तुर्रा-ए-इम्तियाज़ अरबी भाषा का एक समास है। जिसका अर्थ है पगड़ी या मुकुट में लगने वाला विशेष पंख। इस समास का प्रयोग किसी संदर्भ में ख़ास बात की प्रभावकता बढ़ाने या विशेष ध्यान दिलाने के लिये किया जाता है। साहित्यिक संदर्भ में शायरी के अलावा मेरी पगड़ी में अगर कुछ तुर्रा-ए-इम्तियाज़ हैं तो वो कुछ अनुवाद हैं। पाकिस्तानी लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी साहब के व्यंग्य के अद्भुत उपन्यासों 'खोया पानी', 'धन यात्रा', 'मेरे मुंह में ख़ाक' के अतिरिक्त जसवंत सिंह जी की किताब 'जिन्ना भारत विभाजन के आईने में' का अंग्रेज़ी से हिंदी तथा उर्दू अनुवाद भी करने का अवसर मुझे मिला है। इस किताब का अनुवाद करते समय स्वाभाविक रूप से मुझे जसवंत सिंह जी की आत्मीयता का अवसर मिला।
उनके विदेश मंत्री रहते समय राष्ट्र का मुंह काला करने वाली एक बहुत बुरी घटना घटी थी। 24 दिसम्बर 1999 को इंडियन एयर लाइंस के IC 814 के अपहरण हुआ और दबाव में प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की सरकार ने मसऊद अज़हर, मुश्ताक़ अहमद ज़रगर, अहमद उमर तथा सईद शेख़ को रिहा किया था। उनको पहुँचाने तथा किसी आपात्कालिक स्थिति में निर्णय लेने के लिये वित्त मंत्री जसवंत सिंह जी क़न्धार गए थे। आत्मीयता के उन क्षणों में मैंने उनसे पूछा कि स्वयं को राष्ट्रीय, सबल-सक्षम, हिंदू विचार की सरकार का यश क्लेम करने वालों ने किस कारण से इन हत्यारों को रिहा किया ? क्यों वह विमान अमृतसर में ही रोका नहीं गया ?
उन्होंने जो कुछ मुझे बताया उसका यहाँ पर जानने वाला हिस्सा ये है कि सरकार पर प्रेस और अपहृत लोगों के परिवारी जनों का दबाव था। प्रेस के लोग कांग्रेसी नेताओं की सहायता से अपहृत लोगों के 70-80 परिवारी जनों को एकत्र करके प्रधानमंत्री आवास पर नारे लगते हुए ले आये। विवश हो कर सरकार ने ये अपमानजनक निर्णय लिया। इसी बातचीत के संदर्भ में ये प्रश्न भी उठा " क्या दिल्ली और कम पड़े तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भाजपा, जनता युवा मोर्चा, विद्यार्थी परिषद, किसान संघ, मज़दूर संघ, सैकड़ों सरस्वती शिशु मंदिरों के छात्र तथा शिक्षक, अधिवक्ता परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, जामवंत दल जैसे पचासों संगठन के प्रचारक-संगठन मंत्री, कार्यकर्त्ता, सदस्य और स्वयंसेवक प्रधान मंत्री पर दबाव बनाते प्रेस के लोगों को दबोचने और उनका दबाव ठंडा करने के लिये 200 लोग एकत्र नहीं कर सकते थे ? मैं उनसे ये सुन कर अवाक रह गया "सब के हाथ-पांव फूले हुए थे। किसी को सूझ ही नहीं रहा था कि क्या किया जाये"। कल्पना कीजिये कि उस समय अपहृत लोगों के परिवारी जनों तथा उन्हें उकसाने वाले कांग्रेसी नेताओं और प्रेस के लोगों को केवल 200 राष्ट्रवादियों की भीड़ घेर लेती तो इन हत्यारों को रिहा कर देश का मुंह काला करने वाली घटना घट पाती ?
मुझे बसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कांशी राम जी की एक मज़ेदार, आनंददायक और अनुकरणीय घटना याद आती है। दिल्ली के उनके घर में एक सुहानी दोपहर को एक पत्रकार मय कैमरामैन के घुस गया और उन पर इंटरव्यू के लिये दबाव डाला। कांशी राम जी ने मना किया और कहा '' मुझे सोने दो''। वो पत्रकारिता के स्वभाविक बन चुके घमंड में नहीं माना और बात "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी" तक खिंच गयी। कांशी राम जी ने चप्पल उठायी और पत्रकार को पीटते हुए खदेड़ना शुरू किया। साहिबो कर्तृत्व का धनी कैमरामैन अपने काम में लगा रहा। चप्पल की चटाख-पटाख और पत्रकार की माता, भगिनी के यशोगान का तब तक लाइव प्रसारण होता रहा जब तक चप्पल की दिशा कैमरामैन की ओर नहीं घूमी। राजनेताओं से पांच तारा होटलों में स्कॉच तथा मुर्ग़-मुसल्लम की अभ्यस्त, स्विस घड़ियों, मोब्लां पैनों को दर्प सहित स्वीकार करने वाली पत्रकारिता का जनाज़ा धूम से निकला। चप्पल की चटाख-पटाख में भागते गैल नहीं मिली। संकरे में भी समधियाना नहीं निभा।
काश ये दबाव 24 दिसम्बर 1999 को इंडियन एयर लाइंस के IC 814 के अपहरण के समय बनाया गया होता। मगर क्या जे एन यू में भी क्या यही गलती नहीं हो रही है ? निश्चित रूप से मैं या मेरे जैसे सोशल मिडिया के सब मिल कर भी जे एन यू पर पचास हज़ार लोग नहीं चढ़ा ला सकते मगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भाजपा, जनता युवा मोर्चा, विद्यार्थी परिषद, किसान संघ, मज़दूर संघ, सैकड़ों सरस्वती शिशु मंदिरों के छात्र तथा शिक्षक, अधिवक्ता परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, जामवंत दल जैसे पचासों संगठन के प्रचारक-संगठन मंत्री क्यों ऐसा आह्वान नहीं करते ? राष्ट्रवाद के स्वयंभू नेताओं आगे आइये। समाज का आह्वान कीजिये और ''तुम कितने अफ़ज़ल मारोगे-घर घर से अफ़ज़ल निकलेगा" कहने वालों के घर तक चलिये। इन दुष्टों को घसीट-घसीट कर जे एन यू से निकालिये। इस बार इस कांटे के पेड़ को जड़ से उखाड़िये। चाहे पुलिस रोके या कोई और आश्वस्त करता हूँ कि मैं और सोशल मिडिया के लोग सबसे आगे रहेंगे।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
deshbhakton ki toli banani zarruri hai... hum hain uska part!!
जवाब देंहटाएंकांग्रेस या सेकुलर सरकार होती तो आप अब तक तिहाड़ में होते ,देश की जनता को भडकाने के आरोप में आपको आतंकवादी घोषित कर दिया जाता :)
जवाब देंहटाएंसरे-तस्लीम ख़म है जो मिज़ाजे-यार में अाये
हटाएंतुफैल जी आपने सही लिखा परन्तु आपने स्वयं देखा कि जब पटियाला हाउस कोर्ट के वकीलों ने देशद्रोही को सबक सिखाना शुरू किया तो सुप्रीम कोर्ट उन वकीलों के खिलाफ हो गया उन वकीलों के बचाव में कोई क्यों नहीं आया. दिल्ली में एक लाख लोगों ने प्रदर्शन किया परन्तु हासिल क्या हुआ ? प्रश्न जहाँ तक विमान अपहरण का है तो अमृतसर से हवाई जहाज जाने क्यों दिया ? तब तो कोई दबाव नहीं था ? अगर विमान अमृतसर में ही रहता तो आतंकवादी नहीं छोड़ने पड़ते. खैर जब मौका मिले तो जसवंतसिंह सिंह जी से यह जरुर पूछ लेना कि अटल जी ने राहुल गाँधी को अमेरिका में क्यों छुडवाया था . वास्तव में अपनी नाकामी का आरोप जनता पर मढ़ना बहुत आसान है. जसवंत सिंह जी के और भी प्रकरण है उन में भी क्या संघ परिवार का दोष है
जवाब देंहटाएंवो बात जिसका फ़साने में कोई ज़िक्र न था
हटाएंवो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है
अाभार
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