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रविवार, 18 सितंबर 2016

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का तीसरा और अंतिम भाग ........वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया। इसका परिणाम स्वकेन्द्रित होना ही था।

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का तीसरा और अंतिम भाग

........वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया। इसका परिणाम स्वकेन्द्रित होना ही था। 


मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी। 



महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले  ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए।  शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी। 


इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वभाविक "चिंतन सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं" के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मारने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां, शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, जीभ-लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका। 


यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।


7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }

9वीं शताब्दी में महान समन साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }


आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। [सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 } 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये। 


यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }

हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।

विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्व्भविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था। 


13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था। 


इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली। 


दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज, आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हमारा बच्चा स्कूल में लड़ कर आये तो हम उसको सही-ग़लत की जानकारी किये बिना डाँटते हैं। हम अपनी पीढ़ियों को कायर, नपुंसक बनाने पर तुले हैं। इसका कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये। 


यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। पाकिस्तानी हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण यूरेशिया के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। इसके लिये प्रारम्भिक क़दम इस विजयदशमी पर अपने निजी शस्त्र का पूजन हो सकता है। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ। 

तेरी हालत बदल पाती तो कैसे 
तेरी आँखों में सपना भी नहीं था 

तुफ़ैल चतुर्वेदी 









शनिवार, 17 सितंबर 2016

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का अगला भाग:- बंधुओ, यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। {इस बार चूँकि विषय पाकिस्तानी हिंदुओं से शुरू हुआ है अतः इस्लाम पर ही फ़ोकस रखना ठीक होगा। ईसाइयों की करतूतें फिर कभी लेंगे }। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है।

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का अगला भाग:-
बंधुओ, यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। {इस बार चूँकि विषय पाकिस्तानी हिंदुओं से शुरू हुआ है अतः इस्लाम पर ही फ़ोकस रखना ठीक होगा। ईसाइयों की करतूतें फिर कभी लेंगे }। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है। इस विचार पर सोचने वाली बात यह है कि इस्लाम की आक्रमकता ने भारत वर्ष जो पूरा यूरेशिया था, के केंद्रीय भाग यानी आर्यावर्त { वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान } से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं हड़पा बल्कि शेष बचे देश में हमारे करोड़ों बंधुओं को धर्मान्तरित कर लिया है। यह चिंतन कि ऊँची दीवारों में सीमाओं को सुरक्षित रखा जाये, से कोई लक्ष्य नहीं सधता। अतः पराक्रम ही एकमेव उपाय है और यही हमारे प्रतापी पूर्वज करते आये हैं। इस हेतु आवश्यक है कि वास्तविक इतिहास देखा जाये। यहाँ सिंहावलोकन शब्द का प्रयोग करना चाहता हूँ। सिंहावलोकन अर्थात जिस तरह सिंह वीर भाव से गर्दन मोड़ कर पीछे देखता है। आइये इतिहास का संक्षेप में सिंहावलोकन करें।
महाभारत में तत्कालीन भारत वर्ष का विस्तृत वर्णन है। जिसमें आर्यावर्त के केंद्रीय राज्यों के साथ उत्तर में काश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पह्लव, पारसीक { ईरान }, तुषार { तुर्कमेनिस्तान और तुर्की }, हूण { मंगोलिया } चीन, ऋचीक, हर हूण तथा उत्तर-पश्चिम में बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा }, शक, यवन { ग्रीस }, मत्स्य, खश, परम काम्बोज, काम्बोज, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र { क़ज़्ज़ाक़िस्तान, उज़्बेकिस्तान } हैं। पूर्वोत्तर राज्य प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्ड्र, सुहाय, कीकट पश्चिम में त्रिगर्त, साल्व, सिंधु, मद्र, कैकय, सौवीर, गांधार, शिवि, पह्लव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद का वर्णन है। यह जनपद ढाई सौ से अधिक हैं और इनमें उपरोक्त के अतिरिक्त उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, आदि हैं। {सन्दर्भ:-अध्याय 9 भीष्म पर्व जम्बू खंड विनिर्माण पर्व महाभारत }
भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वर्णन है। जिसमें कौरव सेना के वाम भाग में आचार्य कृपा के नेतृत्व में शक, पह्लव { ईरान } यवन { वर्तमान ग्रीस } की सेना, दुर्योधन के नियंत्रण में गांधार, भीष्म पितामह के नियंत्रण में सिंधु, पंचनद, सौवीर, बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा } की सेना का वर्णन है। सोचने वाली बात यह है कि महाभारत तो चचेरे-तयेरे भाइयों की राज्य-सम्पत्ति की लड़ाई थी। उसमें यह सब सेनानी क्या करने आये थे ? वस्तुतः यह सब सम्बन्धी थे और इसी कारण सम्मिलित हुए थे। स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, यवन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सम्पूर्ण रूस इत्यादि सभी भारतीय क्षेत्र थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, त्रिविष्टप, यवन { ग्रीस / हेलेनिक रिपब्लिक } हूण, शक, बाह्लीक, किरात, दरद, पारद, आदि क्षेत्रों के राजा भेंट ले कर आये थे। महाभारत में यवन नरेश और यवन सेना के वर्णन दसियों जगह हैं।
पौराणिक इतिहास के अनुसार इला के वंशज ऐल कहलाये और उन्होंने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। यवन या वर्तमान ग्रीस जन आज भी स्वयं को ग्रीस नहीं कहते। यह स्वयं को हेलें, ऐला या ऐलों कहते हैं। आज भी उनका नाम हेलेनिक रिपब्लिक है। महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य इलियड में इन्हें हेलें या हेलेन कहा है और पास के पारसिक क्षेत्र को यवोन्स कहा है जो यवनों का पर्याय है { सन्दर्भ:-निकोलस ऑस्टर, एम्पायर्स ऑफ़ दि वर्ड, हार्पर, लन्दन 2006, पेज 231 } होमर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं अतः उनका साक्ष्य प्रामाणिक है।
सम्राट अशोक के शिला लेख संख्या-8 में यवन राजाओं का उल्लेख है। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार, जलालाबाद में सम्राट अशोक के शिलालेख मिले हैं जिनमें यावनी भाषा तथा आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन सम्राट अशोक की प्रजा थे। यवन देवी-देवता और वैदिक देवी देवताओं में बहुत साम्य है। सम्राट अशोक के राज्य की सीमाएं वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ग्रीस तक थीं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28 भारतीय इतिहास कोष सच्चिदानंद भट्टाचार्य } सम्राट अशोक के बाद सम्राट कनिष्क के शिलालेख अफ़ग़ानिस्तान में मिलते हैं जिनका सम्राज्य गांधार से तुर्किस्तान तक था और जिसकी राजधानी पेशावर थी। सम्राट कनिष्क के शिव, विष्णु, बुद्ध के साथ जरथुस्त्र और यवन देवी-देवताओं के सिक्के भी मिलते हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार, चंद्रगुप्त वेदालंकार, दूसरा संस्करण 1969 }
ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण { समय-ईसा पूर्व 24 } में उल्लिखित है कि विक्रमादित्य परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम देश { रोम } के शकाधिपति को जीत कर फिर उनके द्वारा विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया { सन्दर्भ:-पृष्ठ 8, डॉ भगवती लाल पुरोहित, आदि विक्रमादित्य स्वराज संस्थान 2008 }। 15वीं शताब्दी तक चीन को हिन्द, भारत वर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। 1492 में चीन और भारत जाने के लिए निकले कोलम्बस के पास मार्गदर्शन के लिये मार्कोपोलो के संस्मरण थे। उनमें रानी ईसाबेल और फर्डिनांड के पत्र भी हैं। जिनमें उन्होंने साफ़-साफ़ सम्बोधन " महान कुबलाई खान सहित भारत के सभी राजाओं और लॉर्ड्स के लिए " लिखा है। {सन्दर्भ:-पृष्ठ 332-334 जॉन मेन, कुबलाई खान: दि किंग हू रिमेड चाइना, अध्याय-15, बैंटम लन्दन 2006 }15वीं शताब्दी में यूरोप से प्राप्त अधिकांश नक़्शों में चीन को भारत का अंग दिखाया गया है।
ऐसे हज़ारों वर्णन मिटाने की भरसक कोशिशों के बावजूद सम्पूर्ण विश्व में मिलते हैं। केंद्रीय भूमि के लोग सदैव से राज्य, ज्ञान, शौर्य और व्यापार के प्रसार के लिये सम्पूर्ण जम्बू द्वीप यानी पृथ्वी भर में जाते रहे हैं। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की सभा में पारसिक नरेश खुसरू-द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये हैं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 238, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार } इतिहासकार तबारी ने 9वीं शताब्दी में भारतीय नरेश के फ़िलिस्तीन पर आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बसरा के शासक को सदैव तैयार रहना पड़ता है चूँकि भारतीय सैन्य कभी भी चढ़ आता है { सन्दर्भ:- पृष्ठ 639, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार }
इतने बड़े क्षेत्र को सैन्य बल से प्रभावित करने वाले, विश्व भर में राज्य स्थापित करने वाले, ज्ञानसम्पन्न बनाने वाले, संस्कारित करने वाले लोग दैवयोग ही कहिये शिथिल होने लगे। मनुस्मृति के अनुसार पौंड्रक, औंड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव , चीन, किरात, दरद और खश इन देशों के निवासी क्रिया { यज्ञादि क्रिया } के लोप होने से धीरे-धीरे वृषल हो गए { मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 43-44 } अर्थात जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेश के ब्रह्मवर्त यानी तत्कालीन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का संस्कृति के केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास थमने लगा। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा मंद पड़ी फिर भी नष्ट नहीं हुई मगर लगातार सम्पर्क के अभाव में ज्ञान, धर्म, चिंतन की ऊष्मा कम होती चली गयी। सम्पूर्ण यूरेशिया में फैले आर्य वृषल होते गये।
इसी समय बुद्ध का अवतरण हुआ। महात्मा बुद्ध की देशना निजी मोक्ष, व्यक्तिगत उन्नति पर थी। स्पष्ट था कि यह व्यक्तिवादी कार्य था। समूह का मोक्ष सम्भव ही नहीं है। यह किसी भी स्थिति में राजधर्म नहीं हो सकता था मगर काल के प्रवाह में यही हुआ। शुद्धि-वापसी का कोई प्रयास करने वाला नहीं था। उधर एक अल्लाह के नाम पर हिंस्र दर्शन फैलना शुरू हो गया फिर भी इसकी गति धीमी ही थी। फ़रिश्ता के अनुसार 664 ईसवीं में गंधार क्षेत्र में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने {सन्दर्भ:-पृष्ठ-16 तारीख़े-फ़रिश्ता भाग-1, हिंदी अनुवाद, नवल किशोर प्रेस }
अरब में शुरू हो गयी उथल-पुथल से आँखें खुल जानी चाहिए थीं मगर निजी मोक्ष के चिंतन, शांति, अहिंसा के प्रलाप ने चिंतकों, आचार्यों, राजाओं, सेनापतियों को मूढ़ बना दिया था।अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन के समय तो निश्चित ही चेत जाना था कि अब घाव सिर पर लगने लगे थे। दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि, काल का प्रवाह कि सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्ञान-सम्पन्न बनाने वाला, संस्कार देने वाला प्रतापी समाज सिमट कर आत्मकेंद्रित हो गया। फिर भी केवल इस कारण ही हमारी यह हालत नहीं हुई। इसका मुख्य कारण और इस स्थिति को पलटने के उपाय अगले भाग में रखूँगा।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

बंधुओ, कल डॉ सुधीर व्यास द्वारा अहमदाबाद के अपोलो अस्पताल में हुए बलात्कार पर लिखी पोस्ट पर लम्बी बातचीत हुई। बलात्कार अक्षम्य अपराध है। उन दुष्टों को बुरे से बुरा दंड मिलना चाहिये मगर उस डॉक्टर का पाकिस्तानी हिन्दू बता कर हाई लाइट किया जाना मेरी समझ में अनुचित है। इस अपराध क़ानून-व्यवस्था का है और इससे उसी को निबटना चाहिये। इसी तरह किसी पाकिस्तान हिंदू या भारतीय के पाकिस्तानी जासूस होने की समस्या भी क़ानून-व्यवस्था की ही है।

बंधुओ, कल डॉ सुधीर व्यास द्वारा अहमदाबाद के अपोलो अस्पताल में हुए बलात्कार पर लिखी पोस्ट पर लम्बी बातचीत हुई। बलात्कार अक्षम्य अपराध है। उन दुष्टों को बुरे से बुरा दंड मिलना चाहिये मगर उस डॉक्टर का पाकिस्तानी हिन्दू बता कर हाई लाइट किया जाना मेरी समझ में अनुचित है। इस अपराध क़ानून-व्यवस्था का है और इससे उसी को निबटना चाहिये। इसी तरह किसी पाकिस्तान हिंदू या भारतीय के पाकिस्तानी जासूस होने की समस्या भी क़ानून-व्यवस्था की ही है। आपमें से कई मित्रों ने इसमें हस्तक्षेप भी किया।

कई बंधुओं को यह एक ही पथ के दो पथिकों का आपस में जूझना लगा। डॉ सुधीर व्यास मेरे अनुज-वत मित्र हैं और राष्ट्रीय विषयों पर लिखते हैं। इस विषय को पूरी समग्रता में देखा जाना आवश्यक है अतः अलग से इस पर अपनी बात लिख रहा हूँ और डॉ व्यास के लेख पर पधारे आप सब सहभागी मित्रों को भी इसी लिये टैग कर रहा हूँ। जिन मित्रों को मैं टैग नहीं कर पा रहा हूँ उन्हें कृपया डॉ व्यास आप टैग कर दीजिये। यह विषय इतना बड़ा है कि इसे एक लेख में समाया नहीं जा सकता अतः इसे दो या तीन भागों में लिखूंगा। करबद्ध निवेदन कृपया लेख-माला पूरी होने तक अपने कॉमेंट्स विवाद की ओर मत ले जाइयेगा।

डॉ सुधीर व्यास पहले जोधपुर में रहते थे। जोधपुर में पिछले कुछ वर्षों में हज़ारों पाकिस्तानी हिंदुओं ने शरण ली है। डॉ व्यास इन पाकिस्तानी हिंदुओं के भारत में शरण लेने के घोर ख़िलाफ़ हैं। उनके विरोध में थाना-कचहरी करते रहे हैं। इसी तरह मेरे एक और अनुज-वत मित्र डॉ राकेश रंजन हैं। यह हिंदू महासभा के अधिकारी रहे हैं । मेरे जीवन में आये सर्वाधिक विद्वानों में से एक, प्रखर अध्ययनशील हैं। अपने कार्य के सम्बन्ध में 40-45 देशों में घूमे हैं। इन्हीं को रूस में गीता पर प्रतिबन्ध लगाये जाने पर मुक़दमा लड़ कर प्रतिबन्ध हटवाने का यश प्राप्त है। पाकिस्तान के भारत में शरण लेने के इच्छुक हिंदुओं के भारत लाने के क़ानूनी प्रयासों को जी-जान से करते रहे हैं। इन्हीं की निजी ज़मानत के कारण 38,000 से अधिक पाकिस्तानी हिंदू भारत में शरण ले पाए। इस कार्य में डॉ राकेश रंजन की दो-ढाई करोड़ की जमापूंजी समाप्त हो गयी मगर वह अब भी हिंदू-हित के कार्यों में लगे हुए हैं।

डॉ व्यास से मेरी पहली भेंट kruhaad की बैठक के समय हुई और दूसरी भेंट JNU के मार्च के समय हुई। कार्यक्रम के बाद हम लोग घर आ गए। डॉ राकेश रंजन भी साथ थे। डॉ राकेश रंजन ने डॉ व्यास तक पाकिस्तानी हिंदुओं के बारे में अपने विचार पहुंचाये। अपने इतने परिश्रम का कारण बताया मगर डॉ व्यास ने मन नहीं बदला। डॉ व्यास के पास यही तर्क थे। हम खिन्न हुए मगर किसी भी सूरत एक प्रखर राष्ट्रवादी लेखक को खो नहीं सकते थे अतः उस समय चुप लगा गये। यह विषय अब फिर उठा है अतः अब अपनी दृष्टि में उचित सत्य का कहा जाना आवश्यक है। इसी कारण मैंने उनकी पोस्ट पर अपना दृष्टिकोण रखा था।

अब विषय......... भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान-बंगला देश में करोड़ों हिंदू छूट गए थे। उनके भारत आने और भारत से पाकिस्तान जाने की इच्छा रखने वाले मुसलमानों को भेजने के सम्बन्ध में भारत-पाकिस्तान का पैक्ट हुआ है। वर्तमान पाकिस्तानी हिन्दू पैक्ट में तय समय-सीमा समाप्त होने के बाद भारत आ रहे हैं। डॉ व्यास का कहना है कि पाकिस्तान से आने वाले इन हिंदुओं को भारत को शरण नहीं मिलनी चाहिये। इसका कारण पोस्ट पर लिखे उनके ही शब्दों में {Once a Pakistani, always Pakistani Swine, not Hindu.....भारत मात्र कोई पुण्यभूमि नहीं बल्कि हमारा देश है कोई कचरादान नहीं कि सब जगह का भर लें, ना काम के ना काज के ... घर वापसी चलायें, शुद्धीकरण करें कचरा भरे, ये सूअर को मानव कैसे बना सकेंगे? एक पाकिस्तानी का रोजगार मेरे भारतीय हिन्दू के परिवार में कम से कम 4 जनों को भूखा सुलाने को मजबूर करता है, ऐसी भाईचारगी की बेचारगी किसी काम की नहीं}...... मैं तो तथाकथित घरवापसी का समर्थन ही नहीं करता ... मुरदों में जान नहीं फूंक सकते ना ही सनातन के हिसाब में वही हिन्दू आत्मा उनमें पुन: बसेगी ... सबसे पहली बात पाकिस्तान से आता हर तथाकथित हिन्दू व्यक्ति, हिन्दू, पीडित ही है अवांछनीय नहीं ...? यानी यह तय है कि डॉ व्यास पाकिस्तानी हिंदुओं के हर प्रकार से विरोधी हैं।

आपने पूजा, यज्ञ करते समय कभी संकल्प लिया होगा। उसके शब्द ध्यान कीजिये। ऊँ विष्णुर विष्णुर विष्णुर श्रीमद भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञा प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्री श्वेत वराहकलपे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे ......यह संकल्प भारत ही नहीं सारे विश्व भर के हिंदुओं में लिया जाता है और इसके शब्द लगभग यही हैं। क्या साम्य शब्दों के प्रयोग का कारण नहीं होना चाहिये? आख़िर यह जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे है क्या ? धर्मबंधुओ! जम्बू द्वीप सम्पूर्ण पृथ्वी है। भारत वर्ष पूरा यूरेशिया है। भरत खंड एशिया है। आर्यावर्त वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान है। आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्त बचाखुचा वर्तमान भारत है। आसिंधु सिंधु पर्यन्ता की परिभाषा आज गढ़ी गयी है। यह परिभाषा मूल भरतवंशियों के देश की परिचायक नहीं है।

वस्तुतः जम्बू द्वीप यानी सम्पूर्ण पृथ्वी ही षड्दर्शन को मानने वाली थी और इस ज्ञान का केंद्र ब्रह्मावर्त अर्थात वर्तमान भारत था। काल का प्रवाह आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान और संस्कृति के केंद्र वर्तमान भारत में भयानक युद्ध हुआ। जिसे हम आज महाभारत के नाम से जानते हैं और उसके बाद सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयीं। ज्ञानज्योति ऋषि वर्ग, पराक्रमी राजा कालकवलित हुए। परिणामतः ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास रुक गया। धीरे-धीरे संस्कृति की भित्तियां ढहने लगीं। चतुर्दिक धर्म ध्वज फहराने वाले लोग भृष्ट हो कर वृषल हो गए। परिणामस्वरूप इतने विशाल क्षेत्र में फैला षड्दर्शन की महान देशनाओं का धर्म नष्ट हो गया। अनेकानेक प्रकार के मत-मतान्तर फ़ैल गये। टूट-बिखर कर बचे केवल ब्रह्मावर्त का नाम भारत रह गया। कृपया सोचिये कि सम्पूर्ण योरोप, एशिया में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं क्यों मिलती हैं ? ईसाइयत और इस्लाम के अपने से पहले इतिहास को जी-जान से मिटाने की कोशिश के बावजूद ताशक़न्द के एक शहर का नाम चार्वाक क्यों है ? वहां की झील चार्वाक क्यों कहलाती है ? ख़ैर इस विषय को लेख के अगले भाग में लेना ठीक होगा।

इस टूटन-बिखराव में पीड़ित आर्यों { गुणवाचक संज्ञा } का अंतिम शरणस्थल सदैव से आर्यावर्त के अन्तर्गत आने वाला ब्रह्मावर्त यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और अब वर्तमान भारत रहा है। इसी लिए इस क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जाता है। जिज्ञासु मित्रों को दिल्ली के हिंदूमहासभा भवन के हॉल को देखना चाहिये। उसमें राजा रवि वर्मा की बनायी हुई पेंटिंग लगी है जिसका विषय महाराज विक्रमादित्य के दरबार में यूनानियों का आना और आर्य धर्म स्वीकार करना { हिन्दू बनना } है। ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं अपितु विपत्ति में भी सदैव से भरतवंशी केंद्र की ओर लौटते रहे हैं तो पाकिस्तान के हिंदुओं ने ही क्या बिगाड़ा है कि उनको धिक्कारा जाये ?

1947 में पाकिस्तान, बांग्लादेश से करोड़ों हिंदुओं ने कटे-फटे भारत में शरण ली। यूगांडा से ईदी अमीन ने निष्काषित किया तो हिन्दू भारत आये। 1971 में एक करोड़ से अधिक हिन्दू बांग्लादेश से भारत आये। अभी कुछ वर्ष पहले बांग्लादेश के चट्टोग्राम से चकमा जनजाति के हज़ारों हिन्दू सीमा पर कर भारत आये हैं। श्रीलंका में संघर्ष हुआ तो हज़ारों हिंदुओं ने समुद्री मार्ग से पलायन कर तमिलनाडु में शरण ली। अफ़ग़ानिस्तान से तालिबान ने हिंदुओं को भगाया तो वहां के बचे-खुचे सिक्ख भारत आये हैं। कोई भी दिल्ली के गफ़्फ़ार मार्किट में इन अफ़ग़ानी सिक्खों से मिल सकता है। आज भी विदेश से हज़ारों हिंदू जो NRI हैं प्रति वर्ष देश की दोहरी नागरिकता ले रहे हैं।

अब इस तर्क पर आइये कि "एक पाकिस्तानी का रोजगार मेरे भारतीय हिन्दू के परिवार में कम से कम 4 जनों को भूखा सुलाने को मजबूर करता है।" यह तर्क स्वीकार कर लिया जाए तो क्या उपरोक्त करोड़ों लोगों ने पहले से बसे हुए हिंदुओं का कारोबार नहीं छीना ? यह तर्क बहुत ख़राब दिशा में जाता है। इसका चरम हर बोली बोलने वाले के हिस्से में भारत का उसकी अपनी बोली वाला हिस्सा लेना यानी भारत के हज़ारों टुकड़े हैं।

ध्यान रहे कि विभाजन के समय सिंध प्रान्त बहुत दुर्गम-दुरूह मरुस्थल था। कराची, नवाबशाह, थट्टा, हैदराबाद, सक्खर, उमरकोट, जैकोबाबाद जैसे नगरों में रहने वाला, सड़कों से जुड़े इलाक़ों में रहने वाला हिंदू समाज पाकिस्तान से भाग कर भारत आ गया मगर दुर्गम क्षेत्रों, गांवों में बसने वाला हिंदू समाज जान ही नहीं सका कि हज़ारों साल से उसके पूर्वजों की धरती गाँधी, नेहरू, मुहम्मद अली जिनाह, मांउटबेटन जैसे दुरात्माओं के राक्षसी षड्यंत्र के कारण उसकी नहीं रही है। उसे तो यह तब पता चला जब नगरों से चल कर तब्लीग़ी मुल्ला उस तक पहुंचे और उस पर हिन्दू धर्म छोड़ कर इस्लाम क़ुबूल करने के लिए दबाव डाला। धर्म न छोडने पर मुसलमानों ने उस पर भयानक अत्याचार किये। उसके बच्चों को जलाया। आप स्वयं सोचें रातों-रात यह दुर्बल-भोला हिंदू अपनी धरती छोड़ कर कैसे आ सकता था ? सबसे बड़ा चाक़ू उसके सीने में ज़िया उल हक़ के इस्लामी शरीयत को पाकिस्तान का राजधर्म बना देने से लगा।

धर्मबंधुओ ! सदैव स्मरण रखिये कि राष्ट्र, देश से धर्म बड़ा होता है। इस्लाम के 46 देशों का उदाहरण देखिये बल्कि स्वधर्म का ही उदाहरण देखिये। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत के अंदर और बाहर 60-70 से अधिक देशों का हिन्दू राष्ट्र होना सम्भावित था। जिसकी केंद्र भूमि भारत को होना था। नेपाल के प्रधानमंत्री राणा, महामना मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर इत्यादि ने इसके लिये प्राण-प्रण से प्रयास किया था। आपकी जानकारी के लिये यह सब हिंदूमहासभा के लोग हैं और उस समय हिंदूमहासभा 46 देशों में सक्रिय थी। उस समय भारत के दो हिस्सों में बंटने की कल्पना नहीं थी बल्कि प्रिंसली स्टेटों के अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में होने की कल्पना थी। कल्पना कीजिये कि यह प्रयास साकार हो गया होता तो भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, सिंगापुर, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मॉरीशस, पाकिस्तान का वर्तमान उमरकोट और न जाने कितने हिन्दू राष्ट्र विश्व पटल पर जगमगा रहे होते। क्या तब भी इन राष्ट्रों के लोगों को हम इन्हीं कड़वे शब्दों से पुकारते जैसे निराश्रित पाकिस्तानी हिंदुओं को पुकार रहे हैं ? विश्व भर के असहाय हिंदुओं का भारत आश्रयस्थल है, पुण्य भूमि है।

कृपया नेट पर Yazidi डालिये। आपको ईराक़-सीरिया के बॉर्डर पर रहने वाली, मोर की पूजा करने वाली जाति के बचे-खुचे लोगों का पता चलेगा। कार्तिकेय के वाहन मोर की पूजा कौन करता है ? Kafiristan डालिये। आपको पता चलेगा कि इस क्षेत्र के हिंदुओं को 1895 में मुसलमान बना कर इसका नाम nuristan नूरिस्तान रख दिया गया है। kalash in pakistan देखिये। आप पाएंगे कि आज भी कलश जनजाति के लोग जो दरद मूल के हैं पाकिस्तान के चित्राल जनपद में रहते हैं। इस दरद समाज की चर्चा महाभारत, मनुस्मृति, पाणिनि की अष्टाध्यायी में है। जिस तरह लगातार किये गए इस्लामी धावों ने अफ़ग़ानिस्तान केवल 150 वर्ष पहले मुसलमान किया, हमें क्यों अपने ही लोगों को वापस नहीं लेना चाहिए ? एक-एक कर हमारी संस्कृति के क्षेत्र केवल 100 वर्ष में धर्मच्युत कर वृषल बना दिए गये। होना तो यह चाहिये था कि हम केंद्रीय भूमि से दूर बसे अपने समाज के लोगों को सबल कर धर्मभष्ट हो गए अपने लोगों को वापस लाने का प्रयास करते। भारत के टूटने का कारण सैन्य पराजय नहीं है बल्कि धर्मांतरण है। हमने अपने समाज की चिंता नहीं की। इसी पाप का दंड महाकाल ने हमारे दोनों हाथ काट कर दिया और हम भारत के दोनों हाथ पाकिस्तान, बांग्लादेश की शक्ल में गँवा बैठे।

जो वस्तु जहाँ खोयी हो वहीँ मिलती है। हमने अपने लोग, अपनी धरती धर्मांतरण के कारण खोयी थी। यह सब वहीँ से वापस मिलेगा जहाँ गंवाया था। इसके लिए अनिवार्य शर्त अपने समाज को समेटना, तेजस्वी बनाना और योद्धा बनाना है। लेख के अगले भाग में महान भरतवंशी पूर्वजों के सम्पूर्ण यूरेशिया में प्रताप के प्रमाण दूंगा। इससे अनुमान लगेगा कि हमें शत्रुओं से पाकिस्तानी हिंदुओं की दुर्दशा का ही नहीं और भी बहुत सारा हिसाब करना है

तुफ़ैल चतुर्वेदी