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मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ.

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ. संभव है मैं जिन मुसलमान बंधुओं से बात करना चाहता हूँ उन तक मेरा ये पत्र सीधे न पहुंचे अतः आप सभी से निवेदन करता हूँ कि कृपया मेरे पत्र या इसके आशय को मुस्लिम मित्रों तक पहुंचाइये। संसार आज एक भयानक मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया है। भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश, इंडोनेशिया, कंपूचिया, थाई लैंड, मलेशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सीरिया, लीबिया, नाइजीरिया, अल्जीरिया, मिस्र, तुर्की, स्पेन, रूस, इटली, फ़्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, डेनमार्क, हॉलैंड, यहाँ तक कि इस्लामी देशों से भौगोलिक रूप से कटे संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी आतंकवादी घटनाएँ हो रही हैं. विश्व इन अकारण आक्रमणों से बेचैन है। कहीं स्कूली छात्र-छात्राओं पर हमले, तो कहीं बाजार में आत्मघाती हमलावरों के बमविस्फोट, तो कहीं घात लगा कर लोगों की हत्याएं...संसार भर में ये भेड़िया-धसान मचा हुआ है। सभ्य संसार हतप्रभ है। हतप्रभ शब्द जान-बूझ कर प्रयोग कर रहा हूँ चूँकि पीड़ित समाज को इन आक्रमणों का पहली दृष्टि में कोई कारण नहीं दिखाई दे रहा मगर एक बात तय है कि सभ्य समाज इन हमलों के कारण क्रोध से खौलता जा रहा है. उसकी भृकुटियां तनती जा रही हैं।

मेरे देखे वो इसका कारण इस्लाम को मानने पर विवश हो रहा है। इन लोगों में हिन्दू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, शिन्तो मतानुयाई, कन्फ्यूशियस मतानुयाई, अनीश्वरवादी सभी तरह के लोग हैं। संसार भर में मुसलमानों के विरोध में एक अंतर्धारा बहने लगी है , आप यू ट्यूब, फ़ेसबुक, इंटरनेट के किसी भी माध्यम पर देखिये, पत्र-पत्रिकाओं में लेख पढ़िए, अमुस्लिम समाज में इस्लाम को ले कर एक बेचैनी हर जगह अनुभव की जा रही है। हो सकता है आप इसे न देख पा रहे हों या इसकी अवहेलना कर रहे हों मगर ये आज नहीं तो कल आपकी आँखों में आँखें डाल कर कड़े शब्दों में बात या जो भी उसके जी में आयेगा करेगी। यहाँ ये बात भी ध्यान देने की है कि इन सभी माध्यमों पर इक्का-दुक्का मुस्लिम समाज के लोग इस बेचैनी को सम्बोधित करने का प्रयास कर रहे हैं मगर लोग उनके तर्कों, बातों से सहमत होते नहीं दिखाई दे रहे।

मैं भारत और प्रकारांतर में विश्व का एक सभ्य नागरिक होने के कारण चाहता हूँ कि संसार में उत्पात न हो, वैमनस्य-घृणा समाप्त हो. इसके लिए मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं. इस सार्वजनिक और खुले मंच का प्रयोग करते हुए मैं आपसे इन प्रश्नों का उत्तर और समाधान चाहता हूँ. विश्व शांति के लिए इस कोलाहल का शांत होना आवश्यक है और मुझे लगता है कि आप भी मेरी इस बात से सहमत होंगे।

जिन संगठनों ने विभिन्न देशों में आतंकवादी कार्यवाहियां की हैं उनमें से कुछ सबसे नृशंस हत्यारे समूहों के नाम प्रस्तुत हैं. मुस्लिम ब्रदरहुड, सलफ़ी, ज़िम्मा इस्लामिया, बोको हराम, जमात-उद-दावा, तालिबान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामी मूवमेंट, इख़वानुल मुस्लिमीन, लश्करे-तैय्यबा, जागृत मुस्लिम जनमत-बांग्ला देश, इस्लामी स्टेट, जमातुल-मुजाहिदीन, अल मुहाजिरो, दौला इस्लामिया...इत्यादि. इन हत्यारी जमातों में एक बात सामान्य है कि इनके नाम अरबी हैं या इनके नामों की शब्दावली की जड़ें इस्लामी हैं. ये संगठन ऐसे बहुत से देशों में काम करते हैं जहाँ अरबी नहीं बोली जाती तो फिर क्या कारण है कि इनके नाम अरबी के हैं ? ये प्रश्न बहुत गंभीर प्रश्न है कृपया इस पर विचार कीजिये. न केवल इस्लामी बंधु बल्कि सेक्युलर होने का दावा करने वाले सभी मनुष्यों को इस पर विचार करना चाहिए। इन सारे संगठनों के प्रमुख लोगों ने जो छद्म नाम रखे हैं वो सब इस्लामी इतिहास के हिंसक लड़ाके रहे हैं. उन सबके नाम हत्याकांडों के लिए कुख्यात रहे हैं. उन सब ने अपने विश्वास के अनुसार अमुस्लिम लोगों को मौत के घाट उतरा है, उनसे जज़िया वसूला है. कृपया मुझे बताएं कि ऐसा क्यों है ? क्या इस्लाम अन्य अमुस्लिम समाज के लिए शत्रुतापूर्ण है, यदि ऐसा नहीं है तो इन संगठनों के नामों का इस्लामी होना मात्र संयोग है ? कोई भी तर्कपूर्ण बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं कर पायेगी। कृपया इस पर प्रकाश डालें।

मैं एक ऐसे राष्ट्र का घटक हूँ स्वयं जिस पर ऐसे लाखों कुख्यात हत्यारों ने आक्रमण किये हैं। ये कोई एक दिन, एक माह, एक साल, एक दशक, एक सदी की बात नहीं है। मेरे घर में सात सौ बारह ईसवी में किये गए मुहम्मद बिन क़ासिम की मज़हबी गुंडागर्दी से ले कर आज तक लगातार उत्पात होते रहे हैं। मेरे समाज के करोड़ों लोगों का धर्मान्तरण होता रहा है। ये मेरे सामान्य जीवन-विश्वास के लिए कोई बड़ी घटना नहीं थी। मेरे ग्रंथों की अंतर्धारा "एकम सत्यम विप्रः बहुधा वदन्ति", "मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना" है. मैं मानता ही नहीं इस दर्शन को जीता भी हूँ। मेरे लिए ये कोई बात ही नहीं थी कि मेरी शरण में आने वाला यहूदी, पारसी, मुसलमान समाज अपने निजी विश्वासों को कैसे बरतता है। वो अपने रीति-रिवाजों का पालन कैसे करता है। उसने अपने चर्च, सिने गॉग, मस्जिदें कैसी और क्यों बनाई हैं. मेरे ही समाज के बंधु मार कर, सता कर, लालच दे कर अर्थात जैसे बना उस प्रकार से मुझसे अलग कर दिए गए। यदि आप इसे मेरी अतिशयोक्ति मानें तो कृपया इस तथ्य को देखें कि ऐसे हत्याकांडों के कारण ही हिन्दू समाज की लड़ाकू भुजा सिख पंथ बनाया गया। गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान, गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों साहबजादों की हत्याओं को किस दृष्टि से देखा जा सकता है ?

मगर एक अजीब बल्कि किसी भी राष्ट्र के लिए असह्य बात, ये देखने में आई कि राष्ट्र पर हमला करने वाले इन आक्रमणकारियों के प्रति मेरे ही इन मतांतरित हिस्सों ने कभी रोष नहीं दिखाया। इनकी कभी निंदा नहीं की, बल्कि इन्हीं मतांतरित बंधुओं ने इन हमलावरों के प्रति प्यार और आदर दिखाया। इन आक्रमणकारियों ने जिनके पूर्वजों की हत्याएं की थी, उनकी पूर्वज स्त्रियों के साथ भयानक अनाचार किये थे, उन्हें हर कथनीय-अकथनीय ढंग से सताया था, उनके लिए मेरे ही राष्ट्र बंधुओं में आस्था कैसे प्रकट हो गयी ? इन हमलावरों के नाम पर देश के मार्गों, भवनों के नाम का आग्रह इन मतांतरित बंधुओं ने क्यों किया ? मेरे ही हिस्से मज़हब का बदलाव करते ही अपने मूल राष्ट्र के शत्रु कैसे और क्यों बन गए ? क्या इसका कारण इस्लामी ग्रंथों में है ? क्या इस्लाम राष्ट्र-वाद का विरोधी है ?

मैं सारे देश भर में घूमता रहता हूं. मुझे सड़कों के किनारे तहमद-कुरता या कुरता-पजामा पहने , गठरियाँ सर पर उठाये लोगों के चलते हुए समूह ने कई बार आकर्षित किया है. ये लोग अपने पहनावे के कारण स्थानीय लोगों में अलग से पहचाने जाते हैं. मेरी जिज्ञासा ने मुझे ये पूछने पर बाध्य किया कि ये लोग कौन हैं ? कहाँ से आते हैं ? इनके दैनिक ख़र्चे कैसे पूरे होते हैं ? उत्तर ने मुझे हिला कर रख दिया. मालूम पड़ा कि ये लोग अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नदवा तुल उलूम-लखनऊ, देवबंद के मदरसे जैसे संस्थानों के अध्यापक और छात्र होते हैं. मेरी दृष्टि में अध्यापकों और छात्रों का काम पढ़ाना और पढ़ना होता है. पहले मैं ये समझ ही नहीं पाया कि ये लोग अपने विद्यालय छोड़ कर दर-दर टक्करें मारते क्यों फिर रहे हैं ? अधिक कुरेदने पर पता चला कि ये कार्य तो सदियों से होता आ रहा है और यही लोग मतांतरित व्यक्ति को अधिक कट्टर मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं। यानी मेरे राष्ट्र के मतांतरित लोगों में जो अराष्ट्रीय परिवर्तन आया है उसके लिए ये लोग भी जिम्मेदार हैं. इन्हीं लोगों के कुकृत्यों पर नज़र न रखने का परिणाम देश में इस्लामी जनसँख्या का बढ़ते जाना और फिर उसका परिणाम देश का विभाजन हुआ. इन तथ्यों से भी पता चलता है कि इस्लाम राष्ट्रवाद का विरोधी है।

ये कुछ अलग सी बात नहीं साम्यवाद भी राष्ट्रवाद का विरोधी है मगर कभी भी एक देश के साम्यवादी उस देश के शासन और राष्ट्र के ख़िलाफ़ किसी दूसरे देश के कम्युनिस्ट शासन के बड़े पैमाने पर पक्षधर नहीं हुए हैं. मैं इस बात को सहज रूप से स्वीकार कर लेता मगर मेरी समझ में एक बात नहीं आती कि अरब की भूमि और उससे लगते हुए अफ्रीका में कई घोषित इस्लामी राष्ट्र हैं. इनमें अरबी या उससे निसृत कोई बोली बोली जाती है तो ये देश एक देश क्यों नहीं हो जाते ? इस्लामी बंधुता अथवा उम्मा की भावना क्या केवल अरब मूल के बाहर के लोगों के लिए ही है ? सऊदी अरब, क़तर, संयुक्त अरब अमीरात इत्यादि देश आर्थिक रूप से बहुत संपन्न देश हैं. ये देश भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश में मस्जिदें, मदरसे बनाने के लिए अकूत धन भेजते रहे हैं मगर क्या कारण है कि सूडान के भूख-प्यास से मरते हुए मुसलमानों के लिए ये कुछ नहीं करते ? क्या इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है ? यहाँ एक चलता हुआ प्रश्न पूछने से स्वयं को नहीं रोक पा रहा हूं. मैंने मुरादाबाद के एक इस्लामी एकत्रीकरण जिसे आप इज्तमा कहते हैं, में ये शेर सुना था

मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मारे गर्मी के आवें पसीने मुझे 

मेरी जानकारी में मदीना रेगिस्तान में स्थित है और वहां बर्फ़ नहीं पड़ती. भारत से कहीं अधिक गर्म स्थान में जाने की इच्छा मेरी बात '' इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है '' की पुष्टि करती है. लाखों हिन्दू भारत से बाहर रहते हैं. उनमें गंगा स्नान, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुरी इत्यादि तीर्थों के दर्शन की इच्छा होती है मगर मैंने कभी नहीं सुना कि वो टेम्स, कलामथ, कोलोराडो या उन देशों की नदियों पर लानतें भेजते हुए गंगा में डुबकी लगाने के लिए भागे चले आने की बातें कहते हों.
मैं एक शायर हूँ और लगभग चौंतीस-पैंतीस साल से मुशायरों में जाता हूँ ईराक युद्ध के समय मैं बहुत से मुशायरों में शायर के नाते जाता था. वहां मुझे सद्दाम हुसैन के पक्ष में शेर सुनने को मिलते थे और श्रोता समूह उनके पक्ष में खड़ा हो कर तालियां पीटता था. एक शेर जो मूर्खता की चरम सीमा तक हास्यास्पद होने के कारण मुझे अभी तक याद है आपको भी सुनाता हूं

ये करिश्मा भी अजब मजहबे-इस्लाम का है
इस बरस जो भी हुआ पैदा वो सद्दाम का है

इस शेर पर हज़ारों लोगों की भीड़ को मैंने तालियां पीटते, जोश में आ कर नारा-ए-तकबीर बोलते सुना है. मैं ये कभी समझ नहीं पाया कि अपनी संतान का पिता सद्दाम हुसैन को मानना यानी अपनी पत्नी को व्यभिचारी मानना किसी को कैसे अच्छा लग सकता है ? मगर ये स्थिति कई मुशायरों में एक से बढ़ कर एक पाई तो समझ में आया कि वाकई ये करिश्मा इस्लाम का ही है। एक अरबी मूल के व्यक्ति के पक्ष में, जिसको कभी देखा नहीं, जिसकी भाषा नहीं आती, जिसके बारे में ये तक नहीं पता कि वो बाथ पार्टी का यानी कम्युनिस्ट था, केवल इस कारण कि वो एक अमुस्लिम देश अमरीका के नेतृत्व की सेना से लड़ रहा है, समर्थन की हिलोर पैदा हो जाने का और कोई कारण समझ नहीं आता। यहाँ ये बात देखने की है कि इस संघर्ष का प्रारम्भ सद्दाम हुसैन द्वारा एक मुस्लिम देश क़ुवैत पर हमला करने और उस पर क़ब्ज़ा करने से हुआ था. ईराक़ और क़ुवैत के लिए ये लड़ाई इस्लामी नहीं थी मगर भारत, पाकिस्तान, बंगला देश के मुसलमानों के लिए थी. इसे अरब मूल के पक्ष में अन्य मुस्लिम समाज की मानसिक दासता न मानें तो क्या मानें ? इसका कारण इस्लाम को न माने तो किसे मानें ?

इन तथ्यों की निष्पत्ति ये है कि इस्लाम अपने धर्मान्तरित लोगों से उनकी सबसे बड़ी थाती सोचने की स्वतंत्रता छीन लेता है। धर्मान्तरित मुसलमान अपने पूर्वजों, अपनी धरती के प्रति आस्था, अपने लोगों के प्रति प्यार, अपने इतिहास के प्रति लगाव से इस हद तक दूर चला जाता है कि वो अपने अतीत, अपने मूल समाज से घृणा करने लगता है ? उसमें ये परिवर्तन इस हद तक आ जाता है कि वो अरब के लोगों से भी स्वयं को अधिक कट्टर मुसलमान दिखने की प्रतिस्पर्धा में लग जाता है। सर सलमान रुशदी की किताब के विरोध में किसी अरब देश में हंगामा नहीं हुआ। फ़तवा ईरान के ख़ुमैनी ने बाद में दिया था मगर हंगामा भारत, बंगला देश, पाकिस्तान में पहले हुआ। ऐसा क्यों है कि एक किताब का, बिना उसे पढ़े इतना उद्दंड विरोध करने में अरब मूल से इतर के लोग आगे बढे रहे ? क्या इसकी जड़ें अपने उन पड़ौसियों, साथियों, को जो मुसलमान नहीं हैं, का इस्लाम के आतंक और उद्दंडता से परिचित करने में हैं ? अगर आप उसे ठीक नहीं मानते थे तो क्या इसका शांतिपूर्ण विरोध नहीं किया जाना चाहिए था ? सभ्य समाज में पुस्तक का विरोध दूसरी पुस्तक लिख कर सत्य से अवगत करना होता है मगर ऐसा क्यों है कि सभ्य समाज के तरीक़ों का प्रयोग मुस्लिम समाज नहीं करता ? जन-प्रचलित भाषा में पूछूं तो इसे ऐसा कहना उचित होगा कि मुसलमानों का एक्सिलिरेटर हमेशा बढ़ा क्यों रहता है ?

क्या इस्लाम तर्क, तथ्य, ज्ञान की सभ्य समाज में प्रचलित भाषा-शैली का प्रयोग नहीं करता या नहीं कर सकता ? ऐसा क्यों है कि इस्लामी विश्व, शालीन समाज के तौर-तरीक़ों से विलग है ? किसी भी इस्लामी राष्ट्र में संगीत, काव्य, कला, फिल्म इत्यादि ललित कलाओं के किसी भी भद्र स्वरूप का अभाव है. इस्लामी राष्ट्रों में संयोग से अगर ऐसा कुछ है भी तो उसके ख़िलाफ़ इस्लामी फ़तवे, उद्दंडता का प्रदर्शन होता रहता है ? विभिन्न दबावों के कारण अगर ये साधन नहीं होंगे तो समाज उल्लास-प्रिय होने की जगह उद्दंड हत्यारों का समूह नहीं बन जायेगा ? यहाँ ये पूछना उपयुक्त होगा कि बलात्कार जैसे घृणित अपराधों में सारे विश्व में मुसलमान सामान्य रूप से अधिक क्यों पाये जाते हैं ? उनके नेतृत्व करने वाले सामान्य ज्ञान से भी कोरे क्यों होते हैं ? क्या ये परिस्थितयां ऐसे हिंसक समूह उपजाने के लिए खाद-पानी का काम नहीं करतीं ?

ऐसा क्यों है कि इस्लाम सारे संसार को अपना शत्रु बनाने पर तुला है ? यहूदियों के ऐतिहासिक शत्रु ईसाइयों को ग़ाज़ा में इज़रायल के बढ़ते टैंक अपनी विजय क्यों प्रतीत होते हैं ? क्या इसका कारण आचार्य चाणक्य का सूत्र " शत्रु का शत्रु स्वाभाविक मित्र होता है " तो नहीं है ? ईसाइयों ने यहूदियों से शत्रुता हज़ारों साल निभायी, निकाली मगर इस्लाम के विरोध में वो एक साथ क्यों हैं ?

सामान्य भारतीय मुसलमान इस्लाम के बताये ढंग से नहीं जीता। मुहम्मद जी के किये को सुन्नत ज़रूर मानता है मगर उसे अपने जीवन में नहीं उतारता. इस्लाम ऐसे अनेकों काम पिक्चर देखना, दाढ़ी काटना, संगीत सुनना, शायरी करना इत्यादि के विरोध में है मगर आप इन विषयों में उसकी एक नहीं मानते तो इन राष्ट्र विरोधी कामों के विरोध में क्यों नहीं खड़े होते ? जितने हंगामों की चर्चा मैंने पहले की है उनमें सारा भारतीय मुसलमान सम्मिलित नहीं था मगर वो इन बेहूदगियों का विरोध करने की जगह चुप रहा है।

देश में फैले लाखों मदरसों और लाखों मुल्लाओं के प्रचार के बावजूद ईराक़ जाने वाले 20 लोग नहीं मिले जबकि संसार के अन्य देशों से ढेरों लोग सीरिया और ईराक़ गए हैं. अभी तक मुल्ला वर्ग अपने पूरे प्रयासों के बाद भी अपनी दृष्टि में आपको पूरी तरह से असली मुसलमान यानी तालिबानी नहीं बना पाया है. आपने उनकी बातों की लम्बे समय से अवहेलना की है मगर अब पानी गले तक आ गया है। आपको उनके कहे-किये-सोचे के कारण उन बातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, आप जिनके पक्ष में नहीं हैं। आपको आपकी इच्छा के विपरीत ये समूह अराष्ट्रीय बनाने पर तुला है. आपको अब्दुल हमीद की जगह मुहम्मद अली जिनाह बनाना चाहता है। मैं समझता हूं कि आपको संभवतः मुल्ला पार्टी का दबाव महसूस होता होगा। देश बंधुओ इनका विरोध कीजिये. आपके साथ पूरा राष्ट्र खड़ा है और होगा। भारत में प्रजातान्त्रिक क़ानून चलते हैं. यहाँ फ़तवों की स्थिति कूड़ेदान में पड़े काग़ज़ बल्कि टॉयलेट पेपर जितनी ही है और होनी चाहिए। भारत एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों का राष्ट्र है. यहाँ का इस्लाम भी अरबी इस्लाम से उसी तरह भिन्न है जैसे ईरान का इस्लाम अरबी इस्लाम से अलग है। यही भारतीय राष्ट्र की शक्ति है। आप महान भारतीय पूर्वजों की वैसे ही संतान हैं जैसे मैं हूं। ये राष्ट्र उतना ही आपका है जितना मेरा है। आप भी वैसे ही ऋषियों के वंशज हैं जैसे मैं हूं। आपको राष्ट्र-विरोधी बनाने पर तुले इन मुल्लाओं को दफ़ा कीजिये, इन से दूर रहिये और इन पर लानत भेजिए. आइये अपनी जड़ों को पुष्ट करें

तुफ़ैल चतुर्वेदी

5 टिप्‍पणियां:

  1. यह आपके मन की कुंठा और मुस्लिम समुदाय के प्रति घृणा है और कुछ नहीं ा

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  2. यह आपके मन की कुंठा और मुस्लिम समुदाय के प्रति घृणा है और कुछ नहीं ा

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  3. सत्य को पूर्ण रूप से अनावृत्त कर दिया है। यहां इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इस हिंसा, वलात्कार, घृणा की जड़े कुरान, हदीस व सिरा रसूल में हैं जो जितना दीनी है वह उतना ही इस तरफ जाएगा।

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  4. Islam ko aap 1450 saal pehle aaya hua dharm agar kehte ho toh kya Islam se pehle sari duniya dhol aur majira baja rahi thi ya sari duniya satsang kar rahi thi.....agar Aisa Hai toh roman kaun the aur unka atyachar kya tha......ashoka kaun tha hitler kaun tha aur toh aur Egypt ke firon ne yahudiyo par kis baat ka katle Aam kiya......Apko Islam samajh nahi aa sakta kyunki tum jaise log Japan par atomic bomb ka bhi samarthan karte ho aur toh aur action ka reaction Bol kar ek dange ko Sahi thehra dete ho

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