12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का तीसरा और अंतिम भाग
........वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया। इसका परिणाम स्वकेन्द्रित होना ही था।
मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी।
महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए। शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी।
इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वभाविक "चिंतन सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं" के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मारने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां, शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, जीभ-लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका।
यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।
7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }
9वीं शताब्दी में महान समन साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }
आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। [सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 } 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये।
यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }
हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।
विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्व्भविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था।
13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था।
इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली।
दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज, आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हमारा बच्चा स्कूल में लड़ कर आये तो हम उसको सही-ग़लत की जानकारी किये बिना डाँटते हैं। हम अपनी पीढ़ियों को कायर, नपुंसक बनाने पर तुले हैं। इसका कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये।
यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। पाकिस्तानी हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण यूरेशिया के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। इसके लिये प्रारम्भिक क़दम इस विजयदशमी पर अपने निजी शस्त्र का पूजन हो सकता है। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ।
तेरी हालत बदल पाती तो कैसे
तेरी आँखों में सपना भी नहीं था
तुफ़ैल चतुर्वेदी
........वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया। इसका परिणाम स्वकेन्द्रित होना ही था।
मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी।
महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए। शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी।
इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वभाविक "चिंतन सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं" के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मारने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां, शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, जीभ-लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका।
यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।
7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }
9वीं शताब्दी में महान समन साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }
आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। [सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 } 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये।
यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }
हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।
विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्व्भविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था।
13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था।
इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली।
दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज, आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हमारा बच्चा स्कूल में लड़ कर आये तो हम उसको सही-ग़लत की जानकारी किये बिना डाँटते हैं। हम अपनी पीढ़ियों को कायर, नपुंसक बनाने पर तुले हैं। इसका कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये।
यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। पाकिस्तानी हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण यूरेशिया के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। इसके लिये प्रारम्भिक क़दम इस विजयदशमी पर अपने निजी शस्त्र का पूजन हो सकता है। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ।
तेरी हालत बदल पाती तो कैसे
तेरी आँखों में सपना भी नहीं था
तुफ़ैल चतुर्वेदी
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