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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

न्यूयार्क में मोदी जी के भाषण को सुनने के लिए इकट्ठी हुई भीड़ में राजदीप सरदेसाई के साथ हुई झूटी धक्का-मुक्की

.........................................................शठे शाठ्यम समाचरेत................

मीडिया में कुछ दिन से हा-हा-कार बल्कि हू-हू-कार मचा हुआ है. कुछ लोग ऐसे चीख-चिल्ला रहे हैं जैसे कि मधुमक्खी का छत्ता पीछे पड़ गया हो तो कुछ लोग इस कथकली नृत्य को देख कर आनंदित हो रहे हैं. घटना ये कही जा रही है कि न्यूयार्क में राजदीप सरदेसाई के साथ हुई धक्का-मुक्की हुई है और मीडिया के कई हिस्सों में इसे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर प्रहार, चौथे खम्बे को गिराने की कोशिश बताया जा रहा है. मैं फिर ये मुक़दमा पंचों के सामने यानी जनता की अदालत में ले जाना चाहता हूँ.

                        किसी भी चैनल के पास संभवतः इस घटना की आवाज सहित रिकॉर्डिंग नहीं है. अतः उस घटना को विभिन्न टी. वी. चैनलों, फेस-बुक इत्यादि पर अपनी-अपनी विवेचना के साथ दिखाया जा रहा है. बिना इस बात को देखे कि घटना के बारे में किसका क्या मत है, आइये तटस्थ भाव से घटना की विवेचना करें. रिकॉर्डिंग दिखा रही हैं कि न्यूयार्क में मोदी जी के भाषण को सुनने के लिए इकट्ठी हुई भीड़ में भारतीय प्रेस के लोग घूम रहे हैं. वीडिओ में राजदीप भीड़ में लोगों से कुछ बात करते हुए दिखाई दे रहे हैं. भीड़ में से किन्हीं सज्जन ने पलट कर कुछ कहा और राजदीप भड़क कर उन सज्जन पर टूट पड़े. उन्हें धक्का दिया. कुछ धक्का-मुक्की के दृश्य हैं. कृपया ध्यान से देखिये सारे दृश्य राजदीप के टूट पड़ने और हंगामा करने के हैं. ये क्लिपिंग यहीं ख़त्म हो जाती है.

              सामान्य तर्क-बुद्धि यही कहती है कि राजदीप ने नरेंद्र मोदी जी जब अमरीका जा कर विश्व के सामने भारत की ब्रांडिंग कर रहे थे, कुछ ऐसा कहा होगा जिस पर उन सज्जन ने प्रति-प्रश्न किये होंगे. जिस पर राजदीप भड़क गए होंगे. भारत में जनतंत्र का ये तथाकथित चौथा स्तम्भ स्वयं को किसी भी जवाबदेही से ऊपर समझता है. इसके लगुए-भगुए तक चक्रवर्ती सम्राटों से भी अधिक दर्प के अधिकारी, हर विषय के ब्रह्मत्व की हद तक जानकार, स्वयं को रावण जितने शक्तिशाली मानने वाले और रावण जितने ही अहंकारी होते हैं. बंधुओ ये अकारण भी नहीं है. अपने कैरियर की शुरुआत में मुंबई की चालों,  दिल्ली के जमुनापार की बस्तियों से बसों में लटक कर ऑफिस आने वाले लोग, 15-20 साल में 50-50 करोड़ के बंगलों में रहने के क्षमता वाले हो जायेंगे तो ये बिलकुल स्वाभाविक है कि अहंकार प्रचंड हो ही जायेगा. इनमें से कई महापुरुषों के कैरियर की शुरुआत ..." मैं गन्ने के खेत में शौच के लिए गयी थी और..." लिखने से हुई थी और अब ये भारत की जनता को स्पर्श करने वाले हर विषय को मनमानी दिशा देने का प्रयास करते हैं. इनके मन में देश को अपने हिसाब से चलाने के एजेंडे होते हैं. ये मानते ही नहीं बल्कि जानते भी हैं कि इनके पास देश, समाज, व्यक्ति सभी के हर दर्द की दवा है. 
                                                                                       न्यूयार्क में ही एक अन्य भारतीय पत्रकार ने अपने मोबाइल के स्क्रीन पर मोदी जी की फोटो निकाली और राह चलते गोरों से पूछना शुरू किया " क्या आप इन्हें जानते हैं " लोगों के उत्तर नहीं में आये. इसके बाद उन्होंने टिप्पणी ' नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा कुछ नहीं है केवल मीडिया को मैनेज किया गया है, उन्हें अमरीका के लोग जानते तक नहीं हैं ". इस तरह अगर आप भी बराक ओबामा या संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का फोटो ले कर दिल्ली में निकल जाएँ और लोग न पहचानें तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों से पूछा गया है उनका वास्ता इन प्रतिष्ठित लोगों से नहीं पड़ता. इससे न तो बराक ओबामा का महत्व काम होता है न नरेंद्र मोदी जी का. मगर भारतीय पत्रकारिता हद दरजा गैरजिम्मेदार है. इन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहा कि यहाँ नरेंद्र मोदी की बखिया उधेड़ने का मतलब भारत की बखिया उधेड़ना होगा.
                                                                                   आप सबको अमरीका में घटी 9-11 की घटना याद होगी. कृपया याद करें कि आप में से कितने लोगों ने भयभीत अमरीकी नागरिकों के रोने-चिल्लाने के दृश्य देखे हैं ? जिस दिन ये घटना हुई थी, भागते लोगों की केवल एक स्टिल फोटो टी वी पर आई थी और उसके बाद वो फोटो अमरीका के टी वी चैनलों पर दुबारा नहीं दिखाई दी. ऐसा नहीं हो सकता कि अमरीकी नागरिक इस वज्रपात पर व्याकुल नहीं हुए होंगे ? डरे नहीं होंगे ? रोये नहीं होंगे ? अमरीका में प्रेस पर पाबन्दी भी संभव नहीं है. ये मीडिया का स्वतंत्र निर्णय था कि अपनी कमजोरी दुनिया को नहीं दिखाएंगे. आतंकवादी हमले करते ही डराने के लिए हैं और हमारे घबराहट दिखाने से उनको लक्ष्य में सफलता मिलती दिखाई देगी. इसकी तुलना भारतीय विमान अपहरण के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पर दबाव बनाने के लिए मिडिया द्वारा अपहृत लोगों के परिवारी जनों की लगातार हाय-दुहाई को दिखाने से कीजिये. यही मीडिया के लोग अपहृत लोगों के परिवारी जनों को ले कर प्रधानमंत्री निवास पर पहुंचे. इन्हीं ने आतंकियों को छोड़ने का दबाव बनाया और फिर यही प्रधानमंत्री की आलोचना में लग गये. मुंबई में ताज होटल में छिपे आतंकियों को मारने के लिए हैलिकॉप्टरों से कमांडो उतारे जाने की बरखा दत्त द्वारा लाइव रेकॉर्डिंग दिखाना याद कीजिये. कमांडो उतारे जाने की सूचना आतंकियों को तुरंत पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं ने टी वी चैनल देख कर दी और जिसके कारण कमांडो मारे भी गये 

                  राजदीप भारतीय मीडिया में नरेंद्र मोदी जी के धुर विरोधी माने जाते हैं. नरेंद्र मोदी जी के पहले मुख्यमंत्रित्व के काल में 2002 में हुए दंगों को ले कर बहुत मुखर रहे हैं. गुजरात के तीनों चुनावों में न केवल राजदीप बल्कि मीडिया के लगभग सारे प्रमुख लोग मोदी जी के हारने की भविष्यवाणी भी करते रहे हैं. गुजराती समाज को मोदी जी के विरोध में वोट देने के लिए उकसाते रहे हैं. हर बार मुंह की खायी मगर इस हद तक निर्लज्ज हैं कि इनमें से किसी के फूटे मुंह से कभी भी ये नहीं निकला कि हमने गलत किया. मीडिया समाज की आँख और कान कहा जाता है मगर राजदीप या इनके जैसे लोग अपने काम को करने की जगह केवल मुंह बन गए हैं. मुंह भी ऐसा जिसमें कोढ़ हो गया हो / बवासीर हो गयी हो. 
ऐसा व्यवहार समाज में कोई एक व्यक्ति करेगा तो समाज उसे पागल समझ कर एक किनारे लगा देगा और आगे बढ़ जायेगा मगर ये तो संस्थान है और इसकी उद्धतता की कोई सीमा नहीं है. इसकी किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है. चक्रवर्ती सम्राट भी न्याय से बंधे हुए होते थे. राजगुरु का कथन उनके लिए आदेश था मगर ये लोग चक्रवर्ती सम्राट, राजगुरु सब कुछ एक साथ हैं. 

                                                                                  देश में किसी भी अन्याय की जाँच की प्रणाली है. उसी का अनुसरण गुजरात के दंगों के दंगों के लिए भी हुआ है. स्वतंत्र न्यायालय, जाँच आयोग ने बरसों जाँच की है और नरेंद्र मोदी जी को किसी भी दंगे के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया. जनता ने भी 3-3 बार उनके बेदाग होने की पुष्टि की है. अब तो सारे राष्ट्र ने नरेंद्र मोदी जी को मुकुट-मणि बना लिया मगर इस चौथे स्तम्भ के ये लोग स्वयं को हर न्यायालय से ऊपर समझते हैं. ये मोदी विरोध में घृणा की हद तक चले गए हैं. इनका बस चले तो ये मोदी को असफल करवाने के लिए देश पर चीन से हमला करवा दें. आतंकवादियों की क्लिपिंग बनाने के लिए स्वयं उनके लिए निशाने तय कर दें. आपको कुछ वर्ष पूर्व गुवाहाटी में एक लड़की के कपडे फाड़ कर उसको लगभग निर्वस्त्र कर देने की घटना की वीडिओ क्लिपिंग का ध्यान होगा. जिस लड़के ने ये क्लिपिंग बनाई थी वो स्वयं इस घटना के लिए जिम्मेदार था और लोगों को भी शामिल होने के लिए उकसा रहा था. 

                                                       मगर इस मानसिकता को बनाने के लिए बंधुओ केवल वो ही जिम्मेदार नहीं हैं. इसके जिम्मेदार हम लोग भी हैं. यहाँ एक सामान्य घटना की चर्चा उपयुक्त होगी. संभवतः 1998 या 99 की बात है. नोएडा में इतनी भीड़ नहीं हुई थी. मैं नॉएडा अथॉरिटी के एक वरिष्ठ अधिकारी के पास बैठा हुआ था. अचानक एक बिल्कुल फटीचर से लड़के ने अपने जूते की नोक मार कर दरवाजा खोला. मैं ये देख कर हतप्रभ रहा गया कि मेरे मित्र अधिकारी उस लड़के के इस व्यवहार पर आक्रोश प्रकट करने की जगह उसके साथ सोफे पर जा बैठे. कुछ देर बाद जब वो लड़का चला गया तो मैंने उनसे इस असभ्यता को पी जाने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि ये पत्रकार है. साहब मैं क्या कह सकता था. इस घटना के कुछ वर्ष बाद उसका दबदबा नोएडा अथॉरिटी में और बढ़ गया और उसने दैनिक अखबार निकालना शुरू कर दिया. 

हम लोग हर वर्ष मुशायरा करते हैं. एक साल वो लड़का भी जो अब दैनिक समाचार पत्र का मालिक और संपादक था, मुशायरे में आया. मैं व्यवस्था में लगा हुआ था, मुझे किसी साथी ने सूचना दी कि मुल्ला जी हूटिंग कर रहे हैं. मैं और मेरे दो-तीन मित्र एक सामान्य शालीन ढंग का प्रयोग करते हुए उनके पास जा कर बैठ गये. वो हमें  देख कर 2-3 मिनिट तो शांत रहे फिर हूटिंग करने लगे. उनसे निवेदन किया गया अगर आपको नहीं सुनना है तो न सुनें मगर हमें तो सुनने दें. इस पर वो बौखला कर बोले आप कहें तो मैं मुशायरे से उठ कर चला जाऊँ. मेरे एक साथी ने उन्हें रोका और कहा आप क्यों जाते हैं हम ही आपके जूते लगा कर बाहर फिकवाए देते हैं. मित्रो वो दिन है और आज का दिन है, वो मुल्ला जी जब भी कहीं दिख जाते हैं सदैव पहले नमस्ते करते हैं और खींसे निपोरते हैं.

समस्या ये है कि भारतीय राजनेता और अधिकारी गण अच्छे खासे गड़बड़ रहे हैं. उनकी विवशता है कि वो अपनी सार्वजनिक आलोचना से डरते हैं. हम लोग तो संस्था के लोग थे. एक उद्धत पत्रकार हमारा क्या बिगाड़ सकता था. अधिकतम लिख देगा कि हम संस्था का पैसा खा गये तो ये विषय हमारे घर का है. संस्था जाने हम जानें. सो ऐसी अदभुत पत्रकारिता का यही हल हो सकता है जो उन अमरीकी सज्जन ने किया बल्कि बहुत कम किया. न वहां के अधिकारी गण दयनीयता की हद तक पत्रकारों के दबैल हैं और न वहां के राजनेता इतने रीढ़विहीन हैं. ऐसा ही अभ्यास उन अमरीकी महानुभावों को था और उन्होंने उपयुक्त और स्तुत्य व्यवहार किया.

तुफ़ैल चतुर्वेदी                                             

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सटीक विश्लेषण । इन हरामियों को जूते लगाये जाने चाहिए । देशद्रोही कहीं के ।

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  2. बहुत सही विश्लेषण है। इन लोगों को सुधरने का जिम्मा आम आदमी का है। मगर क्या करे? सारे लोग इतने सेल्फिश और अकर्मण्य हो गए है की आजकल बस सब लोग बकवास ही करते है, लेकिन उसे आचरण में शायद ही कोई लता है। इन लोगों का जब रोजमर्रा के जिंदगी में लोग सामूहिक रूप से बायकॉट करेंगे तभी काम होगा, जो की फिलहाल असम्भव है।

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