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शनिवार, 14 अप्रैल 2018
आप सभी को अभी 2-3 वर्ष पूर्व का हरियाणा की बस के बहुत वायरल हुए एक वीडिओ स्मरण होगा। इसमें दो लड़कियाँ बैल्टों से दो लड़कों को मार रही थीं। मीडिया इस घटना को ले उड़ा। सारे देश में उन लड़कियों की धूम मच गयी। हरियाणा सरकार ने भी उन्हें वीरांगना घोषित कर दिया। प्रैस उनके पीछे-पीछे सरकार के सचिव, मंत्री-गण उनके घर गए। मुख्यमंत्री स्वयं अपने करकमलों से उन्हें पुरस्कार देने जाने वाले ही थे कि समाचार मिलने शुरू हुए "ये लड़कियाँ स्वभावतः उत्पती" हैं। गाँव ही क्या इलाक़े भर से झगड़ती फिरती हैं। इस घटना से पहले भी उन्होंने बसों में कई उत्पात किये हैं। बस के कंडेक्टर, ड्राइवर इनसे भयभीत रहते हैं। पैसे माँग ही नहीं सकते। उनके गाँव की कई महिलायें-पुरुष सामने आये। उनके बारे में बताया और उनकी वीरता का पटाक्षेप गुंडागर्दी में हुआ।
अब इस घटना के दूसरे पक्ष पर विचार करते हैं कि उन दो लड़कों का क्या हुआ जिन्हें दुष्ट, राक्षस मान कर सभी ने सूली पर टाँग दिया था ? अगर मेरी स्मरणशक्ति साथ दे रही है तो वो CRPF या BSF में भर्ती होने वाले थे। उन लड़कों का जीवन बर्बाद हो गया। सबने एक तरफ़ा हल्ला मचा कर उन्हें इस तरह खदेड़ दिया जैसे वो वनैले पशु हों। भारत के सैन्य बल दो सैनिकों का अभाव झेल सकते हैं मगर प्रजातान्त्रिक समाज, सभ्य समाज क्या मध्यकाल के जंगली क़ानूनों से चलेगा ? स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था भारत ने अंगीकार किस लिये की थी ? क्या मीडिया की कोतवाल, मुंसिफ़ और जल्लाद की भूमिका स्वीकार्य, सह्य है ? ध्यान रहे पाकिस्तान की स्टेट का भट्टा बैठने में वहां की बेलगाम न्यायव्यवस्था और उद्दंड मीडिया का सबसे बड़ा हाथ है। क्या हम उसी ओर नहीं बढ़ रहे ?
यहाँ एक सवाल हम सबके मन में कौंधेगा कि हम सब असमर्थ, निस्सहाय लोग इसे कैसे रोकें ? इस उद्दंडता में बदलाव कैसे लायें ? उत्तर केवल यह है कि हम असमर्थ, निस्सहाय लोग ही देश के राजनैतिक परिदृश्य में बदलाव लाये हैं। इस बदलाव के परिणामस्वरूप जो लोग अब व्यवस्था संभाल रहे हैं, उन्हें घेरिये। उनसे सार्वजनिक प्रश्न पूछिए कि आप में पौरुष कब प्रकट होगा ? आखिर बंद कमरे की बैठकें, उनमें दिए गए परम पराक्रमी बौद्धिकों की पूर्णाहुति इस तरह होनी चाहिए ? मीडिया का ज़रा सा भी दबाव आपसे झेला नहीं जाता ? तुरंत सार्वजनिक मंच पर सफ़ाई डरने पर उतर क्यों उतर आते हैं ?
आसिफ़ा की हत्या पर न्यायप्रणाली समय से तय करेगी कि कठुआ के दोषी कौन हैं मगर आपने तो अभी से अपने मंत्रियों के इस्तीफ़े ले लिये। आप मीडिया के सामने बयान देने क्यों उतर आये कि उन मंत्रियों से ग़लती हो गयी ? अभी से आपने अपने लोगों को किनारे करना शुरू कर दिया। जम्मू-कश्मीर की सरकार में आप बराबर के साझेदार हैं। महबूबा मुफ़्ती आपको मुफ़्त में दबोच रही है इसे आप देख नहीं पा रहे ? आप राज्य करना कब सीखेंगे ? राष्ट्र ने आपको पलकों पर इस लिये बैठाया था ? आपका लक्ष्य केवल संगठन चलाना, पार्टी चलाना है ? धर्म-राष्ट्र के उत्थान से आपका कोई लेना-देना नहीं है ? परम वैभव इसी बैक-फ़ुट पर आने से आएगा ?
आपको ये भी दिखाई नहीं देता कि यह बिहार चुनाव के समय उठाये गए दादरी के अख़लाक़ कांड जैसी तैयारी हो रही है ? आपका बैकफ़ुट पर आना आपको दोषी साबित कर रहा है। जिन्होंने भी बलात्कार किया, आसिफ़ा की हत्या की उनको व्यवस्था दंड देगी मगर तब तक धैर्य रखिये। आख़िर आप ने तो कुछ नहीं किया तो ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं कि देश में मैसेज जा रहा है कि आपने ही यह सब करवाया है। हुँकार भरिये और मज़बूत क़दम उठाइये। आपको इसी के लिये लाया गया था। देश में स्वतंत्र न्यायपालिका है। इस कांड की जाँच जम्मू-कश्मीर से बाहर के सक्षम पुलिस अधिकारियों के हाथ में दीजिये और दूध का दूध पानी का पानी होने दीजिये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
बुधवार, 4 अप्रैल 2018
मोसुल के पास एक टीले में दफ़्न 39 अभागे भारतीयों की लाशें मिल गयी हैं। उनके लम्बे बालों से पहचान हुई है कि मारे गए अधिकाँश लोग सिक्ख थे। अपनी धरती से दूर पैसा कमाने गये लोगों की मौत दुखद है। हम भारतीयों की आक्रोश से मुट्ठियाँ भिंच जानी चाहिए थीं मगर हुआ यह है कि टी वी की बहसों के लिये मसाला मिल गया है। यह बहसें हो रही हैं।
कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने पूछा है कि जून 2014 से जुलाई 2017 के बीच सात बार विदेशमंत्री ने कहा है कि अपहृत भारतीय जीवित हैं। सरकार को बताना चाहिए कि वह क्यों झूठा आश्वासन दे रही थी ?
आई एस आई एस की विचारधारा से प्रेरित कटटरपंथियों के लोनर वुल्फ़ अटैक { अकेले आतंकवादी का हमला } से निबटने का तरीक़ा अमरीका और योरोप समेत दुनिया के कई देशों को समझ नहीं आ रहा।
आई एस आई एस से बड़ा ख़तरा ईराक़ और सीरिया से भाग कर पूरी दुनिया में फैल गये उसके लडके और उनकी कट्टर विचारधारा है।
भारतीय सुरक्षा एजेंसियाँ हालाँकि देश में आई एस आई एस के अस्तित्व से इंकार करती हैं मगर कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों में आई एस आई एस का झंडा लहराना आम बात हो गयी है।
एक मात्र जीवित बचे हरजीत मसीह ने फिर से मीडिया के सामने आ कर बताया कि वो और मारे गए 39 भारतीयों के साथ 60 बांग्लादेशी भी एक ईराक़ी कम्पनी में काम करते थे। 2014 में जब ईराक़ पर आतंकियों ने क़ब्ज़ा किया तो एक रात क़रीब नौ बजे सभी लोगों को गाड़ियों में बिठा कर सुनसान जगह पर ले गए। यहाँ दो दिन रखने के बाद बांग्लादेश के नागरिकों को भारतीयों से अलग कर दिया गया और मेरे सहित सभी भारतीयों को गोली मार दी गयी। क़िस्मत से एक गोली मेरी टांग छू कर निकल गयी और मैं बच कर भाग निकला। आतंकियों ने मुझे फिर पकड़ लिया। मैंने खुद को बांग्लादेशी और नाम अली बताया। वहां से मुझे बांग्लादेशी कैम्प भेजा गया और फिर मैं भारत लौट आया।
यहाँ एक बात स्पष्ट दिखाई दे रही है कि हर बहस, लेख से मसीह का यह वक्तव्य नदारद है कि "बांग्लादेश के नागरिकों को भारतीयों से अलग कर दिया गया और मेरे सहित सभी भारतीयों को गोली मार दी गयी" आख़िर उन्होंने अजनबी भाषा बोलने वाले, अपरिचित 39 भारतीयों को क्यों मारा और बंग्लादेशियों को क्यों छोड़ दिया ?
यह कोई पहली घटना नहीं है। भारत की धरती पर तो शताब्दियों से ऐसे नृशंस नरसंहार चल रहे हैं। गुरु नानकदेव जी ने बाबर के पैशाचिक हत्याकांडों को जम कर कोसा है। नवीं पादशाही गुरु तेग बहादुर जी की साथियों सहित शहीदी, दसवीं पादशाही गुरु गोविंद सिंह जी के 2 बच्चों को मुसलमान न बनने पर दीवार में जीवित चुना जाना, वीर हक़ीक़त राय की बोटियाँ नोच-नोच कर बलिदान करना, वीर बंदा बैरागी के छोटे से बच्चे का कलेजा उनके मुँह ठूंसना फिर उनके टुकड़े-टुकड़े कर मारा जाना इतिहास के माथे पर अंकित है।
39 केशधारियों की दुखद हत्या विषयक लेख के इस मोड़ पर कुछ प्रश्न मन में कौंध रहे हैं। अभी कैनेडा के प्रधानमंत्री के भारत आगमन पर कैनेडा के ही ख़ालिस्तान समर्थक व्यवसायी को उनकी एम्बेसी के निमंत्रण की ख़ासी आलोचना हुई है। गुप्तचर एजेंसियों को इस की भी सूचना है कि कैनेडा, अमरीका, ब्रिटेन सहित अनेकों देशों में पाकिस्तान की फंडिंग से ख़ालिस्तान के आंदोलन को फिर से खड़ा करने की जीतोड़ कोशिश हो रही है और तथाकथित खाड़कुओं की पाकिस्तान में ट्रेनिंग चल रही है। ख़ालिस्तान के पक्ष में आंदोलन करने वाले अंड-बंड कमांडो फ़ोर्स के मरजीवड़ों से सवाल पूछना चाहूंगा कि क्या तुम्हारी आँखें यह नहीं देख पा रही हैं कि मारे गए ये 39 अभागे लोग सिक्ख थे ? क्या तुम समझ पा रहे हो कि इन लोगों की मौत उसी कारण हुई जिस कारण गुरु तेग बहादुर जी का दिल्ली में शीश उतारा गया था। तुम्हें अंदाज़ा है न कि जिस कारण साहबज़ादे दीवार में चुने गए थे उसी कारण ये 39 लोग भी मार दिए गए ?
तुम्हें कभी सूझा है कि वो दो छोटे बच्चे ज़िंदा दीवार में चुने जाने पर कैसे तड़प-तड़प कर मरे होंगे ? उनकी जान कैसे घुट-घुट कर निकली होगी ? जिस धर्म की रक्षा के लिये इतने बलिदान हुए उस की विरोधी विचारधारा के साथ खड़े होते हुए तुम्हारे पैर नहीं टूट गये ? जिस धर्म के लिये गुरुओं ने बलिदान दिए, उसके शत्रुओं से पैसे लेते हुए तुम्हारे हाथ नहीं गल गये ? तुम गुरु गोविंद सिंह जी की यह वाक भूल गए कि "तेल में हाथ डाल कर तिलों में हाथ डालने पर जितने तिल चिपकें, उतनी क़सम भी तुर्क खाये तो भरोसा मत करना" । अब धर्म पर ही नहीं अपितु विश्व भर पर संकट आया है और रक्षा के लिये उठ खड़े होने का समय है।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
रविवार, 1 अप्रैल 2018
"मुस्लिम पिटाई दिवस" का संदेश ब्रिटेन के बाद अब फ्रांस, जर्मनी और आस्ट्रेलिया के साथ पूरे यूरोप में फैला। 3 अप्रैल को ले कर पुलिस के साथ सेना भी हाई अलर्ट पर"
हिंदी की सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली लेखिका शिवानी जी की एक कहानी से बात शुरू करना चाहूँगा। वो अपनी एक कहानी में किसी हिल स्टेशन की बस यात्रा का ज़िक्र करती हैं। बस में एक कॉन्वेंट की नन अपनी कुछ छात्राओं के जा रही थीं। उसी बस में कुछ ब्रिटिश सैनिक भी यात्रा कर रहे थे। लड़कियों को देख कर उनमें से कुछ ब्रिटिश सैनिक फब्तियाँ कसने, सीटियाँ बजने लगे। नन ने नाराज़ हो कर केवल एक वाक्य कहा 'It is very unbritish of you' और सारे ब्रिटिश लड़के बिल्कुल चुप लगा कर बैठ गए। यह जानने और अनुकरण करने योग्य बात है कि ब्रिटेन के समाज में अपने राष्ट्र के सम्मान को ले कर बहुत गौरव और असम्मान को ले कर प्रतिकार का भाव है।
भारत में ब्रिटिश राज के समय अफ़ग़ानिस्तान के बॉर्डर पर सैनिक छावनी के बाहर से कुछ पठानों ने एक अंग्रेज़ महिला का अपहरण कर लिया। इस काण्ड की गूँज भारत के ब्रिटिश राज्य में ही नहीं अपितु ब्रिटिश पार्लियामेंट तक पहुँची। बहुत हंगामा हुआ। अंग्रेज़ी सरकार ने क़बाइली उड्डंदता से चल रहे समाज से दोषी माँगे। न देने पर सर्च अभियान चलाया। सैकड़ों को इस प्रक्रिया में मारा, अंततः दोषियों का वध किया और ब्रिटिश स्त्री को वापस लाये। वह स्त्री इस घटना के बाद इंग्लैण्ड वापस नहीं गयी और वहीँ रही। पठानों में पूरी ज़िम्मेदारी से मेसेज पहुँचाया कि यह ब्रिटिश सम्मान का विषय है और इसके दोषी पाताल से भी खींच कर निकाले जायेंगे। ब्रिटिश सम्मान को वापस बहाल किया गया और पठानों को सदैव के लिए सुधारा गया। उसके बाद कभी ऐसी कोई घटना दुबारा नहीं घटी।
इन दो घटनाओं का उल्लेख केवल इस कारण किया है कि हम यह पूरी तरह जान-समझ लें कि ब्रिटिश समाज न्यायप्रिय और अपने बनाये, स्वीकार किये संविधान के अनुसार चलना पसंद करता है। ब्रिटिश विश्व भर में अपनी कॉलोनी स्थापित करते रहे हैं और उन्होंने अपने अधिकृत हर देश में क़ानून का शासन लागू किया था। तो अब क्या हो गया कि ब्रिटेन में वहाँ का न्यायप्रिय समाज 'Punish a Muslim Day' मनाने जा रहा है।
आइये जानें कि 'Punish a Muslim Day' या 'मुसलमान पिटाई दिवस' है क्या ? किसी या किन्हीं अज्ञात संगठनों ने लगभग 20-25 दिन पहले से ब्रिटिश समाज में पैम्फ्लेट्स और पत्रों द्वारा 'मुसलमान पिटाई दिवस की सूचना फैलानी शुरू की। 3 अप्रैल को इसे मनाये जाने की घोषणा है। इन पत्रकों में इस दिवस को मनाने के लिए आयोजकों ने पौरुष के अनुसार पॉइंट्स की व्यवस्था की है। किसी मुस्लिम को गाली देने पर 10 पॉइंट, मुस्लिम महिला का बुरका खींचने पर 25 पॉइंट, चेहरे पर एसिड फेंकने पर 50 पॉइंट, बुरी तरह छिताई करने पर 100 पॉइंट, वध करने पर 500 पॉइंट्स दिए जायेंगे। पॉइंट्स का यह सिलसिला कृत्य की प्रखरता के क्रम में 2,500 पॉइंट्स तक जाता है। इस दिवस को मनाने के लिए पूरे लन्दन में पम्फलेट बांटे गए हैं और यह पम्फलेट डाक द्वारा लन्दन के मुस्लिम समुदाय को भी भेजे जा रहे हैं। इस आयोजन से लन्दन का मुस्लिम समुदाय भयभीत है और ब्रिटेन सरकार व पुलिस से अपनी जान बचाने की गुहार लगा रहा है।
ब्रिटेन से शुरू हुआ ये सन्देश अब वायरल हो कर पूरे यूरोप में फैल चुका है। ब्रिटेन, जर्मनी और फ्राँस जैसे एक दूसरे के परम विरोधी राष्ट्र के लोगों ने भी 3 अप्रैल के "मुस्लिम पिटाई दिवस" को मनाने के लिये हाथ मिला लिये हैं और यह सब महान इस तेजस्वी गीत 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला कम पड़ता है मिल कर लट्ठ बजाना, साथी हाथ बढ़ाना' को अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच में दुहराते हुए एक साथ आ गए हैं। ब्रिटेन की पुलिस को इस दिवस के आयोजकों का कोई ठोस सुराग हाथ नहीं लग पाया है।
ब्रिटेन में आज तीन मुस्लिम विरोधी चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं। जिनके नाम ब्रिटेन फ़र्स्ट, इंग्लिश डिफेन्स लीग, न्यू नाज़ी हैं। ब्रिटिश अधिकारियों के अनुसार संभावना है कि इस हिंसक आयोजन में इन संगठनों की भूमिका हो। उनके अनुसार यह संगठन इस्लामिक चरमपंथी मानसिकता को उसी के अंदाज़ में जवाब देने की बात करते हैं। इस 'Punish a Muslim Day' की विचित्रता यह भी है कि 3 अप्रैल आने से पहले ही योरोपियन लोगों ने मुस्लिमों को पीटना शुरू कर दिया है। उन पर आक्रमण होने लगे हैं। उनकी सम्पत्तियों को भी हानि पहुंचाई जाने लगी है। इस दिवस के आयोजन का असर लन्दन के अलावा शेष ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और जर्मनी में भी देखा जा रहा है जहां मुस्लिमों पर हमलों में अचानक प्रखरता आई है।
यह जानना उचित होगा कि न्यायप्रिय समाज ने यह रास्ता क्यों अख़्तियार किया ? हो सकता है कि इससे कोई बदलाव न आये मगर समाज में कौन सी अंतर्धारा बह रही है, इसका पता तो चलेगा ? इन तीन संभावित संगठनों के नाम ब्रिटेन फ़र्स्ट, इंग्लिश डिफेन्स लीग, न्यू नाज़ी ही इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। आख़िर ब्रिटेन जैसी महाशक्ति के लोगों को क्या आवश्यकता आ पड़ी कि उन्हें लंदन में ही ब्रिटेन फ़र्स्ट, इंग्लिश डिफेन्स लीग जैसे संगठन बनाने पड़े ? जर्मनी से सदियों से लड़ते आये, दो-दो विश्व युद्ध लड़े ब्रिटेन के लोगों ने जर्मनी के नेता हिटलर के नाम का अपने देश में न्यू नाज़ी संगठन क्यों बनाया ? निकट अतीत में स्वतंत्र मानवाधिकारों की स्थापना करने वाले, स्त्री-पुरुष के बराबरी के अधिकारों की सभ्य व्यवस्था प्रजातंत्र देने वाले यूरोपियों देश में मुस्लिम आव्रजन को ले कर बेचैनी है ? क्यों इन समाजों में मुस्लिम आव्रजन को मुस्लिम घुसपैठ कहा जा रहा है ? क्यों मुस्लिम प्रवृत्तियों को असहिष्णु प्रवृत्तियां और मुस्लिम माँगों को तलब करने को आतंकवाद कहा जा रहा है ? क्यों न्यायप्रिय योरोपीय समाज युद्धों में मारे गए अपने राष्ट्र के लोगों की मृत्यु के लिए समूचे इस्लामी समाज को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है ? क्यों मारे गए लोगों के लिए प्रत्येक मुसलमान को दोषी ठहरा कर उनके क़त्ल का बदला लो के नारे उछाले जा रहे हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि क़ुरआन की यह बातें इंटरनैट के ज़माने में सारे जतन के बाद बाहर आ गयी हों। शांतिप्रिय समाज शांतिदूतों की असलियत समझने लगा हो और अपने बचाव के लिये चौकन्ना हो कर बदले की कार्यवाही पर उतर आया हो ?
ओ मुसलमानों तुम ग़ैर मुसलमानों से लड़ो। तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { क़ुरआन 9-123 }
और तुम उनको जहां पाओ क़त्ल करो { क़ुरआन 2-191 }
काफ़िरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { क़ुरआन 8-39 }
ऐ नबी ! काफ़िरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है { क़ुरआन 9-73 और 66-9 }
अल्लाह ने काफ़िरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { क़ुरआन 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आख़िरत पर; जो उसे हराम नहीं समझते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे ज़लील हो कर जज़िया न देने लगें { क़ुरआन 9-29 }
मूर्ति पूजक लोग नापाक होते हैं { क़ुरआन 9-28 }
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है { क़ुरआन 5-72 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और ग़लत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { क़ुरआन 3-110 }
हिंदी के सर्वोत्तम व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी में उसके लेखक स्वर्गीय श्रीलाल शुक्ल ने संस्कृत का एक सुभाषित 'भयानाम भयं भीषणं भीषणानाम' प्रयोग है। राष्ट्रबन्धुओ ! मुझे लगता है कि आपने रागदरबारी पढ़ी हो या न पढ़ी हो मगर उन्होंने रागदरबारी पढ़ ली है या संस्कृत का यह सुभाषित आप तक पहुंचे या न पहुंचे मगर उन तक पहुंच गया है।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
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