारतीय स्वभाव से ही शांतिप्रिय हैं। वो इस कोलाहल से भरे तांडव को पसंद नहीं करते। समाज में एक बड़ी शक्ति ये भी होती है कि वो किसी भी तीसमारखां की अवहेलना करके आगे बढ़ जाता है। इसे गौर से देखिये .....वो आगे बढ़ गया है। वो मुशायरे, कवि-सम्मेलन में जाता है। वो श्री लाल शुक्ल, शिवानी, ज्ञान चतुर्वेदी को खोज कर पढ़ता है। उसे नरेन्द्र कोहली की राम कथा, महासमर पसंद हैं। वो सुनील लोढा द्वारा संचालित कार्यक्रम सुनता है। अपनी प्यास बुझाने के लिये वो पचासों तरीक़े अपनाता है किन्तु अकादमी पुरस्कार से सम्मानित स्वयंभू महाकवियों, लेखकों की किताबें की 100 प्रतियां भी नहीं ख़रीदता। 

साम्यवाद में एक रोमांटिक अपील होती है। साम्यवाद चूँकि दुनिया भर में कूड़ेदान में फेंका जा चूका है इसलिये भारत में ये बिरादरी अब अपने आप को पोलिटिकल एक्टिविस्ट, मानवाधिकार कार्यकर्त्ता बताने लगी है। यहाँ एक एक कहानी का ज़िक्र करना उपयुक्त होगा जिसमें एक तवायफ़ पुलिस के पकड़ने पर अपने आप को सोशल वर्कर बताती है और अपने काम को समाज सेवा कहती है। उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के अनुसार 'जो चीज़ अक़्ल के ज़रिये खोपड़ी में नहीं घुसी वो अक़्ल के ज़रिये बाहर कैसे निकलेगी।'  तो साहिबो साहित्य में पाठक अपने आप नहीं लौटेंगे। इसके लिये साहित्य की दिशा तय करने वाले, साहित्य पर क़ब्ज़ा जमाये लोगों की सफ़ाई आवश्यक है। ये कूड़ा विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, पत्रिकाओं में बुहारी लगाये बिना बाहर नहीं जाने वाला।

तुफ़ैल चतुर्वेदी