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शुक्रवार, 27 जनवरी 2017
बुधवार, 25 जनवरी 2017
सामान्य व्यक्ति और महापुरुष में जो बड़े अंतर होते हैं उनमें से प्रमुख यह है कि महापुरुष की दृष्टि उस कालखंड पर जिसमें वह हमारे बीच उपस्थित होता है, के साथ-साथ अतीत और भविष्य पर भी भरपूर सजगता के साथ होती है। वस्तुतः अतीत की घटनाओं की सामूहिक परिणति ही तो वर्तमान है और वर्तमान के कार्यकलाप ही तो भविष्य तय करते हैं। अतः अतीत का तार्किक विवेचन किये बिना वर्तमान की घटनाओं की प्रवृत्ति को कैसे समझा जा सकता है और वर्तमान का निर्धारण किये बग़ैर भविष्य का निर्माण कैसे किया जा सकता है ? भारत के वास्तविक और मूल राष्ट्र अर्थात हिंदुओं पर बढ़ते चले जा रहे भयावह ख़तरों को सामान्य व्यक्ति भी पहचानता है तो कोई महापुरुष उसे समझने में कैसे चूक सकता है ? ऐसे अनेकों महापुरुषों ने समय-समय पर राष्ट्र रक्षा के लिये अपने स्वभाव के अनुरूप व्यवस्था की है।
इन महापुरुषों में 22 दिसम्बर 1666 पटना में एक जन्मा एक बालक सर्वप्रमुख है। जी हाँ अभिप्राय गुरु गोविन्द सिंह जी से है। धर्म-रक्षा के लिये जूझने वाले अन्य महापुरुषों ने जहाँ आजीवन संघर्ष किया वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने आजीवन संघर्ष के साथ साथ का इस संकट के मूल स्वरूप को पहचाना और समझा कि यह संघर्ष केवल तात्कालिक नहीं है। इसे इस्लाम की ऐसी चिंतन-धारा पुष्ट कर रही है जो अपने अतिरिक्त प्रत्येक विचार को हर प्रकार से दूषित और भ्रष्ट मानती है। इस विचारप्रणाली की दृष्टि में उसके अतिरिक्त हर विचार को नष्ट करना अनिवार्य है अतः इसे समाप्त करने के लिये इसके प्रत्यक्ष आतताइयों को ही दण्डित करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसकी कोई स्थाई व्यवस्था बनानी आवश्यक है। इसका अहर्निश पीछा करना, इसे खदेड़ना, इसको हर प्रकार से नष्ट करना मानवता के सुरक्षित रखने के लिए ज़ुरूरी है।
वह देख सकते थे कि इस विचारधारा की आतंकी कार्यवाहियों को उसके धर्मग्रंथ से इस प्रकार अनवरत प्रश्रय मिल रहा है और यह शताब्दियों से लगातार उपद्रव करती आ रही है तो उसके वर्तमान को ही नष्ट करना पर्याप्त नहीं है। उसकी हिंसक कार्यवाहियाँ भविष्य में न हों, आगामी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रहे, वह चैन से जीवन व्यतीत कर सके इस हेतु वर्तमान से भविष्य तक का इंतज़ाम करना होगा। आख़िर पाशविक मनोविकारों को मानवीय गुण मानने वालों से और कैसे निबटा जा सकता है ? इस के स्थाई समाधान के लिए उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पन्थ की स्थापना की। इस हत्यारी विचारधारा से विभिन्न राष्ट्रों के बहुत से लोग जूझे मगर इससे जूझते रहने, लगातार लड़ते रहने की व्यवस्था भारत में ही बनी। यह घटना सम्पूर्ण विश्व में इस्लामी आतंक से जूझने के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में भी प्रमुखतम है। इसी के बाद एक के बाद दूसरे जन-समूह, एक देश के बाद दूसरे देश को लीलते जा रहे इस्लामी दावानल के पाँव भारत की धरती पर थमे।
9 वर्ष की आयु में अपने पिता गुरू तेग़ बहादुर जी को धर्म के लिए बलिदान के लिए प्रेरित करने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी का सम्पूर्ण जीवन पल-पल राष्ट्र चिंता में रत रहा। घटना यह थी कि उनके पिता गुरू तेग़ बहादुर जी के पास कश्मीरी हिंदुओं का एक समूह आया और उनसे औरंगज़ेब के आदेश पर कश्मीर के मुग़ल सूबेदार इफ़्तिख़ार ख़ान के हिंदुओं को यातना दे कर मुसलमान बनाने के लिये बाध्य करने की शिकायत की। गुरु तेग़ बहादुर जी के मुंह से निकला "धर्म किसी महापुरुष का बलिदान मांग रहा है" बालक गोविन्द राय जी तुरन्त बोले "आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ?" गुरू तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं से कहा। औरंगज़ेब से कहो अगर गुरु तेग़ बहादुर मुसलमान बन जायेंगे तो हम भी बन जायेंगे। इस घोषणा के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी भ्रमण करते हुए दिल्ली पहुंचे, जहाँ उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मुसलमान बनने के लिये कहा गया और न मानने पर शिष्यों सहित क़ैद कर लिया गया। उनके शिष्य भाई मति दास को आरे से चीरे जाने, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाले जाने जैसी कई सप्ताह तक भयानक यातना देने के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी का 11 नवम्बर 1675 को इस्लामी मुफ़्ती के आदेश पर सर काट दिया गया।
धर्म के लिये अपने अपने पिता के बलिदान होने के बाद 10 वर्ष की अवस्था में गुरु पद पर विराजे पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी आध्यात्मिक नेता, दूरदर्शी चिंतक, बृजभाषा के अद्भुत कवि, उद्भट योद्धा थे। 1699 ईसवीं में 33 वर्ष की आयु में बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर साहब में आपने ख़ालसा पंथ की स्थापना की। धर्मरक्षा को ही जीवन मानने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना उग्रदंती में लिखित यह पंक्तियाँ ख़ालसा पंथ की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करती हैं।
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे
जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे
इस्लामी आतंक के कारण बलिदान होने वाले वीरों की अटूट श्रंखला में आपके पुत्रों के बलिदान भी अतुलनीय हैं। शस्त्रों की छाँव में पाले गये 17 और 13 वर्ष की आयु के उनके दो पुत्र साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह 1704 ईसवीं में चमकौर दुर्ग में लड़ते हुए बलिदान हुए। 8 और 5 वर्ष के जोरावर सिंह और फतेह सिंह मुसलमान न बनने के कारण दीवार में चुन दिए गए। इतिहास में बहुत ही काम उदाहरण मिलते हैं जब किसी पिता ने एक सप्ताह में अपने 4–4 बेटे बलिदान दे दिए हों। इसी कारण गुरु गोविन्द सिह जी को सरबस दानी भी कहा जाता है। जब गुरु साहब को इसकी सूचना मिली तो उनके मुंह से बस इतना निकला
इन पुत्रन के कारने, वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ, जीवें कई हज़ार
उनके व्यक्तित्व में इतने आयाम हैं कि उनके गुणों की चर्चा करने के लिये एक लेख कम पड़ेगा अतः उनके जीवन के योद्धा पक्ष और उसके प्रमाण स्वरूप उनकी पौरुषपूर्ण रचना ज़फ़रनामा का उपयोग ही करना समीचीन होगा। गुरु गोविन्द सिंह जी ने हत्यारी विचारधारा के केंद्र औरंगज़ेब को 1705 ईसवीं में फ़ारसी में एक पत्र लिखा जिसे ज़फ़रनामा कहा जाता है। ज़फ़रनामा को भाई दयासिंह जी से औरंगज़ेब के पास अहमदनगर भिजवाया गया। उसमें वर्णित मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ प्रमुख पदों का यहां भावार्थ देना उपयुक्त होगा। गुरु गोविंद सिंह ने जफरनामा का प्रारंभ ईश्वर के स्मरण से किया है। उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि 'मैंने ईश्वर की शपथ ली है, जो तलवार, तीर-कमान, बरछी और कटार का ईश्वर है और युद्धस्थल में तूफान जैसे तेज दौड़ने वाले घोड़ों का ईश्वर है।' वह औरंगज़ेब को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, 'जिसने तुझे बादशाहत दी उसी ने मुझे धर्म की रक्षा की दौलत दी है। मुझे वह शक्ति दी है कि मैं धर्म की रक्षा करूं और सत्य का ध्वज ऊंचा हो।' आप इस पत्र में औरंगज़ेब को 'धूर्त', 'फरेबी' और 'मक्कार' बताते हैं। उसकी इबादत को 'ढोंग' कहते हैं।
मुस्लिम साम्राज्य के सबसे क्रूर आततायी को अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा बताना उनकी वीरता का प्रमाण है। आज भी धमनियों में रक्त का संचार प्रबल कर देने वाले अपने पत्र ज़फ़रनामे में गुरु गोविंद सिंह स्वाभिमान तथा पौरुष का परिचय देते हुए आगे लिखते हैं मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पंजाब में उसे बुझाने तथा तुझे पीने को पानी तक नहीं मिलेगा। वह औरंगजेब को चुनौती देते हुए लिखते हैं, 'मैं इस युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तू दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना।' क्या हुआ अगर मेरे चार बच्चे मारे गये, पर कुंडली मारे डंसने वाला नाग अभी बाकी है।'
गुरु गोविंद सिंह ने औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं। 'सिकंदर और शेरशाह कहां हैं ? आज तैमूर कहां है ? बाबर कहां है ? हुमायूं कहां है ? अकबर कहां है ?' अपने तीखे सम्बोधन से औरंगज़ेब को ललकारते हुए कहते हैं, 'तू कमजोरों पर जुल्म करता है, उन्हें सताता है। कसम है कि एक दिन तुझे आरे से चिरवा दूंगा।' इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हैं, 'जब सभी प्रयास करने के बाद भी न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना सही है और युद्ध करना उचित है।' ज़फ़रनामे के अंत के पद में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए फ़रमाते हैं, 'शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे, पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है, उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।' वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर-काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं को प्रकट करता है। उनका यह पत्र युद्ध का घोष तो है ही, साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है।
यह पत्र पीड़ित, दुखी, हताश, निराश, खिन्न हिन्दू समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला साबित हुआ। समाज में औरंगज़ेब के कुकृत्यों के प्रति आक्रोश बढ़ा और विदेशी आक्रमणकारी साम्राज्य औरंगज़ेब के साथ ही अपने पतन की ढलान पर बढ़ गया। गुरु गोविन्द सिह जी का अवतरण सोये हुए समाज को झकझोर गया और भारत भर को ग्रसे हुए मुग़ल साम्राज्य के खण्ड-खण्ड हो गये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
इन महापुरुषों में 22 दिसम्बर 1666 पटना में एक जन्मा एक बालक सर्वप्रमुख है। जी हाँ अभिप्राय गुरु गोविन्द सिंह जी से है। धर्म-रक्षा के लिये जूझने वाले अन्य महापुरुषों ने जहाँ आजीवन संघर्ष किया वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने आजीवन संघर्ष के साथ साथ का इस संकट के मूल स्वरूप को पहचाना और समझा कि यह संघर्ष केवल तात्कालिक नहीं है। इसे इस्लाम की ऐसी चिंतन-धारा पुष्ट कर रही है जो अपने अतिरिक्त प्रत्येक विचार को हर प्रकार से दूषित और भ्रष्ट मानती है। इस विचारप्रणाली की दृष्टि में उसके अतिरिक्त हर विचार को नष्ट करना अनिवार्य है अतः इसे समाप्त करने के लिये इसके प्रत्यक्ष आतताइयों को ही दण्डित करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसकी कोई स्थाई व्यवस्था बनानी आवश्यक है। इसका अहर्निश पीछा करना, इसे खदेड़ना, इसको हर प्रकार से नष्ट करना मानवता के सुरक्षित रखने के लिए ज़ुरूरी है।
वह देख सकते थे कि इस विचारधारा की आतंकी कार्यवाहियों को उसके धर्मग्रंथ से इस प्रकार अनवरत प्रश्रय मिल रहा है और यह शताब्दियों से लगातार उपद्रव करती आ रही है तो उसके वर्तमान को ही नष्ट करना पर्याप्त नहीं है। उसकी हिंसक कार्यवाहियाँ भविष्य में न हों, आगामी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रहे, वह चैन से जीवन व्यतीत कर सके इस हेतु वर्तमान से भविष्य तक का इंतज़ाम करना होगा। आख़िर पाशविक मनोविकारों को मानवीय गुण मानने वालों से और कैसे निबटा जा सकता है ? इस के स्थाई समाधान के लिए उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पन्थ की स्थापना की। इस हत्यारी विचारधारा से विभिन्न राष्ट्रों के बहुत से लोग जूझे मगर इससे जूझते रहने, लगातार लड़ते रहने की व्यवस्था भारत में ही बनी। यह घटना सम्पूर्ण विश्व में इस्लामी आतंक से जूझने के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में भी प्रमुखतम है। इसी के बाद एक के बाद दूसरे जन-समूह, एक देश के बाद दूसरे देश को लीलते जा रहे इस्लामी दावानल के पाँव भारत की धरती पर थमे।
9 वर्ष की आयु में अपने पिता गुरू तेग़ बहादुर जी को धर्म के लिए बलिदान के लिए प्रेरित करने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी का सम्पूर्ण जीवन पल-पल राष्ट्र चिंता में रत रहा। घटना यह थी कि उनके पिता गुरू तेग़ बहादुर जी के पास कश्मीरी हिंदुओं का एक समूह आया और उनसे औरंगज़ेब के आदेश पर कश्मीर के मुग़ल सूबेदार इफ़्तिख़ार ख़ान के हिंदुओं को यातना दे कर मुसलमान बनाने के लिये बाध्य करने की शिकायत की। गुरु तेग़ बहादुर जी के मुंह से निकला "धर्म किसी महापुरुष का बलिदान मांग रहा है" बालक गोविन्द राय जी तुरन्त बोले "आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ?" गुरू तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं से कहा। औरंगज़ेब से कहो अगर गुरु तेग़ बहादुर मुसलमान बन जायेंगे तो हम भी बन जायेंगे। इस घोषणा के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी भ्रमण करते हुए दिल्ली पहुंचे, जहाँ उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मुसलमान बनने के लिये कहा गया और न मानने पर शिष्यों सहित क़ैद कर लिया गया। उनके शिष्य भाई मति दास को आरे से चीरे जाने, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाले जाने जैसी कई सप्ताह तक भयानक यातना देने के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी का 11 नवम्बर 1675 को इस्लामी मुफ़्ती के आदेश पर सर काट दिया गया।
धर्म के लिये अपने अपने पिता के बलिदान होने के बाद 10 वर्ष की अवस्था में गुरु पद पर विराजे पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी आध्यात्मिक नेता, दूरदर्शी चिंतक, बृजभाषा के अद्भुत कवि, उद्भट योद्धा थे। 1699 ईसवीं में 33 वर्ष की आयु में बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर साहब में आपने ख़ालसा पंथ की स्थापना की। धर्मरक्षा को ही जीवन मानने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना उग्रदंती में लिखित यह पंक्तियाँ ख़ालसा पंथ की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करती हैं।
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे
जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे
इस्लामी आतंक के कारण बलिदान होने वाले वीरों की अटूट श्रंखला में आपके पुत्रों के बलिदान भी अतुलनीय हैं। शस्त्रों की छाँव में पाले गये 17 और 13 वर्ष की आयु के उनके दो पुत्र साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह 1704 ईसवीं में चमकौर दुर्ग में लड़ते हुए बलिदान हुए। 8 और 5 वर्ष के जोरावर सिंह और फतेह सिंह मुसलमान न बनने के कारण दीवार में चुन दिए गए। इतिहास में बहुत ही काम उदाहरण मिलते हैं जब किसी पिता ने एक सप्ताह में अपने 4–4 बेटे बलिदान दे दिए हों। इसी कारण गुरु गोविन्द सिह जी को सरबस दानी भी कहा जाता है। जब गुरु साहब को इसकी सूचना मिली तो उनके मुंह से बस इतना निकला
इन पुत्रन के कारने, वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ, जीवें कई हज़ार
उनके व्यक्तित्व में इतने आयाम हैं कि उनके गुणों की चर्चा करने के लिये एक लेख कम पड़ेगा अतः उनके जीवन के योद्धा पक्ष और उसके प्रमाण स्वरूप उनकी पौरुषपूर्ण रचना ज़फ़रनामा का उपयोग ही करना समीचीन होगा। गुरु गोविन्द सिंह जी ने हत्यारी विचारधारा के केंद्र औरंगज़ेब को 1705 ईसवीं में फ़ारसी में एक पत्र लिखा जिसे ज़फ़रनामा कहा जाता है। ज़फ़रनामा को भाई दयासिंह जी से औरंगज़ेब के पास अहमदनगर भिजवाया गया। उसमें वर्णित मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ प्रमुख पदों का यहां भावार्थ देना उपयुक्त होगा। गुरु गोविंद सिंह ने जफरनामा का प्रारंभ ईश्वर के स्मरण से किया है। उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि 'मैंने ईश्वर की शपथ ली है, जो तलवार, तीर-कमान, बरछी और कटार का ईश्वर है और युद्धस्थल में तूफान जैसे तेज दौड़ने वाले घोड़ों का ईश्वर है।' वह औरंगज़ेब को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, 'जिसने तुझे बादशाहत दी उसी ने मुझे धर्म की रक्षा की दौलत दी है। मुझे वह शक्ति दी है कि मैं धर्म की रक्षा करूं और सत्य का ध्वज ऊंचा हो।' आप इस पत्र में औरंगज़ेब को 'धूर्त', 'फरेबी' और 'मक्कार' बताते हैं। उसकी इबादत को 'ढोंग' कहते हैं।
मुस्लिम साम्राज्य के सबसे क्रूर आततायी को अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा बताना उनकी वीरता का प्रमाण है। आज भी धमनियों में रक्त का संचार प्रबल कर देने वाले अपने पत्र ज़फ़रनामे में गुरु गोविंद सिंह स्वाभिमान तथा पौरुष का परिचय देते हुए आगे लिखते हैं मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पंजाब में उसे बुझाने तथा तुझे पीने को पानी तक नहीं मिलेगा। वह औरंगजेब को चुनौती देते हुए लिखते हैं, 'मैं इस युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तू दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना।' क्या हुआ अगर मेरे चार बच्चे मारे गये, पर कुंडली मारे डंसने वाला नाग अभी बाकी है।'
गुरु गोविंद सिंह ने औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं। 'सिकंदर और शेरशाह कहां हैं ? आज तैमूर कहां है ? बाबर कहां है ? हुमायूं कहां है ? अकबर कहां है ?' अपने तीखे सम्बोधन से औरंगज़ेब को ललकारते हुए कहते हैं, 'तू कमजोरों पर जुल्म करता है, उन्हें सताता है। कसम है कि एक दिन तुझे आरे से चिरवा दूंगा।' इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हैं, 'जब सभी प्रयास करने के बाद भी न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना सही है और युद्ध करना उचित है।' ज़फ़रनामे के अंत के पद में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए फ़रमाते हैं, 'शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे, पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है, उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।' वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर-काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं को प्रकट करता है। उनका यह पत्र युद्ध का घोष तो है ही, साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है।
यह पत्र पीड़ित, दुखी, हताश, निराश, खिन्न हिन्दू समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला साबित हुआ। समाज में औरंगज़ेब के कुकृत्यों के प्रति आक्रोश बढ़ा और विदेशी आक्रमणकारी साम्राज्य औरंगज़ेब के साथ ही अपने पतन की ढलान पर बढ़ गया। गुरु गोविन्द सिह जी का अवतरण सोये हुए समाज को झकझोर गया और भारत भर को ग्रसे हुए मुग़ल साम्राज्य के खण्ड-खण्ड हो गये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
शुक्रवार, 20 जनवरी 2017
बंधुओ, सम्भवतः आपने अमरीका के नये राष्ट्रपति महामहिम डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनने के बाद का पहला भाषण सुना होगा। न सुना हो तो कृपया अवश्य सुनें। इसे कहते हैं तेजस्वी नेता। आज के भ्रष्ट और घटिया राजनैतिक परिदृश्य में अपने पहले भाषण से ही ट्रम्प आशा और विश्वास की किरण बन कर उभरे हैं। हमारे टी वी चैनलों पर बैठे हुए प्रोफ़ेसर आनंद कुमार जैसे वाचाल इस भाषण से पहले कह रहे थे "चुनाव के लिये वोटों का ध्रुवीकरण आपसे कुछ भी कहलवा लेता है मगर शासन की वास्तविकता कुछ और होती है"। मनहूस वामपंथ, अल्पसंख्यकवाद की लम्पट, झूटी राजनीति को प्रेरित करती वाचालता मानती नहीं मगर पौरुष तो पौरुष ही होता है। महामहिम राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने स्पष्ट सन्देश दिया।
सम्पूर्ण विश्व शताब्दियों से आतंकवाद, गुंडागर्दी, अनाचार से पीड़ित है। 1400 वर्षों से सारे योरोप, एशिया, अफ़्रीक़ा में मंदिर, चर्च, सिनेगॉग, बौद्ध विहार, विश्वविद्यालय, पुस्तकालय ध्वस्त किये, तोड़े गए हैं। लाखों लोगों को ग़ुलाम बनाया जाता रहा है। अपमानित कर जज़िया वसूला जाता रहा है। जिस चिंतन ने यह किया था वो आज भी उसी रास्ते पर चल रहा है। वही क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह { अल्लाह की राह में क़त्ल करो } जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह { अल्लाह की राह में जिहाद करो } काफ़िर वाजिबुल क़त्ल { अमुस्लिम वधयोग्य है } का हत्यारा चिंतन आज भी विश्व के जीवन को संकट में डाले हुए है। विश्वास न हो तो कृपया क़ुरआन के सन्दर्भ देखिये
ओ मुसलमानों तुम गैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { 9-123 }
और तुम उनको जहां पाओ कत्ल करो { 2-191 }
काफिरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
ऐ नबी ! काफिरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है { 9-73 और 66-9 }
अल्लाह ने काफिरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आखिरत पर; जो उसे हराम नहीं जानते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे जलील हो कर जजिया न देने लगें { 9-29 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और गलत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110 }
और तुम उनको जहां पाओ कत्ल करो { 2-191 }
काफिरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
ऐ नबी ! काफिरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है { 9-73 और 66-9 }
अल्लाह ने काफिरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आखिरत पर; जो उसे हराम नहीं जानते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे जलील हो कर जजिया न देने लगें { 9-29 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और गलत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110 }
अमरीका के नये राष्ट्रपति महामहिम डोनाल्ड ट्रम्प के इस भाषण से स्पष्ट है कि अब ग़ज़वा-ए-हिन्द का सपना देखती हुई आँखों को ग़ज़वा-ए-सलफ़ियत, ग़ज़वा-ए-वहाबियत देखने के दिन आ रहे हैं। शताब्दियों से विश्व को ऐसे पौरुषवान नेतृत्व की प्रतीक्षा थी। डोनाल्ड ट्रम्प राजनेता नहीं है वरन विश्व को त्रास से उबारने वाले चमत्कारी राष्ट्रभक्त हैं। उन्हें इसी कार्य के लिये अमरीकी जनता ने जनादेश दिया था। यहाँ स्मरण करता चलूँ कि नरेन्द्र मोदी जी और उनके प्रत्याशियों का भी भारत की जनता ने इसी आशा में ही विजय तिलक किया था। बंधुओ, यह हमारा भी क्षण है। सैकड़ों वर्षों से रिसते आ रहे घावों को साफ़ करने, उन पर मरहम लगाने का यही समय है। भगवान महाकाल से प्रार्थना कीजिये कि विश्व को आतंकमुक्त करने के महती उद्देश्य को सफल करें। इसमें भरतवंशियों का योगदान अनिवार्य है। सबसे बड़ा हिसाब तो हमारा ही शेष है। पूज्य डॉ हेडगेवार ने भारत माता के उत्कर्ष के लिए याचि देही याचि डोला { इसी देह से इन्हीं आँखों से } शब्दों का प्रयोग इतिहास के इसी मोड़ के लिये किया था।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
गुरुवार, 19 जनवरी 2017
दोस्तो सार्वजनिक जीवन के स्थापित लोग बेचैन कर सकने वाले विषयों पर सामान्यतः चुप रहते हैं या बहुत नपा-तुला बोलते हैं। उनकी कोशिश ये रहती है कि ऐसा कुछ भी जो विवादास्पद बन सकता है न कहा जाये। इसकी तह में ये भय रहता है कि स्थिर और स्थापित जीवन विचलित न हो जाये मगर साहिबो एक मर्द निकल आया और याक़ूब मेनन जैसे दुर्दांत हत्यारे और उसके हिमायतियों के बारे में सच कह दिया। जी हाँ मैं त्रिपुरा के राज्यपाल महामहिम तथागत राय की बात कर रहा हूँ।
याक़ूब मेनन जैसे देशद्रोही को ही नहीं किसी भी भारतीय को जीवन का अधिकार संविधान से मिला मौलिक अधिकार है। इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी भी स्थिति में किसी भारतीय नागरिक के प्राण नहीं लिये जा सकते। इसका अर्थ यह है कि किसी भारतीय नागरिक के प्राण लेने का अधिकार केवल राज्य को है और वो भी नागरिक के प्राण लेने के लिए अभियोग ही चला सकता है और मृत्युदंड का निर्णय उससे निरपेक्ष, तटस्थ न्यायपालिका करेगी। न्यायपालिका भी प्राणदंड स्वयं अपनी व्यवस्था के अनुसार दुर्लभतम में भी दुर्लभ मामलों में देती है।
सेशन, हाई कोर्ट में अपील, सुप्रीम कोर्ट में अपील, राष्ट्रपति से क्षमादान की याचिका और उसे निरस्त कर देने के बाद फिर से पुनरीक्षण याचिका यानी हर तरह से सिक्काबंद, ठोस व्यवस्था कि कोई निर्दोष न मर जाये। ये सावधानी इस हद तक है कि भारतीय भूमि पर किसी विदेशी आतंकी को भी बिना अभियोग चलाये मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता । अजमल कसाब पर भी इस धरती के कानूनों के हिसाब से अभियोग चला कर नियमानुसार मृत्युदंड दिया गया।
याक़ूब मेनन अपने पापी ख़ानदान सहित मुंबई के सीरियल बम धमाकों जिनमें 270 लोग मारे गए और हज़ारों लोग बुरी तरह घायल हुए, में सम्मिलित था। याक़ूब मेनन का अपराध हताहतों की संख्या की दृष्टि से ही बहुत बड़ा नहीं है बल्कि देशद्रोह भी है। उसने, उसके बाप, माँ, भाई, भाभी अन्य परिवारीय लोगों ने अपनी तरफ से यथासंभव भारत को चोट पहुँचाने का भरसक प्रयास किया। इसके परिवार में कइयों को सज़ाएं हुईं और इसे फांसी पर लटकाया गया। ऐसे दुष्ट प्राणी को मिटटी में दबाने के समय लाखों लोगों का उपस्थित होना क्या कह रहा है ?
आख़िर एक देशद्रोही के जनाज़े में सम्मिलित होने वाले लोग कुछ सोच कर तो अपने काम पर न जा कर क़ब्रिस्तान पहुंचे होंगे ? उनके मानस में कोई तो अंतर्धारा बह रही होगी ? उस अंतर्धारा की पहचान और वो देश, राष्ट्र के लिए हानिकर है तो उसकी रोकथाम राजनेता नहीं करेंगे तो और कौन करेगा ?
आख़िर लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, आज़म खान, अबू आज़मी, कांग्रेस के सचिन पायलेट, शकील अहमद, मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अकबरुद्दीन ओवैसी-असदुद्दीन ओवैसी, साम्यवादी पार्टी के प्रकाश करात, वृंदा करात, आप के अरविन्द केजरीवाल, आप से निष्काशित प्रशांत भूषण, ममता बनर्जी जैसे मुस्लिम वोटों के लिये जीभ लपलपाते राजनेता उसके पक्ष में अकारण तो बक्चो…नहीं करने लगे।
फांसी लगने के बाद याक़ूब मेनन का शरीर पूरा उसके घर वालों को सौंप दिया गया। जिसके दफ़नाते समय लाखों मुसलमान एकत्र हुए। यहाँ ये ध्यान में आना आवश्यक है कि इन हत्यारों के किये विस्फोटों के बाद सैकड़ों लोगों के छिन्न-भिन्न शव मिले। जिनके टुकड़े इकट्ठे कर के अंतिम संस्कार किया गया। सैकड़ों घायल हुए लोग आज भी विकलांग का जीवन जी रहे हैं। देवबंदी मुल्लाओं ने तो कहा था आतंकवादियों की नमाज़े-जनाज़ा जायज़ नहीं है।
वो सारे कहाँ हैं ?बोलते क्यों नहीं ? मुंह में दही जमा हुआ है या ज़बान बिल्ली ले गयी ? आज ये सब तो ऐसे चुप बैठे हैं जैसे गोद में सांप बैठा हो और हिलना मना हो।
बंधुओ, तो जो बोल रहे हैं उनके पक्ष आवाज़ नहीं उठानी चाहिये। क्या ये समय त्रिपुरा के राज्यपाल महामहिम तथागत राय का आभार प्रकट करने, उनकी स्तुति गान का नहीं है ? और कुछ नहीं तो महामहिम तथागत राय के चरणों में हम प्रणाम तो कर ही सकते हैं। महामहिम प्रणाम स्वीकारिये
तुफ़ैल चतुर्वेदी
सोमवार, 16 जनवरी 2017
महाराष्ट्र सरकार ने उन मदरसों के, जो आधुनिक विषय नहीं पढ़ा रहे हैं, को स्कूल न मानने और उनका अनुदान बंद करने का निर्णय लिया है। इस पर कई मुस्लिम और कांग्रेसी राजनेता, पत्रकार, मीडिया चैनल चिल्ल-पौं मचा रहे हैं। लगभग "भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्मा' वाली नौटंकी चल रही है। ये अनुकूल समय है कि इसी बहाने शिक्षा के उद्देश्य, उसको प्राप्त करने की दिशा में मदरसा प्रणाली की सफलता और उन राजनेताओं, पत्रकारों की भी छान-फटक कर ली जाये। आख़िर किसी योजना के शुरू करने, वर्षों चलाने के बाद उसको लक्ष्य प्राप्ति की कसौटी पर खरा-खोटा जांचा जायेगा कि नहीं ? ये पैसा महाराष्ट्र में लम्बे समय तक शासन करने वाले कॉंग्रेसी मुख्यमंत्रियों, शिक्षा मंत्रियों के घर का पैसा नहीं था। ये धन समाज का है और समाज का धन नष्ट करने के लिये निश्चित ही नहीं होता।
सदैव से शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को अर्थोपार्जन की धारा में डालना होता है। इसी से जुड़ा या अन्तर्निहित लक्ष्य ये भी होता है कि धन की प्राप्ति का मार्ग संवैधानिक ही होना चाहिये यानी व्यक्ति के संस्कार का विषय भी धन कमाने से जुड़ा होता है। ज़ाहिर है ऐसे लोग भी होते हैं जो जेब काटने, ठगी करने, चोरी करने, डाका डालने, अपहरण करके फिरौती वसूलने को भी घन प्राप्ति का माध्यम मानते हैं और ऐसा करते हैं। मध्य काल के अनेक योद्धा समूह इसी तरह से जीवन जीते रहे हैं। ब्रिटिश शासन के भारत में भी कंजर, हबोड़े, सांसी, नट इत्यादि अनेकों जातियों के समूह इसी प्रकार से जीवन यापन करते रहे हैं। प्रशासन, पुलिस के दबाव और सभ्यता के विकास के साथ उनका इस प्रकार का जीवन भी बदला और वो सब सभ्य समाज के साथ समरस होने लगे हैं। यहाँ एक प्रश्न टी वी चैनलों पर अंतहीन बहस करने-करवाने वाले ऐंकरों और उनसे सीखे-तैयार किये भेजों में कुलबुलायेगा कि सभ्य होने की सबकी अपनी-अपनी परिभाषा हैं। ऐसा कलुषित जीवन जीने वाले भी अपने को सर्वाधिक सभ्य मान सकते हैं।
इसलिये इसकी बिल्कुल सतही, बेसिक परिभाषा से काम चलाते हैं। प्रत्येक मनुष्य के सामान अधिकार, स्त्रियों तथा पुरुषों के बराबर के अधिकार, रजस्वला हो जाने के बाद ही लड़की का विवाह, दास-प्रथा का विरोध, जीवन का अधिकार मूल अधिकार { इसका अर्थ ये है कि राज्य ही अत्यंत-विशेष परिस्थिति में किसी व्यक्ति के प्राण ले सकता है और ऐसा करने के लिये भी अभयोग लगाने, सुनवाई करने की ठोस-सिक्काबंद न्याय व्यवस्था आवश्यक है। यानी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को संवैधानिक मार्गों से ही धन अर्जन करने का माध्यम सुझाना है।
यहाँ से मैं मदरसा की शिक्षण प्रणाली पर बात करना चाहता हूँ। भारत में मदरसों का प्रारम्भ बाबर ने किया था। हम सब जानते हैं बाबर मुग़ल आक्रमणकारी था। भारत में उस समय पचासों आक्रमणकारियों के नृशंस कार्यों, विद्धवंस के बाद भी गांव-गांव में अपनी गुरुकुल प्रणाली चल रही थी। हमें उस समय किसी नए शिक्षण की आवश्यकता नहीं थी। आइये विचार करें बाबर के भारत की भूमि में इस प्रणाली के बीज रोपने का क्या उद्देश्य रहा होगा ? इसे जानने के लिए उपयुक्त है कि मदरसों का सामान्य पाठ्यक्रम क्या है, वहां क्या पढ़ाया जाता है, इस पर विचार किया जाये।
मदरसा इस्लामी शिक्षा का माध्यम है। अब यहाँ क़ुरआन { अज़बर-उसे कंठस्थ करना, क़िरअत-उसे लय से पढ़ना, तफ़सीर-उसका विवेचन करना }, हदीस { मुहम्मद जी के जीवन की घटनाओं का लिपिबद्ध स्वरूप}, फ़िक़ा { इस्लामी क़ानून }, सर्फ़ उन्नव { अरबी व्याकरण } दीनियात { इस्लाम के बारे में अध्ययन }, मंतिक़ और फ़लसफ़ा { तर्क और दर्शन } पढ़ाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस्लाम के विषय में अन्य सभी प्रकार का शिक्षण दिया जाता है। कुछ मदरसों में कंप्यूटर, अंग्रेजी, तारीख़ { मूलतः इस्लाम का इतिहास और कुछ भारत का भी इतिहास } पढ़ाया जाता है।
मैं आग्रह करूँगा कि मिडिया, प्रेस, सभाओं में हाय-हत्या करने वाले कोई भी सज्जन-दुर्जन-कुज्जन देवबंद, सहारनपुर, लखनऊ, बरेली, बनारस, सूरत, पटना, दरभंगा, कलकत्ता, थाणे कहीं के भी मदरसों में जा कर केवल एक किनारे चुपचाप खड़े हो कर वहां की चहलपहल देखें। वहां पूरा वातावरण मध्य युगीन होता है। ढीले-ढाले कपड़े पहने, प्रचलित व्यवहार से बिलकुल भिन्न टोपियां लगाये इन छात्रों की आँखों में झांकें। आप पायेंगे इनकी आँखों में विकास करने, आगे बढ़ने, समाज के हित में कुछ करने की ललक, सपने हैं ही नहीं। आप वहां इतिहास की अजीब सी व्याख्या, उसके कुछ हिस्सों का मनमाना पाठ, अरबी सीखने के नाम पर कुछ अपरिचित आवाज़ें रटते लोगों को पाते हैं। ऐसे लोग जो मानते हैं औरत आदमी की पसली से बनायी गयी है। उसमें बुद्धि नहीं होती और वो नाक़िस उल अक़्ल है। उसे परदे में रहना चाहिये। उसका काम मुस्लिम बच्चे पैदा करना, घर की अंदरूनी देखभाल है। जो आज भी समझते हैं कि धरती गोल नहीं चपटी है। सूरज शाम को कीचड़ भरे तालाब में डूब जाता है। Till, when he reached the setting-place of the sun, he found it setting in muddy spring, and found a people thereabout: We said: O Dhu'l-Qarneyn! Either punish him or show them kindness { Quraan Ayat 86 chapter 18 Al-Kahaf }
ऐसे छात्र जो समझते हैं कि केवल वो जिस सिमित जीवन-शैली के बारे में जानते हैं, वही सही है और शेष दुनिया शैतानी है। प्रकृति के प्रत्येक कण के प्रति आभारी-आस्थावान प्रकृति पूजक, मूर्ति-पूजक, ईसाई, यहूदी, पारसी, बौद्ध, शिन्तो, नास्तिक अर्थात उसके अतिरिक्त सारे ही लोग वाजिबुल-क़त्ल हैं। इन सबको मारे अथवा मुसलमान बनाये संसार में चैन नहीं आ सकता। संसार एक ईश्वर बल्कि अरबी अल्लाह की उसकी सीखी-पढ़ाई व्यवस्था से इबादत करने के लिये अभिशप्त है। आज नहीं तो कल सारी दुनिया इस्लाम क़ुबूल कर लेगी और क़ुरआन के रास्ते पर आ जाएगी। उन के जीवन का उद्देश्य इसी दावानल का ईंधन बनना है। संसार के बारे में ऐसी अटपटी, अजीब दृष्टि बनाना केवल इसी लिये संभव होता है चूँकि ये लोग असीम आकाश को चालाक लोगों की बनायी गयी बहुत छोटी सी खिड़की से देखते हैं। ये काफ़ी कुछ कुएँ के मेढक द्वारा समुद्र से आये मेंढक के बताने पर समुद्र की लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान लगाने की तरह है। कुएँ में लगायी गयी कितनी भी छलाँगें, ढेरों उछल-कूद समुद्र के विस्तार को कैसे बता सकती है ? कुँए में रहने वाला समुद्र की कल्पना ही कैसे कर सकता है ? उसे समझ ही कैसे सकता है ?
मदरसा मूलतः इस्लामी चिंतन के संसार पर दृष्टिपात का उपकरण है। स्वाभाविक है ऐसी आँखें फोड़ने वाली विचित्र शिक्षा के बाद निकले छात्र जीवनयापन की दौड़ से स्वयं को बाहर पाते हैं। उन्हें मदरसे से बाहर की दुनिया पराई लगती है। इन तथ्यों की उपस्थिति में निस्संकोच ये निष्पत्ति हाथ आती है कि मदरसा दुनिया को देखने का ऐसा टेलिस्कोप है जिसके दोनों तरफ़ के शीशे पहले दिन से ही कोलतार से पुते हुए थे। इसका प्रयोग देखने वाले को कुछ उपलब्ध नहीं कराता बल्कि उसे समाज से काट देता है। वो कुछ न दिखाई देने के लिये अपनी बौड़म बुद्धि, ग़लत टेलिस्कोप को ज़िम्मेदार नहीं ठहराता बल्कि इसके लिए बेतुके तर्क ढूंढता है और उसे मंतिक़-फ़िक़ा का नाम देता है। मदरसे की जड़ में इस्लामी जीवन पद्धति है और ये पद्धति सारे समाज से स्वयं को काट कर रखती है। आप सारे विश्व में मुस्लिम बस्तियां अन्य समाजों से अलग पाते हैं। स्वयं सोचिये आपके मुस्लिम दोस्त कितने हैं ? वो आपको कितना अपने घर बुलाते हैं ? वो अपने समाज के अतिरिक्त अन्य समाज के लोगों में कितना समरस होते हैं ?
साहिबो यही बाबर का उद्देश्य था। भारत में भारत के पूरी तरह ख़िलाफ़, अटपटी तरह से सोचने-जीने वाला, आतंरिक विदेशी मानस पैदा करना। इसी तरह से भारत में इस मिटटी के लिये पराई सोच का पौधा जड़ें जमा सकता था। यही वो उपकरण है जिसने कश्मीर में आतंकवाद पनपाया है। वृहत्तर भारत की छोड़ें, इसी उपकरण के कारण अभी हमसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्ला देश अलग हुए थे। इसी उपकरण के उपयोग के कारण सारे संसार में वहाबियत फ़ैल रही है। यही वो अजीब से शिक्षण-प्रणाली है जो मनमाने ढंग से तर्क की कसौटी पर स्वयं को कसे बिना पूर्णरूपेण सही और दूसरों को घृणा-योग्य ग़लत समझती है। इसी वहाबी सोच के कारण वो संसार भर में नृशंस हत्याकांडों को आवश्यक समझती है। सबको मार डालने का ये दर्शन नरबलि देने वाले अघोरियों जैसा बल्कि उससे कहीं अधिक खतरनाक है चूँकि अघोरी विचार समूह का विचार नहीं है।
आज नहीं तो कल इससे तो हम निबट ही लेंगे मगर इस संस्थान से उपजी खर-पतवार का क्या किया जाये ? ये बाजार में नहीं बिकती और फिर मंडी पर ही पक्षपात का आरोप लगाने लगती है। सच्चर महाशय जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे वो इसी संस्थान की शिक्षा प्रणाली का परिणाम है। इस प्रणाली के पक्ष में विधवा-विलाप करने वाले किसी भी व्यक्ति का बेटा-बेटी मदरसे में आखिर क्यों नहीं पढ़ता ? ये लोग मदरसे में पढ़ी लड़की को अपनी बहू क्यों नहीं बनाते ? मदरसे के छात्र को दामाद क्यों नहीं बनाते ? सच्चाई उन्हें भी पता है मगर उनको लगता है कि मुल्ला पार्टी इस हाय हाय मचने से उनके पक्ष में वोट डलवा देगी। आखिर बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव सन्निकट हैं और मुल्ला टोलियां अपने पक्ष में घुमानी हैं या नहीं ? मित्रो ! ये बन्दर नाच इसी लिए हो रहा है
तुफैल चतुर्वेदी
शनिवार, 14 जनवरी 2017
.......................भविष्यवाणी
..............{ काश गलत हो मगर होगी नहीं }
फारसी का एक मुहावरा है खाकम-ब-दहन यानी मेरे मुंह में खाक. लेख के शुरू में ही ये वाक्य अपने लिए प्रयोग कर रहा हूँ कि जिस भविष्यगत बात को ले कर कोई और आशंकित होगा मैं निश्चिन्त हूँ कि वही होगी. विषय कश्मीर का है. इसके लिए इतिहास में संक्षिप्त रूप से जाना आवश्यक है. आइये आपको थोड़ा अतीत में ले चलूँ.
भारतीयों के स्थान-स्थान पर यथा-संभव विरोध, 1945 में समाप्त हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड की भग्न दशा, भारतीय उपमहाद्वीप पर होने वाले व्यय की अधिकता और आय में अनुपातिक कमी, द्वितीय विश्व युद्ध के लिए ब्रिटेन द्वारा अधीन भारत से लिए गए करोड़ों-करोड़ पौंड का ऋण { जिसे आज तक लौटाया नहीं गया है और वो आज भी हमारी बेलेंस शीट में दिखाया जाता है }, आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों पर चलाये गए मुकदमों के कारण ब्रिटिश भारतीय सेना में गहरी बेचैनी, हिन्दुओं-मुसलमानों को लगातार लड़ाते जाने की ब्रिटिश नीति के विस्फोट के क्षण का निकट आते जाना, अमरीका का दबाव जैसे ढेरों कारण थे कि अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए विवश हो गए. देश का शासन मूलतः आई. सी. एस. अधिकारी चलाते थे. गांधीवादियों के मनमाने दावे ' दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल' के विपरीत अँगरेज़ 1935 से ही स्वयं को भारत को स्वतंत्र करने के बारे में तय कर चुके थे. बिना खड्ग या खड्ग के साथ स्वतंत्रता मिलनी ही थी. अंग्रेज़ों की मनस्थिति और उनकी तत्कालीन विवश परिस्थितियों की जानकारी इस तथ्य से ही लगती है कि अंग्रेज़ों ने 1939 से ही आई. सी. एस. की भर्ती बंद कर दी थी. वो येन केन प्रकारेण देश चला रहे थे और अधिकतम ब्रिटिश हित सुरक्षित रखते हुए भारत से निकलने का रास्ता ढूंढ रहे थे.
द्वितीय महायुद्ध समाप्त होते-होते इंग्लैंड में भारतीय स्वतंत्रता के विरोधी चर्चिल की जगह एटली की सरकार आ गयी. ये पार्टी लड़ी ही इस आश्वासन पर थी कि अगर वो सरकार में आएगी तो ब्रिटेन पर अब बोझ बन गए उपनिवेशों को स्वतंत्र कर देगी. अपने चुनावी वादे के अनुसार उसने भारत को उसके हाल पर छोड़ कर जाने का निर्णय ले लिया. ब्रिटिश हित सुरक्षित रखने के लिए देश का खून-खराबे वाला अधीर विभाजन और भारत के विभाजित हिस्सों का कॉमन वेल्थ में होना सुनिश्चित कराया गया. ब्रिटिश सेना के गुप्त दस्तों चर्च के स्कूलों, संस्थानों की संपत्ति भारतीय संघ में सुरक्षित रहना निश्चित किया गया. इस विभाजन के लिए अंग्रेजों ने अपने सीधे अधीन क्षेत्रों में हिन्दू भारत और मुस्लिम पाकिस्तान के लिए जनमत संग्रह कराया. इन क्षेत्रों के निवासियों ने निर्णय ले लिया. इसके अतिरिक्त भारत में रजवाड़े थे. उनको नरेशों की स्वतंत्र इच्छा पर छोड़ा गया कि वो अपने राज्य का भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का निर्णय ले लें. यह निर्णय सशर्त था. इस निर्णय को लेते समय नरेश को ध्यान रखना था कि उसके राज्य की सीमा विलय के निर्णय वाले देश की सीमा से लगती हो. अर्थात भोपाल या रामपुर रियासत अपना विलय पाकिस्तान में नहीं कर सकती थी और सिंध की बहावलपुर रियासत का राजा स्वयं को हिन्दुस्तान में विलीन नहीं कर सकता था.
एक एक कर सभी राजाओं ने आगे-पीछे अपने-अपने राज्यों का भारत या पाकिस्तान में विभिन्न संधियों के अनुरूप विलय कर दिया. इस विलय के लिए एक मात्र नरेश ही अधिकारी थे. सभी अन्य नरेशों की तरह कश्मीर के महाराजा हरी सिंह जी ने भी अपने राज्य का 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय कर दिया. ये उनकी पैतृक संपत्ति-अपने राज्य का, अपने राज्य से टैक्स इकठ्ठा करने के अधिकार, न्याय, सुरक्षा इत्यादि का भारत में उसी तरह विलय था जैसे अन्य राजाओं ने भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय किया था. यह विलय अपरिवर्तनीय थे यानी विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद नरेश स्वयं उस विलय पर पुनर्विचार नहीं कर सकते थे.
तत्कालीन प्रधान-मंत्री जवाहर लाल नेहरू महाराजा हरि सिंह तथा डोगरों को घृणा की हद तक नापसंद करते थे. उन्होंने महाराजा और डोगरों को नीचा दिखाने के लिए विलय के 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 में धारा 370 लागू की. ये धारा अपने प्रावधानों के अनुसार भी अस्थाई है. इस धारा का जम्मू कश्मीर रियासत के भारत में विलय से कुछ भी लेना-देना नहीं है. ये विलय अपरिवर्तनीय है. धारा 370 एक सामान्य अस्थाई उपबंध है और इस धारा को कश्मीरी राजनेताओं के बड़बोले दावों के विपरीत भारत के महामहिम राष्ट्रपति के केवल एक आदेश से निरस्त किया जा सकता है.
ये कोई बड़ी बात नहीं थी मगर शेख अब्दुल्ला और उसके साथियों को नेहरू जी सहायता के कारण भारत को ब्लैक मेल करने का उपकरण मिल गया. परिणामतः कुछ लाख कश्मीरी न केवल पूरे जम्मू और लद्दाख के लोगों की असह्य उपेक्षा करते हैं वरन करोड़ों भारतीयों के परिश्रम से अर्जित संसाधनों पर अपना मनमाना अधिकार समझते हैं. सारा देश तब से ही कश्मीरी मुसलमानों की सुरक्षा, उनकी दैनंदिन आवश्यकताओं, उनकी विकास परियोजनाओं, उनके कर्मचारियों के वेतन, उनके ठाठ-बाट का खर्च उठता है. बदले में तरह-तरह की धौंस-पट्टी, उद्दंडता, आँखें दिखाना सहता है. जम्मू-कश्मीर के अपने संसाधन तो इतने भी नहीं हैं कि वो राज्य के कर्मचारियों का वेतन भी दे सके. भारतीयों की गाढ़ी कमाई के करोड़ों-करोड़ रुपये कश्मीरियों के तुष्टिकरण के लिए शुरू से मुफ्तखोरी की भट्टी में झोंके जाते रहे हैं. ये एकतरफा बदमाशी है. जम्मू-कश्मीर में जम्मू और लद्दाख की जनसँख्या कश्मीर घाटी से अधिक है मगर विधयक कश्मीर घाटी से अधिक चुने जाते हैं अतः वो जम्मू और लद्दाख के अधिकारों को मनमाने ढंग से हड़प लेते हैं.
उनके अक्षमता का अंदाज़ा इस बात से लगाइये कि वर्तमान में आई बाढ़ में जम्मू-कश्मीर का प्रशासन एक पानी के एक थपेड़े ने ध्वस्त कर दिया. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपने निवास से 3 दिन तक बाहर नहीं निकल सके. भारतीय सेना तुरंत आगे बढ़ी और कश्मीर के निवासियों को खाना-पानी, दवाएं पहुंचाईं. भारत के संसाधन फिर एक बार कश्मीरियों के लिए लगा दिए गए हैं. करोड़ों के बजट स्वीकृत किये जा रहे हैं, हमारे वीर सैनिक जान पर खेल कर, ध्यान रहे उन दुष्टों को बचा रहे हैं जो इन पर पत्थर फेंकते रहे हैं. आतंकवादियों को सूचनाएं, खाना-पानी, दवा-दारू, सुरक्षित पनाहें उपलब्ध करते रहे हैं. ये वही दुष्ट लोग हैं जिन्होंने अपने ही क्षेत्र से अपने ही रक्त के बंधु 4 लाख हिन्दुओं के क्रूर निष्काशन पर मौन सम्मति दी. कभी उनके निकाले जाने का विरोध नहीं किया बल्कि उनकी छोड़ी हुई जमीनों, मकानों पर कब्जा कर लिया.
भारतीय राज्य की ये विवशता है भी कि अपने समाज पर आई विपदा के समय उसकी चिंता, सहायता करे. फिर इस समय नरेंद्र मोदी जी प्रधानमंत्री हैं जिनका सेवा कार्यों में अचूक व्यवस्था का रेकॉर्ड है. कच्छ भुज के भूकम्प के समय उनके कार्यों की विश्व भर में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई थी. अब पानी उतर रहा है और देखिएगा ये कश्मीरी लोग अपनी करनी पर फिर उतरेंगे. कितनी भी सेवा कर ली जाये ये बदलने वाले नहीं है. फिर सहायता के नाम पर मुफ्तखोरी का कटोरा ले कर खड़े हो जायेंगे, आँखें दिखाएंगे, गुर्रायेंगे, पत्थर फेंकेंगे. सेना और भारत को बदनाम करेंगे.
सदियों से चली आई एक कहावत है अव्वल अफगान, दोयम कम्बोह, सोयम बदजात कश्मीरी. पहले नंबर के धूर्त अफगान होते हैं दूसरे नंबर के कम्बोह { एक भारतीय मुस्लिम जाति } तीसरे नंबर के धूर्त कश्मीरी होते हैं. ये कहावत हैदराबाद राज्य के शब्दकोष फरहंगे-आसिफिया में दर्ज थी. इसको तरक्की उर्दू बोर्ड ने सत्तर के दशक में छापा. कश्मीरियों ने बहुत बवाल किया, ऊधम मचाया और उर्दू बोर्ड ने शब्दकोष वापस लिए. पन्ने बदले गए. बंधुओ ! कहावतें समय बनाता है और समय का देखा-कहा अचूक और बिलकुल ठीक होता है. मेरे मुंह में खाक..काश मेरा कहा झूठा साबित हो और कश्मीरी अच्छे देश वासी बन कर दिखाएँ
तुफैल चतुर्वेदी
..............{ काश गलत हो मगर होगी नहीं }
फारसी का एक मुहावरा है खाकम-ब-दहन यानी मेरे मुंह में खाक. लेख के शुरू में ही ये वाक्य अपने लिए प्रयोग कर रहा हूँ कि जिस भविष्यगत बात को ले कर कोई और आशंकित होगा मैं निश्चिन्त हूँ कि वही होगी. विषय कश्मीर का है. इसके लिए इतिहास में संक्षिप्त रूप से जाना आवश्यक है. आइये आपको थोड़ा अतीत में ले चलूँ.
भारतीयों के स्थान-स्थान पर यथा-संभव विरोध, 1945 में समाप्त हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड की भग्न दशा, भारतीय उपमहाद्वीप पर होने वाले व्यय की अधिकता और आय में अनुपातिक कमी, द्वितीय विश्व युद्ध के लिए ब्रिटेन द्वारा अधीन भारत से लिए गए करोड़ों-करोड़ पौंड का ऋण { जिसे आज तक लौटाया नहीं गया है और वो आज भी हमारी बेलेंस शीट में दिखाया जाता है }, आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों पर चलाये गए मुकदमों के कारण ब्रिटिश भारतीय सेना में गहरी बेचैनी, हिन्दुओं-मुसलमानों को लगातार लड़ाते जाने की ब्रिटिश नीति के विस्फोट के क्षण का निकट आते जाना, अमरीका का दबाव जैसे ढेरों कारण थे कि अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए विवश हो गए. देश का शासन मूलतः आई. सी. एस. अधिकारी चलाते थे. गांधीवादियों के मनमाने दावे ' दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल' के विपरीत अँगरेज़ 1935 से ही स्वयं को भारत को स्वतंत्र करने के बारे में तय कर चुके थे. बिना खड्ग या खड्ग के साथ स्वतंत्रता मिलनी ही थी. अंग्रेज़ों की मनस्थिति और उनकी तत्कालीन विवश परिस्थितियों की जानकारी इस तथ्य से ही लगती है कि अंग्रेज़ों ने 1939 से ही आई. सी. एस. की भर्ती बंद कर दी थी. वो येन केन प्रकारेण देश चला रहे थे और अधिकतम ब्रिटिश हित सुरक्षित रखते हुए भारत से निकलने का रास्ता ढूंढ रहे थे.
द्वितीय महायुद्ध समाप्त होते-होते इंग्लैंड में भारतीय स्वतंत्रता के विरोधी चर्चिल की जगह एटली की सरकार आ गयी. ये पार्टी लड़ी ही इस आश्वासन पर थी कि अगर वो सरकार में आएगी तो ब्रिटेन पर अब बोझ बन गए उपनिवेशों को स्वतंत्र कर देगी. अपने चुनावी वादे के अनुसार उसने भारत को उसके हाल पर छोड़ कर जाने का निर्णय ले लिया. ब्रिटिश हित सुरक्षित रखने के लिए देश का खून-खराबे वाला अधीर विभाजन और भारत के विभाजित हिस्सों का कॉमन वेल्थ में होना सुनिश्चित कराया गया. ब्रिटिश सेना के गुप्त दस्तों चर्च के स्कूलों, संस्थानों की संपत्ति भारतीय संघ में सुरक्षित रहना निश्चित किया गया. इस विभाजन के लिए अंग्रेजों ने अपने सीधे अधीन क्षेत्रों में हिन्दू भारत और मुस्लिम पाकिस्तान के लिए जनमत संग्रह कराया. इन क्षेत्रों के निवासियों ने निर्णय ले लिया. इसके अतिरिक्त भारत में रजवाड़े थे. उनको नरेशों की स्वतंत्र इच्छा पर छोड़ा गया कि वो अपने राज्य का भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का निर्णय ले लें. यह निर्णय सशर्त था. इस निर्णय को लेते समय नरेश को ध्यान रखना था कि उसके राज्य की सीमा विलय के निर्णय वाले देश की सीमा से लगती हो. अर्थात भोपाल या रामपुर रियासत अपना विलय पाकिस्तान में नहीं कर सकती थी और सिंध की बहावलपुर रियासत का राजा स्वयं को हिन्दुस्तान में विलीन नहीं कर सकता था.
एक एक कर सभी राजाओं ने आगे-पीछे अपने-अपने राज्यों का भारत या पाकिस्तान में विभिन्न संधियों के अनुरूप विलय कर दिया. इस विलय के लिए एक मात्र नरेश ही अधिकारी थे. सभी अन्य नरेशों की तरह कश्मीर के महाराजा हरी सिंह जी ने भी अपने राज्य का 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय कर दिया. ये उनकी पैतृक संपत्ति-अपने राज्य का, अपने राज्य से टैक्स इकठ्ठा करने के अधिकार, न्याय, सुरक्षा इत्यादि का भारत में उसी तरह विलय था जैसे अन्य राजाओं ने भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय किया था. यह विलय अपरिवर्तनीय थे यानी विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद नरेश स्वयं उस विलय पर पुनर्विचार नहीं कर सकते थे.
तत्कालीन प्रधान-मंत्री जवाहर लाल नेहरू महाराजा हरि सिंह तथा डोगरों को घृणा की हद तक नापसंद करते थे. उन्होंने महाराजा और डोगरों को नीचा दिखाने के लिए विलय के 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 में धारा 370 लागू की. ये धारा अपने प्रावधानों के अनुसार भी अस्थाई है. इस धारा का जम्मू कश्मीर रियासत के भारत में विलय से कुछ भी लेना-देना नहीं है. ये विलय अपरिवर्तनीय है. धारा 370 एक सामान्य अस्थाई उपबंध है और इस धारा को कश्मीरी राजनेताओं के बड़बोले दावों के विपरीत भारत के महामहिम राष्ट्रपति के केवल एक आदेश से निरस्त किया जा सकता है.
ये कोई बड़ी बात नहीं थी मगर शेख अब्दुल्ला और उसके साथियों को नेहरू जी सहायता के कारण भारत को ब्लैक मेल करने का उपकरण मिल गया. परिणामतः कुछ लाख कश्मीरी न केवल पूरे जम्मू और लद्दाख के लोगों की असह्य उपेक्षा करते हैं वरन करोड़ों भारतीयों के परिश्रम से अर्जित संसाधनों पर अपना मनमाना अधिकार समझते हैं. सारा देश तब से ही कश्मीरी मुसलमानों की सुरक्षा, उनकी दैनंदिन आवश्यकताओं, उनकी विकास परियोजनाओं, उनके कर्मचारियों के वेतन, उनके ठाठ-बाट का खर्च उठता है. बदले में तरह-तरह की धौंस-पट्टी, उद्दंडता, आँखें दिखाना सहता है. जम्मू-कश्मीर के अपने संसाधन तो इतने भी नहीं हैं कि वो राज्य के कर्मचारियों का वेतन भी दे सके. भारतीयों की गाढ़ी कमाई के करोड़ों-करोड़ रुपये कश्मीरियों के तुष्टिकरण के लिए शुरू से मुफ्तखोरी की भट्टी में झोंके जाते रहे हैं. ये एकतरफा बदमाशी है. जम्मू-कश्मीर में जम्मू और लद्दाख की जनसँख्या कश्मीर घाटी से अधिक है मगर विधयक कश्मीर घाटी से अधिक चुने जाते हैं अतः वो जम्मू और लद्दाख के अधिकारों को मनमाने ढंग से हड़प लेते हैं.
उनके अक्षमता का अंदाज़ा इस बात से लगाइये कि वर्तमान में आई बाढ़ में जम्मू-कश्मीर का प्रशासन एक पानी के एक थपेड़े ने ध्वस्त कर दिया. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपने निवास से 3 दिन तक बाहर नहीं निकल सके. भारतीय सेना तुरंत आगे बढ़ी और कश्मीर के निवासियों को खाना-पानी, दवाएं पहुंचाईं. भारत के संसाधन फिर एक बार कश्मीरियों के लिए लगा दिए गए हैं. करोड़ों के बजट स्वीकृत किये जा रहे हैं, हमारे वीर सैनिक जान पर खेल कर, ध्यान रहे उन दुष्टों को बचा रहे हैं जो इन पर पत्थर फेंकते रहे हैं. आतंकवादियों को सूचनाएं, खाना-पानी, दवा-दारू, सुरक्षित पनाहें उपलब्ध करते रहे हैं. ये वही दुष्ट लोग हैं जिन्होंने अपने ही क्षेत्र से अपने ही रक्त के बंधु 4 लाख हिन्दुओं के क्रूर निष्काशन पर मौन सम्मति दी. कभी उनके निकाले जाने का विरोध नहीं किया बल्कि उनकी छोड़ी हुई जमीनों, मकानों पर कब्जा कर लिया.
भारतीय राज्य की ये विवशता है भी कि अपने समाज पर आई विपदा के समय उसकी चिंता, सहायता करे. फिर इस समय नरेंद्र मोदी जी प्रधानमंत्री हैं जिनका सेवा कार्यों में अचूक व्यवस्था का रेकॉर्ड है. कच्छ भुज के भूकम्प के समय उनके कार्यों की विश्व भर में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई थी. अब पानी उतर रहा है और देखिएगा ये कश्मीरी लोग अपनी करनी पर फिर उतरेंगे. कितनी भी सेवा कर ली जाये ये बदलने वाले नहीं है. फिर सहायता के नाम पर मुफ्तखोरी का कटोरा ले कर खड़े हो जायेंगे, आँखें दिखाएंगे, गुर्रायेंगे, पत्थर फेंकेंगे. सेना और भारत को बदनाम करेंगे.
सदियों से चली आई एक कहावत है अव्वल अफगान, दोयम कम्बोह, सोयम बदजात कश्मीरी. पहले नंबर के धूर्त अफगान होते हैं दूसरे नंबर के कम्बोह { एक भारतीय मुस्लिम जाति } तीसरे नंबर के धूर्त कश्मीरी होते हैं. ये कहावत हैदराबाद राज्य के शब्दकोष फरहंगे-आसिफिया में दर्ज थी. इसको तरक्की उर्दू बोर्ड ने सत्तर के दशक में छापा. कश्मीरियों ने बहुत बवाल किया, ऊधम मचाया और उर्दू बोर्ड ने शब्दकोष वापस लिए. पन्ने बदले गए. बंधुओ ! कहावतें समय बनाता है और समय का देखा-कहा अचूक और बिलकुल ठीक होता है. मेरे मुंह में खाक..काश मेरा कहा झूठा साबित हो और कश्मीरी अच्छे देश वासी बन कर दिखाएँ
तुफैल चतुर्वेदी
बुधवार, 11 जनवरी 2017
मैं स्वयं और अन्य बहुत से मानवतावादी खिन्न हैं कि हमारे मुस्लिम भाई खुश नहीं हैं। मैं इनके लिए मनुष्यता में प्रबल विश्वास रखने के नाते दुखी हूँ और आंसुओं में डूबा हुआ हूँ। वो तो नगर के सौभाग्य से मेरी आँखों के ग्लैंड्स ख़राब हैं इसलिये आंसू अंदर-अंदर बह रहे हैं अन्यथा शहर में बाढ़ आ जाती।
वो मिस्र में दुखी हैं, वो लीबिया में दुखी हैं. वो मोरक़्क़ो में दुखी हैं. वो ईरान में दुखी हैं. वो ईराक़ में दुखी हैं. वो यमन में दुखी हैं. वो अफगानिस्तान में दुखी हैं. वो पाकिस्तान में दुखी हैं। वो बंग्लादेश में दुखी हैं, वो सीरिया में दुखी हैं. वो हर मुस्लिम देश में दुखी हैं। बस दुख ही उनकी नियति हो गया है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के आंकड़े इस कारण उपलब्ध नहीं दे पा रहा हूँ कि वहां भयानक तानाशाही है। केवल पानी की लाइन की शिकायत करने सम्बंधित विभाग में 5 लोग चले जाएँ तो देश में विप्लव फ़ैलाने की आशंका में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं।
आइये इसका कारण ढूँढा जाये और देखा जाये कि वो कहाँ सुखी हैं. वो ऑस्ट्रेलिया में खुश हैं. वो इंग्लैंड में खुश हैं. वो फ़्रांस में खुश हैं. वो भारत में खुश हैं. वो इटली में खुश हैं. वो जर्मनी में खुश हैं. वो स्वीडन में खुश हैं. वो अमरीका में खुश हैं. वो कैनेडा में खुश हैं. वो हर उस देश में खुश हैं जो इस्लामी नहीं है. विचार कीजिये कि अपने दुखी होने के लिए वो किसको आरोपित करते हैं ? स्वयं को नहीं, अपने नेतृत्व को नहीं, अपने जीवन दर्शन को नहीं को नहीं. वो उन देशों, जहाँ वो खुश हैं की व्यवस्थाओं, उनके प्रजातंत्र को आरोपित करते हैं और चाहते हैं कि इन सब देशों को अपनी व्यवस्था बदल लेनी चाहिए. वो इन देशों से चाहते हैं कि वो स्वयं को उन देशों जैसा बना लें जिन्हें ये छोड़ कर आये हैं।
इसी अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए ये देखना रोचक रहेगा कि विश्व के भिन्न-भिन्न समाज एक दूसरे के साथ रहते हुए किस तरह की प्रतिक्रिया करते हैं. हिन्दू बौद्धों, मुसलमानों, ईसाइयों, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. बौद्ध हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. ईसाई मुसलमानों, बौद्धों, हिन्दुओं, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. यहूदी ईसाइयों, मुसलमानों, बौद्धों, हिन्दुओं, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. इसी तरह शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों को किसी के साथ शांतिपूर्ण जीवनयापन में कहीं कोई समस्या नहीं है।
आइये अब इस्लाम की स्थिति देखें. मुसलमान बौद्धों, हिन्दुओं, ईसाईयों, यहूदियों, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों के साथ कहीं शांति से नहीं रहते. यहाँ तक कि अपने ही मज़हब के तनिक भी भिन्नता रखने वाले किसी भी मुसलमान के साथ चैन से बैठने को तैयार नहीं हैं. अपने से तनिक भी अलग सोच रखने वाले मुसलमान एक दूसरे के लिए खबीस, मलऊन, काफिर, वाजिबुल-क़त्ल माने, कहे और बरते जाते हैं। एक दूसरे की मस्जिदों में जाना हराम है। एक दूसरे के इमामों के पीछे नमाज पढ़ना कुफ्र है। एक दूसरे से रोटी-बेटी के सम्बन्ध वर्जित हैं। सुन्नी शिया मुसलमानों को खटमल कहते हैं और उनके हाथ का पानी भी नहीं पीते। सुन्नी मानते हैं कि शिया उन्हें पानी थूक कर पिलाते हैं।
ये सामान्य तथ्यात्मक विश्लेषण तो यहीं समाप्त हो जाता है मगर अपने पीछे चौदह सौ वर्षों का हाहाकार, मज़हब के नाम पर सताए गए, मारे गए, धर्मपरिवर्तन के लिए विवश किये गए करोड़ों लोगों का आर्तनाद, आगजनी, वैमनस्य, आहें, कराहें, आंसुओं की भयानक महागाथा छोड़ जाता है. इस्लाम विश्व में किस तरह फैला इस विषय पर किन्हीं 4-5 इस्लामी इतिहासकारों की किताब देख लीजिये. काफिरों के सरों की मीनारें, खौलते तेल में उबाले जाते लोग, आरे से चिरवाये जाते काफ़िर, जीवित ही खाल उतार कर नमक-नौसादर लगा कर तड़पते काफ़िर, ग़ैर-मुस्लिमों के बच्चों-औरतों को ग़ुलाम बना कर बाज़ारों में बेचा जाना, काफ़िरों को मारने के बाद उनकी औरतों के साथ हत्यारों की ज़बरदस्ती शादियां, उनके मंदिर, चर्च, सिनेगॉग को ध्वस्त किया जाना......इनके भयानक वर्णनों को पढ़ कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे, ख़ून खौलने लगेगा।
ये सब कुछ अतीत हो गया होता तो पछतावे के अतिरिक्त कुछ शेष न रहता. भोर की सुन्दर किरणें, चहचहाते पंछी, अंगड़ाई ले कर उठती धरा आते दिन का स्वागत करती और जीवन आगे बढ़ता. मगर विद्वानो ! ये घृणा, वैमनस्य, हत्याकांड, हाहाकार, पैशाचिक कृत्य अभी भी उसी तरह चल रहे हैं और इनकी जननी सर्वभक्षी विचारधारा अभी भी मज़हब के नाम पर पवित्र और अस्पर्शी है. कोई भी विचारधारा, वस्तु, व्यक्ति काल के परिप्रेक्ष्य में ही सही या गलत साबित होता है. इस्लाम की ताक़त ही ये है कि वो न केवल जीवन के सर्वोत्तम ढंग होने का मनमाना दावा करता है अपितु इस दावे को परखने भी नहीं देता. कोई परखना चाहे तो बहस की जगह उग्रता पर उतर आता है. उसकी ताकत उसका अपनी उद्दंड और कालबाह्य विचारधारा पर पक्का विश्वास है।
9-11 के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में घुस कर तालिबान को ढेर कर दिया. उसके अड्डे समाप्त कर दिए. उसके नेता मार दिए मगर क्या इससे अमेरिका और सभ्य विश्व सुरक्षित हो गया ? आज भी अमरीका के रक्षा बजट का बहुत मोटा हिस्सा इस्लामी आतंकवाद से सुरक्षा की योजनाएं बनाने में खर्च हो रहा है.
अमेरिका ने सीरिया और इराक में आई एस आई एस द्वारा स्थापित की गयी ख़िलाफ़त से निबटने के लिए सीमित बमबारी तो शुरू की है मगर पूरी प्रखरता के साथ स्वयं को युद्ध में झोंकने की जगह झरोखे में बैठ कर मुजरा लेने की मुद्रा में है. यानी अमेरिका ने अपनी भूमिका केवल हवाई हमले करने और ज़मीनी युद्ध स्थानीय बलों, कुर्दों के हवाले किये जाने की योजना बनाई है. यही चूक अमेरिका ने अफगानिस्तान में की थी।
अब जिन लोगों को सशस्त्र करने की योजना है वो भी इसी कुफ्र और ईमान के दर्शन में विश्वास करने वाले लोग हैं. वो भी काफ़िरों को वाजिबुल-क़त्ल मानते हैं. इसकी क्या गारंटी है कि कल वो भी ऐसा नहीं करेंगे. ये बन्दर के हाथ से उस्तरा छीन कर भालू को उस्तरा थमाना हो सकता है और इतिहास बताता है कि हो सकता नहीं होगा ही होगा. आज नहीं कल इस युद्ध के लिए सम्पूर्ण विश्व को आसमान से धरती पर उतरना होगा. आज तो युद्ध उनके क्षेत्रों में लड़ा जा रहा है. कल ये युद्ध अपनी धरती पर लड़ना पड़ेगा. इस लिए इन विश्वासियों को लगातार वैचारिक चुनौती दे कर बदलाव के लिए तैयार करना और सशस्त्र संघर्ष से वैचारिक बदलाव के लिए बाध्य करना अनिवार्य है।
आई एस आई एस संसार का सबसे धनी आतंकवादी संगठन है. इसे सीरिया के खिलाफ प्रारंभिक ट्रेनिंग भी अमेरिका ने दी है. इसके पास अरबों-खरबों डॉलर हैं. हथियार भी आधुनिकतम अमरीकी हैं. इसके पोषण में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा दिया जा रहा बेहिसाब धन भी है. ये देश भी इतना धन इसी लिए लगा रहे हैं चूँकि इन देशों को भी कुफ्र और ईमान के दर्शन पर अटूट विश्वास है. सभ्य विश्व को इस समस्या के मूल तक जाना होगा. इसके लिए आतंकवादियों के प्रेरणा स्रोतों की वामपंथियों, सेक्युलरों की मनमानी व्याख्या नहीं वरन उनकी अपनी व्याख्या देखनी होगी.
कुफ्र के खिलाफ जिहाद और दारुल-हरब का दारुल-इस्लाम में परिवर्तन का दर्शन इन हत्याकांडों की जड़ है. इस मूल विषय, इसकी व्याख्या और इसके लिए की जा रही कार्यवाहियां वैचारिक उपक्रम को कार्य रूप में परिणत करने के उपकरण हैं. इनको विचारधारा के स्तर पर ही निबटना पड़ेगा. बातचीत की मेज पर बैठाने के लिए प्रभावी बल-प्रयोग की आवश्यकता निश्चित रूप से है और रहेगी मगर ये विचारधारा का संघर्ष है. ये कोई राजनैतिक या क्षेत्रीय लड़ाई नहीं है।
ये घात लगाये दबे पैर बढे आ रहे हत्यारे नहीं हैं. ये अपने वैचारिक कलुष, अपनी मानसिक कुरूपता को नगाड़े बजा कर उद्घाटित करते, प्रचारित करते बर्बर लोगों के समूह हैं. जब तक इनके दिमाग में जड़ें जमाये इस विचारधारा के बीज नष्ट नहीं कर दिए जायेंगे, तब तक संसार में शांति नहीं आ सकेगी. इसके लिए अनिवार्य रूप से इस विचार प्रणाली को प्रत्येक मनुष्य के समान अधिकार, स्त्रियों के बराबरी के अधिकार यानी सभ्यता के आधारभूत नियमों को मानना होगा. इन मूलभूत मान्यताओं का विरोध करने वाले समूहों को लगातार वैचारिक चुनौती देते रहनी होगी. न सुनने, मानने वालों का प्रभावशाली दमन करना होगा।
इसके लिए इस्लाम पर शोध संस्थान, शोधपरक विचार-पत्र, जर्नल, शोधपरक टेलीविजन चैनल, चिंतन प्रणाली में बदलाव के तरीके की प्रभावशाली योजनायें बनानी होंगी. इस तरह के शोध संस्थान आज भी अमेरिका में चल रहे हैं, नए खुल रहे हैं मगर वो सब अरब के पेट्रो डॉलर से हो रहा है. ये संस्थान शुद्ध शोध करने की जगह इस्लाम की स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप तात्कालिक व्याख्या करते हैं और परिस्थितियों के अपने पक्ष में हो जाने यानी जनसँख्या के मुस्लिम हो जाने का इंतज़ार करते हैं. ये तकनीक इस्लाम योरोप में इस्तेमाल कर रहा है. भारत में सफलतापूर्वक प्रयोग कर चुका है और हमारा आधे से अधिक भाग हड़प चुका है, शेष की योजना बनाने में लगा है.
जब मुसलमानों में से ही लोग सवाल उठाने लगेंगे और समाज पर दबाव बनाने के उपकरण मुल्ला समूह के शिकंजे से मुसलमान समाज आजाद हो जायेगा, तभी संसार शांति से बैठ सकेगा. कभी इसी संसार में मानव बलि में विश्वास करने वाले लोग थे मगर अब उनका अस्तित्व समाप्तप्राय है. मानव सभ्यता ने ऐसी सारी विचार-योजनाओं को त्यागा है, न मानने वालों को त्यागने पर बाध्य किया है, तभी सभ्यता का विकास हुआ है. सभ्य विश्व का नेतृत्व अब फिर इसकी योजना बनाने के लिए कृतसंकल्प होना चाहिए. कई 9-11 नहीं झेलने हैं तो स्वयं भी सन्नद्ध होइए और ऐसी हर विचारधारा को दबाइए. मनुष्यता के पक्ष में सोचने को बाध्य कीजिये. बदलने पर बाध्य कीजिये।
तुफैल चतुर्वेदी
शनिवार, 7 जनवरी 2017
सामान्य व्यक्ति और महापुरुष में जो बड़े अंतर होते हैं उनमें से प्रमुख यह है कि महापुरुष की दृष्टि उस कालखंड पर जिसमें वह हमारे बीच उपस्थित होता है, के साथ-साथ अतीत और भविष्य पर भी भरपूर सजगता के साथ होती है। वस्तुतः अतीत की घटनाओं की सामूहिक परिणति ही तो वर्तमान है और वर्तमान के कार्यकलाप ही तो भविष्य तय करते हैं। अतः अतीत का तार्किक विवेचन किये बिना वर्तमान की घटनाओं की प्रवृत्ति को कैसे समझा जा सकता है और वर्तमान का निर्धारण किये बग़ैर भविष्य का निर्माण कैसे किया जा सकता है ? भारत के वास्तविक और मूल राष्ट्र अर्थात हिंदुओं पर बढ़ते चले जा रहे भयावह ख़तरों को सामान्य व्यक्ति भी पहचानता है तो कोई महापुरुष उसे समझने में कैसे चूक सकता है ? ऐसे अनेकों महापुरुषों ने समय-समय पर राष्ट्र रक्षा के लिये अपने स्वभाव के अनुरूप व्यवस्था की है।
इन महापुरुषों में 22 दिसम्बर 1966 पटना में एक जन्मा एक बालक सर्वप्रमुख है। जी हाँ अभिप्राय गुरु गोविन्द सिंह जी से है। धर्म-रक्षा के लिये जूझने वाले अन्य महापुरुषों ने जहाँ आजीवन संघर्ष किया वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने आजीवन संघर्ष के साथ साथ का इस संकट के मूल स्वरूप को पहचाना और समझा कि यह संघर्ष केवल तात्कालिक नहीं है। इसे इस्लाम की ऐसी चिंतन-धारा पुष्ट कर रही है जो अपने अतिरिक्त प्रत्येक विचार को हर प्रकार से दूषित और भ्रष्ट मानती है। इस विचारप्रणाली की दृष्टि में उसके अतिरिक्त हर विचार को नष्ट करना अनिवार्य है अतः इसे समाप्त करने के लिये इसके प्रत्यक्ष आतताइयों को ही दण्डित करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसकी कोई स्थायी व्यवस्था बनानी आवश्यक है। वह देख सकते थे कि इस विचारधारा की आतंकी कार्यवाहियों को उसके धर्मग्रंथ से इस प्रकार अनवरत प्रश्रय मिल रहा है और यह शताब्दियों से लगातार उपद्रव करती आ रही है तो उसके वर्तमान को ही नष्ट करना पर्याप्त नहीं है। उसकी हिंसक कार्यवाहियाँ भविष्य में न हों, आगामी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रहे, वह चैन से जीवन व्यतीत कर सके इस हेतु वर्तमान से भविष्य तक का इंतज़ाम करना होगा। आख़िर पाशविक मनोविकारों को मानवीय गुण मानने वालों से और कैसे निबटा जा सकता है ? इस के स्थायी समाधान के लिए उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पन्थ की स्थापना की। इस हत्यारी विचारधारा से विभिन्न राष्ट्रों के बहुत से लोग जूझे मगर इससे जूझते रहने, लगातार लड़ते रहने की व्यवस्था भारत में ही बनी। यह घटना सम्पूर्ण विश्व में इस्लामी आतंक से जूझने के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में भी प्रमुखतम है। इसी के बाद एक के बाद दूसरे जन-समूह, एक देश के बाद दूसरे देश को लीलते जा रहे इस्लामी दावानल के पाँव भारत की धरती पर थमे।
9 वर्ष की आयु में अपने पिता गुरू तेग़ बहादुर जी को धर्म के लिए बलिदान के लिए प्रेरित करने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी का सम्पूर्ण जीवन पल-पल राष्ट्र चिंता में रत रहा। घटना यह थी कि उनके पिता गुरू तेग़ बहादुर जी के पास कश्मीरी हिंदुओं का एक समूह आया और उनसे औरंगज़ेब के आदेश पर कश्मीर के मुग़ल सूबेदार इफ़्तिख़ार ख़ान के हिंदुओं को यातना दे कर मुसलमान बनाने के लिये बाध्य करने की शिकायत की। गुरु तेग़ बहादुर जी के मुंह से निकला "धर्म किसी महापुरुष का बलिदान मांग रहा है" बालक गोविन्द राय जी तुरन्त बोले "आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ?" गुरू तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं से कहा। औरंगज़ेब से कहो अगर गुरु तेग़ बहादुर मुसलमान बन जायेंगे तो हम भी बन जायेंगे। इस घोषणा के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी भ्रमण करते हुए दिल्ली पहुंचे, जहाँ उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मुसलमान बनने के लिये कहा गया और न मानने पर शिष्यों सहित क़ैद कर लिया गया। उनके शिष्य भाई मति दास को आरे से चीरे जाने, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाले जाने जैसी कई सप्ताह तक भयानक यातना देने के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी का 11 नवम्बर 1675 को इस्लामी मुफ़्ती के आदेश पर सर काट दिया गया।
धर्म के लिये अपने अपने पिता के बलिदान होने के बाद 10 वर्ष की अवस्था में गुरु पद पर विराजे पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी आध्यात्मिक नेता, दूरदर्शी चिंतक, बृजभाषा के अद्भुत कवि, उद्भट योद्धा थे। 1699 ईसवीं में 33 वर्ष की आयु में बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर साहब में आपने ख़ालसा पंथ की स्थापना की। धर्मरक्षा को ही जीवन मानने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना उग्रदंती में लिखित यह पंक्तियाँ ख़ालसा पंथ की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करती हैं।
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे
जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे
इस्लामी आतंक के कारण बलिदान होने वाले वीरों की अटूट श्रंखला में आपके पुत्रों के बलिदान भी अतुलनीय हैं। शस्त्रों की छाँव में पाले गये 17 और 13 वर्ष की आयु के उनके दो पुत्र साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह 1704 ईसवीं में चमकौर में लड़ते हुए बलिदान हुए। 8 और 5 वर्ष के जोरावर सिंह और फतेह सिंह मुसलमान न बनने के कारण दीवार में चुन दिए गए। इतिहास में बहुत ही काम उदाहरण मिलते हैं जब किसी पिता ने एक सप्ताह में अपने 4–4 बेटे बलिदान दे दिए हों। इसी कारण गुरु गोविन्द सिह जी को सरबस दानी भी कहा जाता है। जब गुरु साहब को इसकी सूचना मिली तो उनके मुंह से बस इतना निकला
इन पुत्रन के कारने, वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ, जीवें कई हज़ार
उनके व्यक्तित्व में इतने आयाम हैं कि उनके गुणों की चर्चा करने के लिये एक लेख कम पड़ेगा अतः उनके जीवन के योद्धा पक्ष और उसके प्रमाण स्वरूप उनकी पौरुषपूर्ण रचना ज़फ़रनामा का उपयोग ही करना समीचीन होगा। गुरु गोविन्द सिंह जी ने हत्यारी विचारधारा के केंद्र औरंगज़ेब को 1705 ईसवीं में फ़ारसी में एक पत्र लिखा जिसे ज़फ़रनामा कहा जाता है। ज़फ़रनामा को भाई दयासिंह जी से औरंगज़ेब के पास अहमदनगर भिजवाया गया। उसमें वर्णित मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ प्रमुख पदों का यहां भावार्थ देना उपयुक्त होगा। गुरु गोविंद सिंह ने जफरनामा का प्रारंभ ईश्वर के स्मरण से किया है। उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि 'मैंने ईश्वर की शपथ ली है, जो तलवार, तीर-कमान, बरछी और कटार का ईश्वर है और युद्धस्थल में तूफान जैसे तेज दौड़ने वाले घोड़ों का ईश्वर है।' वह औरंगज़ेब को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, 'जिसने तुझे बादशाहत दी उसी ने मुझे धर्म की रक्षा की दौलत दी है। मुझे वह शक्ति दी है कि मैं धर्म की रक्षा करूं और सत्य का ध्वज ऊंचा हो।' आप इस पत्र में औरंगज़ेब को 'धूर्त', 'फरेबी' और 'मक्कार' बताते हैं। उसकी इबादत को 'ढोंग' कहते हैं।
मुस्लिम साम्राज्य के सबसे क्रूर आततायी को अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा बताना उनकी वीरता का प्रमाण है। आज भी धमनियों में रक्त का संचार प्रबल कर देने वाले अपने पत्र ज़फ़रनामे में गुरु गोविंद सिंह स्वाभिमान तथा पौरुष का परिचय देते हुए आगे लिखते हैं मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पंजाब में उसे बुझाने तथा तुझे पीने को पानी तक नहीं मिलेगा। वह औरंगजेब को चुनौती देते हुए लिखते हैं, 'मैं इस युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तू दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना।' क्या हुआ अगर मेरे चार बच्चे मारे गये, पर कुंडली मारे डंसने वाला नाग अभी बाकी है।'
गुरु गोविंद सिंह ने औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं। 'सिकंदर और शेरशाह कहां हैं? आज तैमूर कहां है ?बाबर कहां है ? हुमायूं कहां है ?अकबर कहां है?' अपने तीखे सम्बोधन से औरंगज़ेब को ललकारते हुए कहते हैं, 'तू कमजोरों पर जुल्म करता है, उन्हें सताता है। कसम है कि एक दिन तुझे आरे से चिरवा दूंगा।' इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हैं, 'जब सभी प्रयास करने के बाद भी न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना सही है और युद्ध करना उचित है।' ज़फ़रनामे के अंत के पद में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए फ़रमाते हैं, 'शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे, पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है, उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।' वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर-काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं को प्रकट करता है। उनका यह पत्र युद्ध का घोष तो है ही, साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है।
यह पत्र पीड़ित, दुखी, हताश, निराश, खिन्न हिन्दू समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला साबित हुआ। समाज में औरंगज़ेब के कुकृत्यों के प्रति आक्रोश बढ़ा और विदेशी आक्रमणकारी साम्राज्य औरंगज़ेब के साथ ही अपने पतन की ढलान पर बढ़ गया। गुरु गोविन्द सिह जी अवतरण सोये हुए समाज को झकझोर गया और भारत भर को ग्रसे हुए मुग़ल साम्राज्य के खण्ड-खण्ड हो गये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
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