सामान्य व्यक्ति और महापुरुष में जो बड़े अंतर होते हैं उनमें से प्रमुख यह है कि महापुरुष की दृष्टि उस कालखंड पर जिसमें वह हमारे बीच उपस्थित होता है, के साथ-साथ अतीत और भविष्य पर भी भरपूर सजगता के साथ होती है। वस्तुतः अतीत की घटनाओं की सामूहिक परिणति ही तो वर्तमान है और वर्तमान के कार्यकलाप ही तो भविष्य तय करते हैं। अतः अतीत का तार्किक विवेचन किये बिना वर्तमान की घटनाओं की प्रवृत्ति को कैसे समझा जा सकता है और वर्तमान का निर्धारण किये बग़ैर भविष्य का निर्माण कैसे किया जा सकता है ? भारत के वास्तविक और मूल राष्ट्र अर्थात हिंदुओं पर बढ़ते चले जा रहे भयावह ख़तरों को सामान्य व्यक्ति भी पहचानता है तो कोई महापुरुष उसे समझने में कैसे चूक सकता है ? ऐसे अनेकों महापुरुषों ने समय-समय पर राष्ट्र रक्षा के लिये अपने स्वभाव के अनुरूप व्यवस्था की है।
इन महापुरुषों में 22 दिसम्बर 1666 पटना में एक जन्मा एक बालक सर्वप्रमुख है। जी हाँ अभिप्राय गुरु गोविन्द सिंह जी से है। धर्म-रक्षा के लिये जूझने वाले अन्य महापुरुषों ने जहाँ आजीवन संघर्ष किया वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने आजीवन संघर्ष के साथ साथ का इस संकट के मूल स्वरूप को पहचाना और समझा कि यह संघर्ष केवल तात्कालिक नहीं है। इसे इस्लाम की ऐसी चिंतन-धारा पुष्ट कर रही है जो अपने अतिरिक्त प्रत्येक विचार को हर प्रकार से दूषित और भ्रष्ट मानती है। इस विचारप्रणाली की दृष्टि में उसके अतिरिक्त हर विचार को नष्ट करना अनिवार्य है अतः इसे समाप्त करने के लिये इसके प्रत्यक्ष आतताइयों को ही दण्डित करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसकी कोई स्थाई व्यवस्था बनानी आवश्यक है। इसका अहर्निश पीछा करना, इसे खदेड़ना, इसको हर प्रकार से नष्ट करना मानवता के सुरक्षित रखने के लिए ज़ुरूरी है।
वह देख सकते थे कि इस विचारधारा की आतंकी कार्यवाहियों को उसके धर्मग्रंथ से इस प्रकार अनवरत प्रश्रय मिल रहा है और यह शताब्दियों से लगातार उपद्रव करती आ रही है तो उसके वर्तमान को ही नष्ट करना पर्याप्त नहीं है। उसकी हिंसक कार्यवाहियाँ भविष्य में न हों, आगामी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रहे, वह चैन से जीवन व्यतीत कर सके इस हेतु वर्तमान से भविष्य तक का इंतज़ाम करना होगा। आख़िर पाशविक मनोविकारों को मानवीय गुण मानने वालों से और कैसे निबटा जा सकता है ? इस के स्थाई समाधान के लिए उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पन्थ की स्थापना की। इस हत्यारी विचारधारा से विभिन्न राष्ट्रों के बहुत से लोग जूझे मगर इससे जूझते रहने, लगातार लड़ते रहने की व्यवस्था भारत में ही बनी। यह घटना सम्पूर्ण विश्व में इस्लामी आतंक से जूझने के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में भी प्रमुखतम है। इसी के बाद एक के बाद दूसरे जन-समूह, एक देश के बाद दूसरे देश को लीलते जा रहे इस्लामी दावानल के पाँव भारत की धरती पर थमे।
9 वर्ष की आयु में अपने पिता गुरू तेग़ बहादुर जी को धर्म के लिए बलिदान के लिए प्रेरित करने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी का सम्पूर्ण जीवन पल-पल राष्ट्र चिंता में रत रहा। घटना यह थी कि उनके पिता गुरू तेग़ बहादुर जी के पास कश्मीरी हिंदुओं का एक समूह आया और उनसे औरंगज़ेब के आदेश पर कश्मीर के मुग़ल सूबेदार इफ़्तिख़ार ख़ान के हिंदुओं को यातना दे कर मुसलमान बनाने के लिये बाध्य करने की शिकायत की। गुरु तेग़ बहादुर जी के मुंह से निकला "धर्म किसी महापुरुष का बलिदान मांग रहा है" बालक गोविन्द राय जी तुरन्त बोले "आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ?" गुरू तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं से कहा। औरंगज़ेब से कहो अगर गुरु तेग़ बहादुर मुसलमान बन जायेंगे तो हम भी बन जायेंगे। इस घोषणा के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी भ्रमण करते हुए दिल्ली पहुंचे, जहाँ उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मुसलमान बनने के लिये कहा गया और न मानने पर शिष्यों सहित क़ैद कर लिया गया। उनके शिष्य भाई मति दास को आरे से चीरे जाने, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाले जाने जैसी कई सप्ताह तक भयानक यातना देने के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी का 11 नवम्बर 1675 को इस्लामी मुफ़्ती के आदेश पर सर काट दिया गया।
धर्म के लिये अपने अपने पिता के बलिदान होने के बाद 10 वर्ष की अवस्था में गुरु पद पर विराजे पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी आध्यात्मिक नेता, दूरदर्शी चिंतक, बृजभाषा के अद्भुत कवि, उद्भट योद्धा थे। 1699 ईसवीं में 33 वर्ष की आयु में बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर साहब में आपने ख़ालसा पंथ की स्थापना की। धर्मरक्षा को ही जीवन मानने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना उग्रदंती में लिखित यह पंक्तियाँ ख़ालसा पंथ की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करती हैं।
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे
जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे
इस्लामी आतंक के कारण बलिदान होने वाले वीरों की अटूट श्रंखला में आपके पुत्रों के बलिदान भी अतुलनीय हैं। शस्त्रों की छाँव में पाले गये 17 और 13 वर्ष की आयु के उनके दो पुत्र साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह 1704 ईसवीं में चमकौर दुर्ग में लड़ते हुए बलिदान हुए। 8 और 5 वर्ष के जोरावर सिंह और फतेह सिंह मुसलमान न बनने के कारण दीवार में चुन दिए गए। इतिहास में बहुत ही काम उदाहरण मिलते हैं जब किसी पिता ने एक सप्ताह में अपने 4–4 बेटे बलिदान दे दिए हों। इसी कारण गुरु गोविन्द सिह जी को सरबस दानी भी कहा जाता है। जब गुरु साहब को इसकी सूचना मिली तो उनके मुंह से बस इतना निकला
इन पुत्रन के कारने, वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ, जीवें कई हज़ार
उनके व्यक्तित्व में इतने आयाम हैं कि उनके गुणों की चर्चा करने के लिये एक लेख कम पड़ेगा अतः उनके जीवन के योद्धा पक्ष और उसके प्रमाण स्वरूप उनकी पौरुषपूर्ण रचना ज़फ़रनामा का उपयोग ही करना समीचीन होगा। गुरु गोविन्द सिंह जी ने हत्यारी विचारधारा के केंद्र औरंगज़ेब को 1705 ईसवीं में फ़ारसी में एक पत्र लिखा जिसे ज़फ़रनामा कहा जाता है। ज़फ़रनामा को भाई दयासिंह जी से औरंगज़ेब के पास अहमदनगर भिजवाया गया। उसमें वर्णित मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ प्रमुख पदों का यहां भावार्थ देना उपयुक्त होगा। गुरु गोविंद सिंह ने जफरनामा का प्रारंभ ईश्वर के स्मरण से किया है। उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि 'मैंने ईश्वर की शपथ ली है, जो तलवार, तीर-कमान, बरछी और कटार का ईश्वर है और युद्धस्थल में तूफान जैसे तेज दौड़ने वाले घोड़ों का ईश्वर है।' वह औरंगज़ेब को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, 'जिसने तुझे बादशाहत दी उसी ने मुझे धर्म की रक्षा की दौलत दी है। मुझे वह शक्ति दी है कि मैं धर्म की रक्षा करूं और सत्य का ध्वज ऊंचा हो।' आप इस पत्र में औरंगज़ेब को 'धूर्त', 'फरेबी' और 'मक्कार' बताते हैं। उसकी इबादत को 'ढोंग' कहते हैं।
मुस्लिम साम्राज्य के सबसे क्रूर आततायी को अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा बताना उनकी वीरता का प्रमाण है। आज भी धमनियों में रक्त का संचार प्रबल कर देने वाले अपने पत्र ज़फ़रनामे में गुरु गोविंद सिंह स्वाभिमान तथा पौरुष का परिचय देते हुए आगे लिखते हैं मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पंजाब में उसे बुझाने तथा तुझे पीने को पानी तक नहीं मिलेगा। वह औरंगजेब को चुनौती देते हुए लिखते हैं, 'मैं इस युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तू दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना।' क्या हुआ अगर मेरे चार बच्चे मारे गये, पर कुंडली मारे डंसने वाला नाग अभी बाकी है।'
गुरु गोविंद सिंह ने औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं। 'सिकंदर और शेरशाह कहां हैं ? आज तैमूर कहां है ? बाबर कहां है ? हुमायूं कहां है ? अकबर कहां है ?' अपने तीखे सम्बोधन से औरंगज़ेब को ललकारते हुए कहते हैं, 'तू कमजोरों पर जुल्म करता है, उन्हें सताता है। कसम है कि एक दिन तुझे आरे से चिरवा दूंगा।' इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हैं, 'जब सभी प्रयास करने के बाद भी न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना सही है और युद्ध करना उचित है।' ज़फ़रनामे के अंत के पद में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए फ़रमाते हैं, 'शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे, पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है, उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।' वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर-काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं को प्रकट करता है। उनका यह पत्र युद्ध का घोष तो है ही, साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है।
यह पत्र पीड़ित, दुखी, हताश, निराश, खिन्न हिन्दू समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला साबित हुआ। समाज में औरंगज़ेब के कुकृत्यों के प्रति आक्रोश बढ़ा और विदेशी आक्रमणकारी साम्राज्य औरंगज़ेब के साथ ही अपने पतन की ढलान पर बढ़ गया। गुरु गोविन्द सिह जी का अवतरण सोये हुए समाज को झकझोर गया और भारत भर को ग्रसे हुए मुग़ल साम्राज्य के खण्ड-खण्ड हो गये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
इन महापुरुषों में 22 दिसम्बर 1666 पटना में एक जन्मा एक बालक सर्वप्रमुख है। जी हाँ अभिप्राय गुरु गोविन्द सिंह जी से है। धर्म-रक्षा के लिये जूझने वाले अन्य महापुरुषों ने जहाँ आजीवन संघर्ष किया वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने आजीवन संघर्ष के साथ साथ का इस संकट के मूल स्वरूप को पहचाना और समझा कि यह संघर्ष केवल तात्कालिक नहीं है। इसे इस्लाम की ऐसी चिंतन-धारा पुष्ट कर रही है जो अपने अतिरिक्त प्रत्येक विचार को हर प्रकार से दूषित और भ्रष्ट मानती है। इस विचारप्रणाली की दृष्टि में उसके अतिरिक्त हर विचार को नष्ट करना अनिवार्य है अतः इसे समाप्त करने के लिये इसके प्रत्यक्ष आतताइयों को ही दण्डित करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसकी कोई स्थाई व्यवस्था बनानी आवश्यक है। इसका अहर्निश पीछा करना, इसे खदेड़ना, इसको हर प्रकार से नष्ट करना मानवता के सुरक्षित रखने के लिए ज़ुरूरी है।
वह देख सकते थे कि इस विचारधारा की आतंकी कार्यवाहियों को उसके धर्मग्रंथ से इस प्रकार अनवरत प्रश्रय मिल रहा है और यह शताब्दियों से लगातार उपद्रव करती आ रही है तो उसके वर्तमान को ही नष्ट करना पर्याप्त नहीं है। उसकी हिंसक कार्यवाहियाँ भविष्य में न हों, आगामी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रहे, वह चैन से जीवन व्यतीत कर सके इस हेतु वर्तमान से भविष्य तक का इंतज़ाम करना होगा। आख़िर पाशविक मनोविकारों को मानवीय गुण मानने वालों से और कैसे निबटा जा सकता है ? इस के स्थाई समाधान के लिए उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पन्थ की स्थापना की। इस हत्यारी विचारधारा से विभिन्न राष्ट्रों के बहुत से लोग जूझे मगर इससे जूझते रहने, लगातार लड़ते रहने की व्यवस्था भारत में ही बनी। यह घटना सम्पूर्ण विश्व में इस्लामी आतंक से जूझने के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में भी प्रमुखतम है। इसी के बाद एक के बाद दूसरे जन-समूह, एक देश के बाद दूसरे देश को लीलते जा रहे इस्लामी दावानल के पाँव भारत की धरती पर थमे।
9 वर्ष की आयु में अपने पिता गुरू तेग़ बहादुर जी को धर्म के लिए बलिदान के लिए प्रेरित करने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी का सम्पूर्ण जीवन पल-पल राष्ट्र चिंता में रत रहा। घटना यह थी कि उनके पिता गुरू तेग़ बहादुर जी के पास कश्मीरी हिंदुओं का एक समूह आया और उनसे औरंगज़ेब के आदेश पर कश्मीर के मुग़ल सूबेदार इफ़्तिख़ार ख़ान के हिंदुओं को यातना दे कर मुसलमान बनाने के लिये बाध्य करने की शिकायत की। गुरु तेग़ बहादुर जी के मुंह से निकला "धर्म किसी महापुरुष का बलिदान मांग रहा है" बालक गोविन्द राय जी तुरन्त बोले "आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ?" गुरू तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं से कहा। औरंगज़ेब से कहो अगर गुरु तेग़ बहादुर मुसलमान बन जायेंगे तो हम भी बन जायेंगे। इस घोषणा के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी भ्रमण करते हुए दिल्ली पहुंचे, जहाँ उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मुसलमान बनने के लिये कहा गया और न मानने पर शिष्यों सहित क़ैद कर लिया गया। उनके शिष्य भाई मति दास को आरे से चीरे जाने, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाले जाने जैसी कई सप्ताह तक भयानक यातना देने के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी का 11 नवम्बर 1675 को इस्लामी मुफ़्ती के आदेश पर सर काट दिया गया।
धर्म के लिये अपने अपने पिता के बलिदान होने के बाद 10 वर्ष की अवस्था में गुरु पद पर विराजे पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी आध्यात्मिक नेता, दूरदर्शी चिंतक, बृजभाषा के अद्भुत कवि, उद्भट योद्धा थे। 1699 ईसवीं में 33 वर्ष की आयु में बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर साहब में आपने ख़ालसा पंथ की स्थापना की। धर्मरक्षा को ही जीवन मानने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना उग्रदंती में लिखित यह पंक्तियाँ ख़ालसा पंथ की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करती हैं।
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे
जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे
इस्लामी आतंक के कारण बलिदान होने वाले वीरों की अटूट श्रंखला में आपके पुत्रों के बलिदान भी अतुलनीय हैं। शस्त्रों की छाँव में पाले गये 17 और 13 वर्ष की आयु के उनके दो पुत्र साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह 1704 ईसवीं में चमकौर दुर्ग में लड़ते हुए बलिदान हुए। 8 और 5 वर्ष के जोरावर सिंह और फतेह सिंह मुसलमान न बनने के कारण दीवार में चुन दिए गए। इतिहास में बहुत ही काम उदाहरण मिलते हैं जब किसी पिता ने एक सप्ताह में अपने 4–4 बेटे बलिदान दे दिए हों। इसी कारण गुरु गोविन्द सिह जी को सरबस दानी भी कहा जाता है। जब गुरु साहब को इसकी सूचना मिली तो उनके मुंह से बस इतना निकला
इन पुत्रन के कारने, वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ, जीवें कई हज़ार
उनके व्यक्तित्व में इतने आयाम हैं कि उनके गुणों की चर्चा करने के लिये एक लेख कम पड़ेगा अतः उनके जीवन के योद्धा पक्ष और उसके प्रमाण स्वरूप उनकी पौरुषपूर्ण रचना ज़फ़रनामा का उपयोग ही करना समीचीन होगा। गुरु गोविन्द सिंह जी ने हत्यारी विचारधारा के केंद्र औरंगज़ेब को 1705 ईसवीं में फ़ारसी में एक पत्र लिखा जिसे ज़फ़रनामा कहा जाता है। ज़फ़रनामा को भाई दयासिंह जी से औरंगज़ेब के पास अहमदनगर भिजवाया गया। उसमें वर्णित मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ प्रमुख पदों का यहां भावार्थ देना उपयुक्त होगा। गुरु गोविंद सिंह ने जफरनामा का प्रारंभ ईश्वर के स्मरण से किया है। उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि 'मैंने ईश्वर की शपथ ली है, जो तलवार, तीर-कमान, बरछी और कटार का ईश्वर है और युद्धस्थल में तूफान जैसे तेज दौड़ने वाले घोड़ों का ईश्वर है।' वह औरंगज़ेब को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, 'जिसने तुझे बादशाहत दी उसी ने मुझे धर्म की रक्षा की दौलत दी है। मुझे वह शक्ति दी है कि मैं धर्म की रक्षा करूं और सत्य का ध्वज ऊंचा हो।' आप इस पत्र में औरंगज़ेब को 'धूर्त', 'फरेबी' और 'मक्कार' बताते हैं। उसकी इबादत को 'ढोंग' कहते हैं।
मुस्लिम साम्राज्य के सबसे क्रूर आततायी को अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा बताना उनकी वीरता का प्रमाण है। आज भी धमनियों में रक्त का संचार प्रबल कर देने वाले अपने पत्र ज़फ़रनामे में गुरु गोविंद सिंह स्वाभिमान तथा पौरुष का परिचय देते हुए आगे लिखते हैं मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पंजाब में उसे बुझाने तथा तुझे पीने को पानी तक नहीं मिलेगा। वह औरंगजेब को चुनौती देते हुए लिखते हैं, 'मैं इस युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तू दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना।' क्या हुआ अगर मेरे चार बच्चे मारे गये, पर कुंडली मारे डंसने वाला नाग अभी बाकी है।'
गुरु गोविंद सिंह ने औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं। 'सिकंदर और शेरशाह कहां हैं ? आज तैमूर कहां है ? बाबर कहां है ? हुमायूं कहां है ? अकबर कहां है ?' अपने तीखे सम्बोधन से औरंगज़ेब को ललकारते हुए कहते हैं, 'तू कमजोरों पर जुल्म करता है, उन्हें सताता है। कसम है कि एक दिन तुझे आरे से चिरवा दूंगा।' इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हैं, 'जब सभी प्रयास करने के बाद भी न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना सही है और युद्ध करना उचित है।' ज़फ़रनामे के अंत के पद में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए फ़रमाते हैं, 'शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे, पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है, उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।' वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर-काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं को प्रकट करता है। उनका यह पत्र युद्ध का घोष तो है ही, साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है।
यह पत्र पीड़ित, दुखी, हताश, निराश, खिन्न हिन्दू समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला साबित हुआ। समाज में औरंगज़ेब के कुकृत्यों के प्रति आक्रोश बढ़ा और विदेशी आक्रमणकारी साम्राज्य औरंगज़ेब के साथ ही अपने पतन की ढलान पर बढ़ गया। गुरु गोविन्द सिह जी का अवतरण सोये हुए समाज को झकझोर गया और भारत भर को ग्रसे हुए मुग़ल साम्राज्य के खण्ड-खण्ड हो गये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी
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