तुर्की के समुद्र तट पर मिले तीन साल के बच्चे की तस्वीर इन दिनों अख़बार, टी.वी. सोशल मीडिया, पर छायी हुई है। सीरिया का अयलान कुर्दी नाम का यह बच्चा अपने माँ और भाई के साथ एक नाव में सवार हो कर अवैध रूप से योरोप जा रहा था। नाव समुद्र में पलट गयी और लोग डूब कर मर गए। उसके 5 वर्षीय बड़े भाई की भी उसी नौका के पलटने से मृत्यु हो गयी है जिसमें वो बैठकर सीरिया से भाग निकलने की कोशिश कर रहे थे।
यह निश्चित नहीं है कि ये परिवार सीरिया में चल रहे युद्ध कारण ही भाग रहा था। कुछ समाचारपत्रों के अनुसार इस परिवार का मुखिया अब्दुल्लाह कुर्दी अपने परिवार सहित तुर्की में ही कई वर्ष से रह रहा था और तुर्की से अवैध रूप से योरोप जा बसने के प्रयास में ये दुर्घटना हुई। इसका शव तुर्की के मुख्य टूरिस्ट रिज़ॉर्ट के समुद्र तट पर पड़ा पाया गया, लेकिन इस तस्वीर ने योरोप में बढ़ रहे आव्रजन के संकट पर लोगों का ध्यान खींचा है। सीरिया की सेना और वहाँ मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथी ग्रुप के बीच में वर्षों से गृहयुद्ध चल रहा है। जिसमें लगभग 3 लाख से ऊपर के लोग मारे जा चुके हैं और लाखों विस्थापित हो चुके हैं। सीरिया के आधे से अधिक भाग पर इस्लामिक स्टेट और उसके सहयोगियों का क़ब्ज़ा है और भीषण कत्ले-आम जारी है।
सीरियाई विस्थापित शरण के लिए यूरोप का मुंह ताक रहे हैं। इसी तरह यमन, नाइजीरिया इत्यादि अनेकों देशों से लोग अपने देशों में चल रहे युद्ध से तंग हैं और जान कर भागना चाहते हैं। ब्रिटेन के अनेकों राजनेता, प्रेस इन अवैध अप्रवासियों को शरण देने के पक्ष में हैं। इंडिपेंडेंट अख़बार का कहना है ''अगर ऐसी सशक्त तस्वीरों के बाद भी ब्रिटेन का शरणार्थी के प्रति रवैया नहीं बदलेगा तो फिर किस चीज़ से हालत बदलेंगे ?'' विभिन्न आप्रवासी मूल के मुस्लिम सांसदों के बयान देखिये "ये तस्वीर हम सभी को शर्मिंदा करती है। सीरिया में हम विफल हुए हैं"। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन पर इसके कारण अप्रवासियों को देश में खपाने का दबाव पड़ रहा है। प्रारम्भ में उन्होंने कहा है कि इस समस्या का समाधान अधिक शरणार्थियों को ब्रिटेन में शरण देना नहीं है मगर बाद में उन्होंने हज़ारों सीरियाई शरणार्थियों को श्रं देने की घोषणा की है। फ़्रांस और जर्मनी ने भी उनसे सहमति व्यक्त की है। योरोपीय आयोग के अध्यक्ष जीन क्लाड जंकर ने कहा है कि अगले सप्ताह कम से कम 1. 20 लाख और शरणार्थियों को नई जगह आबंटित की जायेगी।
यहाँ भारतीय मुसलमानों के लिये एक बहुत आवश्यक और पैना सवाल भी मेरे दिमाग़ में फन काढ़े खड़ा है। ये लोग संसार भर के मुसलमानों के वास्तविक गॉड फादर/दाता/त्राता सऊदी अरब से मदद क्यों नहीं मांग रहे ? क्यों सऊदी अरब और ऐसे ही देशों में शरणार्थियों के आने की दर 0% है। आख़िर मौला के मदीने जाने की तमन्ना रखने वाले ये लोग योरोप, अमेरिका क्यों जाना चाहते हैं ? खजूर की ठंडी छाँव, रेगिस्तान की भीनी-भीनी महकती हवा, आबे-ज़मज़म का ठंडा मीठा पानी, मुहम्मद जी के चमत्कारों की धरती क्यों प्रमुखता नहीं रही ? आख़िर मुसलमान मिस्र, लीबिया, मोरक़्क़ो, ईरान, ईराक़, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, सीरिया आदि देशों से क्यों निकल रहे हैं और वो किसी भी मुस्लिम देश में क्यों नहीं रहना चाहते ? वो ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, फ़्रांस, इटली, जर्मनी, स्वीडन, अमरीका, कैनेडा, भारत जैसे देशों में ही क्यों जाना चाहते हैं ?
भारत के नाम पर किसी को ऐतराज़ है तो निश्चित ही उसने भारत में करोड़ों बंगलादेशियों, लाखों अफ़ग़ानियों, पाकिस्तानियों की अवैध घुसपैठ और वैध आव्रजन को नहीं पढ़ा-सुना-देखा। वो हर उस देश की ओर ही क्यों उन्मुख हैं जो इस्लामी नहीं है ? अल्लाह की धरती पर आख़िर ऐसा क्या हो गया कि वो धधक रही है ? क्या इसके लिये उनका जीवन दर्शन, नेतृत्व, व्यवस्था ज़िम्मेदार नहीं है ? आख़िर इन देशों में किसी में भी प्रत्येक मनुष्य के बराबरी के अधिकार की व्यवस्था प्रजातंत्र क्यों नहीं है ? किसी तरह रो-पीट कर प्रजातंत्र आ भी जाता है तो टिक क्यों नहीं पाता ? वहां स्त्रियों को पुरुषों के बराबर क्यों नहीं समझा जाता ?
ऐसा नहीं है कि ये आव्रजन अभी शुरू हुआ है। पचासों वर्षों से ये सब चल रहा है। इटली, फ़्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, स्वीडन इत्यादि देशों में तो जगह-जगह भारत की ही तरह मुस्लिम बस्तियां उभर आयी हैं। इन देशों में शरण लेने वाले लोग ज़ाहिर है अपने देश से संतुष्ट नहीं थे इसी लिये तो शरण लेने आये। फिर इन्हें यहाँ मदरसे, हिजाब, बुरक़ा, हलाल गोश्त, मस्जिदें, जुम्मे की नमाज़ के लिये मस्जिद के बाहर ट्रैफ़िक का रोका जाना क्यों चाहिये ? ये अब अपने नये देशों से क्यों चाहते हैं कि उन्हें अपनी व्यवस्था बदल लेनी चाहिए। वो इन देशों से क्यों मांग करते हैं कि वो स्वयं को उन देशों जैसा बना लें जिन्हें ये छोड़ कर आये हैं ? मदरसे, हिजाब, बुरक़ा, हलाल गोश्त, मस्जिदें, जुम्मे की नमाज़ के लिये मस्जिद के बाहर ट्रैफ़िक का रोका जाना छोड़े गए देशों में बहुतायत में था ही। तो क्या ये ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, फ़्रांस, भारत, इटली, जर्मनी, स्वीडन, अमरीका, कैनेडा जैसे देशों को मिस्र, लीबिया, मोरक़्क़ो, ईरान, ईराक़, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, सीरिया जैसा बनाने के अभियान पर निकले हैं ?
आइये कुछ देर के लिये फ़्रेम के दूसरे हिस्से में जाते हैं। 24 जून 2015 का दैनिक जागरण का समाचार है " सीरिया के 2000 साल पुराने पामीरा शहर में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट { आइएस } ने ऐतिहासिक विरासतों को नष्ट करने का अभियान शुरू कर दिया है। आतंकियों ने पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज मुहम्मद बिन अली का मक़बरा उड़ा दिया है। इसके अलावा निजार अबू बहाउद्दीन का मक़बरा भी ज़मींदोज़ कर दिया गया है.……इसके बाद से शहर में मौजूद यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल में शामिल पुरातात्विक भग्नावशेष आतंकियों के रहमो-करम पर हैं। सीरिया के पुरावशेष निदेशक मामून अब्दुल करीम के अनुसार सीरिया में अपने नियंत्रण वाले इलाक़ों में आतंकी संगठन सौ से दो सौ साल पुराने कम से कम 50 मक़बरे अब तक नष्ट कर चुका है।
इसी साल नाइजीरिया के चिबुक क़स्बे में बोको हराम नाम के इस्लामी आतंकी संगठन ने दो सौ छियत्तर ईसाई बच्चियों का अपहरण कर लिया। उन्हें इस्लामी लड़ाकों में बाँट दिया। इस क्रिया को इस्लामी शब्दावलि में माले-ग़नीमत { जिहाद की लूट में प्राप्त सामग्री; जिसका उपयोग, उपभोग हलाल है } कहते हैं। ये केवल दो सौ छियत्तर ईसाई बच्चियों के अपहरण की बात नहीं है, सूत्रों के अनुसार बोको हराम ने ऐसे हज़ारों बच्चियों, लड़कियों का अपहरण कर उन्हें माले-ग़नीमत के हिस्से के रूप में अपने हत्यारे सदस्यों में उनकी यौन-पिपाशा शांत करने के लिये बांटा है।
इस घटना पर 26 अप्रैल के जनसत्ता में भारतीय टिप्पणीकार सय्यद मुबीन जोहरा का कॉमेंट है ''कुछ बच्चियां जो बोको हराम के पंजे से बच निकली थीं, उन्होंने जो कुछ बताया उससे एक बात साफ़ है कि बोको हराम का इस्लाम से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। वे जो कुछ इन बच्चियों के साथ कर रहे हैं इसकी इस्लाम ही क्या कोई धर्म आज्ञा नहीं देता। यह इस्लाम को बदनाम करने की साज़िश तो हो सकती है, इस्लाम बिलकुल नहीं। बोको हराम के क़ब्ज़े से बच निकली एक बच्ची ने बताया कि उनसे मज़दूरों की तरह काम लिया जाता था और एक दिन यह बता दिया गया कि तुम सबका विवाह हो गया। इसके बाद तो हर रात कोई साया उनके शरीर को नोचता था। यज़ीदियों के साथ यही हरकत इस्लामिक स्टेट के नाम पर हुई। यह इस्लाम तो नहीं है। इस प्रकार के ज़ुल्मो-सितम को बढ़ावा नहीं देता बल्कि इस्लाम तो कमज़ोरों के साथ खड़ा होता है। उनके आंसू पोंछता है। बीमारों का इलाज करता है। मजबूरों और लाचारों का सहारा बनता है.……" इसी तरह की झूटी और मनमानी बड़बड़ाहट लेख में भरी हुई है।
सय्यद मुबीन जोहरा बिना किसी तथ्य, तर्क के मनमाने ढंग से इस्लाम के उस पक्ष को छिपा, झुटला रही हैं जो क़ुरआन, हदीसों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है। आख़िर इन लोगों को इसी जीवन-दर्शन के पालन होने के कारण अपना देश छोड़ना पड़ रहा है। यही तो वो जिहादी संघर्ष है जिस पर प्रत्येक इस्लामी लड़ाका सहर्ष अमल करता रहा है। जो प्रत्येक इस्लामी सेनापति, बादशाह, सूफ़ी का घोषित जीवन लक्ष्य रहा है। जिस जीवन-शैली के कारण ऐसे हर जिहादी, ग़ाज़ी, शहीद के मन में जन्नत, उसमें हूरों, गिलमां, शराब की नदियों की कल्पना-दावा है। यहाँ मुझे पूज्य संत स्वामी विनय चैतन्य जी महाराज के आप्त वाक्य ध्यान आ रहे हैं। ऐसी ही परिस्थिति में उन्होंने एक बार कहा था " उन्हें क्षमा मत करो और जुतियाओ कि वो धूर्त और कुटिल हैं और अपनी धूर्तता को मासूम विद्वता के आवरण में छिपाते हैं "
बंधुओ ये कोई हाल की ही घटनाएँ नहीं हैं। ये तो ऐतिहासिक रूप से चलता आ रहा अत्याचार है। आप किसी भी इस्लामी रहे या वर्तमान इस्लामी देश के किन्हीं चार मुस्लिम इतिहासकारों की किताबें उठा लीजिये आप उनमें सैकड़ों वर्षों का हाहाकार, मज़हब के नाम पर सताए गए, मारे गए, धर्मपरिवर्तन के लिए विवश किये गए अनगिनत लोगों का आर्तनाद, आगजनी, वैमनस्य, आहें, कराहें, आंसुओं की भयानक महागाथा पायेंगे। इस्लाम विश्व में किस तरह फैला इस विषय पर किन्हीं 4-5 इस्लामी इतिहासकारों की ही किताब देख लीजिये। काफ़िरों के कटे सरों को इकठ्ठा करके बनायी गयी मीनारें, खौलते हुए तेल में तले गए लोग, आरे से चिरवाये गए काफ़िर, जीवित ही खाल उतार कर नमक-नौसादर लगा कर तड़पा-तड़पा कर मारे गए काफ़िर, ग़ैर-मुस्लिमों के बच्चों-औरतों को ग़ुलाम बना कर बाज़ारों में बेचा जाना, काफ़िरों को मारने के बाद उनकी औरतों के साथ हत्यारों की ज़बरदस्ती शादियां, उनके मंदिर, सिनेगॉग, चर्च को ध्वस्त किया जाना, ऐसे भयानक वर्णन सैकड़ों वर्षों से हर इस्लामी इतिहासकार की किताब में उपलब्ध हैं।
मगर ऐसा नहीं है कि सभ्य संसार ने इन हत्यारों को सदैव बर्दाश्त ही किया है और उसकी हिंसा को शांत रूप से सहा है। सैकड़ों वर्ष तक भारत में गज़वा-ए-हिन्द { हदीसों में उल्लेखित भारत पर किया जाने वाला इस्लामी आक्रमण } पर काम हुआ मगर लगातार चले हत्यारे प्रयासों के उपरांत भी देश के विभाजन के समय हमारा एक तिहाई वर्ग शिकंजे में नहीं फंसा था। इतिहास की पुस्तकों में उल्लेख न किये जाने के बावजूद सत्य तो यही है कि प्रतिरोध तो प्रबल हुआ ही था अन्यथा ईरान, ईराक़, मिस्र आदि देशों की तरह हम पूरी तरह मुसलमान क्यों नहीं हो पाये ?
जिहाद की इसी श्रंखला में बग़दाद में इस्लामी ख़िलाफ़त सम्हाले आख़िरी अब्बासी खलीफा अल मुस्तसिम बिल्लाह ने भी मूल इस्लामी विचार पर कार्यवाही की, अर्थात बुतपरस्ती कुफ़्र है और कुफ्र को मिटाना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है पर बड़े पैमाने पर अमल किया। इसको अमल में लाने के लिये काफ़िर वाजिबुल क़त्ल { अपने से भिन्न विश्वासी हत्या के पात्र हैं } क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फीसबीलिल्लाह { अल्लाह की राह में क़त्ल करो, अल्लाह के लिए जिहाद करो } के क़ुरआनी आदेशानुसार काफ़िरों की हत्याएं कीं। मंदिर, बौद्ध मठ तोड़े। पूज्य हिंदू सेनापति चंगेज खान, हलाकू खान, कुबलई खान ने पलट कर प्रचंड मार लगायी। पूज्य हलाकू खान तो सीधे बग़दाद पर ही चढ़ दौड़े। काफ़िर वाजिबुल क़त्ल, क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फीसबीलिल्लाह दर्शन के केंद्र ढा दिये गये। दबाव के कारण बदलाव किस तेज़ी से आता है इसे इस बात से जाना जा सकता है कि ईरान में इस आक्रमण के बाद ही अरबी की जगह फ़ारसी लिपि-भाषा वापस लिखी-बोली जाने लगी। जम कर लगी मार से त्रस्त मुसलमान भाग कर शांत क्षेत्र यानी अफ़ग़ानिस्तान होते हुए भारत की केंद्रीय भूमि की ओर भाग आये।
भारत के राजाओं, आचार्यों, जनसामान्य के लिये ये एक सामान्य घटना ही थी। उन्होंने शरण मांगने वाले की क्षमता के अनुसार सभी को शरण दी। बिना छान-फटक के अजनबियों को घर में जगह दे दी गयी। ये बात हद दर्जे की अविश्वसनीय मगर सत्य है कि मुहम्मद गौरी के हमलों के समय कन्नौज के अधिपति जयचंद का प्रधान सेनापति मुसलमान था। भारत के राजाओं की सेना में ख़ासे मुसलमान सैनिक सम्मिलित थे। भारत में मस्जिदें बन चुकी थीं और उनमें बग़दाद में ही पढ़ाया-सिखाया जाने वाला क़ुरआन का ये दर्शन बताया, समझाया, सिखाया जाने लगा था।
ओ मुसलमानों तुम ग़ैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { 9-123 }
मूर्ति पूजक लोग नापाक होते हैं { 9-28 }
और तुम उनको जहां पाओ क़त्ल करो { 2-191 }
काफ़िरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
अल्लाह ने काफ़िरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आख़िरत पर; जो उसे हराम नहीं समझते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे ज़लील हो कर जज़िया न देने लगें { 9-29 }
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है { 5-72 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और ग़लत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110 }
इस भयानक भूल का परिणाम कुछ सदी बाद अफ़ग़ानिस्तान के पूरी तरह धर्मान्तरित होने और अगले चरण के रूप में भारत के अंग-भंग में हुआ। करोड़ों लोग विस्थापित हुए। लाखों लोग मारे गए। लाखों स्त्रियां छीन ली गयीं। लाखों के साथ बलात्कार किये गए। वेदों की धरती पंजाब विभाजित कर दी गयी। हिंगुलाज भवानी का मन्दिर, कटासराज के मंदिर, ननकाना साहब का गुरुद्वारा, विश्व में आवासीय शिक्षा का सबसे पहला केंद्र तक्षशिला, भक्त प्रह्लाद का स्थान मुल्तान, भगवान राम के बेटे लव का बसाया शहर लाहौर, उन्हीं के भाई कुश का बसाया शहर कसूर, ढाकेश्वरी माता की धरती हमसे छीन ली गयी। सिंधु पराई हो गयी। करोड़ों लोगों की जीवन-यापन की व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। ऐश्वर्यशाली परिवार मिटटी में मिल गये। आज की पीढ़ी को तो इसका अनुमान ही नहीं है कि 1947 में विभाजन के बाद आये लोगों ने कितनी कठिन परिस्थिति में जीवन दुबारा से शुरू किया था। इन सबके लिये पूज्य हलाकू खान की मार से बचे अब्बासियों के अवशेषों को शरण देना और उनका जीवन-दर्शन ही ज़िम्मेदार था। अब फिर से इन भगोड़ों को सभ्य संसार को क्यों शरण देनी चाहिये ? बल्कि इन्हें तो वहीँ रहने पर विवश कर अपने देश की स्थिति, व्यवस्था बदलने के लिए उकसाया जाना चाहिये। आख़िर इनकी आतंरिक वैचारिक बीमारी को अपने राष्ट्र में क्यों फैलने देना चाहिये ? सभ्य संसार बहुत परिश्रम से बनाये गए शांत, आनंददायक संसार को नरक क्यों बना ले ? साहिब जी, क्यों योरोप, अमरीका को मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, मेरठ, सरधना, बनाना चाहते हैं ?
अब वापस उसी फ़्रेम में लौटते हुए एक सवाल देशवासी मुसलमानों से करना चाहता हूँ। आप ग़ाज़ा को ले कर इज़राइल से क्रुद्ध रहते ही हैं। आप कुछ साल पहले बहुत प्रतिष्ठित लेखक सलमान रुशदी साहब की किताब "सैटनिक वर्सेस" को ले कर आंदोलित थे। आप अभी बर्मा में 'मुसलमानों पर हो रहे तथाकथित अत्याचार' को ले कर मुखर थे। आप शार्ली अब्दो के कार्टून पर वाचाल थे ? आपमें से बहुत से एक देशद्रोही याक़ूब मेनन के जनाज़े में बड़ी तादाद में सम्मिलित हुए ? तो आप सीरिया, यमन, ईराक़ पर क्यों मौन हैं ? क्या इस लिए कि वहाँ मुसलमान दूसरे मुसलमान को मार रहे हैं ? मुसलमान आपस में लड़-मर लें तो कोई अंतर नहीं पड़ता मगर कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति एक कार्टून भी बना दे तो वो इस्लाम पर हमला हो जाता है ? इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता है ? आप इन समस्याओं की पहचान और उनसे निबटने के लिये क्यों कुछ नहीं करते ? क्या ये सिर्फ़ मेरी ही समस्या है ? क्या आपके बच्चे इस जीवन को नहीं सहेंगे ? क्या आपने मान लिया है कि आपकी पीढ़ियां इस युद्ध भरे, रक्तपात से बजबजाते वातावरण को झेलने के लिए अभिशप्त हैं ? आप अपनी आवाज़ मुखर क्यों नहीं करते ? आख़िर आप अपनी आने वाली पीढ़ियों लिये कैसी दुनिया छोड़ कर जाना चाहते हैं ? आपकी आवाज़ ही इस स्थिति में बदलाव ला सकती है और आपका मौन विश्व के अंत की भूमिका लिख सकता है।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
एक अनुरोध है सर, एक ही दिन एकाधिक पोस्ट डालने के बजाय बेशक साप्ताहिक रूप से एक पोस्ट डालिये।
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