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शनिवार, 1 अगस्त 2015

……………………… हिंदी बनाम उर्दू …………… उर्दू बनाम फारसी यानी विदेशी मानसिकता

सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय खंड-पीठ का फैसला आ गया है कि उत्तर प्रदेश सरकारी भाषा { संशोधन } कानून 1989 संविधान सम्मत है और राज्य में उर्दू को सरकारी काम-काज की दूसरी भाषा घोषित करने का फैसला सही था. इस वाद और उस पर आये फैसले का कारण उत्तर प्रदेश में बने इस कानून के खिलाफ उत्तर प्रदेश हिंदी सम्मेलन का न्यायालय में अपील करना था. कुछ पत्रकारों और समाचारपत्रों ने इसे हिन्दू-उर्दू की लड़ाई अब तक जारी है का नाम दिया है. इसके पक्ष में 2001 की जनगणना के आंकड़े आये हैं कि हिंदी, बंगला, तेलगू और तमिल के बाद उर्दू छटे स्थान पर है. 2001 की जनगणना के अनुसार पूरे देश की जनसँख्या का 5.01 प्रतिशन भाग उर्दूभाषी है अर्थात देश के पांच करोड़ से अधिक व्यक्तियों ने स्वयं को उर्दूभाषी लिखवाया है. ध्यान देने की बात यह है कि उत्तर प्रदेश में देश के उर्दूभाषियों की आबादी का केवल एक चौथाई भाग ही रहता है. शेष लोग बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्णाटक, तमिलनाडु इत्यादि प्रदेशों में रहते हैं. मैं मुशायरों में इन क्षेत्रों में खूब घूमा हूँ. यहाँ मदरसों में उर्दू मजहबी कारणों से पढाई जाती है मगर कम ही लोग अपने बच्चों को इस दकियानूस शिक्षा के लिए भेजते हैं. आपसी बातचीत में सब लोग स्थानीय भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं. हाँ गाली-गलौज की मादर-पिदर उर्दू में ही होती है, शायद इसका कारण उर्दू की गालियों में जो विशिष्ट भौगोलिक चित्रण, लैंगिक इच्छा, धर-पटक और एक दूसरे के निकट सम्बन्धी बनने कि इच्छा व्यक्त करने यथा पिता, बहनोई, दामाद बनने का पवित्र विचार है, वैसी गुणवत्ता और इच्छा की अभिव्यक्ति तथा संतुष्टि स्थानीय भाषाओँ में नहीं हो पाती होगी. 
ज्ञातव्य है कि केवल मुसलमानों ने ही उर्दू को अपनी मातृ भाषा लिखवाया है. आइये विचार करें कि स्थानीय भाषा के बोलने वाले इन मुसलमानों ने स्वयं को उर्दूभाषी क्यों लिखवाया होगा ? कर्णाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र का स्थानीय मुसलमान बहुसंख्य रूप से बुनकर है. ताम्बे-पीतल का काम करता है यानी छोटे-मोटे काम करता है. ये सारे लोग धर्मान्तरित हैं. इनके पुरखे हिन्दू थे. जाहिर है वो सब स्थानीय बोलियाँ बोलते थे.  तो अब क्या हो गया कि मुसलमान बनने के बाद इनकी मातृभाषा मलयालम, तेलगू, तमिल, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मराठी, इत्यादि की जगह उर्दू बनने लगी ? ये लोग स्थानीय बोलियों में बात करते हैं मगर स्वयं को स्थानीयता में समरस नहीं करते. वो अपनी अलग पहचान क्यों बना रहे हैं ?
भारत की तमाम भाषाओँ के मिश्रण का परिणाम उर्दू है. ढेरों बोलियों, बानियों, साखियों के समरस होने के कारण, व्यापारियों, साधुओं, नाथों, फकीरों के व्यापक जनसम्पर्क के कारण एक बोली उभरी. उसको कपड़छन किया गया, जिसका परिणाम उर्दू है. ये किसी भी नई भाषा के उभरने, बनने, संवरने की स्वाभाविक प्रक्रिया है. इसी तरह कन्नड़, तमिल, तेलगू का वर्तमान स्वरुप बना है. इनके भाषायी क्षेत्रों के सीमांत से लगती मराठी इन भाषाओँ से प्रभावित है तो मनमाड, जालना, औरंगाबाद से लगते इलाकों की मराठी हिंदी प्रभावित. भाषाएँ इसी तरह रूप-स्वरूप बदलने का कार्य करती हैं. इसमें किसी को विरोध भी नहीं होता. तो उत्तर प्रदेश हिंदी सम्मेलन ने उत्तर प्रदेश में उर्दू के काम-काजी भाषा बनाये जाने के विरोध में न्यायालय में जाने का काम क्यों किया ? क्या उत्तर प्रदेश हिंदी सम्मेलन के लोग इतने भोले हैं कि वो इतनी सामने की बात देख-समझ नहीं सकते ? 
मित्रो ये विवाद बहुत पुराना है. इस पर विचार करने के लिए इसकी जड़ तक जाना होगा. मैं यहाँ कुछ बहुत प्रसिद्ध पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा.  

इलाही खाना-ए-अँगरेज़ गिर जा 
ये गिरजाघर ये गिरजाघर ये गिरजा 

शेख ने मस्जिद बना मिस्मार बुतखाना किया 

हैं वही काफिर नहीं मुश्ताक जो इस्लाम के 
                                                          मेरे इन पंक्तियों के चयन से ये मत मान लीजियेगा कि मैंने एक चतुर वकील की तरह अपनी बात मनवाने के लिए कुछ तथ्य इस तरह इकट्ठे किये हैं, जिससे मुकद्दमा जीता जा सके. जी नहीं यही उर्दू का मूल स्वर है. पहले शेर में ब्रिटिश भारत में रहे लोअर कोर्ट के जज अकबर इलाहाबादी बड़े अलंकारिक रूप से ईसाइयों के गिरजाघर के गिर जाने की दुआ मांग रहे हैं. दूसरी पंक्ति तरह की पंक्ति है { एक तरह की समस्यापूर्ति और शायरी के नियमों के अनुसार हर हिन्दू-मुसलमान शायर इसका प्रयोग अपनी ग़ज़ल में करने के लिए बाध्य है } में कहा गया है कि मुल्ला ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बना ली. तीसरी पंक्ति भी जो तरह की ही पंक्ति में कहा गया है कि जो इस्लाम के प्रति इच्छुक नहीं वो काफिर हैं.
मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि उर्दू भारतीय बोलियों-भाषाओँ के कपड़छन से बनी है. इसके सर्वनाम, क्रियापद इत्यादि सभी कुछ भारतीय हैं मगर कपड़छन का कपड़ा विदेशी { ईरानी-तुर्की-अफगानी } है. उर्दू का मानस और वातावरण भारत भर ही नहीं पाकिस्तान और बांग्ला देश में ईरानी, तुर्की, मुग़ल विजय के घमंड और इस पूरी शताब्दी से देवबंदी, बरेलवी मदरसों और तब्लीगी जमातों का बनाया-बिगाड़ा जा रहा वातावरण है. बंगाली जड़ें बहुत मज़बूत हैं उन्होंने ऐसे किसी भी झांसे में आने से इंकार कर दिया. ढाका के लोगों को ये गौरव प्राप्त है कि उन्होंने इस्लामी विश्व के सबसे बड़े विद्वानों में से एक मौलाना मौदूदी को उर्दू की हिमायत करने पर जूतों के हार पहनाये थे और हार के विभिन्न भागों से उनकी सार्वजनिक धुलाई की थी और अंततः तंग आ कर पाकिस्तान से अलग हो गये. मराठी, कन्नड़, तेलगू, तमिल, बृजभाषा,अवधी, भोजपुरी, मैथिली बोलने वाला वर्ग अपने आपको उस भाषा को बोलने वाला बता रहा है जो उसकी है ही नहीं, उसे आती ही नहीं. उर्दू और उर्दू का वातावरण भारतीयों को अपनी जड़ों से अलग करना चाहता है. ये विष इतना अधिक है कि उर्दू के सभी हिन्दू शायर मुस्लिम मानस का तुष्टिकरण करते रहे हैं. फ़िराक़ गोरखपुरी, जो उद्दंडता की सीमा की चरम-सीमा को पार जाते हुए शायर थे, हमेशा हिंदी को, हिंदी कविता को, हिंदी कवियों को गालियां बकते थे. उनके अनुसार हिंदी गंवारों की भाषा थी. मैं स्वयं कई बार अपने काव्य गुरु स्वर्गीय कृष्ण बिहारी नूर से उलझ चुका हूँ. एक अवसर मैं लखनऊ में उनके कमरे में बैठा हुआ था. चर्चा में उन्होंने अपनी मौसी और मामी के लिए खाला और मुमानी शब्द का प्रयोग किया. मैं उन्हें भौंचक्का हो कर देखता रहा. 
मैं स्वयं ग़ज़ल का ठीक-ठाक जाना-पहचाना शायर हूँ मगर क्या मुझे गजल में अपनी योग्यता मनवाने के लिए अपने पिता को अब्बा जान, मौसी को खाला, मामी को मुमानी कहना आवश्यक है ? बंधुओ! आवश्यक है. अगर मैं गजल का अच्छा शायर होने के साथ-साथ स्वयं को आधा-पौना मुसलमान प्रकट न करूँ, इस्लामी संस्कृति न ओढूँ, न दिखाऊं तो मुझे उर्दू के वातावरण में कोई टिकने नहीं देगा. ये घोर सांप्रदायिक वातावरण मुझे अछूत बना देगा. उर्दू के सबसे बड़े माने जाने वाले शायर इकबाल का कलाम अमुस्लिमों के लिए शब्दशः विष-भरा है. उसे बड़ा माना ही इसी लिए जाता है कि वो पाकिस्तान के मूल चिंतकों-जनकों में से एक था. वो इस्लामी श्रेष्ठता, इस्लामी उम्मा यानी अलगाववाद के गुण गाता था. इसका परिणाम देखिये. जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला अपने राम-काव्य में भगवन राम के वन-गमन का वर्णन करते हुए लिखते है 
रुखसत हुआ वो बाप से ले कर खुदा का नाम
भगवान राम के लिए रुखसत हुआ और महाराज दशरथ के लिए बाप शब्द, भगवान राम जो स्वयं ईश्वर का अवतार हैं के लिए खुदा का नाम का ले कर विदा हुआ जैसा गधेपन का प्रयोग उर्दू में अपने को मनवाने के लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य हैं. जब तक तुफैल चतुर्वेदी में चतुर्वेदी बाकी हैं उर्दू का वातावरण उसका मानसिक खतना करने में लगा रहता हैं. मुझे यहाँ अपने पहली बार पाकिस्तान जाने की एक घटना याद आती हैं. पाकिस्तान के किसी शायर ने हम भारत के शायरों से कहा कि पाकिस्तान ने उर्दू को ये शायर दिया-वो शायर दिया, ये लेखक दिया-वो लेखक दिया, ये आलोचक दिया-वो आलोचक दिया. हिन्दुस्तान ने उर्दू को क्या दिया. एक भारतीय मुस्लिम शायर का तुरंत जवाब था 'हिन्दुस्तान ने उर्दू को पाकिस्तान दिया'. 

यहाँ उपयुक्त होगा कि एक ही बोली की इन दोनों शैलियों की तुलना की जाये. इससे विषय अधिक स्पष्ट हो सकेगा. अमीर खुसरो तथा कुछ अन्य आचार्यों के बहुत प्रसिद्ध दोहे देखिये

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस 
चल खुसरो घर आपने रेन भई चहुँ देस 

कागा सब तन खाइयो चुनि-चुनि खइयो मास
दुइ नैना मत खाइयो पिया मिलन की आस 

कागा नैन निकास ले पिया पास ले जाय
पहले दरस दिखाय दे पाछे लीजो खाय

अब उर्दू के सबसे बड़े माने जाने वाले दो शायर मीर और ग़ालिब के शेर देखिये

जाता है यार तेगबकफ गैर की तरफ 
ऐ कुश्ता-ए-सितम तिरी गैरत को क्या हुआ ..मीर तकी मीर

आमदे-सैलाबे-तूफाने-सदा-ए-आब है
नक़्शे-पा जो कान में रखता है उंगली जादह से ...ग़ालिब 

आपको जान कर आश्चर्य होगा कि ये दोहे अपने मूल स्वरूप में फारसी लिपि में लिखे गये हैं और इनके रचनाकार भी मुस्लिम हैं. आप या कोई भी इन्हें उर्दू कहेगा या हिंदी ? ये वो भाषाई स्वरूप है जो भारत की तमाम भाषाओँ के मिश्रण का परिणाम था. ढेरों बोलियों, बानियों, साखियों के समरस होने के कारण, व्यापारियों, साधुओं, नाथों, फकीरों के व्यापक जनसम्पर्क के कारण ये बोली उभरी. उर्दू मूलतः इस भारतीयता से ओतप्रोत भाषा को फारसी की फोटोकॉपी बनने का प्रयास है. उर्दू भारतीय भाषाओँ पर फारसी-तुर्की की कलम है और ध्यान रहे कलम पेड़ का मूल चरित्र पूरी तरह बदलने के लिए लगायी जाती है. ये गंगा-यमुनी सभ्यता नहीं है. गंगा-दजला या यमुना-फुरात की सभ्यता को मिलाने का कार्य है और इस सायास कोशिश के साथ ये काम है कि गंगा पर दजला और यमुना पर फुरात हावी हो जाये. उर्दू भारत के धर्मांतरित हिन्दुओं को पहले मुसलमान फिर कट्टर मुसलमान और अंततः तालिबानी बनने का एक और इस्लामी उपकरण है. 
उर्दू पढ़ायेगा कौन ? ...मदरसे का मुल्ला. उसकी ट्रेनिंग क्या है ?.... तालिबानी सोच. उर्दू के पढने और बढ़ने से हिंदी या अन्य हिंदुस्तानी भाषाओँ की ही हानि नहीं हुई है अपितु हिन्दुस्तान की भी भयंकर हानि हुई है. इसके कारण ही उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान न्यायालय में गया. 
न्यायपालिका को सायास जनसामान्य से दूर रखा गया है. किन्तु ऐसा नहीं हो सकता कि उसे समाज के विभिन्न हिस्सों का मानस क्या है इसका पता न हो.  उसमें जैसी अराष्ट्रीय धारा बह रही है उसे बदलने के लिए उसे भी योगदान करना चाहिए. उसके फैसले संविधान के दायरे के साथ-साथ राष्ट्र के दूरगामी हित की दृष्टि से भी देखे जाते तो कितना अच्छा होता. राष्ट्रविरोधी कार्यों को रोका जाना आवश्यक है. पाकिस्तान का आंदोलन, उसमे मारे गये लाखों लोग, करोड़ों लोगों का विस्थापन क्या एक बार पर्याप्त नहीं है जो दुबारा वही पौधा रोपा जा रहा है ? राजनीतिकों के तो क्षुद्र स्वार्थ हैं, जिसके चलते वो ऐसा कर रहे हैं. मेरे देखे इसका एक ही हल है कि उर्दू की लिपि स्थानीयता के हिसाब से देवनागरी या वहीँ की कोई आंचलिक की जाये और इसे पूर्ण रूप से भारतीय बनाया जाये, बन जाने के लिए बाध्य किया जाये 

तुफैल चतुर्वेदी       

3 टिप्‍पणियां:

  1. ये भारतीय भाषा ही है | इसमें जितने भी शब्द हैं हिन्दी ,भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी , मराठी आदि से है | बस कुछ रईसजादे व अय्यासी पसन्द लोगो ने अपने फायदे के लिए इसकी लीपि विदेशी कर के फूट डालो राज करो की निति अपनाई थी | आज भी कुछ लोग secularisum के नाम पर वही काम कर रहे हैं |

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  2. ये भारतीय भाषा ही है | इसमें जितने भी शब्द हैं हिन्दी ,भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी , मराठी आदि से है | बस कुछ रईसजादे व अय्यासी पसन्द लोगो ने अपने फायदे के लिए इसकी लीपि विदेशी कर के फूट डालो राज करो की निति अपनाई थी | आज भी कुछ लोग secularisum के नाम पर वही काम कर रहे हैं |

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