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रविवार, 18 दिसंबर 2016

ख़लीफ़ा अबू बकर अल बग़दादी का ख़लीफ़ा मुस्तअसिम के पथ पर गमन

..........ख़लीफ़ा अबू बकर अल बग़दादी का ख़लीफ़ा मुस्तअसिम के पथ पर गमन
मुहावरे भाषा के बढे हुए नाख़ून होते हैं। लम्बे समय तक एक तय शब्द समूह का प्रयोग कर समाज उसे विशिष्ट अर्थवत्ता, गुणवत्ता, मारकता प्रदान करता है। मुहावरों का प्रयोग घने अन्धकार में बिजली की कौंध की तरह होता है जिनसे दूर तक अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इन्हीं मुहावरों में से एक बुरी मौत मरने के लिए '....... की मौत मरना' है। मौत सदैव ही अप्रिय अरुचिकर घटना है। उसे न तो महिमामण्डित करने का कुछ अर्थ होना चाहिए न उसे वीभत्स बनाने का कोई कारण, फिर भी समाज में इस सिलसिले के शहीद, हुतात्मा, बलिदानी और ....... की मौत मरना जैसे शब्द और मुहावरे चलन में हैं तो इसका कोई गंभीर कारण अवश्य होना चाहिये।


बंधुओ ! इसका कारण समाज के हित-अहित यानी समष्टि के हित-अहित का विचार है। भयानक बर्फीली दुर्गम चोटियों पर.…… भीषण गर्मी से झुलसते हुए बीहड़ रेगिस्तान में.……अथाह-अगाध समुद्र में .…… देश की रक्षा करते हुए शत्रु की गोली खा कर मरने वाला सैनिक कोई बहुत शांत, सहज मौत नहीं मरता। उसे भी वही पीड़ा होती है जो संभवतः आई एस आई एस के सरगना अबू बकर अल बगदादी को हुई होगी मगर हर मृतक सैनिक को प्रत्येक राष्ट्र इसी कारण शहीद कहता है, समाज उसकी अंत्येष्टि में इसी लिए उमड़ पड़ता है कि उसके प्राण देश की रक्षा में गए हैं। ये मृत्यु को आरामदेह तो नहीं बनता मगर देश के लिये प्राण देने की प्रेरणा देता है। इसी तरह एड़ियां रगड़-रगड़ कर एकाकी मरना आई. सिस. के सरगना अबू बकर अल बगदादी जैसे लोगों का भाग्य होता है।
अबू बकर अल बगदादी का मरना कोई बहुत बड़ी या प्रमुख घटना नहीं है। ऐसे लोग ऐसी ही मौत मरते हैं। अफगानिस्तान की पहाड़ियों में दुर-दुर करते जीवन से भाग कर पाकिस्तान में बीबियों और पोर्नोग्राफी की सी.डी. के ढेर में छिप कर रह रहे ओसामा को मछलियों की चीर-फाड़ नसीब हुई। इस या इसके जैसे लोग इसी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। विशेष बात उसकी दुर्गति होने के पीछे छिपे कारण हैं। आइये उन पर विचार किया जाये।


ईराक में टिगरिस नदी के किनारे बसा समारा नगर एक समय में अब्बासी खिलाफत का केंद्र रह चुका है। इसी नगर के देहाती क्षेत्र में बगदादी पैदा हुआ। शांत स्वभाव का बगदादी अपने अध्ययन के समय एकाकी रहने वाला था। अल बगदादी में अपने शुरुआती जीवन में फुटबॉल के लिए एक जुनून था। 2003 तक वह बगदाद के पश्चिमी किनारे पर एक निर्धन बस्ती में स्थानीय मस्जिद से जुड़े एक छोटे से कमरे में रहता था। वहां उसे शांत, कम बोलने, कम मिलने-जुलने वाला माना जाता था। अपने काम से काम रखने वाला अबू बकर अल बगदादी अकेले समय बिताता था।


यहाँ रहते हुए उसके जीवन में एक बदलाव का क्षण आया और उसने बगदाद के इस्लामी विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। इस्लामी विश्वविद्यालय से उसने बी.ए., एम.ए.और इस्लामी अध्ययन में पी.एच.डी. प्राप्त की। यही शिक्षण वो कारण था जिसने अबू बकर अल बगदादी के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन ला दिया। सामान्य शांत रहने वाला व्यक्ति, फुटबॉल के लिए दीवाना जिहाद का दीवाना बन गया। उसकी चिंत्तन-प्रणाली बदल गयी और वो पेले, मैरिडोना, बैकम, लोथार मथायस जैसे विश्व प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाडियों की जगह अबू बकर, उमर फारूक जैसे इस्लामी खलीफाओं के लिए दीवाना हो गया। उसके जीवन के अन्य सारे रस सूख गए। क़त्ताल फी सबीलिल्लाह……जिहाद फी सबीलिल्लाह उसका जीवन दर्शन हो गया। अमुस्लिमों के लिए घृणा से भरी बातें, जीवन शैली उसका ध्येय बन गयी। क़ुरआन और हदीसों का ये दर्शन उसका जीवन दर्शन बन गया।


ओ मुसलमानों तुम ग़ैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { 9-123 }
और तुम उनको जहां पाओ क़त्ल करो { २-191 }
काफ़िरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
ऐ नबी ! काफ़िरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है { 9-73 और 66-9 }
अल्लाह ने काफ़िरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आख़िरत पर; जो उसे हराम नहीं समझते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे ज़लील हो कर जज़िया न देने लगें { 9-29 }
मूर्ति पूजक लोग नापाक होते हैं { 9-28 }
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है { 5-72 }
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और ग़लत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110 }


इस चिंतन को कार्यान्वित करने के लिए उसने 2003 में ईराक में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद सुन्नी लड़ाकों का समूह बनाया और उसकी शरीयत समिति के प्रमुख के रूप में कार्य किया। 2006 में उसने अपने सुन्नी लड़ाकों के समूह को मुजाहिदीन शूरा परिषद (एम.एस.सी.) में मिला दिया। 2006 में इराक के इस्लामी राज्य {आई.सिस.} के रूप में एम.एस.सी. के नाम बदलने के बाद, अल बगदादी आई.सिस. की शरीयत समिति का पर्यवेक्षक और समूह के वरिष्ठ सलाहकार परिषद क एक सदस्य बन गया। ईराक के इस्लामी राज्य {आई.सिस.} को ईराक में अल-कायदा के रूप में जाना जाता है। अल बगदादी को इस्लामी राज्य { आई.सिस. } के नेता अबू उमर अल बगदादी की मृत्यु के बाद 16 मई 2010 को आई.सिस. का नेता बनाया गया। अबू बकर अल बगदादी ने खुद को मुसलमानों की दुनिया के नेता घोषित कर दिया और उसके हिमायतियों ने संसार भर के मुसलमानों को उसका आदेश मानने, उसका समर्थन करने के लिए के लिए कहा। अपनी मृत्यु तक के इस काल में अबू बकर अल बगदादी ने योरोप में इस्लामी खिलाफत स्थापित करने के इरादे जताये। स्पेन को दुबारा मुसलमानों की आधीनता में लाने की बड़ मारी। रोम को इस्लामी केंद्र बनाने की लम्बी हाँकी।


अबू बकर अल बगदादी अक्टूबर 2014 में गठबंधन बलों द्वारा शुरू की तीव्र बमबारी अभियान के कारण गंभीर रूप से घायल हुआ और अब उसकी मौत की सूचना मिली है। इसकी पुष्टि केवल ईरान कर रहा है मगर इसे झूठा मानने का कोई कारण नहीं है, चूँकि आगे-पीछे ये होना ही था। तलवार को जीवन दर्शन मानने वाले तलवार के द्वारा ही मारे जाने के लिए अभिशप्त होते हैं। इसकी पक्की पुष्टि तो तभी संभव है जब खांटी इस्लामी लड़ाकों के प्रिय तरीके से उसका सर काट कर भाले पर घुमाया जाये अन्यथा ऐसे समाचारों की प्रामाणिक पुष्टि कभी संभव नहीं है। 'मर गया और दफना दिया गया' ही ऐसे लोगों का भाग्य है। किसी विश्व-विख्यात नेता के देहावसान की तरह से लाखों लोगों के सम्मिलित होने, लाखों लोगों की शोक-वेदना के साथ उसका अंतिम संस्कार तो होने से रहा बल्कि दफनाते समय भी उसके गिने-चुने हिमायतियों को इसकी आशंका सता रही होगी कि कहीं फिर विमान बम न बरसाने लगें और उनकी हड्डियों का भी कीर्तन न हो जाये।


अबू बकर अल बगदादी ही यजदी समूहों के नरसंहार का आधार था। सोशल मिडिया में इसी के हत्यारों द्वारा शिया समूहों, ईसाइयों, यजदियों की गर्दनें काटने , मरते हुए लोगों के सरों पर ठोकरें मारते लोगों के पैशाचिक वीडियो बनाये-भेजे गए। ऐसी जघन्य हत्याओं के समय अल्लाहो-अकबर के नारे लगाते लोगों के उन्मादी whatsapp इसी के समूह की करतूतें हैं। शिया, ईसाई, यजदी लड़कियों के जंजीरों में बांध कर बेचने की मंडियां इसी ने लगवायी थीं। जिहाद के विस्तृत दर्शन के रूप में शत्रु पक्ष की स्त्रियों को लौडी { sex slave } बनाया जाना वैसे तो मूल इस्लामी ग्रंथों में ही है मगर इस शताब्दी में इस घोर निंदनीय इस्लामी व्यवस्था का दुबारा चलन इसी की प्रेरणा से हुआ था। मुंबई का आरिब अपने तीन दोस्तों अमन, फहद और साहिम के साथ आई.सिस. के लड़ाकों की यौन-सेवा से तंग आ कर भारत वापस भाग आया। उसके दुर्गति करवा कर लौटने के पीछे 'जिहादियों की हर तरह से खिदमत करनी चाहिए' इसी का दर्शन है


ये भी संभव है कि उसके जीवित बच जाने की अफवाहें उड़ाई जाएँ। ये भी संभव है कि वो इस हमले में जीवित बच जाये मगर उसके नसीब में आगे-पीछे यही निन्दित मृत्यु है। भारतीय परम्परा में मृतक सम्मान पाने का अधिकारी है। हमारा समाज दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति का उसके देहांत के बाद सम्मान करता है या चुप लगा जाता है, मगर इस सामान्य-शांत जीवन जीने वाले व्यक्ति का जिस उपद्रवी विचारधारा के कारण रूपांतरण हुआ है उसकी भर्त्सना, निंदा न करने से उसे बढ़ावा मिलता है। ऐसे महादुष्टों की और उन्हें उपजाने, पनपाने वाली विचारधारा की भर्त्सना आवश्यक है। एक-आध दिन में ओसामा बिन लादेन जी के मानसिक सम्बन्धी दिग्विजय जी सार्वजनिक मंच पर असह्य वेदना दिखाते हुए प्रकट होने ही वाले होंगे। उनके निंदा के लिए भी तैयार रहिये।

तुफैल चतुर्वेदी                                   

सोमवार, 14 नवंबर 2016

........................... मोसुल में मूसल.................... आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट जिसे आइ.एस.आइ.एस या दाश भी कहते हैं, का इस्लामी ख़िलाफ़त का सपना बिखरने को है। रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन, अमरीका की लगातार बमबारी के कारण इस्लामिक स्टेट के क़ब्ज़े से अधिकतर क्षेत्र निकल चुके हैं और सीरिया तथा ईराक़ के राज्यों पर अपनी जकड़ और पकड़ बनाये इस्लामिक स्टेट के गढ़ मोसुल पर लड़ाई सिमट कर आ खड़ी हुई है। बंधे हाथ वाले विपक्षी सैनिकों के गले काटने के वीडियो बनाने वाले, नृशंस हत्या करते समय अल्लाहो-अकबर के नारे लगाने वाले आइ.एस.आइ.एस के सारे तीसमार खां मोसुल छोड़ कर भाग गए हैं।

........................... मोसुल में मूसल....................

आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट जिसे आइ.एस.आइ.एस या दाश भी कहते हैं, का इस्लामी ख़िलाफ़त का सपना बिखरने को है। रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन, अमरीका की लगातार बमबारी के कारण इस्लामिक स्टेट के क़ब्ज़े से अधिकतर क्षेत्र निकल चुके हैं और सीरिया तथा ईराक़ के राज्यों पर अपनी जकड़ और पकड़ बनाये इस्लामिक स्टेट के गढ़ मोसुल पर लड़ाई सिमट कर आ खड़ी हुई है। बंधे हाथ वाले विपक्षी सैनिकों के गले काटने के वीडियो बनाने वाले, नृशंस हत्या करते समय अल्लाहो-अकबर के नारे लगाने वाले आइ.एस.आइ.एस के सारे तीसमार खां मोसुल छोड़ कर भाग गए हैं। इस्लामिक स्टेट के पास अपने लड़ाकुओं को देने के लिये पैसा नहीं बचा है। उसके स्रोत सूखते जा रहे हैं और दूसरे देशों से आये इस्लामी जिहादी अपने देशों को वापस लौट रहे हैं।

इस घर वापसी से एक और बड़ी समस्या मुंह फाड़े आ खड़ी हुई है। इस्लामिक स्टेट के लिये अपने घरों को छोड़ कर सीरिया, ईराक़ जाने वाले लोग वैचारिक रूप से विषाक्त हैं। यह अपने घरों से निकले ही इसी लिये थे कि इन्होंने क़ुरआन के दर्शन "काफ़िर वाजिबुल क़त्ल" को उचित माना था। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह "क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह" { अल्लाह की राह में क़त्ल करो } "जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह" { अल्लाह की राह में जिहाद करो } के नृशंस चिंतन को पूरा करने अपने घरों, देशों को छोड़ कर इस्लामिक स्टेट के क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों तक आये थे। यह लोग बढ़िया सुताई, कुटाई, धुनाई से शारीरिक रूप से पस्त हो गए हैं मगर इनकी छिताई, सफ़ाई नहीं हुई है। इनकी खोपड़ियों में अब भी वही ज़हर भरा हुआ है।

अब यह लोग दुबई, क़तर इत्यादि अरब देशों से अपने देशों में लौटने का प्रयास कर रहे हैं। इनको सभ्य देशों में शरण देने का अर्थ है कि सभ्य समाज अपने बीच वैचारिक दरिंदे छोड़ने का कार्य करे। आपने कभी सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर आकाश बेल फैलती देखी होगी। परोपजीवी आकाश बेल पेड़ के लिये कैंसर है। इसका एकमात्र इलाज यह होता है कि पेड़ की सारी डालियाँ काट दी जाती हैं और वृक्ष फिर से अपनी शाखायें बढ़ाता है। सभ्य समाज के पास कड़े क़दम उठाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है। सही निर्णय लेने की घड़ी आ गयी है। मर्मान्तक प्रहार, अंतिम प्रहार का कोई विकल्प नहीं होता। मोसुल और मूसल एक ही स्रोत से आने वाले शब्द हैं। इसके अगले शब्द और समस्या का भी इलाज मूसल ही है।

तुफ़ैल चतुर्वेदी

सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

धर्म बंधुओ, राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसके समाधान पर बहुत कुछ लिखा गया है, लिखा जाता रहेगा। मेरी दृष्टि में सबसे पहले हमें समस्या के पूरे स्कैन, उसकी निष्पत्ति और कारण को भली प्रकार से ध्यान में रखना होगा। तभी इसका समाधान सम्भव होगा।

धर्म बंधुओ, राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसके समाधान पर बहुत कुछ लिखा गया है, लिखा जाता रहेगा। मेरी दृष्टि में सबसे पहले हमें समस्या के पूरे स्कैन, उसकी निष्पत्ति और कारण को भली प्रकार से ध्यान में रखना होगा। तभी इसका समाधान सम्भव होगा।

आपने पूजा, यज्ञ करते समय कभी संकल्प लिया होगा। उसके शब्द ध्यान कीजिये। ऊँ विष्णुर विष्णुर विष्णुर श्रीमद भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञा प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्री श्वेत वराहकलपे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे ......यह संकल्प भारत ही नहीं सारे विश्व भर के हिंदुओं में लिया जाता है और इसके शब्द लगभग यही हैं। आख़िर यह जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे है क्या ? धर्मबंधुओ! जम्बू द्वीप सम्पूर्ण पृथ्वी है। भारत वर्ष पूरा यूरेशिया है। भरत खंड एशिया है। आर्यावर्त वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान है। आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्त बचाखुचा वर्तमान भारत है। आसिंधु सिंधु पर्यन्ता की परिभाषा आज गढ़ी गयी है। यह परिभाषा मूल भरतवंशियों के देश की परिचायक नहीं है।


वस्तुतः जम्बू द्वीप यानी सम्पूर्ण पृथ्वी ही षड्दर्शन को मानने वाली थी और इस ज्ञान का केंद्र ब्रह्मावर्त अर्थात वर्तमान भारत था। काल का प्रवाह आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान और संस्कृति के केंद्र वर्तमान भारत में भयानक युद्ध हुआ। जिसे हम आज महाभारत के नाम से जानते हैं और उसके बाद सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयीं। ज्ञानज्योति ऋषि वर्ग, पराक्रमी राजा कालकवलित हुए। परिणामतः ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास रुक गया। धीरे-धीरे संस्कृति की भित्तियां ढहने लगीं। चतुर्दिक धर्म ध्वज फहराने वाले लोग भृष्ट हो कर वृषल हो गए। परिणामस्वरूप इतने विशाल क्षेत्र में फैला षड्दर्शन की महान देशनाओं का धर्म नष्ट हो गया। अनेकानेक प्रकार के मत-मतान्तर फ़ैल गये। टूट-बिखर कर बचे केवल ब्रह्मावर्त का नाम भारत रह गया। कृपया सोचिये कि सम्पूर्ण योरोप, एशिया में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं क्यों मिलती हैं ? ईसाइयत और इस्लाम के अपने से पहले इतिहास को जी-जान से मिटाने की कोशिश के बावजूद ताशक़न्द के एक शहर का नाम चार्वाक क्यों है ? वहां की झील चार्वाक क्यों कहलाती है ?

इस टूटन-बिखराव में पीड़ित आर्यों { गुणवाचक संज्ञा } का अंतिम शरणस्थल सदैव से आर्यावर्त के अन्तर्गत आने वाला ब्रह्मावर्त यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और अब वर्तमान भारत रहा है। इसी लिए इस क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जाता है। जिज्ञासु मित्रों को दिल्ली के हिंदूमहासभा भवन के हॉल को देखना चाहिये। उसमें राजा रवि वर्मा की बनायी हुई पेंटिंग लगी है जिसका विषय महाराज विक्रमादित्य के दरबार में यूनानियों का आना और आर्य धर्म स्वीकार करना { हिन्दू बनना } है। ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं अपितु विपत्ति में भी सदैव से भरतवंशी केंद्र की ओर लौटते रहे हैं।


धर्मबंधुओ ! सदैव स्मरण रखिये कि राष्ट्र, देश से धर्म बड़ा होता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत के अंदर और बाहर 60-70 से अधिक देशों का हिन्दू राष्ट्र होना सम्भावित था। जिसकी केंद्र भूमि भारत को होना था। नेपाल के प्रधानमंत्री राणा शमशेर बहादुर जंग, महामना मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर इत्यादि ने इसके लिये प्राण-प्रण से प्रयास किया था। उस समय भारत के दो हिस्सों में बंटने की कल्पना नहीं थी बल्कि प्रिंसली स्टेटों के अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में होने की कल्पना थी। कल्पना कीजिये कि यह प्रयास साकार हो गया होता तो भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, सिंगापुर, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मॉरीशस, पाकिस्तान का वर्तमान उमरकोट और न जाने कितने हिन्दू राष्ट्र विश्व पटल पर जगमगा रहे होते।


कृपया नेट पर Yazidi डालिये। आपको ईराक़-सीरिया के बॉर्डर पर रहने वाली, मोर की पूजा करने वाली जाति के बचे-खुचे लोगों का पता चलेगा। कार्तिकेय के वाहन मोर की पूजा कौन करता है ? Kafiristan डालिये। आपको पता चलेगा कि इस क्षेत्र के हिंदुओं को 1895 में मुसलमान बना कर इसका नाम nuristan नूरिस्तान रख दिया गया है। kalash in pakistan देखिये। आप पाएंगे कि आज भी कलश जनजाति के लोग जो दरद मूल के हैं पाकिस्तान के चित्राल जनपद में रहते हैं। इस दरद समाज की चर्चा महाभारत, मनुस्मृति, पाणिनि की अष्टाध्यायी में है। जिस तरह लगातार किये गए इस्लामी धावों ने अफ़ग़ानिस्तान केवल 150 वर्ष पहले मुसलमान किया, हमें क्यों अपने ही लोगों को वापस नहीं लेना चाहिए ? एक-एक कर हमारी संस्कृति के क्षेत्र केवल 100 वर्ष में धर्मच्युत कर वृषल बना दिए गये। होना तो यह चाहिये था कि हम केंद्रीय भूमि से दूर बसे अपने समाज के लोगों को सबल कर धर्मभष्ट हो गए अपने लोगों को वापस लाने का प्रयास करते। भारत के टूटने का कारण सैन्य पराजय नहीं है बल्कि धर्मांतरण है। हमने अपने समाज की चिंता नहीं की। इसी पाप का दंड महाकाल ने हमारे दोनों हाथ काट कर दिया और हम भारत के दोनों हाथ पाकिस्तान, बांग्लादेश की शक्ल में गँवा बैठे।

जो वस्तु जहाँ खोयी हो वहीँ मिलती है। हमने अपने लोग, अपनी धरती धर्मांतरण के कारण खोयी थी। यह सब वहीँ से वापस मिलेगा जहाँ गंवाया था। इसके लिए अनिवार्य शर्त अपने समाज को समेटना, तेजस्वी बनाना और योद्धा बनाना है। यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है। इस विचार पर सोचने वाली बात यह है कि इस्लाम की आक्रमकता ने भारत वर्ष जो पूरा यूरेशिया था, के केंद्रीय भाग यानी आर्यावर्त { वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान } से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं हड़पा बल्कि शेष बचे देश में हमारे करोड़ों बंधुओं को धर्मान्तरित कर लिया है। यह चिंतन कि ऊँची दीवारों में सीमाओं को सुरक्षित रखा जाये, से कोई लक्ष्य नहीं सधता। अतः पराक्रम ही एकमेव उपाय है और यही हमारे प्रतापी पूर्वज करते आये हैं। इस हेतु आवश्यक है कि वास्तविक इतिहास का सिंहावलोकन किया जाये। सिंहावलोकन अर्थात जिस तरह सिंह वीर भाव से गर्दन मोड़ कर पीछे देखता है।

महाभारत में तत्कालीन भारत वर्ष का विस्तृत वर्णन है। जिसमें आर्यावर्त के केंद्रीय राज्यों के साथ उत्तर में काश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पह्लव, पारसीक { ईरान }, तुषार { तुर्कमेनिस्तान और तुर्की }, हूण { मंगोलिया } चीन, ऋचीक, हर हूण तथा उत्तर-पश्चिम में बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा }, शक, यवन { ग्रीस }, मत्स्य, खश, परम काम्बोज, काम्बोज, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र { क़ज़्ज़ाक़िस्तान, उज़्बेकिस्तान } हैं। पूर्वोत्तर राज्य प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्ड्र, सुहाय, कीकट पश्चिम में त्रिगर्त, साल्व, सिंधु, मद्र, कैकय, सौवीर, गांधार, शिवि, पह्लव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद का वर्णन है। यह जनपद ढाई सौ से अधिक हैं और इनमें उपरोक्त के अतिरिक्त उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, आदि हैं। {सन्दर्भ:-अध्याय 9 भीष्म पर्व जम्बू खंड विनिर्माण पर्व महाभारत }

भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वर्णन है। जिसमें कौरव सेना के वाम भाग में आचार्य कृपा के नेतृत्व में शक, पह्लव { ईरान } यवन { वर्तमान ग्रीस } की सेना, दुर्योधन के नियंत्रण में गांधार, भीष्म पितामह के नियंत्रण में सिंधु, पंचनद, सौवीर, बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा } की सेना का वर्णन है। सोचने वाली बात यह है कि महाभारत तो चचेरे-तयेरे भाइयों की राज्य-सम्पत्ति की लड़ाई थी। उसमें यह सब सेनानी क्या करने आये थे ? वस्तुतः यह सब सम्बन्धी थे और इसी कारण सम्मिलित हुए थे। स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, यवन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सम्पूर्ण रूस इत्यादि सभी भारतीय क्षेत्र थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, त्रिविष्टप, यवन { ग्रीस / हेलेनिक रिपब्लिक } हूण, शक, बाह्लीक, किरात, दरद, पारद, आदि क्षेत्रों के राजा भेंट ले कर आये थे। महाभारत में यवन नरेश और यवन सेना के वर्णन दसियों जगह हैं।

पौराणिक इतिहास के अनुसार इला के वंशज ऐल कहलाये और उन्होंने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। यवन या वर्तमान ग्रीस जन आज भी स्वयं को ग्रीस नहीं कहते। यह स्वयं को हेलें, ऐला या ऐलों कहते हैं। आज भी उनका नाम हेलेनिक रिपब्लिक है। महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य इलियड में इन्हें हेलें या हेलेन कहा है और पास के पारसिक क्षेत्र को यवोन्स कहा है जो यवनों का पर्याय है { सन्दर्भ:-निकोलस ऑस्टर, एम्पायर्स ऑफ़ दि वर्ड, हार्पर, लन्दन 2006, पेज 231 } होमर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं अतः उनका साक्ष्य प्रामाणिक है।

सम्राट अशोक के शिला लेख संख्या-8 में यवन राजाओं का उल्लेख है। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार, जलालाबाद में सम्राट अशोक के शिलालेख मिले हैं जिनमें यावनी भाषा तथा आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन सम्राट अशोक की प्रजा थे। यवन देवी-देवता और वैदिक देवी देवताओं में बहुत साम्य है। सम्राट अशोक के राज्य की सीमाएं वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ग्रीस तक थीं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28 भारतीय इतिहास कोष सच्चिदानंद भट्टाचार्य } सम्राट अशोक के बाद सम्राट कनिष्क के शिलालेख अफ़ग़ानिस्तान में मिलते हैं जिनका सम्राज्य गांधार से तुर्किस्तान तक था और जिसकी राजधानी पेशावर थी। सम्राट कनिष्क के शिव, विष्णु, बुद्ध के साथ जरथुस्त्र और यवन देवी-देवताओं के सिक्के भी मिलते हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार, चंद्रगुप्त वेदालंकार, दूसरा संस्करण 1969 }

ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण { समय-ईसा पूर्व 24 } में उल्लिखित है कि विक्रमादित्य परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम देश { रोम } के शकाधिपति को जीत कर फिर उनके द्वारा विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया { सन्दर्भ:-पृष्ठ 8, डॉ भगवती लाल पुरोहित, आदि विक्रमादित्य स्वराज संस्थान 2008 }। 15वीं शताब्दी तक चीन को हिन्द, भारत वर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। 1492 में चीन और भारत जाने के लिए निकले कोलम्बस के पास मार्गदर्शन के लिये मार्कोपोलो के संस्मरण थे। उनमें रानी ईसाबेल और फर्डिनांड के पत्र भी हैं। जिनमें उन्होंने साफ़-साफ़ सम्बोधन " महान कुबलाई खान सहित भारत के सभी राजाओं और लॉर्ड्स के लिए " लिखा है। {सन्दर्भ:-पृष्ठ 332-334 जॉन मेन, कुबलाई खान: दि किंग हू रिमेड चाइना, अध्याय-15, बैंटम लन्दन 2006 }15वीं शताब्दी में यूरोप से प्राप्त अधिकांश नक़्शों में चीन को भारत का अंग दिखाया गया है।

ऐसे हज़ारों वर्णन मिटाने की भरसक कोशिशों के बावजूद सम्पूर्ण विश्व में मिलते हैं। केंद्रीय भूमि के लोग सदैव से राज्य, ज्ञान, शौर्य और व्यापार के प्रसार के लिये सम्पूर्ण जम्बू द्वीप यानी पृथ्वी भर में जाते रहे हैं। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की सभा में पारसिक नरेश खुसरू-द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये हैं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 238, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार } इतिहासकार तबारी ने 9वीं शताब्दी में भारतीय नरेश के फ़िलिस्तीन पर आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बसरा के शासक को सदैव तैयार रहना पड़ता है चूँकि भारतीय सैन्य कभी भी चढ़ आता है { सन्दर्भ:- पृष्ठ 639, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार }

इतने बड़े क्षेत्र को सैन्य बल से प्रभावित करने वाले, विश्व भर में राज्य स्थापित करने वाले, ज्ञानसम्पन्न बनाने वाले, संस्कारित करने वाले लोग दैवयोग ही कहिये शिथिल होने लगे। मनुस्मृति के अनुसार पौंड्रक, औंड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव , चीन, किरात, दरद और खश इन देशों के निवासी क्रिया { यज्ञादि क्रिया } के लोप होने से धीरे-धीरे वृषल हो गए { मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 43-44 } अर्थात जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेश के ब्रह्मवर्त यानी तत्कालीन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का संस्कृति के केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास थमने लगा। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा मंद पड़ी फिर भी नष्ट नहीं हुई मगर लगातार सम्पर्क के अभाव में ज्ञान, धर्म, चिंतन की ऊष्मा कम होती चली गयी। सम्पूर्ण यूरेशिया में फैले आर्य वृषल होते गये।

इसी समय बुद्ध का अवतरण हुआ। महात्मा बुद्ध की देशना निजी मोक्ष, व्यक्तिगत उन्नति पर थी। स्पष्ट था कि यह व्यक्तिवादी कार्य था। समूह का मोक्ष सम्भव ही नहीं है। यह किसी भी स्थिति में राजधर्म नहीं हो सकता था मगर काल के प्रवाह में यही हुआ। शुद्धि-वापसी का कोई प्रयास करने वाला नहीं था। उधर एक अल्लाह के नाम पर हिंस्र दर्शन फैलना शुरू हो गया फिर भी इसकी गति धीमी ही थी। फ़रिश्ता के अनुसार 664 ईसवीं में गंधार क्षेत्र में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने {सन्दर्भ:-पृष्ठ-16 तारीख़े-फ़रिश्ता भाग-1, हिंदी अनुवाद, नवल किशोर प्रेस }

अरब में शुरू हो गयी उथल-पुथल से आँखें खुल जानी चाहिए थीं मगर निजी मोक्ष के चिंतन, शांति, अहिंसा के प्रलाप ने चिंतकों, आचार्यों, राजाओं, सेनापतियों को मूढ़ बना दिया था।अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन के समय तो निश्चित ही चेत जाना था कि अब घाव सिर पर लगने लगे थे। दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि, काल का प्रवाह कि सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्ञान-सम्पन्न बनाने वाला, संस्कार देने वाला प्रतापी समाज सिमट कर आत्मकेंद्रित हो गया। वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के व्यक्तिवादी मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया।


मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी।

महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए। शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी।

इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वाभाविक चिंतन "सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं" के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मरने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग, जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था, का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां (ग़ुलाम लड़के/लौंडे) शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, जीभ-लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका।
यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।


7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }


9वीं शताब्दी में महान समन (श्रमण ) साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }


आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। (सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 ) 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये।


यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }


हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।


विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्वभाविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था।


13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचाने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था।


इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली।


दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज फलस्वरूप आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हम शताब्दियों से अहिंसा के नाम पर कायर, नपुंसक बनने पर तुले हुए हैं। इस सोच, व्यवहार का कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये।


यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के वंशज, महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। पाकिस्तानी हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण यूरेशिया के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है।  शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चिन्ताम् प्रवर्तते। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ।

तेरी हालत बदल जायेगी तय है
अगर आँखों में सपना जाग जाये

तुफ़ैल चतुर्वेदी 

इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद जी के 52 वर्ष की आयु में 6 वर्ष की आयशा से विवाह और 3 वर्ष बाद मुहम्मद जी के 55 वर्ष और आयशा के 9 वर्ष की आयु में यौन सम्बन्ध स्थापित करने के इस्लामी वांग्मय से ही प्रमाण

इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद जी के 52 वर्ष की आयु में 6 वर्ष की आयशा से विवाह और 3 वर्ष बाद मुहम्मद जी के 55 वर्ष और आयशा के 9 वर्ष की आयु में यौन सम्बन्ध स्थापित करने के इस्लामी वांग्मय से ही प्रमाण
The Islamic Evidence
We now present the Islamic data showing that Aisha was a girl of nine when Muhammad consummated his marriage to her. All bold, capital and underlined emphasis is ours.
SAHIH AL-BUKHARI
Narrated Aisha:
The Prophet engaged me when I was a girl of six (years). We went to Medina and stayed at the home of Bani-al-Harith bin Khazraj. Then I got ill and my hair fell down. Later on my hair grew (again) and my mother, Um Ruman, came to me while I was playing in a swing with some of my girl friends. She called me, and I went to her, not knowing what she wanted to do to me. She caught me by the hand and made me stand at the door of the house. I was breathless then, and when my breathing became all right, she took some water and rubbed my face and head with it. Then she took me into the house. There in the house I saw some Ansari women who said, "Best wishes and Allah's Blessing and a good luck." Then she entrusted me to them and they prepared me (for the marriage). Unexpectedly Allah's Apostle came to me in the forenoon and my mother handed me over to him, and at that time I was a girl of nine years of age. (Sahih Al-Bukhari, Volume 5, Book 58, Number 234)
Narrated Hisham's father:
Khadija died three years before the Prophet departed to Medina. He stayed there for two years or so and then he married 'Aisha when she was a girl of six years of age, and he consumed that marriage when she was nine years old. (Sahih Al-Bukhari, Volume 5, Book 58, Number 236)
Narrated 'Aisha:
Allah's Apostle said to me, "You were shown to me twice (in my dream) before I married you. I saw an angel carrying you in a silken piece of cloth, and I said to him, 'Uncover (her),' and behold, it was you. I said (to myself), 'If this is from Allah, then it must happen.' Then you were shown to me, the angel carrying you in a silken piece of cloth, and I said (to him), 'Uncover (her), and behold, it was you. I said (to myself), 'If this is from Allah, then it must happen.'" (Sahih Al-Bukhari, Volume 9, Book 87, Number 140; see also Number 139)
Narrated 'Aisha:
that the Prophet married her when she was six years old and he consummated his marriage when she was nine years old, and then she remained with him for nine years (i.e., till his death). (Sahih Al-Bukhari, Volume 7, Book 62, Number 64; see also Numbers 65 and 88)
SAHIH MUSLIM
'A'isha (Allah be pleased with her) reported: Allah's Messenger (may peace be upon him) married me when I was six years old, and I was admitted to his house at the age of nine. She further said: We went to Medina and I had an attack of fever for a month, and my hair had come down to the earlobes. Umm Ruman (my mother) came to me and I was at that time on a swing along with my playmates. She called me loudly and I went to her and I did not know what she had wanted of me. She took hold of my hand and took me to the door, and I was saying: Ha, ha (as if I was gasping), until the agitation of my heart was over. She took me to a house, where had gathered the women of the Ansar. They all blessed me and wished me good luck and said: May you have share in good. She (my mother) entrusted me to them. They washed my head and embellished me and nothing frightened me. Allah's Messenger (may peace be upon him) came there in the morning, and I was entrusted to him. (Sahih Muslim, Book 008, Number 3309; see also 3310)
'A'isha (Allah be pleased with her) reported that Allah's Apostle (may peace be upon him) married her when she was seven years old, and he was taken to his house as a bride when she was nine, and her dolls were with her; and when he (the Holy Prophet) died she was eighteen years old. (Sahih Muslim, Book 008, Number 3311)
SUNAN ABU DAWUD
Aisha said: The Apostle of Allah (may peace be upon him) married me when I was seven years old. The narrator Sulaiman said: Or six years. He had intercourse with me when I was nine years old. (Sunan Abu Dawud, Number 2116)
Narrated Aisha, Ummul Mu'minin:
The Apostle of Allah (peace_be_upon_him) married me when I was seven or six. When we came to Medina, some women came. According to Bishr's version: Umm Ruman came to me when I was swinging. They took me, made me prepared and decorated me. I was then brought to the Apostle of Allah (peace_be_upon_him), and he took up cohabitation with me when I was nine. She halted me at the door, and I burst into laughter. (Sunan Abu Dawud, Book 41, Number 4915)
Narrated Aisha, Ummul Mu'minin:
The Prophet (peace_be_upon_him) used to kiss her and suck her tongue when he was fasting. (Sunan Abu Dawud, Book 13, Number 2380)
SUNAN NASA‘I
… When Hadrat Aisha passed nine years of marriage life, the Holy Prophet Muhammad (peace and blessings of Allah be upon him) fell in mortal sickness… ‘A’isha was eighteen years of age at the time when the Holy Prophet (peace and blessings of Allah be upon him) passed away and she remained a widow for forty-eight years till she died at the age of sixty-seven. She saw the rules of four Caliphs in her lifetime. She died on Ramadan 58 A.H. during the Caliphate of Hadrat Amir Mu‘awiya… (Sunan Nasa'i: English translation with Arabic Text, compiled by Imam Abu Abd-ur-Rahman Ahmad Nasa'i, rendered into English by Muhammad Iqbal Siddiqui [Kazi Publication, 121-Zulqarnain Chambers, Gampat Road, Lahore, Pakistan; first edition, 1994], Volume 1, p. 108)
SUNAN IBN-I-MAJAH
1876. ‘A’isha (Allah be pleased with her) is reported to have said: Allah’s Messenger (peace and blessings of Allah be upon him) contracted marriage with me while I was (yet) a six years [sic] old girl. Then we arrived at Medina and stayed with Banu Harith b. Khazraj. I fell victim to fever; then my hair (of the head fell off (and became scattered). Then they became plenty and hanged down upto [sic] the earlobes. My mother ‘Umm Ruman came to me while I was (playing) in a swing alongwith [sic] my play-mates. She (the mother) called me loudly. I went to her and I did not know what he [sic] wanted. She seized my hand and stopped me at the door of the house and I was hearing [sic] violently until the agitation of my heart was over. Then she took some water and wiped it over my face and head. Then she admitted me to the house when some woman [sic] of Ansar were present in the house. They said, "You have entered with blessings and good fortune." Then she (the mother) entrusted me to them. So they embellished me and nothing frightened me but Allah’s Messenger (peace and blessings of Allah be upon him) (when he came there) in the morning and they (the women) entrusted me to him. On that day, I was a nine years [sic] old girl."
1877. Abdullah (Allah be pleased with him) is reported to have said, "The Holy Prophet (peace and blessings of Allah be upon him) married ‘A’isha while she was a seven years [sic] old girl and took him [sic] to his house as a bride when she was nine years old and he parted with her (after his demise) when she was eighteen years old."
According to Al-Zawa‘id its isnad is sahih in accordance with the condition prescribed by Bukhari, but munqata because Abu ‘Ubaida did not hear from his father. Shu‘ba Abu Hatim and Ibn Hibban mentioned him amongst the authentic and reliable authorities. Tirmidhi in al-Jami’ and al-Mazzi in al-Atraf (has expressed the same opinion). Nasa‘i has transmitted this hadith in al-Sughra from the hadith ‘A’isha (Allah be pleased with her). (Sunan Ibn-I-Majah, Imam Abdullah Muhammad B. Yazid Ibn-I-Maja Al-Qazwini, English version by Muhammad Tufail Ansari [Kazi Publications, 121-Zulqarnain Chambers, Gampat Road, Lahore Pakistan, first edition, 1995], volume III, pp. 133-134)
IBN HISHAM
He married ‘A’isha in Mecca when she was a child of seven and lived with her in Medina when she was nine or ten. She was the only virgin that he married. Her father, Abu Bakr, married her to him and the apostle gave her four hundred dirhams. (Ibn Ishaq, Sirat Rasulullah (The Life of Muhammad), translated by Alfred Guillaume [Oxford University Press, Karachi, tenth impression 1995], p. 792)
AL-TABARI
In this year also the Messenger of God consummated his marriage with ‘A’ishah. This was in Dhu al-Qa‘dah (May-June 623) eight months after his arrival in Medina according to some accounts, or in Shawwal (April-May 623) seven months after his arrival according to others. He had married her in Mecca three years before the Hijrah, after the death of Khadijah. At that time she was six or, according to other accounts, seven years old.
According to ‘Ab al-Hamid b. Bayan al-Sukkari- Muhammad b. Yazid- Isma‘il (that is, Ibn Abi Khalid)- ‘Abd al-Rahman b. Abi al-Dahhak- a man from Quraysh- ‘Abd al-Rahman b. Muhammad: ‘Abd Allah b. Safwan together with another person came to ‘A’ishah, and ‘A’ishah said (to the latter), "O so-and-so, have you heard what Hafsah has been saying?" He said, "Yes, O Mother of the Faithful." ‘Abd Allah b. Safwan asked her, "What is that?" She replied, "There are nine special features in me that have not been in any woman, except for what God bestowed on Maryam bt. ‘Imran. By God, I do not say this to exalt myself over any of my companions." "What are these?" he asked. She replied, "The angel brought down my likeness; the Messenger of God married me when I was seven; my marriage was consummated when I was nine; he married me when I was a virgin, no other man having shared me with him; inspiration came to him when he and I were in a single blanket; I was one of the dearest people to him, a verse of the Qur’an was revealed concerning me when the community was almost destroyed; I saw Gabriel when none of his other wives saw him; and he was taken (that is, died) in his house when there was nobody with him but the angel and myself."
According to Abu Ja‘far (Al-Tabari): The Messenger of God married her, so it is said, in Shawwal, and consummated his marriage to her in a later year, also in Shawwal. (The History of Al-Tabari: The Foundation of the Community, translated by M.V. McDonald annotated by W. Montgomery Watt [State University of New York Press, Albany 1987], Volume VII, pp. 6-7)
Sa‘id b. Yahya b. Sa‘id al-Umawi- his father- Muhammad b. ‘Amr- Yahya b. ‘Abd al-Rahman b. Hatib- ‘A’isha: When Khadijah died, Khawlah bt. Hakim b. Umayyah b. al-Awqas, wife of ‘Uthman b. Maz‘un, who was in Mecca, said [to the Messenger of God], "O Messenger of God, will you not marry?" He replied, "Whom?" "A maiden," she said, "if you like, or a non-maiden." He replied, "Who is the maiden?" "The daughter of the dearest creature of God to you," she answered, "‘A’ishah bt. Abi Bakr." He asked, "And who is the non-maiden?" "Sawdah bt. Zam‘ah b. Qays," she replied, "she has [long] believed in you and has followed you." [So the Prophet] asked her to go and propose to them on his behalf.
She went to Abu Bakr’s house, where she found Umm Ruman, mother of ‘A’ishah, and said, "O Umm Ruman, what a good thing and a blessing has God brought to you!" She said, "What is that?" Khawlah replied, "The Messenger of God has sent me to ask for ‘A’ishah’s hand in marriage on his behalf." She answered, "I ask that you wait for Abu Bakr, for he should be on his way." When Abu Bakr came, Khawlah repeated what she had said. He replied, "She is [like] his brother’s daughter. Would she be appropriate for him?" When Khawlah returned to the Messenger of God and told him about it he said, "Go back to him and say that he is my brother in Islam and that I am his brother [in Islam], so his daughter is good for me." She came to Abu Bakr and told him what the Messenger of God had said. Then he asked her to wait until he returned.
Umm Ruman said that al-Mut‘im b. ‘Adi had asked ‘A’ishah’s hand for his son, but Abu Bakr had not promised anything. Abu Bakr left and went to Mut‘im while his wife, mother of the son for whom he had asked ‘A’ishah’s hand, was with him. She said, "O son of Abu Quhafah, perhaps we could marry our son to your daughter if you could make him leave his religion and bring him in to the religion which you practice." He turned to her husband al-Mut‘im and said, "What is she saying?" He replied, "She says [what you have heard]." Abu Bakr left, [realizing that] God had [just] removed the problem he had in his mind. He said to Khawlah, "Call the Messenger of God." She called him and he came. Abu Bakr married [‘A’ishah] to him when she was [only] six years old. (The History of Al-Tabari: The Last Years of the Prophet, translated and annotated by Ismail K. Poonawala [State University of New York Press, Albany 1990], Volume IX, pp. 129-130)
‘A’ishah states: We came to Medina and Abu Bakr took up quarters in al-Sunh among the Banu al-Harith b. al-Khazraj. The Messenger of God came to our house and men and women of the Ansar gathered around him. My mother came to me WHILE I WAS BEING SWUNG ON A SWING BETWEEN TWO BRANCHES AND GOT ME DOWN. Jumaymah, my nurse, took over and wiped my face with some water and started leading me. When I was at the door, she stopped so I could catch my breath. I was then brought [in] while the Messenger of God was sitting on a bed in our house. [My mother] made me sit on his lap and said, "These are your relatives. May God bless you with them and bless them with you!" Then the men and women got up and left. The Messenger of God consummated his marriage with me in my house when I was nine years old. Neither a camel nor a sheep was slaughtered on behalf of me. Only Sa‘d b. ‘Ubaidah sent a bowl of food which he used to send to the Messenger of God.
‘Ali b. Nasr- ‘Abd al-Samad b. ‘Abd al-Warith- ‘Abd al-Warith b. ‘Abd al-Samad- his father- Aban al-‘Attar- Hisham b. ‘Urwah- ‘Urwah: He wrote to ‘Abd al-Malik b. Marwan stating that he had written to him about Khadijah bt. Khuwaylid, asking him about when she died. She died three years or close to that before the Messenger of God’s departure from Mecca, and he married ‘A’ishah after Khadijah’s death. The Messenger of God saw ‘A’ishah twice- [first when] it was said to him that she was his wife (she was six years old at that time), and later [when] he consummated she was nine years old.
(The report goes back to Hisham b. Muhammad. See above, I, 1766). Then the Messenger of God married ‘A’ishah bt. Abi Bakr, whose name is ‘Atiq b. Abi Quhafah, who is ‘Uthman, and is called ‘Abd al-Rahman b. ‘Uthman b. ‘Amir b. ‘Amir b. Ka‘b b. Sa‘d b. Taym b. Murrah: [The Prophet] married her three years before the Emigration, when she was seven years old, and consummated the marriage when she was nine years old, after he had emigrated to Medina in Shawwal. She was eighteen years old when he died. The Messenger of God did not marry any maiden except her. (The History of al-Tabari, Volume IX, pp. 130-131)
‘A’ishah, daughter of Abu Bakr.
Her mother was Umm Ruman bt. ‘Umayr b. ‘Amr, of the Banu Duhman b. al-Harith b. Ghanm b. Malik b. Kinanah.
The Prophet married ‘A’ishah in Shawwal in the tenth year after the [beginning of his] prophethood, three years before Emigration. He consummated the marriage in Shawwal, eight months after Emigration. On the day he consummated the marriage with her she was nine years old.
According to Ibn ‘Umayr [al-Waqidi]- Musa b. Muhammad b. ‘Abd al-Rahman- Raytah- ‘Amrah [bt. ‘Abd al-Rahman b. Sa’d]: ‘A’ishah was asked when the Prophet consummated his marriage with her, and she said:
The Prophet left us and his daughters behind when he emigrated to Medina. Having arrived at Medina, he sent Zayd b. Harithah and his client Abu Rafi’ for us. He gave them two camels and 500 dirhams he had taken from Abu Bakr to buy [other] beasts they needed. Abu Bakr sent with them ‘Abdallah b. Urayqit al-Dili, with two or three camels. He wrote to [his son] ‘Abdallah b. Abi Bakr to take his wife Umm Ruman, together with me and my sister Asma’, al-Zubayr’s wife, [and leave for Medina]. They all left [Medina] together, and when they arrived at Qudayd Zayd b. Harithah bought three camels with those 500 dirhams. All of them then entered Mecca, where they met Talhah b. ‘Ubaydallah on his way to leave town, together with Abu Bakr’s family. So we all left: Zayd b. Harithah, Abu Rafi’, Fatimah, Umm Kulthum, and Sawdah bt. Zam‘ah. Ayd mounted Umm Ayman and [his son] Usamah b. Zayd on a riding beast; ‘Abdallah b. Abi Bakr took Umm Ruman and his two sisters, and Talhah b. ‘Ubaydallah came [too]. We all went together, and when we reached Bayd in Tamanni my camel broke loose. I was sitting in the litter together with my mother, and she started exclaiming "Alas, my daughter, alas [you] bride"; then they caught up with our camel, after it had safely descended the Lift. We then arrived at Medina, and I stayed with Abu Bakr’s children, and [Abu Bakr] went to the Prophet. The latter was then busy building the mosque and our homes around it, where he [later] housed his wives. We stayed in Abu Bakr’s house for a few days; then Abu Bakr asked [the Prophet] "O Messenger of God, what prevents you from consummating the marriage with your wife?" The Prophet said "The bridal gift (sadaq)." Abu Bakr gave him the bridal gift, twelve and a half ounces [of gold], and the Prophet sent for us. He consummated our marriage in my house, the one where I live now and where he passed away. (The History of Al-Tabari: Biographies of the Prophet’s Companions and Their Successors, translated by Ella Landau-Tasseron [State University of New York Press, Albany 1998], Volume XXXIX, pp. 171-173; underline emphasis ours)
IBN KATHIR
Yunus b. Bukayr stated, from Hisham b. ‘Urwa, from his father who said, "The Messenger of God (SAAS) married ‘A’isha three years after (the death of) Khadija. At that time (of the contract) ‘A’isha had been a girl of six. When he married her she was nine. The Messenger of God (SAAS) died when ‘A’isha was a girl of eighteen. "
This tradition is considered gharib (unique in this line).
Al-Bukhari had related, from ‘Ubayd b. Isma‘il, from Abu Usama, from Hisham b. ‘Urwa, from his father, who said, "Khadija died three years before the emigration of the Prophet (SAAS). He allowed a couple of years or so to pass after that, and then he contracted marriage with ‘A’isha when she was six, thereafter consummating marriage with her when she was nine years old."
What ‘Urwah stated here is mursal, incomplete, as we mentioned above, but in its content it must be judged as muttasil, uninterrupted.
His statement, "He contracted marriage with ‘A’isha when she was six, thereafter consummating marriage with her when she was nine" IS NOT DISPUTED BY ANYONE, and is well established in the sahih collections of traditions and elsewhere.
He consummated marriage with her during the second year following the emigration to Medina.
His contracting marriage with her took place some three years after Khadija’s death, though there is disagreement over this.
The hafiz Ya‘qub b. Sufyan stated, "Al-Hajjaj related to us, that Hammad related to him, from Hisham b. ‘Urwa, from his father, from ‘A’isha, who said, ‘The Messenger of God (SAAS), contracted marriage with me (after) Khadija’s death and before his emigration from Mecca, when I was six years old. After we arrived in Medina some women came to me while I was playing on a swing; my hair was like that of a boy. They dressed me up and put make-up on me, then took me to the Messenger of God (SAAS), and he consummated our marriage. I was a girl of nine.’"
The statement here "muttawaffa Khadija", "Khadija’s death" has to mean that it was shortly thereafter. Unless, that is, the word, ba‘da, "after", originally preceded this phrase and had been omitted from the account. The statement made by Yunus b. Bukayr and Abu Usama from Hisham b. ‘Urwa, from his father, is, therefore, not refuted. But God knows best. (Ibn Kathir, The Life of the Prophet Muhammad (Al-Sira al-Nabawiyya), Volume II, translated by professor Trevor Le Gassick, reviewed by Dr. Muneer Fareed [Garnet Publishing Limited, 8 Southern Court, south Street Reading RG1 4QS, UK; The Center for Muslim Contribution to Civilization, first paper edition, 2000], pp. 93-94)
IBN QAYYIM
Next, the Prophet… married Um Abdallah, Aishah, as-Siddiqah (the truthful one), daughter of as-Siddiq (the truthful one) Abu Bakr ibn Abi Qu’hafah, whom Allah has exonerated from above the seven heavens. ‘Aishah bint Abu Bakr was the beloved wife of the Prophet… The angel showed Aishah… to the Prophet… while she was wrapped in a piece of silk cloth, before he married her, and said to him. "This is your wife." The Prophet… married Aishah… during the lunar month of Shawwal, when she was six, and consummated the marriage in the first year after the Hijrah, in the month of Shawwal, when she was nine. The Prophet… did not marry any virgin, except Aishah… and the revelation never came to him while he was under the blanket with any of his wives, except Aishah. (Ibn Qayyim Al-Juaziyyah, Zad-ul Ma’ad fi Hadyi Khairi-l ‘Ibad (Provisions for the Hereafter, From the Guidance of Allah’s Best Worshipper), translated by Jalal Abualrub, edited by Alaa Mencke & Shaheed M. Ali [Madinah Publishers & Distributors, Orlando, Fl: First edition, December 2000], Volume I, pp. 157-158
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सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

बंधुओ, अंग्रेज़ी की एक कहावत है fore warned fore armed यानी अग्रिम चेतावनी मिलना सशस्त्र होना है। हमारे सैनिकों का पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में स्ट्राइक करना केवल प्रारम्भ है। इस ठुकाई से आतंकवादी विचारधारा की साख दांव पर है और वो इसे सरलता से नहीं डूबने देंगे। हमारे वार को अगर वो चुपचाप पचा लेते हैं तो उनके आक़ाओं का पाकिस्तान में बाजा बज जायेगा। जिन परिवारों के बच्चों को अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, कश्मीर में इस्लाम के नाम पर घरों से लिया है, जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह के नाम पर कुत्ते की मौत मरवाया है, वही इनका जनाज़ा निकाल देंगे। अतः उनका जवाबी वार होना आज-कल की बात है।


भारत भर में जगह-जगह गाँधी-नेहरू की बोई हुई विषबेल मौजूद है। इस को दशकों से खाद-पानी दिया जाता रहा है। इस पर चुपचाप काम होता रहा है। न जाने कितने लोगों को मानसिक रूप से उन्होंने अवसर की प्रतीक्षा में तैयार करके दुबक कर रखा है। ये स्लीपर सैल अब सक्रिय हो सकते हैं और इनका स्वाभाविक निशाना भीड़भाड़ वाले क्षेत्र जैसे रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, मॉल, भीड़भरे बाज़ार हो सकते हैं।


राज्य के पास हर मॉल, हर बाज़ार, हर सार्वजानिक स्थान पर तैनात करे के लिए पुलिस नहीं हो सकती अतः अब हमारे दायित्व का समय आया है। बंधुओ, इनकी संख्या कितनी भी बड़ी हो 120 करोड़ नहीं हो सकती। त्यौहार का समय है। कृपया आँखें खुली रखिये। कोई लावारिस गठरी, लावारिस सामान दिखे तो तुरन्त सावधान होइये। पुलिस को सूचित कीजिये। अपने मोहल्ले, कॉलोनी में किसी अपरिचित का अनायास अतिरिक्त आना-जाना दिखे तो उसे थाम कर पूछताछ कीजिये। यह मैसेज दीजिये कि 120 करोड़ लोग चौकन्ने हैं, 240 करोड़ आँखें देख रही हैं। 240 करोड़ हाथ तत्पर हैं।


वैसे मेरी समझ यह है कि यह हमारा यह प्रहार पूर्ण युद्ध में बदलेगा और सम्भवतः दिसम्बर-जनवरी से पाकिस्तान के टुकड़े होने तक जंग चलेगी। राष्ट्र के परम वैभव के शिखर पर जाने वाला मार्ग कंटकों से भरा है और यही एकमात्र मार्ग है।


मेरी भृकुटि यदि तन जाये तीसरा नेत्र मैं शंकर का
ब्रह्माण्ड कांपता है जिससे वह तांडव हूँ प्रलयंकर का
मैं रक्तबीज शिरउच्छेदक काली की मुंडमाल हूँ मैं
मैं इंद्रदेव का तीक्ष्ण वज्र चंडी की खड्ग कराल हूँ मैं
मैं चक्र सुदर्शन कान्हा का मैं कालक्रोध कल्याणी का
महिषासुर के समरांगण में मैं अट्टहास रुद्राणी का
मैं भैरव का भीषण स्वभाव मैं वीरभद्र की क्रोध ज्वाल
असुरों को जीवित निगल गया मैं वह काली का अंतराल
 मैं नागपंचमी के दिन यदि नागों को दूध पिलाता हूँ
तो आवश्यकता पड़ने पर जनमेजय भी बन जाता हूँ
फिर से अन्याय हुआ तो फिर कर दूंगा धरती शोणितमय

तुफ़ैल चतुर्वेदी

रविवार, 18 सितंबर 2016

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का तीसरा और अंतिम भाग ........वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया। इसका परिणाम स्वकेन्द्रित होना ही था।

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का तीसरा और अंतिम भाग

........वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया। इसका परिणाम स्वकेन्द्रित होना ही था। 


मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी। 



महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले  ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए।  शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी। 


इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वभाविक "चिंतन सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं" के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मारने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां, शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, जीभ-लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका। 


यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।


7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }

9वीं शताब्दी में महान समन साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }


आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। [सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 } 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये। 


यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }

हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।

विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्व्भविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था। 


13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था। 


इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली। 


दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज, आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हमारा बच्चा स्कूल में लड़ कर आये तो हम उसको सही-ग़लत की जानकारी किये बिना डाँटते हैं। हम अपनी पीढ़ियों को कायर, नपुंसक बनाने पर तुले हैं। इसका कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये। 


यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। पाकिस्तानी हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण यूरेशिया के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। इसके लिये प्रारम्भिक क़दम इस विजयदशमी पर अपने निजी शस्त्र का पूजन हो सकता है। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ। 

तेरी हालत बदल पाती तो कैसे 
तेरी आँखों में सपना भी नहीं था 

तुफ़ैल चतुर्वेदी 









शनिवार, 17 सितंबर 2016

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का अगला भाग:- बंधुओ, यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। {इस बार चूँकि विषय पाकिस्तानी हिंदुओं से शुरू हुआ है अतः इस्लाम पर ही फ़ोकस रखना ठीक होगा। ईसाइयों की करतूतें फिर कभी लेंगे }। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है।

12 सितम्बर को लिखी गयी पोस्ट का अगला भाग:-
बंधुओ, यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। {इस बार चूँकि विषय पाकिस्तानी हिंदुओं से शुरू हुआ है अतः इस्लाम पर ही फ़ोकस रखना ठीक होगा। ईसाइयों की करतूतें फिर कभी लेंगे }। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है। इस विचार पर सोचने वाली बात यह है कि इस्लाम की आक्रमकता ने भारत वर्ष जो पूरा यूरेशिया था, के केंद्रीय भाग यानी आर्यावर्त { वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान } से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं हड़पा बल्कि शेष बचे देश में हमारे करोड़ों बंधुओं को धर्मान्तरित कर लिया है। यह चिंतन कि ऊँची दीवारों में सीमाओं को सुरक्षित रखा जाये, से कोई लक्ष्य नहीं सधता। अतः पराक्रम ही एकमेव उपाय है और यही हमारे प्रतापी पूर्वज करते आये हैं। इस हेतु आवश्यक है कि वास्तविक इतिहास देखा जाये। यहाँ सिंहावलोकन शब्द का प्रयोग करना चाहता हूँ। सिंहावलोकन अर्थात जिस तरह सिंह वीर भाव से गर्दन मोड़ कर पीछे देखता है। आइये इतिहास का संक्षेप में सिंहावलोकन करें।
महाभारत में तत्कालीन भारत वर्ष का विस्तृत वर्णन है। जिसमें आर्यावर्त के केंद्रीय राज्यों के साथ उत्तर में काश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पह्लव, पारसीक { ईरान }, तुषार { तुर्कमेनिस्तान और तुर्की }, हूण { मंगोलिया } चीन, ऋचीक, हर हूण तथा उत्तर-पश्चिम में बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा }, शक, यवन { ग्रीस }, मत्स्य, खश, परम काम्बोज, काम्बोज, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र { क़ज़्ज़ाक़िस्तान, उज़्बेकिस्तान } हैं। पूर्वोत्तर राज्य प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्ड्र, सुहाय, कीकट पश्चिम में त्रिगर्त, साल्व, सिंधु, मद्र, कैकय, सौवीर, गांधार, शिवि, पह्लव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद का वर्णन है। यह जनपद ढाई सौ से अधिक हैं और इनमें उपरोक्त के अतिरिक्त उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, आदि हैं। {सन्दर्भ:-अध्याय 9 भीष्म पर्व जम्बू खंड विनिर्माण पर्व महाभारत }
भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वर्णन है। जिसमें कौरव सेना के वाम भाग में आचार्य कृपा के नेतृत्व में शक, पह्लव { ईरान } यवन { वर्तमान ग्रीस } की सेना, दुर्योधन के नियंत्रण में गांधार, भीष्म पितामह के नियंत्रण में सिंधु, पंचनद, सौवीर, बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा } की सेना का वर्णन है। सोचने वाली बात यह है कि महाभारत तो चचेरे-तयेरे भाइयों की राज्य-सम्पत्ति की लड़ाई थी। उसमें यह सब सेनानी क्या करने आये थे ? वस्तुतः यह सब सम्बन्धी थे और इसी कारण सम्मिलित हुए थे। स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, यवन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सम्पूर्ण रूस इत्यादि सभी भारतीय क्षेत्र थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, त्रिविष्टप, यवन { ग्रीस / हेलेनिक रिपब्लिक } हूण, शक, बाह्लीक, किरात, दरद, पारद, आदि क्षेत्रों के राजा भेंट ले कर आये थे। महाभारत में यवन नरेश और यवन सेना के वर्णन दसियों जगह हैं।
पौराणिक इतिहास के अनुसार इला के वंशज ऐल कहलाये और उन्होंने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। यवन या वर्तमान ग्रीस जन आज भी स्वयं को ग्रीस नहीं कहते। यह स्वयं को हेलें, ऐला या ऐलों कहते हैं। आज भी उनका नाम हेलेनिक रिपब्लिक है। महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य इलियड में इन्हें हेलें या हेलेन कहा है और पास के पारसिक क्षेत्र को यवोन्स कहा है जो यवनों का पर्याय है { सन्दर्भ:-निकोलस ऑस्टर, एम्पायर्स ऑफ़ दि वर्ड, हार्पर, लन्दन 2006, पेज 231 } होमर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं अतः उनका साक्ष्य प्रामाणिक है।
सम्राट अशोक के शिला लेख संख्या-8 में यवन राजाओं का उल्लेख है। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार, जलालाबाद में सम्राट अशोक के शिलालेख मिले हैं जिनमें यावनी भाषा तथा आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन सम्राट अशोक की प्रजा थे। यवन देवी-देवता और वैदिक देवी देवताओं में बहुत साम्य है। सम्राट अशोक के राज्य की सीमाएं वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ग्रीस तक थीं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28 भारतीय इतिहास कोष सच्चिदानंद भट्टाचार्य } सम्राट अशोक के बाद सम्राट कनिष्क के शिलालेख अफ़ग़ानिस्तान में मिलते हैं जिनका सम्राज्य गांधार से तुर्किस्तान तक था और जिसकी राजधानी पेशावर थी। सम्राट कनिष्क के शिव, विष्णु, बुद्ध के साथ जरथुस्त्र और यवन देवी-देवताओं के सिक्के भी मिलते हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार, चंद्रगुप्त वेदालंकार, दूसरा संस्करण 1969 }
ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण { समय-ईसा पूर्व 24 } में उल्लिखित है कि विक्रमादित्य परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम देश { रोम } के शकाधिपति को जीत कर फिर उनके द्वारा विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया { सन्दर्भ:-पृष्ठ 8, डॉ भगवती लाल पुरोहित, आदि विक्रमादित्य स्वराज संस्थान 2008 }। 15वीं शताब्दी तक चीन को हिन्द, भारत वर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। 1492 में चीन और भारत जाने के लिए निकले कोलम्बस के पास मार्गदर्शन के लिये मार्कोपोलो के संस्मरण थे। उनमें रानी ईसाबेल और फर्डिनांड के पत्र भी हैं। जिनमें उन्होंने साफ़-साफ़ सम्बोधन " महान कुबलाई खान सहित भारत के सभी राजाओं और लॉर्ड्स के लिए " लिखा है। {सन्दर्भ:-पृष्ठ 332-334 जॉन मेन, कुबलाई खान: दि किंग हू रिमेड चाइना, अध्याय-15, बैंटम लन्दन 2006 }15वीं शताब्दी में यूरोप से प्राप्त अधिकांश नक़्शों में चीन को भारत का अंग दिखाया गया है।
ऐसे हज़ारों वर्णन मिटाने की भरसक कोशिशों के बावजूद सम्पूर्ण विश्व में मिलते हैं। केंद्रीय भूमि के लोग सदैव से राज्य, ज्ञान, शौर्य और व्यापार के प्रसार के लिये सम्पूर्ण जम्बू द्वीप यानी पृथ्वी भर में जाते रहे हैं। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की सभा में पारसिक नरेश खुसरू-द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये हैं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 238, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार } इतिहासकार तबारी ने 9वीं शताब्दी में भारतीय नरेश के फ़िलिस्तीन पर आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बसरा के शासक को सदैव तैयार रहना पड़ता है चूँकि भारतीय सैन्य कभी भी चढ़ आता है { सन्दर्भ:- पृष्ठ 639, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार }
इतने बड़े क्षेत्र को सैन्य बल से प्रभावित करने वाले, विश्व भर में राज्य स्थापित करने वाले, ज्ञानसम्पन्न बनाने वाले, संस्कारित करने वाले लोग दैवयोग ही कहिये शिथिल होने लगे। मनुस्मृति के अनुसार पौंड्रक, औंड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव , चीन, किरात, दरद और खश इन देशों के निवासी क्रिया { यज्ञादि क्रिया } के लोप होने से धीरे-धीरे वृषल हो गए { मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 43-44 } अर्थात जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेश के ब्रह्मवर्त यानी तत्कालीन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का संस्कृति के केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास थमने लगा। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा मंद पड़ी फिर भी नष्ट नहीं हुई मगर लगातार सम्पर्क के अभाव में ज्ञान, धर्म, चिंतन की ऊष्मा कम होती चली गयी। सम्पूर्ण यूरेशिया में फैले आर्य वृषल होते गये।
इसी समय बुद्ध का अवतरण हुआ। महात्मा बुद्ध की देशना निजी मोक्ष, व्यक्तिगत उन्नति पर थी। स्पष्ट था कि यह व्यक्तिवादी कार्य था। समूह का मोक्ष सम्भव ही नहीं है। यह किसी भी स्थिति में राजधर्म नहीं हो सकता था मगर काल के प्रवाह में यही हुआ। शुद्धि-वापसी का कोई प्रयास करने वाला नहीं था। उधर एक अल्लाह के नाम पर हिंस्र दर्शन फैलना शुरू हो गया फिर भी इसकी गति धीमी ही थी। फ़रिश्ता के अनुसार 664 ईसवीं में गंधार क्षेत्र में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने {सन्दर्भ:-पृष्ठ-16 तारीख़े-फ़रिश्ता भाग-1, हिंदी अनुवाद, नवल किशोर प्रेस }
अरब में शुरू हो गयी उथल-पुथल से आँखें खुल जानी चाहिए थीं मगर निजी मोक्ष के चिंतन, शांति, अहिंसा के प्रलाप ने चिंतकों, आचार्यों, राजाओं, सेनापतियों को मूढ़ बना दिया था।अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन के समय तो निश्चित ही चेत जाना था कि अब घाव सिर पर लगने लगे थे। दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि, काल का प्रवाह कि सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्ञान-सम्पन्न बनाने वाला, संस्कार देने वाला प्रतापी समाज सिमट कर आत्मकेंद्रित हो गया। फिर भी केवल इस कारण ही हमारी यह हालत नहीं हुई। इसका मुख्य कारण और इस स्थिति को पलटने के उपाय अगले भाग में रखूँगा।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

बंधुओ, कल डॉ सुधीर व्यास द्वारा अहमदाबाद के अपोलो अस्पताल में हुए बलात्कार पर लिखी पोस्ट पर लम्बी बातचीत हुई। बलात्कार अक्षम्य अपराध है। उन दुष्टों को बुरे से बुरा दंड मिलना चाहिये मगर उस डॉक्टर का पाकिस्तानी हिन्दू बता कर हाई लाइट किया जाना मेरी समझ में अनुचित है। इस अपराध क़ानून-व्यवस्था का है और इससे उसी को निबटना चाहिये। इसी तरह किसी पाकिस्तान हिंदू या भारतीय के पाकिस्तानी जासूस होने की समस्या भी क़ानून-व्यवस्था की ही है।

बंधुओ, कल डॉ सुधीर व्यास द्वारा अहमदाबाद के अपोलो अस्पताल में हुए बलात्कार पर लिखी पोस्ट पर लम्बी बातचीत हुई। बलात्कार अक्षम्य अपराध है। उन दुष्टों को बुरे से बुरा दंड मिलना चाहिये मगर उस डॉक्टर का पाकिस्तानी हिन्दू बता कर हाई लाइट किया जाना मेरी समझ में अनुचित है। इस अपराध क़ानून-व्यवस्था का है और इससे उसी को निबटना चाहिये। इसी तरह किसी पाकिस्तान हिंदू या भारतीय के पाकिस्तानी जासूस होने की समस्या भी क़ानून-व्यवस्था की ही है। आपमें से कई मित्रों ने इसमें हस्तक्षेप भी किया।

कई बंधुओं को यह एक ही पथ के दो पथिकों का आपस में जूझना लगा। डॉ सुधीर व्यास मेरे अनुज-वत मित्र हैं और राष्ट्रीय विषयों पर लिखते हैं। इस विषय को पूरी समग्रता में देखा जाना आवश्यक है अतः अलग से इस पर अपनी बात लिख रहा हूँ और डॉ व्यास के लेख पर पधारे आप सब सहभागी मित्रों को भी इसी लिये टैग कर रहा हूँ। जिन मित्रों को मैं टैग नहीं कर पा रहा हूँ उन्हें कृपया डॉ व्यास आप टैग कर दीजिये। यह विषय इतना बड़ा है कि इसे एक लेख में समाया नहीं जा सकता अतः इसे दो या तीन भागों में लिखूंगा। करबद्ध निवेदन कृपया लेख-माला पूरी होने तक अपने कॉमेंट्स विवाद की ओर मत ले जाइयेगा।

डॉ सुधीर व्यास पहले जोधपुर में रहते थे। जोधपुर में पिछले कुछ वर्षों में हज़ारों पाकिस्तानी हिंदुओं ने शरण ली है। डॉ व्यास इन पाकिस्तानी हिंदुओं के भारत में शरण लेने के घोर ख़िलाफ़ हैं। उनके विरोध में थाना-कचहरी करते रहे हैं। इसी तरह मेरे एक और अनुज-वत मित्र डॉ राकेश रंजन हैं। यह हिंदू महासभा के अधिकारी रहे हैं । मेरे जीवन में आये सर्वाधिक विद्वानों में से एक, प्रखर अध्ययनशील हैं। अपने कार्य के सम्बन्ध में 40-45 देशों में घूमे हैं। इन्हीं को रूस में गीता पर प्रतिबन्ध लगाये जाने पर मुक़दमा लड़ कर प्रतिबन्ध हटवाने का यश प्राप्त है। पाकिस्तान के भारत में शरण लेने के इच्छुक हिंदुओं के भारत लाने के क़ानूनी प्रयासों को जी-जान से करते रहे हैं। इन्हीं की निजी ज़मानत के कारण 38,000 से अधिक पाकिस्तानी हिंदू भारत में शरण ले पाए। इस कार्य में डॉ राकेश रंजन की दो-ढाई करोड़ की जमापूंजी समाप्त हो गयी मगर वह अब भी हिंदू-हित के कार्यों में लगे हुए हैं।

डॉ व्यास से मेरी पहली भेंट kruhaad की बैठक के समय हुई और दूसरी भेंट JNU के मार्च के समय हुई। कार्यक्रम के बाद हम लोग घर आ गए। डॉ राकेश रंजन भी साथ थे। डॉ राकेश रंजन ने डॉ व्यास तक पाकिस्तानी हिंदुओं के बारे में अपने विचार पहुंचाये। अपने इतने परिश्रम का कारण बताया मगर डॉ व्यास ने मन नहीं बदला। डॉ व्यास के पास यही तर्क थे। हम खिन्न हुए मगर किसी भी सूरत एक प्रखर राष्ट्रवादी लेखक को खो नहीं सकते थे अतः उस समय चुप लगा गये। यह विषय अब फिर उठा है अतः अब अपनी दृष्टि में उचित सत्य का कहा जाना आवश्यक है। इसी कारण मैंने उनकी पोस्ट पर अपना दृष्टिकोण रखा था।

अब विषय......... भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान-बंगला देश में करोड़ों हिंदू छूट गए थे। उनके भारत आने और भारत से पाकिस्तान जाने की इच्छा रखने वाले मुसलमानों को भेजने के सम्बन्ध में भारत-पाकिस्तान का पैक्ट हुआ है। वर्तमान पाकिस्तानी हिन्दू पैक्ट में तय समय-सीमा समाप्त होने के बाद भारत आ रहे हैं। डॉ व्यास का कहना है कि पाकिस्तान से आने वाले इन हिंदुओं को भारत को शरण नहीं मिलनी चाहिये। इसका कारण पोस्ट पर लिखे उनके ही शब्दों में {Once a Pakistani, always Pakistani Swine, not Hindu.....भारत मात्र कोई पुण्यभूमि नहीं बल्कि हमारा देश है कोई कचरादान नहीं कि सब जगह का भर लें, ना काम के ना काज के ... घर वापसी चलायें, शुद्धीकरण करें कचरा भरे, ये सूअर को मानव कैसे बना सकेंगे? एक पाकिस्तानी का रोजगार मेरे भारतीय हिन्दू के परिवार में कम से कम 4 जनों को भूखा सुलाने को मजबूर करता है, ऐसी भाईचारगी की बेचारगी किसी काम की नहीं}...... मैं तो तथाकथित घरवापसी का समर्थन ही नहीं करता ... मुरदों में जान नहीं फूंक सकते ना ही सनातन के हिसाब में वही हिन्दू आत्मा उनमें पुन: बसेगी ... सबसे पहली बात पाकिस्तान से आता हर तथाकथित हिन्दू व्यक्ति, हिन्दू, पीडित ही है अवांछनीय नहीं ...? यानी यह तय है कि डॉ व्यास पाकिस्तानी हिंदुओं के हर प्रकार से विरोधी हैं।

आपने पूजा, यज्ञ करते समय कभी संकल्प लिया होगा। उसके शब्द ध्यान कीजिये। ऊँ विष्णुर विष्णुर विष्णुर श्रीमद भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञा प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्री श्वेत वराहकलपे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे ......यह संकल्प भारत ही नहीं सारे विश्व भर के हिंदुओं में लिया जाता है और इसके शब्द लगभग यही हैं। क्या साम्य शब्दों के प्रयोग का कारण नहीं होना चाहिये? आख़िर यह जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे है क्या ? धर्मबंधुओ! जम्बू द्वीप सम्पूर्ण पृथ्वी है। भारत वर्ष पूरा यूरेशिया है। भरत खंड एशिया है। आर्यावर्त वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान है। आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्त बचाखुचा वर्तमान भारत है। आसिंधु सिंधु पर्यन्ता की परिभाषा आज गढ़ी गयी है। यह परिभाषा मूल भरतवंशियों के देश की परिचायक नहीं है।

वस्तुतः जम्बू द्वीप यानी सम्पूर्ण पृथ्वी ही षड्दर्शन को मानने वाली थी और इस ज्ञान का केंद्र ब्रह्मावर्त अर्थात वर्तमान भारत था। काल का प्रवाह आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान और संस्कृति के केंद्र वर्तमान भारत में भयानक युद्ध हुआ। जिसे हम आज महाभारत के नाम से जानते हैं और उसके बाद सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयीं। ज्ञानज्योति ऋषि वर्ग, पराक्रमी राजा कालकवलित हुए। परिणामतः ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास रुक गया। धीरे-धीरे संस्कृति की भित्तियां ढहने लगीं। चतुर्दिक धर्म ध्वज फहराने वाले लोग भृष्ट हो कर वृषल हो गए। परिणामस्वरूप इतने विशाल क्षेत्र में फैला षड्दर्शन की महान देशनाओं का धर्म नष्ट हो गया। अनेकानेक प्रकार के मत-मतान्तर फ़ैल गये। टूट-बिखर कर बचे केवल ब्रह्मावर्त का नाम भारत रह गया। कृपया सोचिये कि सम्पूर्ण योरोप, एशिया में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं क्यों मिलती हैं ? ईसाइयत और इस्लाम के अपने से पहले इतिहास को जी-जान से मिटाने की कोशिश के बावजूद ताशक़न्द के एक शहर का नाम चार्वाक क्यों है ? वहां की झील चार्वाक क्यों कहलाती है ? ख़ैर इस विषय को लेख के अगले भाग में लेना ठीक होगा।

इस टूटन-बिखराव में पीड़ित आर्यों { गुणवाचक संज्ञा } का अंतिम शरणस्थल सदैव से आर्यावर्त के अन्तर्गत आने वाला ब्रह्मावर्त यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और अब वर्तमान भारत रहा है। इसी लिए इस क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जाता है। जिज्ञासु मित्रों को दिल्ली के हिंदूमहासभा भवन के हॉल को देखना चाहिये। उसमें राजा रवि वर्मा की बनायी हुई पेंटिंग लगी है जिसका विषय महाराज विक्रमादित्य के दरबार में यूनानियों का आना और आर्य धर्म स्वीकार करना { हिन्दू बनना } है। ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं अपितु विपत्ति में भी सदैव से भरतवंशी केंद्र की ओर लौटते रहे हैं तो पाकिस्तान के हिंदुओं ने ही क्या बिगाड़ा है कि उनको धिक्कारा जाये ?

1947 में पाकिस्तान, बांग्लादेश से करोड़ों हिंदुओं ने कटे-फटे भारत में शरण ली। यूगांडा से ईदी अमीन ने निष्काषित किया तो हिन्दू भारत आये। 1971 में एक करोड़ से अधिक हिन्दू बांग्लादेश से भारत आये। अभी कुछ वर्ष पहले बांग्लादेश के चट्टोग्राम से चकमा जनजाति के हज़ारों हिन्दू सीमा पर कर भारत आये हैं। श्रीलंका में संघर्ष हुआ तो हज़ारों हिंदुओं ने समुद्री मार्ग से पलायन कर तमिलनाडु में शरण ली। अफ़ग़ानिस्तान से तालिबान ने हिंदुओं को भगाया तो वहां के बचे-खुचे सिक्ख भारत आये हैं। कोई भी दिल्ली के गफ़्फ़ार मार्किट में इन अफ़ग़ानी सिक्खों से मिल सकता है। आज भी विदेश से हज़ारों हिंदू जो NRI हैं प्रति वर्ष देश की दोहरी नागरिकता ले रहे हैं।

अब इस तर्क पर आइये कि "एक पाकिस्तानी का रोजगार मेरे भारतीय हिन्दू के परिवार में कम से कम 4 जनों को भूखा सुलाने को मजबूर करता है।" यह तर्क स्वीकार कर लिया जाए तो क्या उपरोक्त करोड़ों लोगों ने पहले से बसे हुए हिंदुओं का कारोबार नहीं छीना ? यह तर्क बहुत ख़राब दिशा में जाता है। इसका चरम हर बोली बोलने वाले के हिस्से में भारत का उसकी अपनी बोली वाला हिस्सा लेना यानी भारत के हज़ारों टुकड़े हैं।

ध्यान रहे कि विभाजन के समय सिंध प्रान्त बहुत दुर्गम-दुरूह मरुस्थल था। कराची, नवाबशाह, थट्टा, हैदराबाद, सक्खर, उमरकोट, जैकोबाबाद जैसे नगरों में रहने वाला, सड़कों से जुड़े इलाक़ों में रहने वाला हिंदू समाज पाकिस्तान से भाग कर भारत आ गया मगर दुर्गम क्षेत्रों, गांवों में बसने वाला हिंदू समाज जान ही नहीं सका कि हज़ारों साल से उसके पूर्वजों की धरती गाँधी, नेहरू, मुहम्मद अली जिनाह, मांउटबेटन जैसे दुरात्माओं के राक्षसी षड्यंत्र के कारण उसकी नहीं रही है। उसे तो यह तब पता चला जब नगरों से चल कर तब्लीग़ी मुल्ला उस तक पहुंचे और उस पर हिन्दू धर्म छोड़ कर इस्लाम क़ुबूल करने के लिए दबाव डाला। धर्म न छोडने पर मुसलमानों ने उस पर भयानक अत्याचार किये। उसके बच्चों को जलाया। आप स्वयं सोचें रातों-रात यह दुर्बल-भोला हिंदू अपनी धरती छोड़ कर कैसे आ सकता था ? सबसे बड़ा चाक़ू उसके सीने में ज़िया उल हक़ के इस्लामी शरीयत को पाकिस्तान का राजधर्म बना देने से लगा।

धर्मबंधुओ ! सदैव स्मरण रखिये कि राष्ट्र, देश से धर्म बड़ा होता है। इस्लाम के 46 देशों का उदाहरण देखिये बल्कि स्वधर्म का ही उदाहरण देखिये। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत के अंदर और बाहर 60-70 से अधिक देशों का हिन्दू राष्ट्र होना सम्भावित था। जिसकी केंद्र भूमि भारत को होना था। नेपाल के प्रधानमंत्री राणा, महामना मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर इत्यादि ने इसके लिये प्राण-प्रण से प्रयास किया था। आपकी जानकारी के लिये यह सब हिंदूमहासभा के लोग हैं और उस समय हिंदूमहासभा 46 देशों में सक्रिय थी। उस समय भारत के दो हिस्सों में बंटने की कल्पना नहीं थी बल्कि प्रिंसली स्टेटों के अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में होने की कल्पना थी। कल्पना कीजिये कि यह प्रयास साकार हो गया होता तो भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, सिंगापुर, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मॉरीशस, पाकिस्तान का वर्तमान उमरकोट और न जाने कितने हिन्दू राष्ट्र विश्व पटल पर जगमगा रहे होते। क्या तब भी इन राष्ट्रों के लोगों को हम इन्हीं कड़वे शब्दों से पुकारते जैसे निराश्रित पाकिस्तानी हिंदुओं को पुकार रहे हैं ? विश्व भर के असहाय हिंदुओं का भारत आश्रयस्थल है, पुण्य भूमि है।

कृपया नेट पर Yazidi डालिये। आपको ईराक़-सीरिया के बॉर्डर पर रहने वाली, मोर की पूजा करने वाली जाति के बचे-खुचे लोगों का पता चलेगा। कार्तिकेय के वाहन मोर की पूजा कौन करता है ? Kafiristan डालिये। आपको पता चलेगा कि इस क्षेत्र के हिंदुओं को 1895 में मुसलमान बना कर इसका नाम nuristan नूरिस्तान रख दिया गया है। kalash in pakistan देखिये। आप पाएंगे कि आज भी कलश जनजाति के लोग जो दरद मूल के हैं पाकिस्तान के चित्राल जनपद में रहते हैं। इस दरद समाज की चर्चा महाभारत, मनुस्मृति, पाणिनि की अष्टाध्यायी में है। जिस तरह लगातार किये गए इस्लामी धावों ने अफ़ग़ानिस्तान केवल 150 वर्ष पहले मुसलमान किया, हमें क्यों अपने ही लोगों को वापस नहीं लेना चाहिए ? एक-एक कर हमारी संस्कृति के क्षेत्र केवल 100 वर्ष में धर्मच्युत कर वृषल बना दिए गये। होना तो यह चाहिये था कि हम केंद्रीय भूमि से दूर बसे अपने समाज के लोगों को सबल कर धर्मभष्ट हो गए अपने लोगों को वापस लाने का प्रयास करते। भारत के टूटने का कारण सैन्य पराजय नहीं है बल्कि धर्मांतरण है। हमने अपने समाज की चिंता नहीं की। इसी पाप का दंड महाकाल ने हमारे दोनों हाथ काट कर दिया और हम भारत के दोनों हाथ पाकिस्तान, बांग्लादेश की शक्ल में गँवा बैठे।

जो वस्तु जहाँ खोयी हो वहीँ मिलती है। हमने अपने लोग, अपनी धरती धर्मांतरण के कारण खोयी थी। यह सब वहीँ से वापस मिलेगा जहाँ गंवाया था। इसके लिए अनिवार्य शर्त अपने समाज को समेटना, तेजस्वी बनाना और योद्धा बनाना है। लेख के अगले भाग में महान भरतवंशी पूर्वजों के सम्पूर्ण यूरेशिया में प्रताप के प्रमाण दूंगा। इससे अनुमान लगेगा कि हमें शत्रुओं से पाकिस्तानी हिंदुओं की दुर्दशा का ही नहीं और भी बहुत सारा हिसाब करना है

तुफ़ैल चतुर्वेदी

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

========अनिवार्य हस्तक्षेप======
सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः कट्यां कृतांको निर्वास्यहः स्फिचं वास्यावर्कतयेत :मनु स्मृति, अध्याय 8 श्लोक 281 
जो शूद्र ब्राह्मण के साथ एक आसान पर बैठना चाहे तो राजा उसकी कमर पर दगवा कर उसे देश से निकलवा दे, व उसके चूतड़ कतरवाले। इसी तरह की असह्य बातें मनु स्मृति के श्लोक नम्बर 277, 279, 280, 282, 283 में कही गयी हैं। आप, मैं या कोई भी कोई भी सामान्य मेधा, ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति इस तरह की बातों को सिरे से अनुचित और बुरा बतायेगा। इसी मनुस्मृति में इस प्रकार के श्लोक भी मिलते हैं 

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम क्षत्रियाज्जातमेवम तु विध्याद्वैश्यात्तथैव च :मनु स्मृति अध्याय10 श्लोक 65
ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना वर्ण बदल सकते हैं। 
मनु स्मृति :अध्याय 2  श्लोक 168 जो ब्राह्मण वेदों को न पढ़ कर अन्य अन्य शास्त्रों में ही परिश्रम करता है, वह जीते जी कुटुंब सहित शीघ्र शूद्र बन जाता है। 

यहाँ एक वैदिक ऋषि की चर्चा करना उपयुक्त होगा। ऋषि कवष ऐलूष ने वेद में अक्ष-सूक्त जोड़ा है। अक्ष जुए खेलने के पाँसे को कहते हैं। इस सूक्त में ऋषि कवष ऐलूष ने अपनी आत्मकथा और जुए से जुड़े सामाजिक आख्यान, उपेक्षा, बदनामी की बात करुणापूर्ण स्वर में लिखी है। कवष इलूष के पुत्र थे जो शूद्र थे। ऐतरेय ब्राह्मण बताता है कि सरस्वती नदी के तट पर ऋषि यज्ञ कर रहे थे कि शूद्र कवष ऐलूष वहां पहुंचे। सामाजिक रूप से प्रताड़ित जुआरी कवष ऐलूष को ऋषियों ने यज्ञ में भाग लेने के लिये मना किया और अपमानित कर निष्काषित कर ऐसी भूमि पर छोड़ा गया जो जलविहीन थी। कवष ऐलूष ने उस जलविहीन क्षेत्र में देवताओं की स्तुति में सूक्त की रचना की और कहते हैं सरस्वती नदी अपना स्वाभाविक मार्ग बदल कर शूद्र कवष ऐलूष के पास आ गयीं। सरस्वती की धारा ने कवष ऐलूष की परिक्रमा की, उन्हें घेर लिया। यज्ञकर्ता ऋषि दौड़े-दौड़े आये और शूद्र कवष ऐलूष की अभ्यर्थना की। उन्हें ऋषि कह कर पुकारा। उनके ये सूक्त ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलते हैं। इस घटना से ही पता चलता है कि शूद्र का ब्राह्मण वर्ण में आना सामान्य घटना ही थी। ध्यान रहे कि वर्ण और जातियों में अंतर है। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था और इसे उन्नति या अवनति नहीं समझा जाता था। ये केवल स्वभाव के अनुसार आर्थिक विभाजन था। भारत में वर्ण जन्म से नहीं थे और इनमें व्यक्ति की इच्छा-क्षमता के अनुसार बदलाव होता था। वर्ण-व्यवस्था समाज को चलाने की एक व्यवस्था थी। 

दोनों प्रकार के श्लोक मनुस्मृति और इस तरह के अन्यान्य ग्रन्थों में मिलते हैं। किसे ठीक माना जाये ? स्पष्ट है कि मनुस्मृति वेद से बड़ी और प्रमुख तो नहीं हो सकती अतः निश्चित रूप से मनुस्मृति के यह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। वेद के मूल स्वर के विपरीत वेदांग और स्मृतियाँ नहीं हो सकते और कहीं हैं तो स्वीकार नहीं किये जा सकते। मगर यह तो शास्त्रीय पक्ष है। व्यवहार में बहुत भिन्नता है। व्यवहार का सत्य यह है कि 1978 में अल्मोड़ा के रघुनाथ मंदिर के सामने से एक हरिजन की घोड़े पर निकलती विवाह की यात्रा पर आक्रमण होता है और कई लोगों की हत्या कर दी जाती है। दक्षिण के अनेकों मंदिरों में, नाथद्वारा के मंदिर में आज भी हरिजनों का प्रवेश घोषित रूप से बंद है। यह सच है कि इन मंदिरों में प्रवेश के समय कोई जाति नहीं पूछता मगर ऐसी दुष्ट घोषणा जो वेद-विरोधी, मानवता-विरोधी है कैसे सही जा सकती है ?
गुजरात के ऊना में मृत गौ की खाल उतारने वाले लोगों पर प्राणघाती आक्रमण होता है। यह ठीक है कि गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई के मामले में साजिश खुल गयी है। दलित परिवार ने बताया है कि गांव के सरपंच प्रफुल कोराट ने ही उनकी पिटाई करवाई थी। यह सरपंच लोकल कांग्रेस विधायक का करीबी है। मारपीट का जो वीडियो वायरल हुआ वो सरपंच प्रफुल कोराट के मोबाइल फोन से ही बनाया गया था। सीआईडी के सूत्रों के मुताबिक खुद प्रफुल्ल कोराट भी मारपीट वाली जगह पर मौजूद था। जांच में यह बात भी साफ हो चुकी है कि वीडियो में जो लोग मारपीट करते दिख रहे हैं उनका गोरक्षा समितियों से कोई लेना-देना नहीं है। पुलिस से पूछताछ में भी उन्होंने यह बात कबूली है कि इससे पहले उन्होंने गायों की रक्षा से जुड़े किसी काम में हिस्सा नहीं लिया था। पीड़ित परिवार का आरोप है कि सरपंच की नजर उनके इस्तेमाल में आ रही एक जमीन पर थी। इसे खाली कराने के लिए उसने बालू सरवैया को कई बार धमकियां दी थीं। 

बंधुओ, यह तथ्यात्मक रूप से ही ठीक है मगर पर्याप्त नहीं है। यह पाप कांग्रेस के व्यक्तियों ने किया, जानना भर काफ़ी नहीं है। अन्यथा ऐसा कैसे हो गया कि इस भयानक घटना के विरोध में होने वाली महारैली में विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल, हिन्दू जागरण मंच, आर्य समाज, हिन्दू महासभा जैसे संगठनों के लोग अपने बैनरों के साथ सम्मिलित नहीं हुए। धरातल पर वास्तविकता यह है कि समाज के सारे राष्ट्रवादी संगठनों के अधिकारी, हम सब राष्ट्रवादी मित्तल, त्यागी, पाठक, तोमर, मलिक, अवस्थी, कंसल, यादव, गुप्ता चौधरी, राव, रेड्डी, नायक.........मौन हैं और इस मौन से यही सन्देश जा रहा है कि जय मीम जय भीम का कुटिल नारा लगाने वालों की बात ठीक है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था भयानक रूप से अन्यायी है। यह अपने ही हिस्से को मानव-जीवन के मूल अधिकार भी नहीं देना चाहती। इस सड़न का उपचार नहीं किया जा सकता और उसे छोड़ कर मुसलमान या ईसाई बनना ही उपयुक्त है। 
हम संगठनों को प्रेरित करें यह आवश्यक है मगर अपने स्तर पर ईमानदारी से अपने दिल पर हाथ रख कर सोचिये। क्या आपने कभी अपने घर में सफ़ाई के लिये आने वाली मेहतरानी को, सड़क पर झाड़ू लगाने वाले व्यक्ति को उसी प्याले में चाय पिलायी है जिसमें आप पीते हैं ? गर्मी में घर में आये इस अन्त्यज को अपने वाले गिलास से ठंडा पानी पिलाया है ? आपके जूते की मरम्मत करने वाले गरीब को भाई की दृष्टि से देखा है ? जब आपके नगर के दलित बंधु अंबेडकर जी की शोभा-यात्रा निकलते हैं तो उसमें भगवा पटका गले में डाल कर हर हर महादेव के नारे लगते हुए अग्रणी पंक्ति में निकलने की सोची है ? आख़िर अम्बेडकर जी वही महापुरुष हैं जिन्होंने इस्लामियों के प्रबल लालच के बाद भी मुसलमान बनने की जगह बौद्ध बनना तय किया। जिनके कारण दलित बंधु मुसलमान नहीं बने। 

बंधुओ , यह व्यवहार अक्षम्य है। यह घोर पाप है। अपने बंधुओं के साथ यह व्यवहार न केवल हमें बल्कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज को कम्भीपाक नर्क में सड़ायेगा। हर हिन्दू को इसका हर प्रकार से विरोध करना चाहिये। आज हम यह नहीं कह सकते कि हम विरोध कैसे करें। टीवी, समाचारपत्र हमारी बात नहीं प्रसारित करते। हमारे पास सोशल मीडिया का सहारा है। हमें इस पर अपनी आवाज़ ऊँची करनी चाहिए। सारे भारत में ज़ोरशोर से यह सन्देश जाना ही चाहिये कि हिन्दू समाज ऐसी हर घटना का विरोध कर रहा है।
तुफ़ैल चतुर्वेदी