फ़ॉलोअर

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

बुर्क़ा, हिजाब, नक़ाब .....1400 वर्ष पुरानी इस्लामी परंपरा

बुर्क़ा, हिजाब, नक़ाब ....... ये सारे अरबी मूल के शब्द हैं. ये 1400 वर्ष पुरानी इस्लामी परंपरा है। इन्हीं का समानार्थक एक और शब्द पर्दा है। ये फ़ारसी मूल का शब्द है और शब्दकोष में इनके अर्थ आड़, ओट, लज्जा, लाज, शर्म, संकोच, झिझक, हिचकिचाहट आदि हैं। सुनने में इन शब्दों से सामान्य लाज का भाव उभरता है
मगर इन शब्दों के सही अर्थ समझने हों तो स्वयं को पूरे क़द की एक बोरी में बंद कर लीजिये। इस बोरी के सर पर इस तरह गांठ लगी हुई होनी चाहिये कि गर्दन मोड़ना भी संभव न हो। कहीं दायें-बाएं देखना हो तो गर्दन मोड़ने की जगह पूरा घूमना पड़े। केवल आँखों का हिस्सा खुला होना चाहिये बल्कि आँखों के आगे भी जाली लगी हो तो सबसे अच्छा रहेगा। बाहर की हवा आने-जाने का कोई रास्ता नहीं होना चाहिए बल्कि अपनी अंदर की हवा के भी बाहर आने-जाने का रास्ता नहीं होना चाहिए।
बिलकुल ऋतिक रौशन की फिल्म 'कोई मिल गया' के अंतरिक्ष से उतरे, बोरी में बंद प्राणी 'जादू' की तरह। फिर भर्रायी हुई आवाज़ में 'जादू' की तरह धूप-धूप पुकारिये। जब ऐसा कर चुकें तो धूप-धूप बोलना भी बंद कर दीजिये और केवल तरसी हुई निगाहों से जाली के पार की दुनिया को देखिये। हो गए न रोंगटे खड़े ? सोचने भर से आप को सन्नाटा आ गया। अब उन औरतों की कल्पना कीजिये जिन्हें 10-12 बरस की आयु से इस घनघोर घुटन में फेंक दिया जाता है।
इसका तर्क ये दिया जाता है कि किसी लड़की या औरत को देख कर पुरुष में कुत्सित भाव जागृत हो सकता है। काम भाव केवल स्त्री को देख कर पुरुष के मन में ही जागृत होता है ? अगर ऐसा है तो अभियुक्त पुरुष पर कार्यवाही की जानी चाहिये। ये तो अभियुक्त को सजा देने की जगह पीड़ित की दुर्गति करना है। फिर काम का भाव सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है। ये पुरुष को देख कर स्त्री के मन में भी जागृत हो सकता है। तो क्या पुरुष भी बुर्क़ा, हिजाब, नक़ाब, पर्दा करें ?
वैसे तो किसी सामान्य मदरसे में जा कर वातावरण देखिये तो आप पाएंगे कि वहां तो पुरुष को देख कर पुरुष के मन में काम जागृत होने का विचार भी चलता है। पाकिस्तान के कराची के मदरसे में एक बार आग लग गयी थी जिसमें किशोर आयु के बच्चे जल कर मर गए। कारण ये था कि उनको वरिष्ठ छात्रों से बचाव के लिए ताला-बंद करके रखा जाता था।
चिड़ियाघर में भी जानवर पिंजरों में रखे जाते हैं मगर ऐसी मनहूस घोर-घुटन उनके नसीब में भी नहीं होती। फिर ये भी है कि उन जानवरों को उनके साथी जानवरों ने इस घुटन पर मजबूर नहीं किया। उस मानसिक दबाव की कल्पना कीजिये जहाँ औरतें अपने ही परिवार, समाज के पुरुषों के दबाव में इस वीभत्सता की स्थिति को स्वीकार कर लेती हैं और चलती-फिरती जेलों की सी हालत में जीती हैं।

मेरठ दंगे का चर्चित हिस्सा बने हाशिमपुरा पर न्यायलय का फ़ैसला और उस पर सिक्युलर कांव कांव

अभी मेरठ दंगे का चर्चित हिस्सा बने हाशिमपुरा पर न्यायलय का फैसला आया है।  न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है। अंग्रेजी मीडिया, विदेशों से चंदा खाने वाले हिन्दू विरोधी एन.जी.ओ., मुस्लिम वोटों के लिए जीभ लपलपाने वाले राजनेता एक से बढ़ कर एक मरकट-नृत्य में संलग्न हो गए हैं। मेरे विचार से इस विषय की चर्चा करने के साथ इसी तरह के दंगे और उस पर बरसों चले हाहाकार की समवेत चर्चा उपयुक्त है। गोधरा में ट्रेन जलाने के बर्बर, पैशाचिक हत्याकांड के कारण उपजे आक्रोश से गुजरात के दंगे हुए। इस दंगे में प्रशासन, पुलिस प्रशासन पर मुसलमानों के प्रति दुर्भावना रखने और हिन्दुओं के पक्ष में होने के आरोप लगाये हैं। आइये तत्कालीन घटना कर्म को एक बार दैनंदिन रूप से याद कर लिया जाये। 
 
साबरमती एक्सप्रेस की बोगी नंबर S-6 में विश्व हिन्दू परिषद् के कार-सेवक यात्रा कर रहे थे।  27 फरवरी 2002 की सुबह 7:30 बजे के लगभग इस बोगी को निशाना बना कर गोधरा के मुसलमानों द्वारा हिन्दू विरोधी नारों के बीच आग लगा दी गई। आग लगाने वालों की संख्या 1500 के क़रीब थी। इस अग्निकांड में 72 से अधिक लोग जला कर मार दिए गए। जिसमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। कोई हिंदू यात्री बोगी से बाहर ना निकल पाए इसीलिए योजना के अनुसार उन पर पत्थर भी बरसाए जाने लगे। गुजरात पुलिस ने भी अपनी जांच में ट्रेन जलाने की इस वारदात को आई.एस.आई. की साजिश ही करार दिया, जिसका उद्देश्य हिन्दू कारसेवकों की हत्या कर राज्य में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करना था। 

मुख्‍यमंमंत्री नरेंद्र मोदी शाम 4.30 बजे गोधरा पहुंचे और वहां जली हुई बोगियों का निरीक्षण किया। उसके बाद संवाददाता सम्‍मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा कि गोधरा की घटना बेहद दुखदायी है, लेकिन लोगों को कानून व्‍यवस्‍था अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। सरकार उन्‍हें आश्‍वस्‍त करती है कि दोषियों के खिलाफ महत्‍वपूर्ण कार्रवाई की जाएगी। उसी दिन गोधरा व उसके आसपास कर्फ्यू लागू कर दिया गया। राज्‍य सरकार ने केंद्र सरकार से गुजरात में पैरा मिलिट्री फोर्स की 10 कंपनियां और साथ ही रेपिड एक्‍शन फोर्स की चार अतिरिक्‍त कंपनी बहाल करने का अनुरोध किया। दंगा भड़कने से रोकने के लिए सुरक्षा के लिहाज से बड़े पैमाने पर संदिग्‍ध लोगों को गिरफ्तार किया गया। जिन 217 लोगों को गिरफ्तार किया गया उनमें 137 हिंदू और 80 मुसलमान थे। गोधरा के बाद पहले ही दिन गुजरात के संवेदनशील व अतिसंवेदनशल क्षेत्र में 6000 पुलिस के जवानों की तैनाती की गई। स्‍टेट रिजर्व पुलिस फोर्स की 62 बटालियन थी, इसमें 58 स्‍टेट रिजर्व पुलिस फोर्स और चार सेंट्रल मिलिट्री फोर्स की बटालियन शामिल थी। गुजरात की मोदी सरकार ने सभी 62 बटालियन को संवेदनशील क्षेत्र में तैनाती के आदेश दे दिए। गोधरा से लौटने के बाद मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी ने देर रात 11 बजे अपने घर पर वरिष्‍ठ अधिकारियों की बैठक बुलाई और कानून व सुरक्षा की स्थिति का जायजा लिया। मोदी ने अधिकारियों से कहा कि सेना के जवानों की मदद भी लेनी पड़े तो लें लेकिन कानून व्‍यवस्‍था को चरमराने न दें। स्‍थानीय आर्मी हेडक्‍वार्टर ने जवाब दिया कि उनके पास सेना की अतिरिक्‍त बटालियन नहीं है। युद्ध जैसे हालात को देखते हुए सभी बटालियन को पाकिस्‍तान से सटे गुजरात बॉर्डर पर लगाया गया है। सेना की बटालियन उपलब्‍ध न होने के कारण गुजरात सरकार ने अपने पड़ोसी राज्‍य महाराष्‍ट्र, मध्‍यप्रदेश और राजस्‍थान से अतिरिक्‍त पुलिस बल की मांग की, लेकिन कांग्रेसी सरकारों ने गुजरात की कोई मदद नहीं की। 

दिग्विजय सिंह उस वक्‍त मध्य प्रदेश, अशोक गहलोत राजस्‍थान और विलासराव देखमुख महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री थे।  दिग्विजय सिंह व अशोक गहलोत सरकार ने यह कह कर गुजरात सरकार को पुलिस फोर्स देने से मना कर दिया कि उनके पास अतिरिक्‍त जवान नहीं हैं। विलासराव देशमुख ने थोड़े से पुलिस के जवान भेजे, जिन्‍हें कहा गया था कि स्थिति के नियंत्रित होते ही लौट आयें। नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्‍ण आडवाणी से सेना के जवानों की तैनाती का अनुरोध किया। इसके बाद रक्षा मंत्रालय अन्‍य राज्‍यों में तैनात जवानों को हवाई मार्ग द्वारा गुजरात लाया। 

इस बीच नरेंद्र मोदी ने निर्देश दिया कि 6000 हाजी हज कर गुजरात लौट रहे हैं। उन्हें हर हाल में सुरक्षा प्रदान किया जाए। ये सभी हाजी गुजरात के 400 गांव व कस्‍बों से हज करने गए थे।  सरकार ने सभी 6000 हाजियों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचा दिया। हालात के नियंत्रित होने और इन्‍हें सुरक्षित घर तक पहुंचाने में सरकार को 20 मार्च 2002 तक का वक्‍त लग गया लेकिन इनमें से एक को भी हिंसा का सामना नहीं करना पड़ा। सेना के जवानों को लेकर आने वाली पहली उड़ान 28 फरवरी की मध्‍य रात्रि को अहमदाबाद में उतरी। राज्‍य की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए 13 सैन्‍य टुकडि़यों को बहाल किया गया। 1 मार्च 2002: दंगाईयों को गोली मारने का आदेश दिया गया। दंगा 28 को भड़का था और उसके 24 घंटे के अंदर पहली मार्च को गुजरात सरकार के मुख्‍य सचिव ने दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी कर दिया था।

2 मार्च 2002 को पुलिस की गोली से 12 हिंदू और चार मुसलमान मरे। दो मार्च को 573 दंगाइयों को हिरासत में लिया गया था, जिसमें से 477 हिंदू और 96 मुसलमान थे। 3 मार्च 2002 को पुलिस ने 363 दंगाइयों को पकड़ा जिनमें 280 हिन्दू और 83 मुसलमान थे।  इसी दिन फायरिंग में 10 हिंदू मारे गए। 4 मार्च को 285 लोगों को हिरासत में लिया गया। जिसमें 241 हिंदू और 44 मुसलमान थे। पुलिस फायरिंग में 4 हिंदुओं की मौत हुई। पूरे दंगे के दौरान 66,268 हिंदू और 10,861 मुसलमानों को हिरासत में लिया गया था। दंगे के शुरुआती तीन दिनों मे ही मोदी सरकार ने यह कार्रवाई की थी। 

कांग्रेस और अन्य लोगों की मिलीभगत से बनी सरकार ने 11 मई 2005 में संसद के अंदर अपने लिखित जवाब में बताया था कि 2002 के दंगे में 1044 लोगों की मौत हुई थी, जिसमें से 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। गुजरात दंगा पूरे आजाद भारत के इतिहास का एक मात्र दंगा है जिस पर अदालती फैसला इतनी शीघ्रता से आया है और इतने बड़े पैमाने पर लोगों को सजा भी हुई है. अगस्‍त 2012 में आए अदालती फैसले में 19 मुकदमे में 249 लोगों को सजा हुई है। जिसमें से 184 हिंदू और 65 मुसलमान हैं। इन 65 मुसलमान में से 31 को गोधरा में रेलगाड़ी जलाने और 34 को उसके बाद भड़के दंगे में संलिप्‍तता के आधार पर सजा मिली है।  

तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रशासन और पुलिस ने प्राण-प्रण से दंगा रोकने का प्रयास किया और इसी कारण दंगा गुजरात के बहुत छोटे से हिस्से से आगे नहीं बढ़ पाया। इसका एक दूसरा खुला प्रमाण ये भी है कि पुलिस की गोलियों से मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दू अधिक मारे गए। यदि पुलिस दंगा रोकने का प्रयास नहीं कर रही थी तो हिन्दू पुलिस की गोलियों से मारे ही कैसे गए ? फिर भी ट्रेन में लोगों को जला कर मार देने जैसे भयानक काम का पक्ष लेने में अंग्रेजी मीडिया, विदेशों से चंदा खाने वाले हिन्दू विरोधी एन.जी.ओ., मुस्लिम वोटों के लिए जीभ लपलपाने वाले राजनेता एक से बढ़ कर एक मरकट-नृत्य करते रहे । बरसों गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों पर मुकदमे चले। नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह सहित न जाने कितने भाजपा के अधिकारियों, विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं, संघ के लोगों पर मुकदमे चलाये गए। अब सवाल उठता है कि विदेशी फंड पर पलने वाली मीडिया, वामपंथियों, कांग्रेस, तीस्‍ता जावेद सीतलवाड़, संजीव भट्ट जैसों की बात यदि सच है तो फिर 254 हिंदुओं की हत्‍या किसने की थी ? लेकिन संच को आंच नहीं लगती देर से ही सही नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह जैसे लोग न्यायिक आयोगों द्वारा मुक़दमों से बरी कर दिए गए 

अब उसी तरह के मुस्लिम दंगे पर 28 साल बाद ऐसा ही एक और फैसला आया है। उस घटना को भी जानना ठीक रहेगा। फैजाबाद न्यायालय द्वारा फरवरी 1986 में राम जन्म भूमि का असंवैधानिक रूप से लगाया गया ताला खुलवाने का आदेश देने के बाद देश के विभिन्न भागों में दंगे शुरू हो गए। मेरठ में भी मुस्लिम दंगा शुरू हो गया। जिन मित्रों को मुस्लिम दंगे शब्द से विरोध है वो कृपया अभी हाल ही में हुए मुजफ्फरनगर के दंगे की जानकारी कर लें। मैं आश्वस्त हूँ कि उसकी जानकारी करने के बाद वह मेरे इन शब्दों की सत्यता से परिचित हो जायेंगे। मेरठ में अप्रैल 1987 में दंगा फैलाया गया। प्रशासन ने दंगा दबा दिया। दंगा शांत होने के बाद सुरक्षा बलों की टुकड़ियों को हटा लिया गया। 18 मई को दंगा फिर शुरू कर दिया गया। 21 मई को मेरठ के तब तक शांत इलाके हाशिमपुरा में अपने मुस्लिम मरीज को देखने गए डाक्टर अजय को उनकी कार में ही जिन्दा जल दिया गया और हाशिमपुरा, मलियाना में भी दंगा भड़क उठा। नारा ए तकबीर के नारों के बीच 23 मई 1987 को आरोप लगाया गया कि पी ए सी के 41 वीं वाहिनी के बल ने हाशिमपुरा से एक मस्जिद के बाहर चल रही सभा में से 42 लोगों को पकड़ लिया और उन्हें गोली मार दी। यहाँ यह प्रश्न उठाया जाना ही चाहिए कि कर्फ्यू लगे क्षेत्र में मस्जिद के बाहर सभा कैसे संभव थी ? 

पी ए सी के 19 लोगों को आरोपी बनाया गया। मुक़दमे को वादियों की मांग पर उत्तर प्रदेश से बाहर दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया। ये लोग 28 बरस तक पेशियां भुगतते रहे। राष्ट्र की सेवा की शपथ लिए सामान्य आर्थिक स्थिति के ये जवान  बसों, रेलों में टक्करें मारते पेशियों पर साल दर साल जाते रहे।   कलंक के इस दाग को अपने माथे पर लिए, दर-दर भटकते रहे।  अपने-पराये की संदेह भरी नजरें झेलते रहे। 28 बरस बाद इस घोर कष्टपूर्ण तपस्या का फल आया है और माननीय न्यायालय ने16 लोगों को बरी कर दिया गया है। 3 लोग ये बोझ अपने सीने पर रखे संसार छोड़ कर जा चुके हैं। इन 16 लोगों में समीउल्लाह नाम के मुस्लिम जवान भी हैं। उस तिरस्कार, अपमान, पीड़ा की कल्पना करें जो इन 28 वर्षों तक मुस्लिम समुदाय के समीउल्लाह को अपने समाज में झेलना पड़ा होगा। 
भारत में न्याय का शासन है। वादियों की मांग पर मुक़दमे स्थानांतरित करने के बावजूद आज जब फैसला आ गया है तो प्रेस के महारथी, अंग्रेजी मीडिया, विदेशों से चंदा खाने वाले हिन्दू विरोधी एन.जी.ओ., मुस्लिम वोटों के लिए जीभ लपलपाने वाले राजनेता माननीय न्यायालय पर भी उँगलियाँ उठा रहे हैं, भौं चढ़ा रहे हैं, आँखें दिखा रहे हैं। 
क्यों इस अघोरी दल को अभी भी चैन नहीं है ? क्या ये वर्ग तभी किसी बात को मानेगा जब उसकी इच्छा पर न्यायालय फैसला देगा ? ये भी एक गंभीर विचारणीय बिंदु है। पाकिस्तानी मूल के कैनेडियन लेखक, प्रतिष्ठित पत्रकार तारिक फातेह के शब्दों में इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दू गिल्ट है। हिन्दू अपने होने से लज्जित हैं। वो अपने से, अपने सत्व से, अपनी चिति से शर्मिंदा हैं यानी लार्ड मेकॉले की शिक्षा पद्यति भरपूर सफल हुई है। अन्यथा क्या कारण है कि हिंदी के समाचार पत्र 22 मार्च के संस्करणों में पूरे पेज पर न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर सवालिया निशान लगाते हैं ? राष्ट्र विरोधी मुस्लिम प्रचार तंत्र को अनर्गल आरोप लगाने के लिए मसाला सप्लाई करते हैं ? अशिष्ट रूप से न्यायालय को कठघरे में खड़ा करते हैं ? न्यायायिक फैसले पर लगभग कोसने, थू-थू करने की शैली में की गयी ये रिपोर्टिंग मैं सर-माथे रख लेता मगर जब विश्व हिन्दू परिषद रामजन्मभूमि को आस्था का विषय कह कर उस पर दृढ़ता दिखती है तो वो सांप्रदायिक हो जाती है। तो आपको न्याय व्यवस्था की अवमानना करने वाला उद्दंड संवाददाता, संपादक, मालिक क्यों न माना और कहा जाये ? आप राष्ट्र के संस्थानों को अपनी मनमर्ज़ी से क्यों हांक रहे हैं ? समाज को आपका बहिष्कार क्यों नहीं करना चाहिए ? 

रविवार, 25 अक्टूबर 2015

खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद तरुण तेजपाल की ऐबदारी

पिछले एक पक्ष से मिडिया में अजीब सा ऊधम मचा हुआ है. तरुण तेजपाल नाम के स्वनामधन्य सज्जन { सवनाम धन्य इस लिये कि लगभग खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद वो तारुण्य के पराक्रम में संलिप्त दिखे } के कृत्यों पर समाज उद्वेलित है और भर्त्सना की बात है कि साहित्यिक जगत और मीडिया के वामपंथी और राष्ट्र विरोधी logपिछले एक पक्ष से मिडिया में अजीब सा ऊधम मचा हुआ है. तरुण तेजपाल नाम के स्वनामधन्य व्यक्ति { सवनाम धन्य इस लिये कि लगभग खूसटावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के बावजूद वो तारुण्य के पराक्रम में संलिप्त दिखे } के कृत्यों पर समाज उद्वेलित है और भर्त्सना की बात है कि साहित्यिक जगत और मीडिया के वामपंथी और राष्ट्रविरोधी लोग इस दुष्कर्म को कम आंकने, कम दिखाने, कम महसूस कराने में लगे हैं.

प्रिंट तथा इलेकट्रोनिक मीडिया के लोग निजी बातचीत में यहाँ तक चर्चा कर रहे हैं कि धुंआ अपने आप नहीं निकलता. वो लड़की भी कुछ न कुछ पैमाने पर दोषी है. इस काम में अंग्रेज़ी के चैनलों और अख़बारों के साथ हिंदी के कुछ महारथी भी शरीक हैं. जिनमें सर्वप्रमुख जनसत्ता का संपादक मंडल और उसके लेखक हैं. यहाँ विशेष रूप से महात्मा गांधी हिंदी संस्थान की पत्रिका हिंदी समय के भूतपूर्व संपादक राज किशोर जी अग्रणी हैं. उनके दो लेख इस विषय पर जनसत्ता में पिछले दिनों छपे हैं. पहले लेख में उन्होंने तरुण तेजपाल के 6 माह के संपादन को छोड़ने और क्षमा मांगने को महत्व देते हुए इस विषय को अब शांत कर देने की मार्मिक अपील ब्रॉडकास्ट की और नये लेख में उन्होंने तरुण तेजपाल को कलाकार मानते हुए इन शब्दों में उसका स्वस्ति-गान किया है. ' पत्रकारिता एक कला है और तरुण तेजपाल हमारे समय के उल्लेखनीय कलाकार हैं. उनके काटे हुए कई लोग आज भी बिलबिला रहे हैं.' उनके वाक्य का अंतिम टुकड़ा बता रहा है कि राजकिशोर जी किस लिये तरुण तेजपाल का अपराध कम करने के लिये कोशिश कर रहे हैं. क्या विशेष विचारधारा { इसे राष्ट्रवाद का विरोध पढ़ा जाये } के लिये काम करना किसी का अपराध कम कर देता हैं. तरुण स्टिंग ऑपरेशन के महारथी रहे हैं. उनकी शैली रही है कि पहले वातावरण तैयार करो. शेर के सामने बकरी बांधो, शेर को बकरी खाने के लिये फुसलाओ और फिर हाहाकार मचाओ कि शेर ने बकरी खा ली. बंगारू लक्ष्मण जैसे सरल लोग उनके इन षड्यंत्रों का शिकार हुए हैं. 

इस विषय को थोडा विस्तार में देखने की ज़ुरूरत है. कवि, लेखक, संगीतकार, चित्रकार, मूर्तिकार, राजनीतिज्ञ, मीडिया के लोग यानी समाज में अपनी प्रभावी उपस्थिति दिखा पाने, दर्शा पाने वाले लोग सदा-सर्वदा से इन दुष्कर्मों में संलिप्त रहे हैं. शेक्सपियर की मृत्यु सिफ़लिस से हुई थी. आस्कर वाइल्ड के कृत्यों को सारा साहित्यिक जगत जानता है. छायावाद की प्रमुख नेत्री, फ़िराक़ गोरखपुरी अपने प्रसंगों के लिये चर्चित रहे हैं. केनेडी, जवाहर लाल नेहरू, अय्यूब ख़ान के बारे में दुनिया जानती है. इन लोगों में यश, पद, प्रभाव का प्राचुर्य था और लोग इनकी ओर आकर्षित होते थे. इसका ही परिणाम ये कानाफूंसियां थीं. 

मगर यहाँ एक पेंच है और ये पेंच बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है.  इन लोगों ने कभी इस हाथ दे और उस हाथ ले जैसा कुछ नहीं किया. ये कभी ' आज मेरी गाड़ी में बैठ जा ' या  ' आती क्या खंडाला ' जैसा प्रस्ताव देते धरे नहीं गये. गोवा के 5 सितारा होटल में किया गया काण्ड स्टिंग ऑपरेशन नहीं था. वहाँ किसी शेर के सामने बकरी बाँध कर उसे फुसला कर बदनाम करने का षड्यंत्र नहीं किया गया था बल्कि ये  एक धूर्त व्यक्ति का अपने पद के दुरुपयोग का उदाहरण है.  तरुण का कृत्य अपने पद के दबाव में स्त्री अस्मिता को रौंद देने का है. किसी सामान्य व्यक्ति के द्वारा भी ये काम किया जाता तो निश्चित रूप से प्रताड़नीय और दंडनीय होता ही होता मगर यहाँ तो मामला एक लड़की को अपने पद के दवाब में कुचल डालने का है. उस पर तुर्रा ये कि तुम्हारे पास अपनी नौकरी बचाने का ये ही एक मात्र रास्ता है. 

इसी रौशनी में मैं एक प्रश्न इस घटना को कम करके आंकने वाले, कम दिखाने  वाले महानुभावों से करना चाहूंगा. अगर इस लड़की कि जगह उनकी बेटी या बहन होती तो क्या तब भी वो बलात्कारी को कलाकार मानते और क्षमा करने की बात करते. अगर हाँ तो मैं 6  माह के लिये लफ्ज़ का संपादन छोड़ने और सहर्ष क्षमा मांगने के लिये तैयार हूँ. बताइये कब और कहाँ भेंट की जाये.

तुफ़ैल चतुर्वेदी 

----------------------हुड़दंगी जत्थे और साहित्य

----------------------हुड़दंगी जत्थे और साहित्य 

साहित्य समाज से कटता जा रहा है। पाठक और श्रोता कम हो रहे हैं। ये एक तथ्य है और इस के कारण साहित्यकारों में ये विचार आम है कि हम सही काम नहीं कर पा रहे। कुछ अधूरापन, लक्ष्य से भटकाव आ गया है। हमारा काम समाज के हित-अहित को उदघाटित, परिभाषित करना है। हम जिस समाज का अंग हैं उसके संरक्षण,संवर्धन का लक्ष्य ही साहित्य का लक्ष्य होना चाहिये। ऊपरलिखित वाक्यों में ही हिंदी-उर्दू साहित्य की दुर्दशा, समाज से कट जाने, मूलविहीन हो जाने की गाथा छिपी हुई है। 

1947 में लगभग दो तिहाई भारत स्वतंत्र हुआ। ये वो समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व भर में मंदी थी। समाज अभावों से घिरा था। करोड़ों लोग मारे गये थे। विस्थापित, बरबाद हुए थे। ये समय आँखों से सपने छिन जाने, जीवन के ताने-बाने के उधड़ जाने,बिखर जाने का था। सृष्टि में निर्वात कहीं नहीं रहता। ज़ाहिर है इस शून्य को भी भरा ही जाना था। मज़ेदार बात ये है कि आँखों में वापस सपने सजाने की घोषणा उन लोगों ने की जिन्होंने अभी-अभी सपने उजाड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी राष्ट्र जर्मनी, इटली का अनन्य सहयोगी रूस था और इस कारण सारी दुनिया के कम्युनिस्ट उसकी ढपली बजा रहे थे। अच्छे-ख़ासे समय तक ये युद्ध के आक्रामक पक्ष में बने रहे। हिटलर की मदद करते रहे। बाद में हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया तो रातों-रात धुरी राष्ट्रों के विरोधी हो गये। जिस समय रूस की सीमाओं पर जर्मनी की फ़ौजें करोड़ों रूसियों को मार रही थीं, उसी काल में स्टालिन के नेतृत्व में रुसी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने ही करोड़ों नागरिकों की हत्या कर रही थी।
वो राजनैतिक विचारधारा जिसने अपने ही करोड़ों लोगों को मार डाला मज़दूरों,किसानों, कमज़ोर वर्गों की हितैषी होने का ड्रामा करती थी। नेहरू वामपंथ के प्रति भावुक थे और उनके हिमायतियों के प्रति उदार थे। इस उदारता के कारण पद, प्रतिष्ठा, धन पाने के लिये रोमांटिक मुखौटा लगाये हथौड़ाधारी हत्यारी विचारधारा का पोषण साहित्यकारों का का उद्देश्य बन गया। साहित्य की श्रेष्टता इस बात से तय होने लगी ' पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ' जो इस ख़ेमे में नहीं वो साहित्यकार नहीं। साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी विचारधारा ही हो सकती है। साहित्य से समाज से कटते जाने के लिये ये सोच और इसका क्रियान्वन ज़िम्मेदार है। यहाँ प्रश्न ये है की ये कसौटी ठीक भी है ? 

जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त जैसे लोग मुक्तिबोध द्वारा रचित इस कसौटी के कारण कवि नहीं रहते और निराला 'सुन बे गुलाब' लिखने के कारण कवि हो जाते हैं। इसी से जुडी है साहित्य को हाशिये पर धकेले जाने की दुखद गाथा। साहित्य मूलतः अपने को व्यक्त करने की प्रक्रिया है। इसी का विस्तार अपने से सम्बंधित अन्यों को उद्घाटित करने में भी होता है। यहाँ उल्टा हुआ प्रक्रिया की जगह लक्ष्य तय कर दिये गये। राष्ट्रवादी विचारधारा किसी भी वैश्विक विचारधारा चाहे वो मार्क्सवाद हो, चाहे इस्लाम हो, के अन्त-पन्त विरोध में जाती है। अतः राष्ट्रवाद की जड़ में मट्ठा डालना रणनीतिक ज़ुरूरत बनी। राष्ट्र की, राष्ट्रवाद की रगड़ाई करनी है ....उग्रवाद, आतंकवाद चूंकि राष्ट्रवाद को नुक़सान पहुंचता है, इसलिये उस पर मौन रहना रणनीतिक हथियार बने। साहित्य स्व के विस्तार की प्रक्रिया की जगह कुछ तयशुदा फ्रेमों में विचार ठूंसने का नाम हो गया।

जैसे एक चालक वकील सच और झूट के चक्कर में नहीं पड़ता। अपने मुक़द्दमे को जीतने के लिये दोनों तरह के दाँव-पेच इकट्ठे करता है, आज़माता है।  उसी तरह लक्ष्य तय हुआ साम्यवादी विद्रोह ... उपलक्ष्य तय हुआ राष्ट्र की शक्तियों का कमज़ोर किया जाना। राष्ट्र का विरोध करने वाली सभी शक्तियों से हाथ मिलाना। 
ये अकस्मात नहीं है कि देश के विभाजन का कारण बनी मुस्लिम लीग को विभाजन का दर्शन और तर्क के तीर-तमंचे कम्युनिस्ट पार्टी के सज्जाद ज़हीर 'बन्ने भाई' सप्लाई किये। सज्जाद ज़हीर जिनके साम्प्रदायिकता के विरोधी होने की बातें करते कम्युनिस्ट लोग नहीं थकते, अंततोगत्वा पाकिस्तान चले गये।

अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी जैसे लोग कभी मुस्लिम लीग, जमाते-इस्लामी पर कभी कुछ नहीं बोले, हाँ राष्ट्रवादियों के नाम पर इनके मिर्चें लगती रहीं। ये दो नाम तो समुद्र में तैरते हिम खंड की तरह केवल नोक हैं। ऐसे असंख्य लोग हैं जिनके सतत राष्ट्रवाद के विरोध को देख कर ऐसा लगता है जैसे महमूद गज़नवी ने मूर्ति-भंजन करने के लिये हरे की जगह लाल कपडे पहन लिये हों। ये वही लोग हैं जो उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार किशन चंदर के सलमा सिद्दीक़ी से विवाह करने के लिये मुसलमान बनने का दबाव डालते हैं और उसके बाद निकाह कराते हैं। उर्दू की प्रसिद्ध कहानीकार इस्मत चुगताई की अंतिम इच्छा 'मैं मिट्टी में दब कर अपना जिस्म कीड़ों को नहीं खिलाना चाहती। मुझे इस ख़याल से ही घिन आती है। मुझे मरने के बाद जलाया जाये' पर इतने बौखला जाते हैं कि मुंबई में उनके जनाज़े में केवल एक मुसलमान उनके पति ही शरीक होते हैं। कैफ़ी आज़मी, शबाना आज़मी, जावेद अख्तर जैसों का साम्यवाद हवा हो जाता है, मुल्लाइयत चढ़ बैठती है। 
इस्लाम की अपनी समझ है और वो काफ़िरों, मुशरिकों, मुल्हिदों, मुर्तदों के प्रति भयानक रूप से क्रूर है। इस हद तक कि इस्लामी न्यायशास्त्र के 4 इमामों में से केवल एक काफ़िरों को जज़िया देने और ज़िम्मी बन कर रहने पर ही जीवित छोड़ने का अधिकार देते हैं, बाक़ी को वो भी जिंदा नहीं छोड़ने की व्यवस्था देते हैं। शेष तीन इमाम किसी भी स्थिति में इन सब को जिंदा नहीं रहने देना चाहते। कम्युनिस्ट मुल्हिदों में आते हैं। होना ये चाहिये था कि एक आतताई के दो पीड़ित एक हो जाते मगर हुआ उल्टा कि कम्युनिस्टों और इस्लाम ने राष्ट्रवाद के विरोध में हाथ मिला लिये। देश से सम्बंधित हर बात के विरोध में खड़े हो गये, शत्रुता निभाने लगे। एफ़ एम हुसैन की दुष्ट पेंटिंगों के पक्ष में खड़े होना, सहमत की धूर्तताओं का बचाव करना, रोमिला थापर द्वारा महमूद गज़नवी में गुणों को ढूँढने और उसके बचाव में किताब लिख मरने को आख़िर किस तरह समझा जा सकता है 

मार्क्स के मनमाने सिद्धांत 'समाज का विकास द्वंद से होता है' के आधार पर साहित्य में भी सदैव द्वंद खड़े किये गए,रोपे गये। कविता की छंद से मुक्ति, फिर विचार से मुक्ति, फिर एब्सर्ड लेखन जैसे बेसिरपैर के वाद चलाये ही इस लिये गये।  कविता का आधार छंद मार्क्सवाद की नारेबाज़ी पालकी ढो ही नहीं सकता था। उसे परोसने के लिये कविता के मानकों में तोड़फोड़ करनी ज़ुरूरी थी। नयी कविता के नाम पर मुक्तिबोध से प्रारंभ कर राजेश जोशी , अनुज लुगुन तक जो परोसते हैं वो कल्पित ब्योरों, अपठनीयता से भरा हुआ है। वो सब रौशनाई से दूर केवल सियाही का अंकन है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यकों पर प्रलाप जानबूझ कर किये जा रहे ऐसे ही विलाप हैं जिनके कारण पाठक भाग खड़ा हुआ है। आख़िर राग दरबारी के पचीसों संस्करण क्यों निकलते हैं और विष्णु खरे की किताब खोटी क्यों साबित होती है ? उबाऊ होने की सीमा का अतिक्रमण करती, आत्महत्या या हत्या पर उकसाने वाली रचनायें या किताबें किसी को कोई पढ़वा तो नहीं सकता। अकादमी के पुरस्कार पाठक तो नहीं दिला सकते।

इस देश की मिट्टी से जुड़े, अपने समाज के पक्ष में खड़े लोगों पर आरोप चस्पां करने के लिये उन्हें फ़ासीवादी, संस्कृतिवादी, राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, प्रतिक्रियावादी, शुद्धतावादी, आदर्शवादी और न जाने कैसे-कैसे शब्द गढ़ डालने वाले इन साम्यवादियों की छन-फटक की जाये तो ये स्वयं इसी परिभाषा में आते हैं। आइये इनके सबसे प्रिय आरोप फ़ासीवाद को ही लेते हैं। फ़ासीवाद मोटे तौर पर उस विचारधारा को कहते हैं जो अपने से असहमत हर विचार को ग़लत मानती है, नष्ट का देने योग्य समझती है। जिस विचारधारा के हाथ में शासन सूत्र आने पर प्रत्येक दूसरी विचारधारा को नष्ट किया जाता है। जिसके समय में कोई स्वतंत्र प्रेस नहीं होता। स्वतंत्र न्याय-पालिका नहीं होती ... लगभग तानाशाही होती है। इस परिभाषा पर सारे साम्यवादी देश और इस्लामिक शासन-प्रणाली ही खरे उतरते हैं। यही विचारधारायें अपने अलावा किसी को भी वर्ग-शत्रु या काफ़िर घोषित करके उसको समूल नष्ट करने के तर्क गढ़ती हैं / वाजिबुल-क़त्ल ठहरती हैं। कोई वकील, कोई दलील, कोई अपील कुछ नहीं।

भारत का वैशिष्ट्य ही यही है कि हम एक दूसरे की धुर विरोधी विचारधाराओं का सहजीवन संभव बनाते हैं। हम इस माफियागर्दी को भी अपनी बात कहने का अवसर देते हैं। इसी कारण हम लोकतंत्र हैं। 

हँस पत्रिका के वार्षिक कार्यक्रम में 'अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध' विषय पर आयोजित गोष्ठी में स्वीकृति देने के बाद भी वरवरा कवि और अरुंधती रॉय का न दिल्ली आ कर भी अंतिम क्षण में न आना इसी बात की पुष्टि करता है। वरवरा कवि का स्पष्टीकरण आया है कि उन्होंने ऐसा इस लिये किया कि उन्हें इस मंच पर अशोक बाजपेयी और गोविन्दाचार्य के साथ बैठना था। ये दोनों नाम देश के प्रतिष्ठित नाम हैं। कोई भी श्री अशोक बाजपेयी और श्री गोविन्दाचार्य से असहमत हो सकता है मगर उन्हें अस्पृश्य समझना ? अपनी मनमानी सोच को इस हद तक सही समझना कि अपने से इतर किसी की बात को सुने बिना रद कर देना, फ़ासीवाद है। साम्यवादी हमेशा यही करते आ रहे हैं और आरोप दूसरों पर लगाते हैं। 

जब तक साहित्य इन अंगुलिमालों से मुक्त नहीं होता, पठनीय साहित्य नहीं उभर सकता। पाठक, श्रोता इन बेहूदगियों के कारण ही साथ छोड़ गया। भारतीय स्वभाव से ही शांतिप्रिय हैं। वो इस कोलाहल से भरे तांडव को पसंद नहीं करते। समाज में एक बड़ी शक्ति ये भी होती है कि वो किसी भी तीसमारखां की अवहेलना करके आगे बढ़ जाता है। इसे गौर से देखिये .....वो आगे बढ़ गया है। वो मुशायरे, कवि-सम्मेलन में जाता है। वो श्री लाल शुक्ल, शिवानी, ज्ञान चतुर्वेदी को खोज कर पढ़ता है। उसे नरेन्द्र कोहली की राम कथा, महासमर पसंद हैं। वो सुनील लोढा द्वारा संचालित कार्यक्रम सुनता है। अपनी प्यास बुझाने के लिये वो पचासों तरीक़े अपनाता है किन्तु अकादमी पुरस्कार से सम्मानित स्वयंभू महाकवियों, लेखकों की किताबें की 100 प्रतियां भी नहीं ख़रीदता। 

साम्यवाद में एक रोमांटिक अपील होती है। साम्यवाद चूँकि दुनिया भर में कूड़ेदान में फेंका जा चूका है इसलिये भारत में ये बिरादरी अब अपने आप को पोलिटिकल एक्टिविस्ट, मानवाधिकार कार्यकर्त्ता बताने लगी है। यहाँ एक एक कहानी का ज़िक्र करना उपयुक्त होगा जिसमें एक तवायफ़ पुलिस के पकड़ने पर अपने आप को सोशल वर्कर बताती है और अपने काम को समाज सेवा कहती है। उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के अनुसार 'जो चीज़ अक़्ल के ज़रिये खोपड़ी में नहीं घुसी वो अक़्ल के ज़रिये बाहर कैसे निकलेगी।'  तो साहिबो साहित्य में पाठक अपने आप नहीं लौटेंगे। इसके लिये साहित्य की दिशा तय करने वाले, साहित्य पर क़ब्ज़ा जमाये लोगों की सफ़ाई आवश्यक है। ये कूड़ा विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, पत्रिकाओं में बुहारी लगाये बिना बाहर नहीं जाने वाला।

तुफ़ैल चतुर्वेदी  

न्यूयार्क में मोदी जी के भाषण को सुनने के लिए इकट्ठी हुई भीड़ में राजदीप सरदेसाई के साथ हुई झूटी धक्का-मुक्की

.........................................................शठे शाठ्यम समाचरेत................

मीडिया में कुछ दिन से हा-हा-कार बल्कि हू-हू-कार मचा हुआ है. कुछ लोग ऐसे चीख-चिल्ला रहे हैं जैसे कि मधुमक्खी का छत्ता पीछे पड़ गया हो तो कुछ लोग इस कथकली नृत्य को देख कर आनंदित हो रहे हैं. घटना ये कही जा रही है कि न्यूयार्क में राजदीप सरदेसाई के साथ हुई धक्का-मुक्की हुई है और मीडिया के कई हिस्सों में इसे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर प्रहार, चौथे खम्बे को गिराने की कोशिश बताया जा रहा है. मैं फिर ये मुक़दमा पंचों के सामने यानी जनता की अदालत में ले जाना चाहता हूँ.

                        किसी भी चैनल के पास संभवतः इस घटना की आवाज सहित रिकॉर्डिंग नहीं है. अतः उस घटना को विभिन्न टी. वी. चैनलों, फेस-बुक इत्यादि पर अपनी-अपनी विवेचना के साथ दिखाया जा रहा है. बिना इस बात को देखे कि घटना के बारे में किसका क्या मत है, आइये तटस्थ भाव से घटना की विवेचना करें. रिकॉर्डिंग दिखा रही हैं कि न्यूयार्क में मोदी जी के भाषण को सुनने के लिए इकट्ठी हुई भीड़ में भारतीय प्रेस के लोग घूम रहे हैं. वीडिओ में राजदीप भीड़ में लोगों से कुछ बात करते हुए दिखाई दे रहे हैं. भीड़ में से किन्हीं सज्जन ने पलट कर कुछ कहा और राजदीप भड़क कर उन सज्जन पर टूट पड़े. उन्हें धक्का दिया. कुछ धक्का-मुक्की के दृश्य हैं. कृपया ध्यान से देखिये सारे दृश्य राजदीप के टूट पड़ने और हंगामा करने के हैं. ये क्लिपिंग यहीं ख़त्म हो जाती है.

              सामान्य तर्क-बुद्धि यही कहती है कि राजदीप ने नरेंद्र मोदी जी जब अमरीका जा कर विश्व के सामने भारत की ब्रांडिंग कर रहे थे, कुछ ऐसा कहा होगा जिस पर उन सज्जन ने प्रति-प्रश्न किये होंगे. जिस पर राजदीप भड़क गए होंगे. भारत में जनतंत्र का ये तथाकथित चौथा स्तम्भ स्वयं को किसी भी जवाबदेही से ऊपर समझता है. इसके लगुए-भगुए तक चक्रवर्ती सम्राटों से भी अधिक दर्प के अधिकारी, हर विषय के ब्रह्मत्व की हद तक जानकार, स्वयं को रावण जितने शक्तिशाली मानने वाले और रावण जितने ही अहंकारी होते हैं. बंधुओ ये अकारण भी नहीं है. अपने कैरियर की शुरुआत में मुंबई की चालों,  दिल्ली के जमुनापार की बस्तियों से बसों में लटक कर ऑफिस आने वाले लोग, 15-20 साल में 50-50 करोड़ के बंगलों में रहने के क्षमता वाले हो जायेंगे तो ये बिलकुल स्वाभाविक है कि अहंकार प्रचंड हो ही जायेगा. इनमें से कई महापुरुषों के कैरियर की शुरुआत ..." मैं गन्ने के खेत में शौच के लिए गयी थी और..." लिखने से हुई थी और अब ये भारत की जनता को स्पर्श करने वाले हर विषय को मनमानी दिशा देने का प्रयास करते हैं. इनके मन में देश को अपने हिसाब से चलाने के एजेंडे होते हैं. ये मानते ही नहीं बल्कि जानते भी हैं कि इनके पास देश, समाज, व्यक्ति सभी के हर दर्द की दवा है. 
                                                                                       न्यूयार्क में ही एक अन्य भारतीय पत्रकार ने अपने मोबाइल के स्क्रीन पर मोदी जी की फोटो निकाली और राह चलते गोरों से पूछना शुरू किया " क्या आप इन्हें जानते हैं " लोगों के उत्तर नहीं में आये. इसके बाद उन्होंने टिप्पणी ' नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा कुछ नहीं है केवल मीडिया को मैनेज किया गया है, उन्हें अमरीका के लोग जानते तक नहीं हैं ". इस तरह अगर आप भी बराक ओबामा या संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का फोटो ले कर दिल्ली में निकल जाएँ और लोग न पहचानें तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों से पूछा गया है उनका वास्ता इन प्रतिष्ठित लोगों से नहीं पड़ता. इससे न तो बराक ओबामा का महत्व काम होता है न नरेंद्र मोदी जी का. मगर भारतीय पत्रकारिता हद दरजा गैरजिम्मेदार है. इन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहा कि यहाँ नरेंद्र मोदी की बखिया उधेड़ने का मतलब भारत की बखिया उधेड़ना होगा.
                                                                                   आप सबको अमरीका में घटी 9-11 की घटना याद होगी. कृपया याद करें कि आप में से कितने लोगों ने भयभीत अमरीकी नागरिकों के रोने-चिल्लाने के दृश्य देखे हैं ? जिस दिन ये घटना हुई थी, भागते लोगों की केवल एक स्टिल फोटो टी वी पर आई थी और उसके बाद वो फोटो अमरीका के टी वी चैनलों पर दुबारा नहीं दिखाई दी. ऐसा नहीं हो सकता कि अमरीकी नागरिक इस वज्रपात पर व्याकुल नहीं हुए होंगे ? डरे नहीं होंगे ? रोये नहीं होंगे ? अमरीका में प्रेस पर पाबन्दी भी संभव नहीं है. ये मीडिया का स्वतंत्र निर्णय था कि अपनी कमजोरी दुनिया को नहीं दिखाएंगे. आतंकवादी हमले करते ही डराने के लिए हैं और हमारे घबराहट दिखाने से उनको लक्ष्य में सफलता मिलती दिखाई देगी. इसकी तुलना भारतीय विमान अपहरण के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पर दबाव बनाने के लिए मिडिया द्वारा अपहृत लोगों के परिवारी जनों की लगातार हाय-दुहाई को दिखाने से कीजिये. यही मीडिया के लोग अपहृत लोगों के परिवारी जनों को ले कर प्रधानमंत्री निवास पर पहुंचे. इन्हीं ने आतंकियों को छोड़ने का दबाव बनाया और फिर यही प्रधानमंत्री की आलोचना में लग गये. मुंबई में ताज होटल में छिपे आतंकियों को मारने के लिए हैलिकॉप्टरों से कमांडो उतारे जाने की बरखा दत्त द्वारा लाइव रेकॉर्डिंग दिखाना याद कीजिये. कमांडो उतारे जाने की सूचना आतंकियों को तुरंत पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं ने टी वी चैनल देख कर दी और जिसके कारण कमांडो मारे भी गये 

                  राजदीप भारतीय मीडिया में नरेंद्र मोदी जी के धुर विरोधी माने जाते हैं. नरेंद्र मोदी जी के पहले मुख्यमंत्रित्व के काल में 2002 में हुए दंगों को ले कर बहुत मुखर रहे हैं. गुजरात के तीनों चुनावों में न केवल राजदीप बल्कि मीडिया के लगभग सारे प्रमुख लोग मोदी जी के हारने की भविष्यवाणी भी करते रहे हैं. गुजराती समाज को मोदी जी के विरोध में वोट देने के लिए उकसाते रहे हैं. हर बार मुंह की खायी मगर इस हद तक निर्लज्ज हैं कि इनमें से किसी के फूटे मुंह से कभी भी ये नहीं निकला कि हमने गलत किया. मीडिया समाज की आँख और कान कहा जाता है मगर राजदीप या इनके जैसे लोग अपने काम को करने की जगह केवल मुंह बन गए हैं. मुंह भी ऐसा जिसमें कोढ़ हो गया हो / बवासीर हो गयी हो. 
ऐसा व्यवहार समाज में कोई एक व्यक्ति करेगा तो समाज उसे पागल समझ कर एक किनारे लगा देगा और आगे बढ़ जायेगा मगर ये तो संस्थान है और इसकी उद्धतता की कोई सीमा नहीं है. इसकी किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है. चक्रवर्ती सम्राट भी न्याय से बंधे हुए होते थे. राजगुरु का कथन उनके लिए आदेश था मगर ये लोग चक्रवर्ती सम्राट, राजगुरु सब कुछ एक साथ हैं. 

                                                                                  देश में किसी भी अन्याय की जाँच की प्रणाली है. उसी का अनुसरण गुजरात के दंगों के दंगों के लिए भी हुआ है. स्वतंत्र न्यायालय, जाँच आयोग ने बरसों जाँच की है और नरेंद्र मोदी जी को किसी भी दंगे के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया. जनता ने भी 3-3 बार उनके बेदाग होने की पुष्टि की है. अब तो सारे राष्ट्र ने नरेंद्र मोदी जी को मुकुट-मणि बना लिया मगर इस चौथे स्तम्भ के ये लोग स्वयं को हर न्यायालय से ऊपर समझते हैं. ये मोदी विरोध में घृणा की हद तक चले गए हैं. इनका बस चले तो ये मोदी को असफल करवाने के लिए देश पर चीन से हमला करवा दें. आतंकवादियों की क्लिपिंग बनाने के लिए स्वयं उनके लिए निशाने तय कर दें. आपको कुछ वर्ष पूर्व गुवाहाटी में एक लड़की के कपडे फाड़ कर उसको लगभग निर्वस्त्र कर देने की घटना की वीडिओ क्लिपिंग का ध्यान होगा. जिस लड़के ने ये क्लिपिंग बनाई थी वो स्वयं इस घटना के लिए जिम्मेदार था और लोगों को भी शामिल होने के लिए उकसा रहा था. 

                                                       मगर इस मानसिकता को बनाने के लिए बंधुओ केवल वो ही जिम्मेदार नहीं हैं. इसके जिम्मेदार हम लोग भी हैं. यहाँ एक सामान्य घटना की चर्चा उपयुक्त होगी. संभवतः 1998 या 99 की बात है. नोएडा में इतनी भीड़ नहीं हुई थी. मैं नॉएडा अथॉरिटी के एक वरिष्ठ अधिकारी के पास बैठा हुआ था. अचानक एक बिल्कुल फटीचर से लड़के ने अपने जूते की नोक मार कर दरवाजा खोला. मैं ये देख कर हतप्रभ रहा गया कि मेरे मित्र अधिकारी उस लड़के के इस व्यवहार पर आक्रोश प्रकट करने की जगह उसके साथ सोफे पर जा बैठे. कुछ देर बाद जब वो लड़का चला गया तो मैंने उनसे इस असभ्यता को पी जाने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि ये पत्रकार है. साहब मैं क्या कह सकता था. इस घटना के कुछ वर्ष बाद उसका दबदबा नोएडा अथॉरिटी में और बढ़ गया और उसने दैनिक अखबार निकालना शुरू कर दिया. 

हम लोग हर वर्ष मुशायरा करते हैं. एक साल वो लड़का भी जो अब दैनिक समाचार पत्र का मालिक और संपादक था, मुशायरे में आया. मैं व्यवस्था में लगा हुआ था, मुझे किसी साथी ने सूचना दी कि मुल्ला जी हूटिंग कर रहे हैं. मैं और मेरे दो-तीन मित्र एक सामान्य शालीन ढंग का प्रयोग करते हुए उनके पास जा कर बैठ गये. वो हमें  देख कर 2-3 मिनिट तो शांत रहे फिर हूटिंग करने लगे. उनसे निवेदन किया गया अगर आपको नहीं सुनना है तो न सुनें मगर हमें तो सुनने दें. इस पर वो बौखला कर बोले आप कहें तो मैं मुशायरे से उठ कर चला जाऊँ. मेरे एक साथी ने उन्हें रोका और कहा आप क्यों जाते हैं हम ही आपके जूते लगा कर बाहर फिकवाए देते हैं. मित्रो वो दिन है और आज का दिन है, वो मुल्ला जी जब भी कहीं दिख जाते हैं सदैव पहले नमस्ते करते हैं और खींसे निपोरते हैं.

समस्या ये है कि भारतीय राजनेता और अधिकारी गण अच्छे खासे गड़बड़ रहे हैं. उनकी विवशता है कि वो अपनी सार्वजनिक आलोचना से डरते हैं. हम लोग तो संस्था के लोग थे. एक उद्धत पत्रकार हमारा क्या बिगाड़ सकता था. अधिकतम लिख देगा कि हम संस्था का पैसा खा गये तो ये विषय हमारे घर का है. संस्था जाने हम जानें. सो ऐसी अदभुत पत्रकारिता का यही हल हो सकता है जो उन अमरीकी सज्जन ने किया बल्कि बहुत कम किया. न वहां के अधिकारी गण दयनीयता की हद तक पत्रकारों के दबैल हैं और न वहां के राजनेता इतने रीढ़विहीन हैं. ऐसा ही अभ्यास उन अमरीकी महानुभावों को था और उन्होंने उपयुक्त और स्तुत्य व्यवहार किया.

तुफ़ैल चतुर्वेदी                                             

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

पेशावर के स्कूल पर आतंकी हमले और सैकड़ों बच्चों के मारे जाने की छान-फटक

                             बहिश्तो-जा कि मुल्ला-ए-न बायद ज़ि मुल्ला शोरो-गोगा-ए-न बायद 
                           { स्वर्ग उसी जगह है जहाँ मुल्ला नहीं हैं और उनका शोर सुनाई नहीं देता-दारा शिकोह }


दक्षिण एशिया यानी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्ला देश, भारत की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है. अफगानिस्तान से अमरीका के हटने के बाद वहां हमारी उपस्थिति, पाकिस्तान के उत्पात, पाकिस्तान, बांग्ला देश में इस्लामी जिहादियों की हिंसा के तांडव, अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले, इन घटनाओं पर छायी चुप्पी, गहरी चिंता में डाल रहे हैं. ये क्षण विस्तृत योजना बनाने और उन पर तब तक अमल करने का है जब तक वांछित परिणाम न आ जाएं।

सामान्य जानकारी ये है कि 1979 में रूस ने अफगानिस्तान के तत्कालीन नेतृत्व के निमंत्रण पर अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजी थीं. अमरीका वियतनाम की हार के कारण आहत था और बदला लेने की ताक में था. उसने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया-उल-हक़, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व को तैयार किया. जिसके कारण धरती का ये भाग कराह रहा है. यहाँ सबसे बड़े कारण का जिक्र नहीं होता कि इन सब कारकों को इकट्ठा तो अमरीका की बदले की भावना ने किया मगर इन सबको मिला कर जो विषैला पदार्थ बना उसे टिकाने वाला, जोड़े रखने वाला Bainding force क्या था ? एक ऐसे देश में लड़ाई के लिए जिससे उनकी सीमाएं भी नहीं लगतीं, अपने खरबों डॉलर झोंकने के लिए सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात क्यों तैयार हो गए ? अगर ये इस्लाम नहीं था तो वो कारण क्या था ?

सबको स्वीकारने, सबको जीवन का अधिकार देने, सबको अपनी इच्छानुसार उपासना करने, सबको स्वतंत्र सांस लेने का अधिकार देने वाली समावेशी मूर्तिपूजक, प्रकृतिपूजक संस्कृति जिसे इस भाग में हिन्दू संस्कृति कहा जाता है, ही विश्व की मूल संस्कृति है. विश्व भर में एक ईश्वर या अल्लाह जैसा कुछ मानने वाले सेमेटिक मजहबों ने इसी के हिस्से तोड़-तोड़ कर अपने साम्राज्य खड़े किये हैं. निकटतम अतीत में हमसे पाकिस्तान और बांग्ला देश छीने गए हैं. जिन दिनों पाकिस्तान बनाने का आंदोलन चल रहा था, मुस्लिम नेता शायर इकबाल की पंक्तियाँ बहुत पढ़ते थे. इकबाल की 'शिकवा' जवाबे-शिकवा' नामक दो लम्बी नज्मों में इस्लाम का मूल दर्शन लिखा हुआ है. उसकी एक बहुत चर्चित पंक्ति है 

" तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों पर" 

शाहीं यानी बाज़ जो आकाश में सारे पक्षियों से ऊपर उड़ता है. स्वतंत्र जीवन जीता है. पहाड़ों में रहने वाले, छोटी चिड़ियों का झपट्टा मार कर शिकार करने वाले, उनका मांस नोच-नोच कर खाने वाले बाज़ के जीवन-दर्शन को इस्लामी नेतृत्व ने अपने समाज के लिए आदर्श माना। इक़बाल का ही इसी सिलसिले का एक शेर और उद्धृत करना चाहूंगा।

जो कबूतर पर झपटने में मजा है ऐ पिसर { बाज अपने बेटे से कह रहा है }
वो मजा शायद कबूतर के लहू में भी नहीं  

पुरानी कहावत है कि नाग पालने वाले नागों से डँसे जाने के लिए अभिशप्त होते हैं. जिस रूपक की सभ्य समाज उपेक्षा करता, घृणा करता, उसे इस्लामियों ने अपना प्रेरणा-स्रोत माना। अब ये बाजों के झुण्ड कबूतर पर झपटने का मज़ा अधिक पाने के लिए पेशावर में उतर आये हैं. यहां थे की जगह हैं प्रयोग जान-बूझ कर कर रहा हूँ कि ये कोई नई घटना नहीं है. इस्लामी इतिहास को देखें तो मुहम्मद जी ने अपने साथियों के साथ उत्तरी अरब में रहने वाले एक यहूदी कबीले बनू कुरैजाह पर आक्रमण किया.  25 दिन तक युद्ध करने के बाद यहूदियों के इस कबीले ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस्लामी सूत्रों के हवाले से एक औरत सहित सारे पुरुषों के गले धड़ से अलग कर दिए गये. अन्य सूत्रों के अनुसार यहूदियों के 400 से 900 पुरुषों के गले काट डाले गए जिनमें बच्चे भी थे. भारत में दसवीं पादशाही गुरु गोविन्द सिंह के दो बेटे साहबज़ादे जोरावर सिंह, साहिबजादे फतह सिंह मुगल नवाब के काल में काजी के फतवे पे दीवार में चुनवा दिए गए थे. 7 साल के बच्चे वीर हकीकत राय की मसलमान न बनने के कारण बोटियाँ नोच ली गयी थीं. भारत में इस तरह की घटनाओं के तो मुस्लिम इतिहासकारों के स्वयं लिखित असंख्य वर्णन मिलते हैं. 2004 में रूस के बेसलान नगर में इस्लामी आतंकवादियों ने एक स्कूल पर कब्ज़ा कर 777 बच्चों सहित 1100 लोगों को बंधक बना लिया था. 3 दिन चले इस संघर्ष में 186 बच्चों सहित 385 बंधक मारे गए.  

ये इस्लामियों का गैरइस्लामी लोगों के साथ सामान्य व्यवहार है. आइये पेशावर की घटना पर लौटते हैं. पेशावर में अरबी नहीं बोली जाती। पेशावर से अरबी बोलने वाले क्षेत्र सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं. अपने क्षेत्र से वहां अरबी बोलने वाले मारने-मरने क्यों आये ? छोटे-छोटे बच्चों की आँखों में, सर में गोलियां मारने वाले केवल जुनूनी हत्यारे नहीं हो सकते ? इन लोगों की मग्ज-धुलाई, वो भी इस तरह कि हत्यारे जान लेते हुए अपनी जान देने के लिए आतुर हो जाएं, कोई सामान्य षड्यंत्र का परिणाम नहीं हो सकता. भारत का अरीब और उसके कुछ साथी जिहाद के लिए सीरिया क्यों गए ? नाइजीरिया के स्कूल में रात के दो बजे आग लगा कर ग्यारह साल से अट्ठारह साल के चालीस बच्चों को जला कर क्यों बोको-हराम के लोगों ने मार डाला ?

ये हत्यारे आप-मुझ जैसे पहनावे वाले, खान-पान वाले लोग हैं मगर इनका मानस बिलकुल अलग है. दिन में पांच बार एक विशेष प्रकार के अराध्य की नमाज़ पढने वाले, हर नमाज़ में एक उंगली उठा कर गवाही देने वाले " अल्लाह एक है, उसमें कोई शरीक नहीं, मुहम्मद उसका पैगम्बर है", चौबीसों घंटे स्वयं को शैतानों से भरे समाज में मानने-समझने वाले अगर ऐसा करने पर उतारू हो जाएँ तो ये कोई असामान्य बात नहीं है. ये "कत्ताल फ़ी सबीलल्लाह जिहाद फ़ी सबीलल्लाह" की सामान्य परिणिति है. "अल्लाह की राह में क़त्ल करो-अल्लाह की राह में जिहाद करो" पर अटूट विश्वास का परिणाम है. 

इस सोच की नींव हिलाये बगैर ये दर्शन कैसे ध्वस्त होगा ? सदियों से सभ्य समाज ने इस विषैली विचारधारा को नजरअंदाज किया है. किसी कैंसर-ग्रस्त व्यक्ति के ये मानने से ' मैं स्वस्थ हूँ' वो स्वस्थ नहीं हो जाता. पाकिस्तान का जन्म मुसलमानों ने स्वयं को काफिरों से श्रेष्ठ मानने, सदियों तक अपने गुलाम रहे हिन्दुओं के प्रजातंत्र के कारण स्वयं पर हावी हो जाने की संभावना से बचने के लिए किया था. इसी अनैतिहासिक और ऊटपटांग दर्शन के कारण उन्होंने पाकिस्तान की शिक्षा प्रणाली भी ऐसी ही मूर्खतापूर्ण बनायी. अब इस विषवृक्ष के फल आ गए हैं. इस विचारधारा को माशाअल्लाह और इंशाअल्लाह जप कर ढेर नहीं किया जा सकता. 

इसके लिए मानव सभ्यता के पहले चरण " सभी मनुष्य बराबर हैं " का आधार ले कर इसके विपरीत हर विचार को तर्क, दंडात्मक कारवाही से नष्ट करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है. इसे परास्त बल्कि नष्ट करने के लिए वैचारिक स्तर पर, उन देशों से जहाँ-जहाँ इसके विष-बीज मौजूद हैं, प्रत्येक स्तर पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी. जनतंत्र के सामान्य सिद्धांत " प्रत्येक मनुष्य बराबर है, सभी के अधिकार बराबर हैं. जीवन का अधिकार मौलिक अधिकार है " को विश्व का दर्शन बनाना पड़ेगा। इसके विपरीत विचार रखने वाले व्यक्ति-समूह-समाज का हर प्रकार से दमन करना पड़ेगा. ये जितना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्ला देश के लिए आवश्यक है उतना हमारे लिए भी आवश्यक है.

पाकिस्तानी पड़ौसियो ! मैं इस दारुण दुःख में आपके साथ हूँ और आपके गम में रोना चाहता हूँ मगर मैं क्या करूँ मेरी आँखे तो बारह सौ साल से लहू रो रही हैं. तो ऐसा करता हूँ मैं इस घटना पर उतना ही दुःख मना लेता हूँ जितना मुंबई में ताज होटल और यहूदी धर्मस्थल पर हुए आतंकी आक्रमण के समय आपने मनाया था 

तुफैल चतुर्वेदी        

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

संसार के अराष्ट्रीयकरण में मदरसों की भूमिका पर एक टिपण्णी

27 अगस्त के समाचारपत्रों में एक सामान्य सा समाचार है। अमेरिका ने पाकिस्तान स्थित ख़तरनाक हक़्क़ानी नेटवर्क के शीर्ष नेता अब्दुल अज़ीज़ हक़्क़ानी को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया है। अज़ीज़ हक़्क़ानी ने अपने भाई बदरुद्दीन हक़्क़ानी की मौत के बाद अल क़ायदा से जुड़े हक़्क़ानी नेटवर्क में नेतृत्व को संभाला था। इसके पते-ठिकाने के बारे में जानकारी देने वाले को 50 लाख डॉलर यानी 33 करोड़ रुपये इनाम में मिलेंगे। इस संगठन के अन्य नेता जलालुद्दीन हक़्क़ानी, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी, नसीरुद्दीन हक़्क़ानी इत्यादि हुए हैं। अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान में इस संगठन की प्रभावी उपस्थिति है। भारत के ख़िलाफ़ इस संगठन ने अफ़ग़ानिस्तान में कई घातक आतंकी गतिविधियाँ की हैं जिसमें काबुल स्थित भारतीय दूतावास में 2008 में हुआ बम-विस्फोट भी है। जिसमें 58 लोग मारे गए थे। इन सब नामों में एक बात कॉमन है और वो हक़्क़ानी है। ज़ाहिर है किसी भी ऐसे व्यक्ति, संस्थान, राष्ट्र के लिये जो इस विषैले नेटवर्क से निबटना, उसकी योजना बनाना चाहता है, के लिये इसे जानना ज़रूरी है कि इन नामों में हक़्क़ानी क्यों है।

पाकिस्तान के अफगानिस्तान से लगते हुए उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में ख़ैबर दर्रे की पूर्व दिशा में कोई दो घंटे की दूरी पर उत्तरी वज़ीरिस्तान में हक़्क़ानी एक देवबंदी विचारधारा का मदरसा है। इस मदरसे में अनुमानतः 3000 से 5000 लड़के क़ुरआन, हदीस, इस्लामी तारीख़ जैसे विषय पढ़ते हैं। मुहम्मद जी का कहा गया जो उनके अनुसार अल्लाह का भेजा हुआ ज्ञान था, 'क़ुरआन' के रूप में संकलित है और यहाँ उसका विषाद अध्ययन किया जाता है। मुहम्मद जी का बिताया हुआ जीवन जो हदीसों में संकलित है, यहाँ उसकी पढाई भी होती है। इन दोनों पुस्तक समूह के अध्ययन के आधार पर इस्लामी दृष्टि से व्यवस्था देने के लिये यहाँ मुफ़्ती भी तैयार किये जाते हैं। मुफ़्ती वो इस्लामी मुल्ला है जो फ़तवे देने का अधिकारी है। फ़तवे; पाजामा कितना नीचा पहनना जायज़ है, दाढ़ी कितनी बड़ी रखनी जायज़ है, जिस बकरी के साथ सम्भोग किया है उसकी क़ुरबानी जायज़ है या नहीं से ले कर किसी इस्लामी मुल्क में ग़ैर मुस्लिम जीने के अधिकारी हैं कि नहीं हैं से होते हुए जिहाद आदि इस्लाम को स्पर्श करने वाले हर विषय पर दिए जाते हैं। कृपया यहाँ ये भी ध्यान रखें कि किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र का मुसलमान न होना तो विशेष रूप से इस्लाम का विषय होता है अतः फ़तवे वस्तुतः संसार के हर विषय पर दिए जाते हैं। इस मदरसे में पाकिस्तान के अलावा अफगानिस्तान, उज़बेकिस्तान, क़ज़ाक़िस्तान, ताज़िकिस्तान यहाँ तक कि अरबी देशों के बच्चे भी पढ़ते हैं। यहाँ के पढ़े हुए छात्र ही अपने नाम के साथ हक़्क़ानी लगते हैं।

इस मदरसे में हथियार चलना नहीं सिखाया जाता मगर जिस वहाबी-देवबंदी विचारधारा की उपज इस्लाम का विश्वव्यापी आतंकी रूप है पाकिस्तान में उसके ये सबसे बड़े केन्द्रों में से एक है। काफ़िर वाजिबुल-क़त्ल, क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह का हिंसक दर्शन यहीं सिखाया जाता है। पाकिस्तान में ऐसे हज़ारों मदरसे हैं जिनमें पाकिस्तानी सरकार के आंकड़ों के अनुसार दस लाख से अधिक बच्चे पढ़ रहे हैं। ऐसे ही एक पाकिस्तानी मदरसे के मीठी, शरारती, मुस्कुराती आँखों वाले 6-7 साल के छात्र का वीडिओ व्हाट्सएप, फ़ेसबुक इत्यादि सोशल मिडिया में बहुत तेज़ी से फैल रहा है। बच्चे से एक महिला पूछ रही है 'बड़े हो कर तुम क्या बनोगे' बच्चा जवाब देता है 'शहीद'। कहाँ पर गोली खाओगे, बच्चा सीने पर उंगली रख कर जवाब देता है 'यहाँ पर'। ये बिल्कुल वैसी ही क्रिया है जैसी सामान्य परिवार में किसी मेहमान के आने पर होती है। परिवार के लोग बच्चे को पकड़ कर मेहमान को कोई पोयम या कविता सुनाने के लिये कहते हैं और वो तोतली ज़बान में अटक-अटक कर मेहमान को रटाई गयी कविता सुनाता है। हर बच्चा जो उसे सिखाया जाता है वही दुहराता है यानी मुददा सिखाना है। ऐसे मदरसे ही मानसिक हत्यारों की जन्मस्थली हैं। यहाँ एक बहुत गंभीर बात हमें निश्चित रूप से ध्यान रखनी चाहिये कि इस विचारधारा का प्रारंभिक मदरसा तो देवबंद में है और इसी के कारण इन्हें देवबंदी कहा जाता है। यानी विष-बेल का नाभि-कुण्ड भारत में ही है।


जलालुद्दीन हक़्क़ानी इसी देवबंदी विचारधारा के मदरसे का पढ़ा हुआ है और इसी ने हक़्क़ानी नेटवर्क की स्थापना की है। ओसामा बिन लादेन और अब्दुल्लाह आज़म जैसे दुष्ट आतंकियों ने इसी नेटवर्क के माध्यम से अपना कैरियर शुरू किया था। अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान दोनों देश वैसे ही निर्धन हैं और जिस भाग में ये मदरसा है, वहां ग़रीबी अपनी चरम पर है। इस मदरसे के छात्र ऐसे परिवारों से आते हैं जहाँ माता-पिता बच्चों को दो समय का भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते और यह विवशता भी उनके माता-पिता को अपने बच्चे इन केन्द्रों में धकेलने पर विवश करती है। यही बच्चे आगे चल कर जलालुद्दीन हक़्क़ानी, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी, नसीरुद्दीन हक़्क़ानी, क़साब, नावेद बनते हैं।

ये वैचारिक संघर्ष है और इससे ज़मीनी लड़ाई में निबटने के साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर निबटना पड़ेगा ही पड़ेगा। इस विचारधारा को हर तरह से, हर तरफ़ से दबोचना, परास्त करना, कुचलना अनिवार्य है और विचारधारा से लड़ाई दूर तक, देर तक चलने वाली होती है। इसे सतत लड़ना होता है। ये विचारधारा स्वयं को अल्लाह का अस्ली उत्तराधिकारी और अन्य को शैतानी मानती है , उन्हें नष्ट कर देना चाहती है।  इससे निबटने के लिये इसके इस दर्शन, चिंतन को चुनौती देना अनिवार्य है। ये काम बहुत कठिन नहीं है। केवल स्वतंत्र मानवाधिकार, स्त्री-पुरुष के बराबरी के अधिकार, वयस्क मताधिकार यानी जनतंत्र की कसौटी ही इस अधिनायकवादी, मनमानी करती चली आई इस उत्पाती विचारधारा को नष्ट कर देगी। इस के पक्षधर पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान में भी बहुत नहीं हैं। वो चुप हैं, कई बार भयभीत लगते हैं मगर इनको चुनौती मिलने पर विरोध करेंगे ही करेंगे। कमाल पाशा ने जब तुर्की में इन दुष्टों का दमन किया था तो परिवर्तन की हवा चलने में 6 माह भी नहीं लगे थे और बदलाव आ गया था। अतः हमारे हित के लिये आवश्यक है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में प्रजातान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार के साथ खड़ा हो। हक़्क़ानी दुष्टों को जड़ से समाप्त करने की हर योजना का अंग बने। हर प्रकार से उसकी सहायता करे।

पाकिस्तान की शक्ति भी पूरी तरह क्षीण करनी होगी। अफगानिस्तान से लगते हुए पख़्तून ख़्वा प्रदेश पर आँखें गड़ाए बैठे पठानों को उसे हस्तगत करने में हर संभव सहायता देनी होगी। जिये सिंध का साथ दे कर उसे स्वतंत्र होने में सहायक होना होगा। बलूचिस्तान की राजशाही के कुचले-दबे लोगों की सहायता कर उनकी पाकिस्तान से अलग होने की पुरानी इच्छा को मूर्त स्वरूप देना होगा। गिलगिल, बाल्टिस्तान, परतंत्र कश्मीर-जम्मू-लद्दाख को ऐसा होते समय वापस झपटना होगा। पाकिस्तान के भरपूर विखंडन से ही भारत के शांत भविष्य का मार्ग निकलता है।

तुफ़ैल चतुर्वेदी         

हिन्दू मंदिरों के धन का अहिन्दू कार्यों में दुरुपयोग

संयुक्त राज्य अमेरिका में स्टीफन नैप नाम के एक विदेशी लेखक की बहुत रिसर्च की हुई पुस्तक " भारत के खिलाफ अपराधों और प्राचीन वैदिक परंपरा की रक्षा की आवश्यकता " प्रकाशित हुई है। ये पुस्तक विदेशों में चर्चित हुई है मगर भारत में उपेक्षित, अवहेलित है। इस पुस्तक का विषय भारत में हिन्दुओं के मंदिरों की सम्पत्ति, चढ़ावे, व्यवस्था की बंदरबांट है। इस पुस्तक में दिए गए आँखें खोल देने वाले तथ्यों पर विचार करने से पहले आइये कुछ काल्पनिक प्रश्नों पर विचार करें।

बड़े उदार मन, बिलकुल सैक्यूलर हो कर परायी बछिया का दान करने की मानसिकता से ही बताइये कि क्या हाजियों से मिलने वाली राशि का सऊदी अरब सरकार ग़ैर-मुस्लिमों के लिये प्रयोग कर सकती है ? प्रयोग करना तो दूर वो क्या वो ऐसा करने की सोच भी सकती है ? केवल एक पल के लिये कल्पना कीजिये कि आज तक वहाबियत के प्रचार-प्रसार में लगे, कठमुल्लावाद को पोषण दे रहे, परिणामतः इस्लामी आतंकवाद की जड़ों को खाद-पानी देते आ रहे सऊदी अरब के राजतन्त्र  का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो विश्व-बंधुत्व में विश्वास करने लगता है। सऊदी अरब की विश्व भर में वहाबियत के प्रचार-प्रसार के लिये खरबों डॉलर फेंकने वाली मवाली सरकार हज के बाद लौटते हुए भारतीय हाजियों के साथ भारत के मंदिरों के लिये 100 करोड़ रुपया भिजवाती है। कृपया हँसियेगा नहीं ये बहुत गंभीर प्रश्न है।

क्या वैटिकन आने वाले श्रद्धालुओं से प्राप्त राशि ग़ैर-ईसाई व्यवस्था में खर्च की जा सकती है ? कल्पना कीजिये कि पोप भारत आते हैं। दिल्ली के हवाई अड्डे पर विमान से उतरते ही भारत भूमि को दंडवत कर चूमते हैं। उठने के साथ घोषणा करते हैं कि वो भारत में हिन्दु धर्म के विकास के लिये 100 करोड़ रुपया विभिन्न प्रदेशों के देव-स्थानों को दे रहे हैं। तय है आप इन चुटकुलों पर हँसने लगेंगे और आपका उत्तर निश्चित रूप से नहीं होगा। प्रत्येक धर्म के स्थलों पर आने वाले धन का उपयोग उस धर्म के हित के लिए किया जाता है। तो इसी तरह स्वाभाविक ही होना चाहिए कि मंदिरों में आने वाले श्रद्धालुओं के चढ़ावे को मंदिरों की व्यवस्था, मरम्मत, मंदिरों के आसपास के बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के प्रशासन, अन्य कम ज्ञात मंदिरों के रख-रखाव, पुजारियों, उनके परिवार की देखरेख, श्रद्धालुओं की सुविधा के लिये उपयोग किया जाये। अब यहाँ एक बड़ा प्रश्न फन काढ़े खड़ा है। क्या मंदिरों का धन मंदिर की व्यवस्था, उससे जुड़े लोगों के भरण-पोषण, आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्था से इतर कामों के लिये प्रयोग किया जा सकता है ?

अब आइये इस पुस्तक में दिए कुछ तथ्यों पर दृष्टिपात करें। आंध्र प्रदेश सरकार ने मंदिर अधिकारिता अधिनियम के तहत 43,000 मंदिरों को अपने नियंत्रण में ले लिया है और इन मंदिरों में आये चढ़ावे और राजस्व का केवल 18 के प्रतिशत मंदिर के प्रयोजनों के लिए वापस लौटाया जाता है। तिरुमाला तिरुपति मंदिर से 3,100 करोड़ रुपये हर साल राज्य सरकार लेती है और उसका केवल 15 प्रतिशत मंदिर से जुड़े कार्यों में प्रयोग होता है। 85 प्रतिशत राज्य के कोष में डाल दिया जाता है और उसका प्रयोग सरकार स्वेच्छा से करती है। क्या ये भगवान के धन का ग़बन नहीं है ? इस धन को आप और मैं मंदिरों में चढ़ाते हैं और इसका उपयोग प्रदेश सरकार हिंदु धर्म से जुड़े कार्यों की जगह मनमाना होता है। उड़ीसा में राज्य सरकार जगन्नाथ मंदिर की बंदोबस्ती की भूमि के ऊपर की 70,000 एकड़ जमीन को बेचने का इरादा रखती है।

केरल की कम्युनिस्ट और कांग्रेसी सरकारें गुरुवायुर मंदिर से प्राप्त धन अन्य संबंधित 45 हिंदू मंदिरों के आवश्यक सुधारों को नकार कर सरकारी परियोजनाओं के लिए भेज देती हैं। अयप्पा मंदिर से संबंधित भूमि घोटाला पकड़ा गया है। सबरीमाला के पास मंदिर की हजारों एकड़ भूमि पर कब्ज़ा कर चर्च चल रहे हैं। केरल की राज्य सरकार त्रावणकोर, कोचीन के स्वायत्त देवस्थानम बोर्ड को भंग कर 1,800 हिंदू मंदिरों को अधिकार पर लेने के लिए एक अध्यादेश पारित करने के लिए करना चाहती है।

कर्णाटक की भी ऐसी स्थिति है। यहाँ देवस्थान विभाग ने 79 करोड़ रुपए एकत्र किए गए थे और उसने उस 79 करोड़ रुपये में से दो लाख मंदिरों को उनके रख-रखाव के लिए सात करोड़ रुपये आबंटित किये। मदरसों और हज सब्सिडी के लिये 59 करोड़ दिए और लगभग 13 करोड़ रुपये चर्चों गया। कर्नाटक में दो लाख मंदिरों में से 25 प्रतिशत या लगभग 50000 मंदिरों को संसाधनों की कमी के कारण बंद कर दिया जायेगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि महमूद गज़नी तो 1030 ईसवी में मर गया मगर उसकी आत्मा अभी भी हज़ारों टुकड़ों में बाँट कर भारत के मंदिरों की लूट में लगी हुई है ?


यहाँ यह प्रश्न उठाना समीचीन है कि आख़िर मंदिर किसने बनाये हैं ? हिंदु समाज के अतिरिक्त क्या इनमें मुस्लिम, ईसाई समाज का कोई योगदान है ? बरेली के चुन्ना मियां के मंदिर को छोड़ कर सम्पूर्ण भारत में किसी को केवल दस और मंदिर ध्यान हैं जिनमें ग़ैरहिंदु समाज का योगदान हो ? मुस्लिम और ईसाई समाज कोई हिन्दू समाज की तरह थोड़े ही है जिसने 1857 के बाद अंग्रेज़ी फ़ौजों के घोड़े बांधने के अस्तबल में बदली जा चुकी दिल्ली की जामा-मस्जिद अंग्रेज़ों से ख़रीद कर मुसलमानों को सौंप दी हो।

यहाँ ये बात ध्यान में लानी उपयुक्त होगी कि दक्षिण के बड़े मंदिरों के कोष सामान्यतः संबंधित राज्यों के राजकोष हैं। एक उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट होगी। कुछ साल पहले पद्मनाभ मंदिर बहुत चर्चा में आया था। मंदिर में लाखों करोड़ का सोना, कीमती हीरे-जवाहरात की चर्चा थी। टी वी पर बाक़ायदा बहसें हुई थीं कि मंदिर का धन समाज के काम में लिया जाना चाहिये। यहाँ इस बात को सिरे से गोल कर दिया गया कि वो धन केवल हिन्दू समाज का है, भारत के निवासी हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों का नहीं है। उसका कोई सम्बन्ध मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी समाज से नहीं है। वैसे वह मंदिर प्राचीन त्रावणकोर राज्य, जो वर्तमान में केरल राज्य है, के अधिपति का है। मंदिर में विराजे हुए भगवान विष्णु महाराजाधिराज हैं और व्यवस्था करने वाले त्रावणकोर के महाराजा उनके दीवान हैं। नैतिक और क़ानूनी दोनों तरह से  पद्मनाभ मंदिर का कोष वस्तुतः भगवान विष्णु, उनके दीवान प्राचीन त्रावणकोर राजपरिवार का, अर्थात तत्कालीन राज्य का निजी कोष हैं। उस धन पर क्रमशः महाराजाधिराज भगवान विष्णु, त्रावणकोर राजपरिवार और उनकी स्वीकृति से हिन्दू समाज का ही अधिकार है। केवल हिन्दु समाज के उस धन पर अब वामपंथी, कांग्रेसी गिद्ध जीभ लपलपा रहे हैं।

यहाँ एक ही जगह की यात्रा के दो अनुभवों के बारे में बात करना चाहूंगा। वर्षों पहले वैष्णव देवी के दर्शन करने जाना हुआ। कटरा से मंदिर तक भयानक गंदगी का बोलबाला था। घोड़ों की लीद, मनुष्य के मल-मूत्र से सारा रास्ता गंधा रहा था। लोग नाक पर कपड़ा रख कर चल रहे थे। हवा चलती थी तो कपड़ा दोहरा-तिहरा कर लेते थे। काफ़ी समय बाद 1991 में फिर वैष्णव देवी के दर्शन करने जाना हुआ। तब तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल पद को जगमोहन जी सुशोभित कर चुके थे। आश्चर्यजनक रूप से कटरा से मंदिर तक की यात्रा स्वच्छ और सुविधाजनक हो चुकी थी। कुछ वर्षों में ये बदलाव क्यों और कैसे आया ? पूछताछ करने पर पता चला कि वैष्णव देवी मंदिर को महामहिम राज्यपाल ने अधिग्रहीत कर लिया है और इसकी व्यवस्था के लिये अब बोर्ड बना दिया गया है। अब मंदिर में आने वाले चढ़ावे को बोर्ड लेता है। उसी चढ़ावे से पुजारियों को वेतन मिलता है और उसी धन से मंदिर और श्रद्धालुओं से सम्बंधित व्यवस्थायें की जाती हैं।

ये स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ गया कि मंदिर जो समाज के आस्था केंद्र हैं, वो पुजारी की निजी वृत्ति का ही केंद्र बन गए हैं और समाज के एकत्रीकरण, हित-चिंतन के केंद्र नहीं रहे हैं। अब समाज की निजी आस्था अर्थात हित-अहित की कामना और ईश्वर प्रतिमा पर आये चढ़ावे का व्यक्तिगत प्रयोग का केंद्र ही  मंदिर बचा है। मंदिर के लोग न तो समाज के लिये चिंतित हैं न मंदिर आने वालों की सुविधा-असुविधा उनके ध्यान में आती है। क्या ये उचित और आवश्यक नहीं है कि मंदिर के पुजारी गण, मंदिर की व्यवस्था के लोग अपने साथ-साथ समाज के हित की चिंता भी करें ? यदि वो ऐसा नहीं करेंगे तो मंदिरों को अधर्मियों के हाथ में जाते देख कर हिंदु समाज भी मौन नहीं रहेगा ? मंदिरों के चढ़ावे का उपयोग मंदिर की व्यवस्था, उससे जुड़े लोगों के भरण-पोषण, आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्था के लिये होना स्वाभाविक है। ये त्वदीयम वस्तु गोविन्दः जैसा ही व्यवहार है। साथ ही हमारे मंदिर, हमारी व्यवस्था, हमारे द्वारा दिए गये चढ़ावे का उपयोग अहिन्दुओं के लिये न हो ये आवश्यक रूप से करवाये जाने वाले विषय हैं। संबंधित सरकारें इसका ध्यान करें, इसके लिये हिंदु समाज का चतुर्दिक दबाव आवश्यक है अन्यथा लुटेरे भेड़िये हमारी शक्ति से ही हमारे संस्थानों को नष्ट कर देंगे।


तुफ़ैल चतुर्वेदी                  

शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

तुर्की के समुद्र तट पर अयलान कुर्दी की डूब कर मौत और उस पर राष्ट्रीय चिंतन

तुर्की के समुद्र तट पर मिले तीन साल के बच्चे की तस्वीर इन दिनों अख़बार, टी.वी. सोशल मीडिया, पर छायी हुई है। सीरिया का अयलान कुर्दी नाम का यह बच्चा अपने माँ और भाई के साथ एक नाव में सवार हो कर अवैध रूप से योरोप जा रहा था। नाव समुद्र में पलट गयी और लोग डूब कर मर गए। उसके 5 वर्षीय बड़े भाई की भी उसी नौका के पलटने से मृत्यु हो गयी है जिसमें वो बैठकर सीरिया से भाग निकलने की कोशिश कर रहे थे।
यह निश्चित नहीं है कि ये परिवार सीरिया में चल रहे युद्ध कारण ही भाग रहा था। कुछ समाचारपत्रों के अनुसार इस परिवार का मुखिया अब्दुल्लाह कुर्दी अपने परिवार सहित तुर्की में ही कई वर्ष से रह रहा था और तुर्की से अवैध रूप से योरोप जा बसने के प्रयास में ये दुर्घटना हुई। इसका शव तुर्की के मुख्य टूरिस्ट रिज़ॉर्ट के समुद्र तट पर पड़ा पाया गया, लेकिन इस तस्वीर ने योरोप में बढ़ रहे आव्रजन के संकट पर लोगों का ध्यान खींचा है। सीरिया की सेना और वहाँ मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथी ग्रुप के बीच में वर्षों से गृहयुद्ध चल रहा है। जिसमें लगभग 3 लाख से ऊपर के लोग मारे जा चुके हैं और लाखों विस्थापित हो चुके हैं। सीरिया के आधे से अधिक भाग पर इस्लामिक स्टेट और उसके सहयोगियों का क़ब्ज़ा है और भीषण कत्ले-आम जारी है।
सीरियाई विस्थापित शरण के लिए यूरोप का मुंह ताक रहे हैं। इसी तरह यमन, नाइजीरिया इत्यादि अनेकों देशों से लोग अपने देशों में चल रहे युद्ध से तंग हैं और जान कर भागना चाहते हैं। ब्रिटेन के अनेकों राजनेता, प्रेस इन अवैध अप्रवासियों को शरण देने के पक्ष में हैं। इंडिपेंडेंट अख़बार का कहना है ''अगर ऐसी सशक्त तस्वीरों के बाद भी ब्रिटेन का शरणार्थी के प्रति रवैया नहीं बदलेगा तो फिर किस चीज़ से हालत बदलेंगे ?'' विभिन्न आप्रवासी मूल के मुस्लिम सांसदों के बयान देखिये "ये तस्वीर हम सभी को शर्मिंदा करती है। सीरिया में हम विफल हुए हैं"। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन पर इसके कारण अप्रवासियों को देश में खपाने का दबाव पड़ रहा है। प्रारम्भ में उन्होंने कहा है कि इस समस्या का समाधान अधिक शरणार्थियों को ब्रिटेन में शरण देना नहीं है मगर बाद में उन्होंने हज़ारों सीरियाई शरणार्थियों को श्रं देने की घोषणा की है। फ़्रांस और जर्मनी ने भी उनसे सहमति व्यक्त की है। योरोपीय आयोग के अध्यक्ष जीन क्लाड जंकर ने कहा है कि अगले सप्ताह कम से कम 1. 20 लाख और शरणार्थियों को नई जगह आबंटित की जायेगी।
यहाँ भारतीय मुसलमानों के लिये एक बहुत आवश्यक और पैना सवाल भी मेरे दिमाग़ में फन काढ़े खड़ा है। ये लोग संसार भर के मुसलमानों के वास्तविक गॉड फादर/दाता/त्राता सऊदी अरब से मदद क्यों नहीं मांग रहे ? क्यों सऊदी अरब और ऐसे ही देशों में शरणार्थियों के आने की दर 0% है। आख़िर मौला के मदीने जाने की तमन्ना रखने वाले ये लोग योरोप, अमेरिका क्यों जाना चाहते हैं ? खजूर की ठंडी छाँव, रेगिस्तान की भीनी-भीनी महकती हवा, आबे-ज़मज़म का ठंडा मीठा पानी, मुहम्मद जी के चमत्कारों की धरती क्यों प्रमुखता नहीं रही ? आख़िर मुसलमान मिस्र, लीबिया, मोरक़्क़ो, ईरान, ईराक़, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, सीरिया आदि देशों से क्यों निकल रहे हैं और वो किसी भी मुस्लिम देश में क्यों नहीं रहना चाहते ? वो ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, फ़्रांस, इटली, जर्मनी, स्वीडन, अमरीका, कैनेडा, भारत जैसे देशों में ही क्यों जाना चाहते हैं ?
भारत के नाम पर किसी को ऐतराज़ है तो निश्चित ही उसने भारत में करोड़ों बंगलादेशियों, लाखों अफ़ग़ानियों, पाकिस्तानियों की अवैध घुसपैठ और वैध आव्रजन को नहीं पढ़ा-सुना-देखा। वो हर उस देश की ओर ही क्यों उन्मुख हैं जो इस्लामी नहीं है ? अल्लाह की धरती पर आख़िर ऐसा क्या हो गया कि वो धधक रही है ? क्या इसके लिये उनका जीवन दर्शन, नेतृत्व, व्यवस्था ज़िम्मेदार नहीं है ? आख़िर इन देशों में किसी में भी प्रत्येक मनुष्य के बराबरी के अधिकार की व्यवस्था प्रजातंत्र क्यों नहीं है ? किसी तरह रो-पीट कर प्रजातंत्र आ भी जाता है तो टिक क्यों नहीं पाता ? वहां स्त्रियों को पुरुषों के बराबर क्यों नहीं समझा जाता ?
ऐसा नहीं है कि ये आव्रजन अभी शुरू हुआ है। पचासों वर्षों से ये सब चल रहा है। इटली, फ़्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, स्वीडन इत्यादि देशों में तो जगह-जगह भारत की ही तरह मुस्लिम बस्तियां उभर आयी हैं। इन देशों में शरण लेने वाले लोग ज़ाहिर है अपने देश से संतुष्ट नहीं थे इसी लिये तो शरण लेने आये। फिर इन्हें यहाँ मदरसे, हिजाब, बुरक़ा, हलाल गोश्त, मस्जिदें, जुम्मे की नमाज़ के लिये मस्जिद के बाहर ट्रैफ़िक का रोका जाना क्यों चाहिये ? ये अब अपने नये देशों से क्यों चाहते हैं कि उन्हें अपनी व्यवस्था बदल लेनी चाहिए। वो इन देशों से क्यों मांग करते हैं कि वो स्वयं को उन देशों जैसा बना लें जिन्हें ये छोड़ कर आये हैं ? मदरसे, हिजाब, बुरक़ा, हलाल गोश्त, मस्जिदें, जुम्मे की नमाज़ के लिये मस्जिद के बाहर ट्रैफ़िक का रोका जाना छोड़े गए देशों में बहुतायत में था ही। तो क्या ये ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, फ़्रांस, भारत, इटली, जर्मनी, स्वीडन, अमरीका, कैनेडा जैसे देशों को मिस्र, लीबिया, मोरक़्क़ो, ईरान, ईराक़, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, सीरिया जैसा बनाने के अभियान पर निकले हैं ?
आइये कुछ देर के लिये फ़्रेम के दूसरे हिस्से में जाते हैं। 24 जून 2015 का दैनिक जागरण का समाचार है " सीरिया के 2000 साल पुराने पामीरा शहर में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट { आइएस } ने ऐतिहासिक विरासतों को नष्ट करने का अभियान शुरू कर दिया है। आतंकियों ने पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज मुहम्मद बिन अली का मक़बरा उड़ा दिया है। इसके अलावा निजार अबू बहाउद्दीन का मक़बरा भी ज़मींदोज़ कर दिया गया है.……इसके बाद से शहर में मौजूद यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल में शामिल पुरातात्विक भग्नावशेष आतंकियों के रहमो-करम पर हैं। सीरिया के पुरावशेष निदेशक मामून अब्दुल करीम के अनुसार सीरिया में अपने नियंत्रण वाले इलाक़ों में आतंकी संगठन सौ से दो सौ साल पुराने कम से कम 50 मक़बरे अब तक नष्ट कर चुका है।
इसी साल नाइजीरिया के चिबुक क़स्बे में बोको हराम नाम के इस्लामी आतंकी संगठन ने दो सौ छियत्तर ईसाई बच्चियों का अपहरण कर लिया। उन्हें इस्लामी लड़ाकों में बाँट दिया। इस क्रिया को इस्लामी शब्दावलि में माले-ग़नीमत { जिहाद की लूट में प्राप्त सामग्री; जिसका उपयोग, उपभोग हलाल है } कहते हैं। ये केवल दो सौ छियत्तर ईसाई बच्चियों के अपहरण की बात नहीं है, सूत्रों के अनुसार बोको हराम ने ऐसे हज़ारों बच्चियों, लड़कियों का अपहरण कर उन्हें माले-ग़नीमत के हिस्से के रूप में अपने हत्यारे सदस्यों में उनकी यौन-पिपाशा शांत करने के लिये बांटा है।
इस घटना पर 26 अप्रैल के जनसत्ता में भारतीय टिप्पणीकार सय्यद मुबीन जोहरा का कॉमेंट है ''कुछ बच्चियां जो बोको हराम के पंजे से बच निकली थीं, उन्होंने जो कुछ बताया उससे एक बात साफ़ है कि बोको हराम का इस्लाम से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। वे जो कुछ इन बच्चियों के साथ कर रहे हैं इसकी इस्लाम ही क्या कोई धर्म आज्ञा नहीं देता। यह इस्लाम को बदनाम करने की साज़िश तो हो सकती है, इस्लाम बिलकुल नहीं। बोको हराम के क़ब्ज़े से बच निकली एक बच्ची ने बताया कि उनसे मज़दूरों की तरह काम लिया जाता था और एक दिन यह बता दिया गया कि तुम सबका विवाह हो गया। इसके बाद तो हर रात कोई साया उनके शरीर को नोचता था। यज़ीदियों के साथ यही हरकत इस्लामिक स्टेट के नाम पर हुई। यह इस्लाम तो नहीं है। इस प्रकार के ज़ुल्मो-सितम को बढ़ावा नहीं देता बल्कि इस्लाम तो कमज़ोरों के साथ खड़ा होता है। उनके आंसू पोंछता है। बीमारों का इलाज करता है। मजबूरों और लाचारों का सहारा बनता है.……" इसी तरह की झूटी और मनमानी बड़बड़ाहट लेख में भरी हुई है।
सय्यद मुबीन जोहरा बिना किसी तथ्य, तर्क के मनमाने ढंग से इस्लाम के उस पक्ष को छिपा, झुटला रही हैं जो क़ुरआन, हदीसों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है। आख़िर इन लोगों को इसी जीवन-दर्शन के पालन होने के कारण अपना देश छोड़ना पड़ रहा है। यही तो वो जिहादी संघर्ष है जिस पर प्रत्येक इस्लामी लड़ाका सहर्ष अमल करता रहा है। जो प्रत्येक इस्लामी सेनापति, बादशाह, सूफ़ी का घोषित जीवन लक्ष्य रहा है। जिस जीवन-शैली के कारण ऐसे हर जिहादी, ग़ाज़ी, शहीद के मन में जन्नत, उसमें हूरों, गिलमां, शराब की नदियों की कल्पना-दावा है। यहाँ मुझे पूज्य संत स्वामी विनय चैतन्य जी महाराज के आप्त वाक्य ध्यान आ रहे हैं। ऐसी ही परिस्थिति में उन्होंने एक बार कहा था " उन्हें क्षमा मत करो और जुतियाओ कि वो धूर्त और कुटिल हैं और अपनी धूर्तता को मासूम विद्वता के आवरण में छिपाते हैं "
बंधुओ ये कोई हाल की ही घटनाएँ नहीं हैं। ये तो ऐतिहासिक रूप से चलता आ रहा अत्याचार है। आप किसी भी इस्लामी रहे या वर्तमान इस्लामी देश के किन्हीं चार मुस्लिम इतिहासकारों की किताबें उठा लीजिये आप उनमें सैकड़ों वर्षों का हाहाकार, मज़हब के नाम पर सताए गए, मारे गए, धर्मपरिवर्तन के लिए विवश किये गए अनगिनत लोगों का आर्तनाद, आगजनी, वैमनस्य, आहें, कराहें, आंसुओं की भयानक महागाथा पायेंगे। इस्लाम विश्व में किस तरह फैला इस विषय पर किन्हीं 4-5 इस्लामी इतिहासकारों की ही किताब देख लीजिये। काफ़िरों के कटे सरों को इकठ्ठा करके बनायी गयी मीनारें, खौलते हुए तेल में तले गए लोग, आरे से चिरवाये गए काफ़िर, जीवित ही खाल उतार कर नमक-नौसादर लगा कर तड़पा-तड़पा कर मारे गए काफ़िर, ग़ैर-मुस्लिमों के बच्चों-औरतों को ग़ुलाम बना कर बाज़ारों में बेचा जाना, काफ़िरों को मारने के बाद उनकी औरतों के साथ हत्यारों की ज़बरदस्ती शादियां, उनके मंदिर, सिनेगॉग, चर्च को ध्वस्त किया जाना, ऐसे भयानक वर्णन सैकड़ों वर्षों से हर इस्लामी इतिहासकार की किताब में उपलब्ध हैं।
मगर ऐसा नहीं है कि सभ्य संसार ने इन हत्यारों को सदैव बर्दाश्त ही किया है और उसकी हिंसा को शांत रूप से सहा है। सैकड़ों वर्ष तक भारत में गज़वा-ए-हिन्द { हदीसों में उल्लेखित भारत पर किया जाने वाला इस्लामी आक्रमण } पर काम हुआ मगर लगातार चले हत्यारे प्रयासों के उपरांत भी देश के विभाजन के समय हमारा एक तिहाई वर्ग शिकंजे में नहीं फंसा था। इतिहास की पुस्तकों में उल्लेख न किये जाने के बावजूद सत्य तो यही है कि प्रतिरोध तो प्रबल हुआ ही था अन्यथा ईरान, ईराक़, मिस्र आदि देशों की तरह हम पूरी तरह मुसलमान क्यों नहीं हो पाये ?
जिहाद की इसी श्रंखला में बग़दाद में इस्लामी ख़िलाफ़त सम्हाले आख़िरी अब्बासी खलीफा अल मुस्तसिम बिल्लाह ने भी मूल इस्लामी विचार पर कार्यवाही की, अर्थात बुतपरस्ती कुफ़्र है और कुफ्र को मिटाना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है पर बड़े पैमाने पर अमल किया। इसको अमल में लाने के लिये काफ़िर वाजिबुल क़त्ल { अपने से भिन्न विश्वासी हत्या के पात्र हैं } क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फीसबीलिल्लाह { अल्लाह की राह में क़त्ल करो, अल्लाह के लिए जिहाद करो } के क़ुरआनी आदेशानुसार काफ़िरों की हत्याएं कीं। मंदिर, बौद्ध मठ तोड़े। पूज्य हिंदू सेनापति चंगेज खान, हलाकू खान, कुबलई खान ने पलट कर प्रचंड मार लगायी। पूज्य हलाकू खान तो सीधे बग़दाद पर ही चढ़ दौड़े। काफ़िर वाजिबुल क़त्ल, क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फीसबीलिल्लाह दर्शन के केंद्र ढा दिये गये। दबाव के कारण बदलाव किस तेज़ी से आता है इसे इस बात से जाना जा सकता है कि ईरान में इस आक्रमण के बाद ही अरबी की जगह फ़ारसी लिपि-भाषा वापस लिखी-बोली जाने लगी। जम कर लगी मार से त्रस्त मुसलमान भाग कर शांत क्षेत्र यानी अफ़ग़ानिस्तान होते हुए भारत की केंद्रीय भूमि की ओर भाग आये।
भारत के राजाओं, आचार्यों, जनसामान्य के लिये ये एक सामान्य घटना ही थी। उन्होंने शरण मांगने वाले की क्षमता के अनुसार सभी को शरण दी। बिना छान-फटक के अजनबियों को घर में जगह दे दी गयी। ये बात हद दर्जे की अविश्वसनीय मगर सत्य है कि मुहम्मद गौरी के हमलों के समय कन्नौज के अधिपति जयचंद का प्रधान सेनापति मुसलमान था। भारत के राजाओं की सेना में ख़ासे मुसलमान सैनिक सम्मिलित थे। भारत में मस्जिदें बन चुकी थीं और उनमें बग़दाद में ही पढ़ाया-सिखाया जाने वाला क़ुरआन का ये दर्शन बताया, समझाया, सिखाया जाने लगा था।
ओ मुसलमानों तुम ग़ैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { 9-123 }
मूर्ति पूजक लोग नापाक होते हैं { 9-28 }
और तुम उनको जहां पाओ क़त्ल करो { 2-191 }
काफ़िरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
अल्लाह ने काफ़िरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आख़िरत पर; जो उसे हराम नहीं समझते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे ज़लील हो कर जज़िया न देने लगें { 9-29 }
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है { 5-72 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और ग़लत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110 }
इस भयानक भूल का परिणाम कुछ सदी बाद अफ़ग़ानिस्तान के पूरी तरह धर्मान्तरित होने और अगले चरण के रूप में भारत के अंग-भंग में हुआ। करोड़ों लोग विस्थापित हुए। लाखों लोग मारे गए। लाखों स्त्रियां छीन ली गयीं। लाखों के साथ बलात्कार किये गए। वेदों की धरती पंजाब विभाजित कर दी गयी। हिंगुलाज भवानी का मन्दिर, कटासराज के मंदिर, ननकाना साहब का गुरुद्वारा, विश्व में आवासीय शिक्षा का सबसे पहला केंद्र तक्षशिला, भक्त प्रह्लाद का स्थान मुल्तान, भगवान राम के बेटे लव का बसाया शहर लाहौर, उन्हीं के भाई कुश का बसाया शहर कसूर, ढाकेश्वरी माता की धरती हमसे छीन ली गयी। सिंधु पराई हो गयी। करोड़ों लोगों की जीवन-यापन की व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। ऐश्वर्यशाली परिवार मिटटी में मिल गये। आज की पीढ़ी को तो इसका अनुमान ही नहीं है कि 1947 में विभाजन के बाद आये लोगों ने कितनी कठिन परिस्थिति में जीवन दुबारा से शुरू किया था। इन सबके लिये पूज्य हलाकू खान की मार से बचे अब्बासियों के अवशेषों को शरण देना और उनका जीवन-दर्शन ही ज़िम्मेदार था। अब फिर से इन भगोड़ों को सभ्य संसार को क्यों शरण देनी चाहिये ? बल्कि इन्हें तो वहीँ रहने पर विवश कर अपने देश की स्थिति, व्यवस्था बदलने के लिए उकसाया जाना चाहिये। आख़िर इनकी आतंरिक वैचारिक बीमारी को अपने राष्ट्र में क्यों फैलने देना चाहिये ? सभ्य संसार बहुत परिश्रम से बनाये गए शांत, आनंददायक संसार को नरक क्यों बना ले ? साहिब जी, क्यों योरोप, अमरीका को मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, मेरठ, सरधना, बनाना चाहते हैं ?
अब वापस उसी फ़्रेम में लौटते हुए एक सवाल देशवासी मुसलमानों से करना चाहता हूँ। आप ग़ाज़ा को ले कर इज़राइल से क्रुद्ध रहते ही हैं। आप कुछ साल पहले बहुत प्रतिष्ठित लेखक सलमान रुशदी साहब की किताब "सैटनिक वर्सेस" को ले कर आंदोलित थे। आप अभी बर्मा में 'मुसलमानों पर हो रहे तथाकथित अत्याचार' को ले कर मुखर थे। आप शार्ली अब्दो के कार्टून पर वाचाल थे ? आपमें से बहुत से एक देशद्रोही याक़ूब मेनन के जनाज़े में बड़ी तादाद में सम्मिलित हुए ? तो आप सीरिया, यमन, ईराक़ पर क्यों मौन हैं ? क्या इस लिए कि वहाँ मुसलमान दूसरे मुसलमान को मार रहे हैं ? मुसलमान आपस में लड़-मर लें तो कोई अंतर नहीं पड़ता मगर कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति एक कार्टून भी बना दे तो वो इस्लाम पर हमला हो जाता है ? इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता है ? आप इन समस्याओं की पहचान और उनसे निबटने के लिये क्यों कुछ नहीं करते ? क्या ये सिर्फ़ मेरी ही समस्या है ? क्या आपके बच्चे इस जीवन को नहीं सहेंगे ? क्या आपने मान लिया है कि आपकी पीढ़ियां इस युद्ध भरे, रक्तपात से बजबजाते वातावरण को झेलने के लिए अभिशप्त हैं ? आप अपनी आवाज़ मुखर क्यों नहीं करते ? आख़िर आप अपनी आने वाली पीढ़ियों लिये कैसी दुनिया छोड़ कर जाना चाहते हैं ? आपकी आवाज़ ही इस स्थिति में बदलाव ला सकती है और आपका मौन विश्व के अंत की भूमिका लिख सकता है।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

साहित्य अकादमी के पुरस्कृत साहित्यकारों में से कुछ के अकादमी पुरस्कार लौटाने की फांय-फांय

साहित्य अकादमी केंद्र सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय के अधीन लगभग अर्ध स्वायत्त संस्था है। आज कल साहित्य अकादमी के द्वारा पुरस्कृत साहित्यकारों में से कुछ के अकादमी पुरस्कार लौटाने की चर्चा हो रही है। ये पुरस्कार इन स्वयंभू प्रगतिशील लोगों के अनुसार एम एम कलबुर्गी की हत्या, बिसाहड़ा गांव में अख़लाक़ के पीट-पीट कर प्राण लिये जाने, जिसका कारण वो देश में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के संकुचित होते दायरे और वैचारिक मतभेद के प्रति बढ़ती असहिषुणता को मानते हैं, के विरोध में लौटाये गए हैं। इनकी शुरूआत जवाहर लाल नेहरू की भांजी और अंग्रेज़ी की लेखिका नयन तारा सहगल से हुई। अगला वार अशोक वाजपेयी ने किया। इस पथ पर उदय प्रकाश, गणेश देवी, गुलाम नबी ख़याल, रहमान अब्बास, कृष्णा सोबती, सारा जोज़फ़, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, गुरुबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख जैसे कई लोग चल निकले हैं। कश्मीर के 25 साहित्यिक संगठनों की संस्था अदबी मरकज़ के अध्यक्ष शुजाअत बुख़ारी भी इसमें कूद पड़े और उन्होंने भी कालबेलिया नृत्य किया । अतः अब आवश्यक है कि साहित्य अकादमी के कार्यों, इन प्रगतिशीलों लेखकों, कश्मीरी लेखकों की प्रगतिशीलता, इनके लिखे हुए साहित्य की पठनीयता और देश में बढ़ रही तथाकथित असहिषुणता की निष्पक्ष छानफटक की जाये। 


साहित्य अकादमी केंद्र सरकार की साहित्य के उत्थान के लिये बनी संस्था है। ये वार्षिक पुरस्कार देती है और अपने पुरस्कृत व्यक्ति की कृति का देश की चौबीस भाषा में अनुवाद कर, देश भर में फैले अपने केन्द्रों से बिक्री कराती है। पुरस्कार के लिये इन कृतियों को अकादमी के विद्वान चुनते हैं। अकादमी के विद्वानों को साहित्य अकादमी के सदस्य चुनते हैं। अकादमी के सदस्य चुने जाने का नियम है कि प्रदेशों से नाम भेजे जाते हैं और अकादमी के वर्तमान सदस्य { कृपया ध्यान रखियेगा } उनको अनुमोदित करते हैं तो ही वह सदस्य बन पाते हैं। अर्थात अकादमी में बैठे सदस्य ही नए सदस्य बना सकते हैं।

 
जवाहर लाल नेहरू तथा उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के काल में इस तरह की सारी संस्थाओं में तथाकथित प्रगतिशील यानी कम्युनिस्ट भर दिए गये थे। अतः इन सदस्यों के चले आ रहे कॉकस को तोड़ना असंभव ही था चूँकि ये वामपंथियों को ही लाते थे। ये एक जेब से पैसा निकाल कर दूसरी जेब में रख लेने जैसा काम था और दशकों चलता रहा। काल ने अंततः सहायता की और आयु अधिक हो जाने के कारण इसके सदस्य रिटायर होने शुरू हुए। तब तक नेहरूवादी प्रगतिशीलता का मुलम्मा भी उतरने लगा था। इंदिरा गांधी भी कम्युनिस्टों के वानरी-उत्पातों से तंग आ गयी थीं इसलिये धीरे-धीरे कम्युनिस्टों का वर्चस्व कम होने लगा। रही-सही क़सर साम्यवाद के गढ़ रूस के ध्वस्त हो जाने से पूरी हो गयी मगर पुराने क़ब्ज़े अब भी कुछ हद तक थे ही। सरकार में बैठे आत्मीय लोगों की कृपा से फ़ैलोशिप, अपनी या अपनी बेटी-बेटों की संस्थाओं की आर्थिक सहायता, सेमिनारों के नाम पर अपने लोगों को महिमामंडन और उनकी पांच-तारा व्यवस्था का भुगतान सरकार के मत्थे मारना चलता रहा। 

त्यागपत्र देने वाले ये लेखक तथाकथित प्रगतिशील यानी कम्युनिस्ट हैं। कम्युनिस्ट वो लोग हैं जिन्होंने भारत के विभाजन के लिए पाकिस्तान के पक्ष में अधिकारिक थीसिस लिखी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भारत को आक्रमणकारी और चीन को सही ठहराया। भारत की व्यवस्था ठप्प हो जाये इसके लिये मज़दूर यूनियनों के माध्यम से हड़ताल करवाने की कोशिश की। अंतर्मन से घोर देशद्रोही, कभी रूस के लेनिन-स्टालिन तो कभी चीन के माओ की ढपली बजने वाले लोग अपने को प्रगतिशील कैसे कह सकते हैं ? लेनिन, स्टालिन, माओ जैसे अपने ही देश के करोड़ों लोगों को मार डालने वाले हत्यारों का महिमामण्डन एक हत्यारी सोच का विषैला मानस ही कर सकता है। ये कुछ-कुछ किसी दुश्चरित्र महिला का अपने को समाज की विशिष्ट सेवा करने वाला समाजसेवी बताने जैसा है। 

आइये कुछ पैने प्रश्न पूछे जाएँ। अंग्रेज़ी की बिलकुल अज्ञात लेखिका नयनतारा सहगल को अंग्रेज़ी नॉवल के लिये साहित्य अकादमी का पुरस्कार 1986 में मिला। एम एम कलबुर्गी की हत्या पर पुरस्कार वापस करने की घोषणा करने वाली अंग्रेज़ी लेखिका इसी हत्या पर क्यों बोलीं ?  इन्हें अपकी ममेरी बहन के लगाये आपात्काल का विरोध करना क्यों नहीं सूझा ? 1975 से 1977 तक आपात्काल में दमन की जो भयानक चक्की भारत भर में चली तब ये मौन क्यों थीं ? क्यों इन्हें 1984 में भारत के विभिन्न नगरों में हुए सिख विरोधी दंगों ने आहत नहीं किया ? जिसके बारे में इनके भांजे राजीव गांधी ने कहा था "जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है"।  इन्हें स्वर्ण मंदिर के बाहर डी आई जी अटवाल सहित हज़ारों निर्दोषों के मार दिए जाने के बारे में कुछ कहना क्यों नहीं सूझा ? इन्हें 1992 में कश्मीर घाटी से मार कर भगा दिए गए हिन्दुओं का करुण क्रंदन क्यों सुनाई नहीं दिया ? क्यों इन्हें मुंबई की लोकल में ट्रेनों में हुए धमाके सुनाई नहीं दिये ? कश्मीर के साहित्यिक संगठनों की संस्था अदबी मरकज़ के अध्यक्ष शुजाअत की शुजाअत तब कहाँ थी जब नंदी-मर्ग में, चट्टीसिंहपुरा में निहत्थे हिंदू मार दिए गए। इन्हें 26-11 का मुंबई पर हमला नहीं दिखाई दिया ? इनमें से कोई भी ऐसी हज़ारों आतंकी घटनाओं पर क्यों नहीं बोला ? क्या सबके मुंह में दही जम रहा था ? मुंह खोलते ही जिसके बिगड़ जाने का ख़तरा था ? उदय प्रकाश, गणेश देवी, गुलाम नबी ख़याल, रहमान अब्बास, कृष्णा सोबती, सारा जोज़फ़, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, गुरुबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख जैसे लोगों की वाणी की तब स्वतंत्रता कहाँ चली गयी थी ?

अशोक वाजपेयी की कथा तो और अधिक अद्भुत है। ये मध्य प्रदेश काडर के आई ए एस अधिकारी थे। मध्य प्रदेश में कार्यरत रहते हुए इन्होंने सरकारी संसाधनों से स्वयं को साहित्यकार के रूप में स्थापित किया। भारत भवन को लगभग अशोक वाजपेयी भवन में बदला। इनके मध्य प्रदेश कार्यकाल का साहित्यिक दृष्टि से जो सबसे बड़ा पाप है वो स्वर्गीय शरद जोशी जी को भोपाल छोड़ने पर विवश करना है। क्षुद्र शत्रुतावश इन्होंने इस पातक के लिये सरकारी पद का दुरुपयोग किया। उस महान व्यंग्यकार की रचनायें कहीं न छप सकें, उन्हें कहीं से पारिश्रमिक न मिल सके, उन्हें किसी आयोजन में बुलाया न जा सके, की व्यवस्था की। लेखनी से जीविका कमाने वाले शरद जोशी जी के भूखा मरने की नौबत आ गयी थी। अशोक वाजपेयी के शत्रुता निभाने के कारण अंततः शरद जोशी जी को भोपाल छोड़ कर मुंबई जाना पड़ा। एक निहत्थे निर्धन लेखक पर अपने गिद्ध जैसे पैने पंजे गड़ाने वाले ये सूरमा भोपाल गैस कांड पर बिलकुल मौन साधे रहे। जब राजीव गांधी के संकेत पर मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह बीस हज़ार निरपराध लोगों की मृत्यु के दोषी एंडरसन को  देश से भगाने का षड्यंत्र रच रहे थे, तब ये अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक उनका महामस्तकाभिषेक कर रहे थे। जानकारी के लिए दर्ज करता चलूँ कि अशोक वाजपेयी सांस्कृतिक मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे हैं और साहित्य अकादमी सांस्कृतिक मंत्रालय के ही अधीन है। आपको जान कर अपार आनंद मिलेगा कि महामहिम को अपनी किताब पर अकादमी पुरस्कार सांस्कृतिक मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए ही मिला है। इस पद पर रहते हुए इन्होंने अपनी क़तई अपठनीय बल्कि अझेल नई कविता की किताब पर पुरस्कार का जुगाड़ लगाया। इनकी ख़ुराफ़ातों के कारण ही सांस्कृतिक मंत्रालय के तत्कालीन सचिव सीताकांत महापात्र ने इनकी चरित्र पंजिका में विपरीत टिप्पणी की। जिसके कारण ये संयुक्त सचिव नहीं बन पाये और इन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। ये बरसों जनसत्ता में साप्ताहिक कॉलम लिखते रहे हैं। इनके कॉलम का गद्य भी इनकी नई कविता की तरह उबाऊ, नीरस और अझेल होता था। किसी माई के लाल में साहस नहीं हुआ कि इनका कोई लेख पूरा पढ़ ले। इन्हें भी भारत में घटित किसी भी भयानक घटना की जानकारी कभी नहीं मिली। इन्हें इस्लामी आतंकवादियों के सैकड़ों हमले कभी नहीं दिखाई दिए। इन्हें आतंकवादियों के हाथों मारे गये नागरिकों, सैन्य बल के जवानों की विधवाओं का करूण क्रंदन नहीं सुनाई दिया। इन्हें केवल तथाकथित तार्किक कालबुर्गी की अतार्किक हत्या दिखाई दी। 

सारा जोज़फ़ अपनी हैं और आप पार्टी के टिकिट पर इन्होने 2014 के लोकसभा का त्रिशूर से चुनाव लड़ा था। वाणी स्वतंत्रता की इस मुँहबोली नेत्री की आवाज़ समाज ने इतनी उपयुक्त पाई कि इन्हें कुल पड़े वोटों का 4.48 % ही उपलब्ध हुआ। ये किसी को मुंह दिखने के लायक भी नहीं रहीं और ज़मानत ज़ब्त करवाने वालों में भी 6 नंबर पर आयीं। 

इन लेखकों के रोष के दूसरे कारण अख़लाक़ के गौहत्या  कारण हुई पीट-पीट कर मार डाले जाने तथा गौहत्या की गंभीरता पर भी चर्चा करनी आवश्यक है। गौ-हत्या हमारे लिये इतनी बड़ी घटना है कि भारत भर में हमारे पूर्वज इसको रोकने के लिये सैकड़ों वर्षों से अपनी जान पर और हत्यारों की जान से खेलते आये हैं। बहुसंख्य बादशाहों, सुल्तानों ने हिन्दुओं को अपमानित, प्रताड़ित करने के लिये गौ-हत्या करने के आदेश दिये थे। इतिहास में सैकड़ों जगह दर्ज है कि हिन्दूओं को मुसलमान बनाने के लिये मुस्लिम आतताइयों ने हमारे मुंह में गौ मांस ठूसा था। कूका पंथ के हज़ारों लोग गौरक्षा के लिये तोप के गोलों से भून दिये गये हैं। कुछ मुस्लिम बादशाहों ने हिन्दुओं को अपने पक्ष में करने के लिये गौ-हत्या रोकने के आदेश दिए थे।1857 का दावानल गाय की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से खोलने के आदेश के कारण ही भड़का था। जिसकी भयानक ज्वाला में हज़ारों अँगरेज़, लाखों भारतीय, अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र का नाम मात्र का शासन, ईस्ट इण्डिया कंपनी के निज़ाम सहित भस्म हो गया। वेद का आदेश है कि गौ-हत्या करने वाले पातकी के प्राण ले लो। हिन्दू समाज के लिये ये बहुत बड़ी बात है। हम में से बहुत से लोगों के लिये तो ये जीवन-मरण का प्रश्न है।

आपको इख़लाक़ द्वारा गौहत्या नहीं दिखाई दी। ये आपके लिये खानपान का ही मामला है तो बहुत से हिन्दुओं के लिये ये मार-मिटाने का मामला है। आपको ये तक न सूझा कि अखलाक़ के वध की किसी भी रिपोर्टिंग में अख़लाक़ की गांव के लोगों से जानी-दुश्मनी का ज़िक्र नहीं है। गांव में सांप्रदायिक तनाव की भी कहीं चर्चा नहीं है। अख़लाक़ सामाजिक दृष्टि से भी इतना बड़ा, महत्वपूर्ण नहीं था कि साम्प्रदायिकता से भरे हुए हिन्दुओं की भीड़ मुसलमानों को सबक़ सीखने के लिये अकारण उसका वध कर दे। अख़लाक़ के वध को झक मार कर अकारण हत्या ही माना जाना सकता था मगर ''क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का सिद्धांत'' तो न्यूटन 1687 में ही प्रतिपादित कर गए थे। बरसों से शांत चले आ रहे गांव में सहसा प्राण लेने जैसी घटना अकारण नहीं हो सकती।

आप ये तक नहीं देख पाये कि ऐसी सोच के समाज में रहने वाला अख़लाक़ इतने भयानक परिणाम देने वाले पाप के लिये उत्सुक कैसे हो गया ? ये बहुत गंभीर बात है और इसकी छानफटक होनी चाहिए ? किसने धर्मान्तरित भारतीयों को अपने ही मूल से नफ़रत करना, अपने सदियों के संस्कारों को नकारना, अपने स्रोत-अपने उत्स पर थूकना सिखाया है ? आखिर अख़लाक़ सहित सभी भारतीय मुसलमान कुछ पीढ़ी पहले हिंदू ही थे। इसके पूर्वज भी उसी तरह गौ-रक्षक थे जैसे गौ-हत्यारों का वध करने वाले असंख्य वीर हैं। इन धर्मान्तरित लोगों में अपने मूल संस्कारों से इतनी घृणा कैसे आ गयी कि वो गौ-रक्षक से गौ-हत्यारे बन गये ? मुस्लिम नेतृत्व के चर्चित नाम दारुल उलूम नदवा के अली मियां और ऐसे अनेकों मुस्लिम नेता गाय की क़ुरबानी इस लिये उपयुक्त और आवश्यक बताते हैं कि ये उनके हिसाब से कुफ़्र मिटने के लिये अनिवार्य है। आप कभी भी इन दुष्टों की निंदा का प्रस्ताव तक नहीं तैयार कर पाये। अपने कभी एक बयान तक अभारतीयता उपजाने के विरोध में नहीं दिया। 

निश्चित रूप से भारत में न्याय-प्रणाली है और किसी को क़ानून अपने हाथ में लेने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए मगर इसे क्या कहिये कि देश के अस्सी प्रतिशत लोगों के बीच में रहने वाले लोगों के नेतृत्व और उनके निर्देश पर चलने वालों को बहुसंख्यक समाज की मनोदशा की चिंता नहीं है। तो ऐसी प्रतिक्रिया को कैसे रोका जा सकता है ? ध्यान रहे कि गौहत्या करने वाले पातकी के प्राण लेने वाले को तो समाज पूजता है। टोहना-हरियाणा के पूज्य हरफूल जाट के बारे में आज भी लोकगीत गाये जाते हैं। इन्हें अंग्रेज़ों ने कसाईखाने नष्ट करने के आरोप में फांसी दी थी। वो गौहत्या रोकने के लिये बलिदान हो गए मगर इतिहास में अमर हो गए।

वैचारिक परिवर्तन एक पल में नहीं होते। शताब्दियों से धर्मान्तरित मुसलमानों को कट्टर बनाने के लिये तब्लीग़ी जमातें इस घृणा को फ़ैलाने में लगी हैं। मदरसे, भारतीय का मुस्लिम नेतृत्व भारत के मुसलमानों को अपनी हर परम्परा से नफ़रत करना सिखाता है। इन्हीं करतूतों के फलस्वरूप इख़लाक़ गाय की क़ुरबानी कर बैठा। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में गौ-हत्या पर प्रतिबन्ध है। क़ानून तोड़ने वाले को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने 45 लाख रुपये का पुरस्कार दे दिया है। मायावती भी अख़लाक़ के परिवार का 11 लाख का तिलक करवा चुकी हैं। त्यागपत्र देने वाले महान लेखकों आप अगर अपने लिखे के अलावा भी कुछ पढ़ते होंगे तो  ये सब बातें आपने समाचारपत्रों में पढ़ी ही होंगी ? साहब जी, आप इतने मौन क्यों रह गए जैसे गोद में सांप रक्खा है और हिलना मना है। आप क्यों भारत तोड़ने पर उतारू समाज, संस्थाओं, लोगों के एजेंट बन गए हैं ? आख़िर आपको क्या हो गया है जो अपने ही थप्पड़ मार कर गाल लाल कर रहे हैं ? आपका पुरस्कार राशि लेने, राष्ट्रीय समाचारपत्रों में चर्चित होने, अपनी पुस्तकों का 24 भाषाओं करा कर अपने आप को स्थापित कराने के बाद पुरस्कार लौटने की घोषणा करना कैसे समझा जाये ? ये किसी धूर्त के दावत पेट भर कर खाने के बाद अगली सुबह ये घोषणा करने के बराबर है कि मैं तुम्हारी दावत नहीं रखूँगा और शौचालय में खाया-पिया निकाले दे रहा हूँ 

तुफ़ैल चतुर्वेदी